128वें संविधान संशोधन के तहत लोकसभा, विधान परिषद और विधान सभा में महिलाओं के लिए एक–तिहाई सीटों पर आरक्षण का कानून पास हो गया। इसे लेकर केन्द्रीय कानून मन्त्री ने नया शिगूफा छोड़ा है कि यह महिलाओं के सशक्तिकरण लिए है। यह लोक लुभावना मुद्दा असल में महिलाओं के सशक्तिकरण लिए न होकर मात्र एक चुनावी जुमला भर है क्योंकि इसे लागू करने के लिए 2024 के बाद का समय निर्धारित किया गया है। ध्यान दीजिए–– 2024 के बाद, कब? नहीं पता!

हम जानते हैं कि 2014 के चुनाव में भाजपा सरकार ने जो 15 लाख हर खाते में देने का वादा किया था, उसके बारे में एक साक्षात्कार में पूछे जाने पर अमित शाह ने हँसते हुए, उसे एक चुनावी जुमला बताया था। ठीक उसी तरह का एक और चुनावी जुमला आने वाले चुनाव के लिए जनता की ओर उछाल दिया गया है–– लोकसभा, विधान परिषद और विधान सभा में महिलाओं के लिए आरक्षण।

हालाँकि यह कानून लागू होने के बाद भी महिलाओं की स्थिति में कितना सुधार होगा यह बताना बहुत आसान है। जैसे संसद और विधान सभाओं में पुरुष नेताओं की संख्या अधिक होने के बावजूद किसान–मजदूर पुरुषों को देश में नरक जैसी जिन्दगी बितानी पड़ रही है। उसी तरह इस कानून के बाद भी आम महिलाओं की आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक आजादी और सुरक्षा पर कोई फर्क नहीं पड़ेगा। अगर सरकार वास्तव में आम महिलाओं को लेकर चिन्तित होती तो संसद और विधान सभाओं में कुछ महिलाओं को आरक्षण देने तक सीमित नहीं होती। इसलिए उसके पास आम महिलाओं के लिए न कोई योजना है, न ही उनकी भलाई की कोई नीयत है!

हम कैसे भूल सकते हैं देश की महिला पहलवानों का दिल्ली की सड़कों पर इसी साल का संघर्ष जो उन्होंने भाजपा के आपराधिक और दबंग नेता के खिलाफ अपनी आवाज दर्ज करवाने के लिए महीनों तक किया। इसी सरकार ने देश की होनहार बेटियों पर तोहमतें लगायी और उन्हें प्रशासन ने सरेआम सड़कों पर घसीटा। एक विधायक कुलदीप सेंगर को बचाने के लिए नेता द्वारा यौन शोषण की शिकार लड़की के लगभग पूरे परिवार को खत्म कर दिया गया। महीनों से जल रहे मणिपुर में महिलाओं के साथ रूह कँपा देने वाली बर्बरता पर भी जिस सरकार का दिल नहीं पसीजा, बिलकिस बानो के दुराचारियों का रिहाई के बाद स्वागत–सत्कार फूल मालाओं के साथ करने वाली उसी सरकार के मुँह से महिला सशक्तिकरण की बातें न सिर्फ ढकोसला लगती हैं, यह इसकी निर्लज्जता को भी दिखाती हैं।

जिस देश में ज्यादातर महिलाएँ अपनी नौकरी का निर्णय नहीं ले सकतीं, जहाँ किसी भी धर्म, वर्ग और उम्र की महिला बाहर ही नहीं, घर पर भी सुरक्षित नहीं है, वहाँ राजनीतिक पदों पर बैठी महिलाओं के पास अपना मत जाहिर करने की कितनी आजादी और मंशा होगी, समझना मुश्किल नहीं है।

जब भाजपा के ही एक नेता ने महिला नेताओं पर अभद्र टिप्पणी करते हुए कहा कि महिलाएँ राजनीति में कैसे आगे बढ़ती हैं, यह सबको पता है। खुद पर हुए ऐसे अश्लील कटाक्ष पर भी भाजपा की किसी महिला नेता का कोई बयान नहीं आया, किसी ने कोई विरोध नहीं किया। तय है कि महिलाओं की दोयम दर्जे की स्थिति पर सिर्फ राजनीतिक आरक्षण से कोई प्रभाव नहीं पड़ने वाला, जब तक कि उन्हें आर्थिक और सामाजिक सुरक्षा प्रदान नहीं की जाये। सरकार के इस वायदे पर मरहूम राहत इन्दौरी साहब की एक कविता सटीक बैठती है–

झूठों ने झूठों से कहा है–– सच बोलो

सरकारी ऐलान हुआ है–– सच बोलो

घर के अन्दर तो झूठों की एक मंडी है

दरवाजे पर लिखा हुआ है–– सच बोलो!
–– अपूर्वा तिवारी