किसान आन्दोलन के आह्वान पर मिट्टी सत्याग्रह यात्रा
सामाजिक-सांस्कृतिककिसान आन्दोलन ने जनता के विभिन्न तबकों की चेतना उन्नत करने और आन्दोलन में उनकी भागीदारी बढ़ाने के लिए नए–नए सृजनशील तौर तरीके विकसित किये हैं। संघर्ष के उन्हीं रूपों में एक है–– मिट्टी सत्याग्रह यात्रा, जो नमक कानून के विरोध में राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी द्वारा निकाली गयी दाण्डी यात्रा से प्रेरित है।
तीन कृषि कानूनों के खिलाफ किसान आन्दोलन के समर्थन में देश भर में यह यात्रा निकाली गयी, जिसके माध्यम से इन किसान विरोधी कानूनों को रद्द करने, सभी कृषि उत्पादों की एमएसपी पर सरकारी खरीद की गारंटी, बिजली संशोधन बिल की वापसी जैसे मुद्दों पर लोगों में जागरूकता पैदा की गयी। 12 मार्च को देश के विभिन्न राज्यों से शुरू हुई यह यात्रा 5 और 6 अप्रैल को दिल्ली की सीमाओं पर किसानों के धरना स्थल पर पहुँची। दिल्ली के सभी बॉर्डर पर जहाँ किसानों का आन्दोलन चार महीने से भी ज्यादा समय से चल रहा है, शहीदों की याद में शहीद स्मारक बनाया जा रहा है।
संयुक्त किसान मोर्चा के अनुसार इस यात्रा के दौरान देश भर से 23 राज्यों से 1500 गाँवों से घड़े में मिट्टी भरकर किसान संगठनों के साथी दिल्ली ले आये। यात्रा में लाये गये इन घड़ों में प्रमुख रूप से शहीद भगत सिंह के गाँव खटखट कलाँ, शहीद सुखदेव के गाँव नौघरा जिला लुधियाना, उधमसिंह के गाँव सुनाम जिला संगरूर, शहीद चन्द्रशेखर आजाद की जन्म स्थली भाभरा, झाबुआ, की मिट्टी शामिल है। इसके अलावा असम के शिवसागर, पश्चिम बंगाल के सिंगूर और नन्दीग्राम, कर्नाटक के वसव कल्याण और बेलारी, अहमदाबाद के साबरमती आश्रम, बारदोली के ऐतिहासिक किसान आन्दोलन की धरती, दल्ली राजहरा के शहीद शंकर गुहा नियोगी सहित 12 शहीदों के स्मारक स्थल की मिट्टी, छत्तीसगढ़, बस्तर के भूमकाल आन्दोलन के नेता शहीद गुण्डाधुर ग्राम नेतानार, धमतरी जिला के नहर सत्याग्रह की धरती कण्डेल की मिट्टी, मुलताई की मिट्टी जहाँ 24 किसानों की गोली लगने से शहादत हुई, मन्दसौर में 6 किसानों के शहादत स्थल की मिट्टी भी लायी गयी। इस यात्रा में महाराष्ट्र के 150 गाँव, राजस्थान के 200 गाँव, आंध्र प्रदेश तथा तेलंगाना के 150 गाँव, गुजरात के 800 गाँव, उत्तर प्रदेश के 75 गाँव, बिहार के 30 गाँव, हरियाणा के 60 गाँव, पंजाब के 78 गाँव से मिट्टी आयी।
शहीदों की याद में मिट्टी यात्रा का एक और कार्यक्रम 23 मार्च को भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव के शहादत दिवस पर भी आयोजित किया गया। मीलों की यात्रा करके पंजाब के नौजवानों का जत्था दिल्ली के सिंघु बोर्डर पर संयुक्त किसान मोर्चा के मंच पर पहुँचा। वे अपने साथ आठ ऐतिहासिक स्थानों की मिट्टी घड़े में भर कर लाये थे। किसानों की जिन्दगी में मिट्टी की अहमियत हमेशा ही सबसे ज्यादा रही है, जिसे शहीद दिवस के इस आयोजन के माध्यम से एक नया अर्थ प्रदान किया गया। यात्रा में शामिल युवा किसान कार्यकर्ताओं का कहना था कि जुल्म के खिलाफ लड़ते हुए कुर्बान होनेवाले शहीदों के गाँवों की मिट्टी हमें शोषण–उत्पीड़न करनेवालों से संघर्ष की प्रेरणा और साहस देती है। यह विचार सुदूर गाँवों के किसान कार्यकर्ताओं के मन में आया, जिन्होंने इसे व्यवहारिक रूप दिया।
भगत सिंह, सुखदेव थापर और शिवराम हरि राजगुरु की तस्वीरें मंच पर लगायी गयी थीं, जहाँ मिट्टी से भरे घड़े रखे जा रहे थे।
इन महान स्वतंत्रता सेनानियों को जब 23 मार्च, 1931 को लाहौर की केंद्रीय जेल में अंग्रेजों द्वारा फाँसी पर लटका दिया गया था, तब उन सब की उम्र 20 से 30 साल के बीच थी। उनके शवों को चुपके से अंधेरी रात में हुसैनीवाला गाँव लाकर अंग्रेज सरकार द्वारा आग की लपटों के हवाले कर दिया गया था। 1968 में, पंजाब के फिरोजपुर जिले में सतलुज नदी के किनारे पर हुसैनीवाला राष्ट्रीय शहीद स्मारक बनाया गया था। यही वह जगह है जहाँ उनके क्रान्तिकारी सहयोगी बटुकेश्वर दत्त का भी अन्तिम संस्कार किया गया था और भगत सिंह की माँ विद्यावती का भी। सिंघू मंच पर लाये गये पहले घड़े में वहीं की मिट्टी थी।
जिस समय भगत सिंह को फाँसी दी गयी थी, उनकी जेब में एक अन्य वीर स्वतंत्रता सेनानी करतार सिंह सराभा की तस्वीर थी, जो एक पत्रकार और गदर पार्टी के प्रमुख सदस्य थे, जिन्हें 1915 में 19 साल की उम्र में अंग्रेजों ने फाँसी दी थी। उन्हीं के जन्म स्थल, पंजाब के लुधियाना जिले के सराभा गाँव से मिट्टी का दूसरा घड़ा आया था।
भगत सिंह 12 साल की उम्र में, अमृतसर के जलियाँवाला बाग गये थे जहाँ ब्रिटिश सेना के ब्रिगेडियर जनरल रेजिनाल्ड डायर के आदेश पर 13 अप्रैल, 1919 को 1,000 से अधिक निहत्थे लोगों का नरसंहार किया गया था। भगत सिंह ने जलियाँवाला से खून से सनी मिट्टी अपने गाँव ले गये। उन्होंने अपने दादाजी के बगीचे में वह मिट्टी डाली और उस पर फूल उगाया था। तीसरा घड़ा जो सिंघू बोर्डर पर आया, वह इसी बाग का था।
मिट्टी का चैथा घड़ा संगरूर जिले के सुनाम से आया जो शहीद उधम सिंह का गाँव है–– जिन्होंने 13 मार्च, 1940 को लन्दन में माइकल फ्रांसिस ओ डायर की हत्या की थी और ब्रिटिश अदालत में मुकदमे के दौरान अपना नाम बदलकर मोहम्मद सिंह आजाद कर लिया था। ओ डायर ने पंजाब के उपराज्यपाल के रूप में, जलियाँवाला में डायर की कार्रवाई का समर्थन किया था। 31 जुलाई, 1940 को लन्दन के पेंटोनविले जेल में उनको फाँसी दी गयी थी। 1974 में, उनके अवशेषों को भारत लाया गया और उनके पैत्रिक गाँव सुनाम में अन्तिम संस्कार किया गया।
पाँचवा घड़ा फतेहगढ़ साहिब से आया, जहाँ 26 दिसम्बर, 1704 को गुरु गोबिन्द सिंह के छोटे बेटे, पाँच वर्षीय बाबा फतेह सिंह और सात वर्षीय बाबा जोरावर सिंह को सरहिन्द के मुगल गवर्नर वजीर खान के आदेश पर जिन्दा दीवार में चिन दिया गया था।
छठे घड़े की मिट्टी गुरुद्वारा कत्लगढ़ साहिब से लायी गयी, जो पंजाब के रूपनगर जिले के चामकौर शहर में स्थित है। यहाँ गुरु गोबिन्द सिंह के दो बड़े बेटे–– 17 वर्षीय अजीत सिंह और 14 वर्षीय जुझार सिंह मुगलों के खिलाफ लड़ाई में शहीद हुए थे।
सातवाँ घड़ा पंजाब के रूपनगर जिले के आनन्दपुर साहिब का था जहाँ खालसा पंथ की स्थापना हुई थी। खालसा का अर्थ है श्शुद्धश् जो 1699 में गुरु गोबिन्द सिंह द्वारा स्थापित सिख धर्म के भीतर एक विशेष पंथ है, जिनके योद्धाओं का कर्तव्य अत्याचार और उत्पीड़न से निर्दाेष लोगों की रक्षा करना था।
आठ घड़ों की उस कतार का अन्तिम घड़ा पंजाब के शहीद भगत सिंह नगर जिले में बंगा शहर के बाहर भगत सिंह के पैतृक गाँव खटकर कलाँ से लाया गया था। यात्रा में शामिल भगत सिंह के भतीजे अभय सिंह ने कहा कि भगत सिंह का लक्ष्य एक व्यक्ति द्वारा दूसरे व्यक्ति का और एक राष्ट्र द्वारा दूसरे राष्ट्र का शोषण समाप्त होने तक क्रान्ति को जारी रखना था। दिल्ली के बॉडर पर चल रहा किसानों का आन्दोलन इसी विचार को आगे बढ़ा रहा है।
यात्रा में शामिल किसान कार्यकर्ताओं का कहना था कि यह सरकार इन कृषि कानूनों को केवल बड़े निगमों द्वारा हमारी जमीन और रोजी–रोजगार पर कब्जा जमाने का रास्ता साफ करने के लिए ला रही है। जो लोग केंद्र के फरमान को नहीं मानते हैं, उन्हें यह सरकार सलाखों के पीछे भेज देती है। हम केवल तीन कृषि कानूनों के खिलाफ ही नहीं, बल्कि निगमों के खिलाफ भी लड़ रहे हैं। हमने अतीत में अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई लड़ी है। उनके सहयोगियों के साथ भी हम लड़ेंगे।
युवा किसान कार्यकर्ताओं का मानना है कि क्रान्तिकारियों ने अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई लड़ी थी जो एक दमनकारी और क्रूर शासन था। बात यह नहीं है कि अंग्रेज यहाँ से चले गये, समस्या यह है कि अत्याचारी शासन आज तक कायम है। भगत सिंह और उनके क्रान्तिकारी साथियों का मानना था कि उनकी लड़ाई सिर्फ गोरे अंग्रेजों के खिलाफ ही नहीं, बल्कि उनके सहयोगी काले अंग्रेजों के भी खिलाफ है। इसलिए आज उन स्वतंत्रता सेनानियों के बलिदान से समृद्ध मिट्टी को अपने लिए प्रेरक मानते हुए अपने संवैधानिक अधिकारों की हिफाजत करना और उनके सपनों को पूरा करने की लड़ाई जारी रखना एक अनिवार्य राजनीतिक कर्तव्य बन गया।
किसान आन्दोलन की ऐतिहासिक विशिष्टता यही है कि इसने संघर्ष के नये–नये तरीकों को जन भावना के साथ समन्वित किया है। दुनिया के इतिहास में आज तक महिला दिवस के आयोजन में इतनी भारी तादाद में महिलाओं की भागीदारी पहले कभी नहीं हुई, जितनी दिल्ली टिकरी बोर्डर पर सम्पन्न कार्यक्रम में हुई। शहीदों की विरासत को आगे बढ़ने के लिए आयोजित मिट्टी सत्याग्रह यात्रा भी इसी सृजनशीलता का एक और उदहारण है। इसके साथ ही इस आन्दोलन ने सामुदायिक और सामूहिक संस्कृति का अनुपम उदहारण प्रस्तुत किया है। मौजूदा नवउदारवादी दौर में चरम व्यक्तिवाद, खुदगर्जी, गलाकाट प्रतियोगिता जैसी जिन पाशविक प्रवृतियों को बढ़ावा दिया गया है, उनके जवाब में किसानों ने आपसी सहयोग, भाईचारा और नि:स्वार्थ सेवा का मिसाल कायम किया है।
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