कुछ महीने पहले रिजर्व बैंक ऑफ इण्डिया (आरबीआई) ने 11 सरकारी बैंकों को त्वरित सुधारात्मक कार्रवाई (पीसीए) सूची में डाला था क्योंकि इन बैंकों की गैर–निष्पादित सम्पदा (एनपीए) लगातर बढ़ती जा रही है, यानी इन बैंकों के बड़े कर्जों के वापस आने की रफ्तार लगभग बन्द हो चुकी है या न के बराबर है। पीसीए के तहत इन बैंकों पर लोन देने पर रोक लगा दी गयी है। ये बैंक डूबने के कगार पर हैं। लोन न देने की सूची में इलाहबाद बैंक, यूनाइटेड बैंक ऑफ इण्डिया, कॉरपोरेशन बैंक, आईडीबीआई बैंक, यूको बैंक, बैंक ऑफ इण्डिया, सेन्ट्रल बैंक ऑफ इण्डिया, इंडियन ओवरसीज बैंक, ओरियंटल बैंक ऑफ कोमर्स, बैंक ऑफ महाराष्ट्र और देना बैंक शामिल हैं। अभी इन बैंकों की हालत ठीक नहीं हुई कि आरबीआई अन्य 6 बैंकों को इस सूची में शामिल करने जा रही है जिनमें बैंक ऑफ इण्डिया और सिंडिकेट बैंक के साथ देश के दूसरे सबसे बड़े सार्वजनिक बैंक पीएनबी का भी नाम शामिल है। आरबीआई के अनुसार इन सभी में से केवल चार सरकारी बैंकों का ही घाटा 12,154.21 करोड़ रुपये तक पहुँच गया है, जिसमें कैनरा बैंक का 4,860 करोड़, ओरियन्टल बैंक का 1,650 करोड़, यूको बैंक का 2,134 करोड़ और इलाहबाद बैंक का 3,509 करोड़ रुपये है। सरकार की योजना थी कि छोटे बैंकों के ब्याज–मुक्त कर्ज बड़े बैंकों को बेच दिया जाये। लेकिन हालत यह है कि बड़े बैंक अपना कर्ज वसूलने में भी असमर्थ हैं और खुद ही डूबने के कगार पर हैं। ऐसे में छोटे बैंकों को बन्द करना पड़ सकता है।

आरबीआई 44 बैंकों के 292 मामलों की सीबीआई जाँच करवा रही है, जिसमें यूको बैंक के एमडी, इलाहबाद बैंक के सीईओ और पीएनबी बैंक के 10 अधिकारियों के खिलाफ कार्रवाई हुई है। पहले से ही बाँटे गये कर्जों की वसूली न होने के बावजूद इन्हांेने बड़े–बड़े पूँजीपतियों को एक सीमा से ज्यादा कर्ज बाँटे हैं। इसके चलते हाल ही में पीएनबी में बड़ा घोटाला हुआ है। मार्च 2018 में कर्ज को वसूलने की दर 6.7 फीसदी रही है जो पिछले 55 सालों में जमा रुपये की सबसे कम दर है।

एनपीए में वह कर्ज डाला जाता है जिसकी वसूली की उम्मीद न के बराबर हो। वसूली न होने वाले कर्ज ज्यादातर छोटे–बड़े व्यापारियों, पूँजीपतियों और अमीर किसानों के हैं। कांग्रेस सरकार के समय में एनपीए 2.25 लाख करोड़ रुपये था जो अब भाजपा सरकार के समय में बढ़कर 9 लाख करोड़ रुपये हो गया है। एनपीए खाते में बढ़ते कर्ज के मामले में भाजपा सरकार की रफ्तार कांग्रेस सरकार के मुकाबले 4 गुना ज्यादा है। इसका मतलब वर्तमान सरकार ने ऐसे लोगों को ज्यादा कर्जे बाँटें हैं, जिनसे वसूली की आशा कम है। दरअसल सरकार चाहती है कि देशी–विदेशी पूँजीपतियों को बेशुमार और बेलगाम मुनाफा हो। सरकार के ऐसे रवैये के चलते बैंकिंग प्रणाली तबाह होने की स्थिति में आ गयी है।

अब इन बैंकों के कर्जे की भरपाई के लिए ऐसे कानून बनाये गये हैं जिनसे जनता की गाढ़ी कमाई बैंकों के पास और तेजी से आ सके, जैसे–– खाता धारक द्वारा एटीएम से एक महीने में तीन बार से ज्यादा पैसे निकालने के बाद या दूसरे बैंक के एटीएम से पैसे निकालने पर, हर निकासी पर 23 रुपये काट लिये जाते हैं। खाते में तय राशि से कम रुपये रखने पर जुर्माना वसूल लिया जाता है। ऐसे कानून खाते में जमा लोगों के रुपयों को लूटने की साजिश है। कई बैंकों ने ऐसे जुर्माने के जरिये अरबों रुपये की वसूली की है।

कर्ज की वसूली न होने का असर बैंक कर्मियों पर भी पड़ रहा है। उन पर बीमा पॉलिसी बेचने और म्यूचुअल फंडों में रुपये जमा करने के लिए दबाव बनाया जा रहा है। उनके काम के घंटों को बढ़ाया जा रहा है। बैंकों की बिगड़ती हालत का असर उन बेरोजगार नौजवानों पर पड़ रहा है जो बैंकों में नौकरी करने के सपने देख रहे हैं, क्योंकि बैंक कर्मियों की भर्तियाँ लगभग बन्द हैं। 

बैंकों की बिगड़ती हालत का एक मुख्य कारण बैंकों में बढ़ता भ्रष्टाचार है। एक ब्योरे के मुताबिक बैंकों में 28 बड़े घोटाले हो चुके हैं जिनके चलते बैंकों को 36,000 करोड़ रुपया प्रति घोटाला के हिसाब से नुकसान हुआ है। पिछले कुछ सालों में अचानक घोटालों की बाढ़ सी आ गयी है। इससे बैंकों की छवि खराब हो गयी है। दूसरा कारण, राजनीतिक पहुँच के चलते बिना सही छानबीन के कर्ज देना है। ऐसे कर्जदारों का बैंक से रुपये लेकर देश से भागने का एक सिलसिला चल पड़ा है जो रुकने का नाम नहीं ले रहा है।

सरकार फाइनेंशियल रेजोल्युशन एंड डिपॉजिट इंश्योरेंस के नाम से एक कानून ला रही थी। लेकिन जनता के भारी दबाव के कारण इसे वापस लेना पड़ा। इस कानून के अनुसार सार्वजनिक बैंक के दिवालिया होने या डूब जाने की स्थिति में, बैंक तय करेगा कि खाताधारकों के जमा धन में से कितना वापस करना है और कितना नहीं। पूँजीपतियों द्वारा कर्ज वापस न करने और बैंक के घाटे में जाने की कीमत आम जनता को चुकानी पड़ रही है। उनका धन सरकार इन बैंकों को उबारने के नाम पर बैंकों को दे रही है। इसे ही कहते हैं–– मुनाफा निजी, घाटा सार्वजनिक।

––संजीव तोमर