राजस्थान का बंसवाड़ा जिला, जो नदियों से सिंचित एक हरी–भरी घाटी है, जहाँ की ज्यादातर आबादी गरीब आदिवासी है जो प्रकृति के साथ तालमेल बिठाकर सालों से वहाँ रहती आयी है, वहाँ पिछले कई दिनों से स्थानीय लोग विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं। सरकार के मनमाने फैसलों ने शान्तिपूर्ण जीवन जी रहे आदिवासियों को भी विरोध के लिए उतरने पर मजबूर कर दिया है। यह विरोध वहाँ लगने वाले ‘माही परमाणु पावर प्लाण्ट’ के खिलाफ हो रहा है।

इस 2800 मेगावॉट के संयंत्र को लगाने के लिए सरकार द्वारा राजस्थान के बारी, सजवानिया, रेल, खड़ियादेव, आड़ीभीत और कुटुम्बी गाँवों की जमीनों का अधिग्रहण किया जाना है, जिसके चलते इन गाँवों में निवास कर रहे करीब 3000 लोगों को विस्थापित होना पड़ेगा। ये आदिवासी गाँवों के प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग करके अब तक अपना जीवन–यापन करते रहे हैं। विस्थापन के बाद नया घर, नया काम और नया जीवन शुरू करने के लिए सरकार द्वारा किया जा रहा प्रयास न सिर्फ अपर्याप्त है, झूठ पर टिकी सरकार के पिछलेे रिकॉर्ड को देखते हुए भरोसे के लायक भी नहीं है।

सरकार के अनुसार ग्रामीणों को 553 हेक्टेयर जमीन के एवज में 413 करोड़ का मुआवजा दिया जा चुका है और गाँव के दूसरे इलाकों में प्रति परिवार 60 हेक्टेयर के हिसाब से जमीनें देने के लिए चिन्हित की जा चुकी हैंं। वहीं गाँव वालों का कहना है कि मुआवजे के रुपये आज भी सभी परिवारों को नहीं मिल पाये हैं। उनकी माँग है कि अपनी जमीन से उजड़े़ हर परिवार के नवयुवकों को सरकार नौकरी की गारण्टी दे और जब तक उनके लिए नया आवास नहीं बन जाता, तब तक वे अपनी जमीनें नहीं छोड़ेगें, क्योंकि उन्हें जुमलेबाज सरकार पर कोई भरोसा नहीं। वे अपने नये आवास के पास में एक अस्पताल बनाये जाने की भी माँग उठा रहे हैं, जिससे किसी भी दुर्घटना की स्थिति में उन्हें कम से कम प्राथमिक उपचार तो मुहैया हो सके।

ग्रामीणों का यह भी कहना है कि सरकार भूमि अधिग्रहण के मानकों को ताक पर रख कर आनन–फानन में उनकी जमीनें छीनना चाहती है, ताकि मोदी की छवि चमकाने के लिए उनके द्वारा इस पावर प्लाण्ट का प्रस्तावित शिलान्यास जल्द से जल्द कराया जा सके।

गाँव वालों द्वारा इस संयंत्र का भारी विरोध करने का दूसरा मुख्य कारण इससे पर्यावरण पर पड़ने वाला विनाशकारी प्रभाव और सम्भावित दुर्घटनाओं को लेकर डर भी है।

किसी परमाणु संयंत्र में बिजली उत्पादन में एक तरफ जहाँ कार्बन का उत्सर्जन न होने के कारण इसको पर्यावरण के अनुकूल बताया जाता है, वहीं इसके गम्भीर खतरों को नजरन्दाज नहीं किया जा सकता है। संयंत्र में किसी भी दुर्घटना की स्थिति में इससे रेडियोएक्टिव तत्वों के रिसाव से चेर्नोबिल जैसे हादसे की पुनरावृति तय है, जो एक साथ कई लोगों की जान ले सकती है और आने वाली पीढ़ियों को अपाहिज बना देगी। इसलिए विकसित देशों ने परमाणु संयंत्र अपने यहाँ लगाने बन्द कर दिये हैं लेकिन वे इसके लिए भारत जैसे गरीब देशों की जनता को मौत के मुँह में धकेल रहे हैं।

परमाणु संयंत्र से निकलने वाला रेडियोएक्टिव कचरा हजारों सालों तक नष्ट नहीं होता। इससे होने वाले विकिरण के खतरे के कारण इसे खुले में छोड़ा नहीं जा सकता। इसलिए इसको बड़े–बड़े ड्रमों में भरकर धरती के गर्भ में हजारों सालों के लिए दबा दिया जाता है, जो अपने आप में पर्यावरण सन्तुलन के लिए बड़ा खतरा है और किसी नये हादसे और दुर्घटना को निमन्त्रण देने जैसा है।

इन्हीं खतरों को भाँपते हुए, जहाँ एक तरफ सभी विकसित देश इन संयंत्रों पर प्रतिबन्ध लगा रहे हैं, वहीं भारत जैसे विकासशील देशों में इनके खतरों को दरकिनार करते हुए इन्हें न सिर्फ लगाया जा रहा है, बल्कि इसके लिए सालों से उन इलाकों में रहते आये लोगों को बेघर किया जा रहा है, हरे–भरे, प्राकृतिक संसाधनों से युक्त गाँवों को उजाड़ में बदलने की तैयारी की जा रही है। विकास के नाम पर आदिवासी इलाकों को लूटा जा रहा है और इस लूट के विरुद्ध आवाज उठाने वालों को एंटी–नेशनल या विकास–विरोधी होने का आरोप लगाकर जेलों में ठूँसा जा रहा है।

इस पूरी बहस से इतर एक और सवाल यहाँ उठना लाजिमी है, कि यह सब किसके लिए किया जा रहा है? क्या इन संयंत्रों से बनने वाली विद्युत ऊर्जा का कोई हिस्सा इन गरीब आदिवासियों को मिलेगा या ये भी बड़ी–बड़ी फैक्ट्रियों और इण्डस्ट्रियों में इस्तेमाल में लाया जायेगा, ताकि इनके मालिकों के मुनाफे को और बढ़ाया जा सके। इस मुनाफे की हवस की कीमत चुकाने के लिए हमेशा से ही गरीबों, आदिवासियों, ग्रामीणों और वंचितों को ही चुना जाता रहा है। शोषित और वंचित लोगों को परमाणु बम जैसे खतरनाक संयंत्रों की छत्रछाया में जीने को मजबूर किया जा रहा है। क्या इन संयंत्रों के विनाशकारी हादसों से मालिक बच जायेंगे?

–– अपूर्वा तिवारी