कोरोना महामारी के दौरान शहरों से वापस अपने गाँव लौट रहे मजदूरों के सैलाब को अपनी आँखों से नहीं भी, तो मीडिया के मार्फत हम सब ने देखा। कोई इनकी संख्या तीन करोड़ बताता है, कोई 13 करोड़। सही संख्या चाहे जो हो लेकिन यह तय है कि ये सभी लोग मेहनत–मजदूरी करके कमाने वाले लोग हैं। अपनी और अपने परिवार की चिन्ता में मजदूर गाँव में चले तो गये थे, लेकिन वहाँ उनकी जीविका का कोई इन्तजाम नहीं था। मजबूरन उन्हें जल्दी ही उन शहरों की ओर लौटना पड़ा जहाँ नाममात्र के ही काम बचे हैं और महामारी का खतरा पहले से कहीं ज्यादा है।

मार्च में लॉकडाउन के तुगलकी फरमान ने मजदूरों को उन्हीं गाँवों की ओर वापस धकेल दिया जिन्हें छोड़कर वे शहर आये थे। इससे पहले गाँव से शहर की ओर हुए पलायन की तमाम वजहों में सबसे महत्त्वपूर्ण थी मजदूरी की दर। आँकडे बताते हैं कि शहरों में मजदूरी गाँव से 40 प्रतिश्त ज्यादा है। इसके साथ ही काम मिलने की सम्भावना अधिक होने के चलते मजदूर की आय में 2–5 गुणा तक की बढोतरी की सम्भावना रहती है। पिछले कई सालों से गाँव में संकट बढ़ रहा था। खेती, जहाँ अधिकतर मजदूर काम पाते हैं, इससे होने वाली आय लगातार घट रही थी। इसकी सीधी मार ग्रामीण आय पर पड़ी। नतीजन गाँव में उपभोक्ता सामानों की खपत लगातार घट रही थी। कोरोना से पहले 2019 की दूसरी छमाही में अर्थशास्त्रियों ने इस पर चिन्ता व्यक्त की थी।

मनरेगा कार्यक्रम का एक प्रमुख उद्देश्य ग्रामीण मजदूरों के लिए रोटी की गारण्टी करना भी था। खेती में घट रही आय के जानलेवा प्रभाव से ग्रामीण मजदूरों को राहत देने के लिए जरूरी था कि सरकार लगातार मनरेगा का विस्तार करती और इसमें दी जाने वाली मजदूरी की दर को बढ़ाती। लेकिन भाजपा सरकार आने के बाद मनरेगा के लिए जारी रकम में कटौती की गयी। इस साल कोरोना के दौरान मई में इस रकम में बढ़ोतरी हुई लेकिन उसका असर कई महीनों बाद दिखायी देगा इससे पहले ही शहरों से मजदूरों की वापसी के चलते ग्रामीण रोजगार पर दबाव कई गुणा बढ़ गया था। बढ़ायी गयी रकम उस दबाव को झेलने के लिए भी नाकाफी है।

ग्रामीण मजदूरों का एक बड़ा हिस्सा रीयल स्टेट या इमारत निर्माण के क्षेत्र में मौसमी मजदूरी करता है। यह क्षेत्र भी कोरोना के काफी पहले से संकट ग्रस्त था। इससे ग्रामीण मजदूरों की आय में गिरावट जारी थी। कोरोना महामारी ने इसे पूरी तरह ठप्प कर दिया, यानी ग्रामीण रोजगार पर भयावह संकट।

गाँवों में रोजगार के भारी संकट पर शहरों से लौटे मजदूरों के पहाड़ जैसे बोझ को भी लाद दिया जाये, और कल्पना कीजिए लॉकडाउन में ग्रामीण क्षेत्र में रोजगार की हालत के बारे में।

मजदूरों के गाँव में लौटने पर एक ही काम हुआ, उन्होंंने गाँव के कुलकों, साहूकारों से 10 फीसदी माहवार (120 फीसदी सालाना) की ब्याज दर से कर्ज लेकर रोटी खायी। अब गाँव के साहूकारों को और ज्यादा अमीर बनाकर और अपने परिवार पर भयावह ब्याज दर का भारी बोझ डालकर मजदूर फिर से शहर लौट रहे हैं। शहरी क्षेत्र में रोजगार की हालत भी ग्रामीण क्षेत्र से ज्यादा अलग नहीं है। राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण (एनएसएसओ) के अनुसार कोरोना महामारी से दो साल पहले ही 2017–18 में भारत में बेरोजगारी की दर ने पिछले 45 सालों का रिकॉर्ड तोड़ दिया था। कोरोना से ठीक पहले 2020 के शुरुआती तीन महीनों में यह और भी ज्यादा बढ़कर 9 प्रतिशत तक पहुँच गयी थी। कोरोना काल में तो सरकार ने लॉकअन करके खुद ही सब कुछ बन्द कर दिया।

इसमें भारत का कितना हिस्सा है यह बता पाना तो अभी मुश्किल है लेकिन भारत, पाकिस्ता, श्रीलंका, बांग्लादेश (दक्षिण एशिया) में पिछले तीन महीनों में लगभग 13–5 करोड़ लोगों की नौकरियाँ छूटी हैं। अगर परिवार में सदस्यों की संख्या को 5 माना जाये तो लगभग 68 करोड़ लोगों की जीविका उजड़ गयी है। इसमें भारत का हिस्सा आधे से ज्यादा है। हालाँकि इसमें भी दिहाड़ी मजदूरों की संख्या को शामिल नहीं किया गया है।

मनीकण्ट्रोल के अर्थशास्त्री एम सरस्वती की एक रिपोर्ट बताती है कि 24 मार्च को लॉकडाउन के बाद भारत में 1 करोड़ से अधिक लोगों को नौकरी से निकाल दिया गया। यह संख्या 2008–2009 के वित्तीय संकट में नौकरी से निकाले गये लोगों की संख्या से लगभग दो गुनी है।

सीएमआईई के अनुसार अप्रैल 2020 में 1–77 करोड़ वेतन भोगी कर्मचारी अपनी नौकरियों से निकाल दिये गये हैं। यह संख्या पूरे देश के कुल सरकारी कर्मचारियों की संख्या से ज्यादा है। अगले ही महीने मई में और 10 लाख लोगों को नौकरी से निकाला गया।

अगले महीने जून में 40 लाख नौकरियाँ वापस आयीं, जिससे लगा कि अब धीरे–धीरे अर्थव्यवस्था रफ्तार पकड़ रही है, लेकिन सीएमआईई का अनुमान है कि अप्रैल से जुलाई के बीच कुल मिलाकर 1–89 करोड़ से अधिक लोग बेरोजगार हुए हैं। इस आँकडे़ में भी दिहाड़ी मजदूरों की संख्या शामिल नहीं है।

पूँजीपतियों के संगठन सीआईआई की रिपोर्ट में कहा गया है कि लॉकडाउन के चलते 52 प्रतिश्त नौकरियाँ खत्म या प्रभावित हुई हैं। इसके बाद 11 जुलाई 2020 को भारत सरकार ने नौकरी के लिए एक वेबसाइट पोर्टल लांच किया पर इसकी भी हालत हमारी व्यवस्था की ही तरह ढुलमुल दिखाई दे रहा है।

वरिष्ट बिजनेस पत्रकार पूजा मेहरा का कहना है कि “लॉकडाउन का सबसे ज्यादा असर अनौपचारिक क्षेत्र पर पड़ा है।” इस क्षेत्र का हमारी सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में 50 प्रतिशत हिस्सा है और इस क्षेत्र में कुल कामगारों के 90 फीसदी से ज्यादा लगे हुए हैं। इस क्षेत्र का अधिकतर कामकाज अभी ठप्प पड़ा है। जो चल रहा है जैसे रिक्शा, ऑटो, फल–सब्जी बेचने वाले, रेहड़ी–खोमचा लगाने वाले उनकी आमदनी में 70 प्रतिशत तक की गिरावट आयी है।

अब लॉकडाउन खुलने का चैथा चरण शुरू हो चुका है लेकिन अधिकतर काम धन्धों की ऐसी स्थिति नहीं है कि वे खड़े होकर अपने कदमों पर चल सकें। खासतौर पर असंगठित क्षेत्र के छोटे–छोटे काम–धन्धें में रोजगार पाने वाले अधिकतर मजदूर अपने परिवार को गाँव में ही छोड़कर शहर वापस लौट आये हैं। यहाँ भी मुस्तकिल काम नहीं है। इन मजदूरों की भारी संख्या रेलवे स्टेशनों, फुटपाथों और फ्लाइओवर के नीचे दिन काट रही है। दूसरी ओर, गाँव में परिवार पर 120 प्रतिशत की ब्याज दर का कर्ज राकेट की रफ्तार से बढ़ता जा रहा है। सीएमआईई के अनुसार अप्रैल व मई 2020 में बेरोजगारी की दर बढ़कर क्रमश: 23–52 प्रतिशत, 23–48 प्रतिशत तक जा पहुँची। अन्तरराष्ट्रीय श्रम संगठन (आईएलओ) के अनुसार इस साल की पहली तिमाही में दुनिया में करीब 18–5 करोड़ लोगों को उनकी नौकरियों से निकाल दिया गया था जिसमें दिहाड़ी मजदूर शामिल नहीं हैं। दूसरी तिमाही (अप्रैल से जून) में जितना काम ठप्प हुआ वह 48 करोड़ नौकरियाँ जाने के बराबर है।

हाल ही में सरकार ने बताया कि गाँव की ओर लौटने के दौरान कितने मजदूरों की मौत हुई, कितने अपाहिज हुए, इसका कोई आँकड़ा उसके पास नहीं है। बेरोजगारी की इस भयावह स्थिति को देखते हुए गाँव से रोजगार की तलाश में दुबारा शहर की ओर आने वाले मजदूरों की स्थिति क्या होगी, यह कल्पना करना मुश्किल है।

–– आशू वर्मा