–– मनीषा

खाली होते गाँव, गाँव वालों के लिए मजा या सजा यह कह पाना अपने आप में एक बहुत ही मुश्किल बात है। ऐसा इसलिए क्योंकि उत्तराखण्ड के घोस्ट विलेजेस का विषय इतना प्रसिद्ध होने लगा है, जितना कि, टिहरी की नथ और कुमाऊ की पिछोडी जैसे गहने। वैसे गाँव से हो रहे पलायन के विषय में आँकड़ों की कोई कमी नहीं है। लेकिन फिर भी मैं उन्हें यहाँ दर्ज नहीं करुँगी क्योंकि आँकड़ों से ना तो सरकार को फर्क पड़ता है, न ही पब्लिक को, ना ही गाँव वालों को और ना ही शहर वालों को। कहने का मतलब है जब तक गाँव का विनाश नहीं रुकेगा, तब तक विकास की बात करना अपने आप में भ्रम पैदा करना है।

वैसे तो पूरे देश के ग्रामीण क्षेत्रों में विकास की सिर्फ बातें ही होती रहीं हैं और धरातल में ऐसी बातें, पुराने घावों पर नमक छिड़क देने जैसा है। खैर मैं यहाँ उत्तराखण्ड के ग्रामीण क्षेत्रों और पहाड़ी क्षेत्रों की बात करना चाहती हूँ। पलायन सबसे बड़ा दीमक है जिसने गाँव की हर चीज को खोखला कर दिया है। या तो चीजें समाप्त होती और कुछ नया पनपता, लेकिन जब सबकुछ ज्यों का त्यों भी दिखाई दे रहा है और उसमें कुछ बचा भी नहीं है, तो ऐसे में क्या कहा जाए। पलायन के कारणों पर नजर डालें तो, आम जन मानस की मूलभूत आवश्यकताओं को पूरा करने में भी सरकारें फेल रही हैं।

गाँव में पानी को तरसते लोग, और दूर चढ़ाई चढ़ कर पानी की भारी लगाकर पानी लाते लोग, कितने परेशान हैं? ये तो उनकी बुढ़ी हो चुकी उम्मीद से ही अन्दाजा लगाया जा सकता है। गंगा, यमुना, अलकनन्दा, भागीरथी, मन्दाकिनी, नन्दाकिनी, पिण्डर , धौलीगंगा आदि नदियाँ जहाँ से बहकर मैदानी क्षेत्रों में आ रही है वहाँ के लोग पानी की बूंद के लिए त्राहीमाम कर रहे हैं, और मैदानी क्षेत्रों में पानी भर–भर कर बह रहा है। यहाँ हर घर नल तो मिल जायेंगे लेकिन उन नलों में जल की गारण्टी नहीं।

एक से बढ़कर एक पावर प्लांट के लिए हमारे प्रदेश की नदियों के साथ छेड़छाड़ हुई है। मगर मजाल कि उसके बदले में उत्तराखण्ड को बिजली की समस्या का कोई हल मिला हो। वैसे उत्तराखण्ड के कई गाँव में आज तक भी बिजली नहीं है लेकिन इसका जिक्र करने का भी कोई फायदा नहीं, क्योंकि ये भी ज्यादा लोगों का ध्यान नहीं खींच पाते। और एक बार जमकर पहाड़ों में बारिश या बर्फबारी हो जाए तो जिन गाँवों में बिजली है वहाँ भी लोग हफ्ते–हफ्ते बिजली को देखने के लिए तरस जाते हैं।

गाँव में पहले खेतों में किसान बहुत कुछ उगाते थे। खुद भी खाते थे, नाते रिश्तेदारों को समुण (सामान या कोई भी खाद्य सामग्री) भी भिजवाते थे, और बेचते भी थे। लेकिन आज पहाड़ों में बन्दरों की सेना मिल जायेगी, सूअर अब घर के बाड़े तक आने लगे हैं और जमीन के नीचे उगने वाली सब्जियाँ तक उखाड़ कर नाश कर दे रहे हैं। लेकिन इसको ना समस्या समझा जा रहा है और ना ही इसके लिए कोई ठोस कदम उठाए जा रहे हैं। तो अब अपनी मेहनत का भी खा पाना मुश्किल है।

स्वास्थ्य सुविधाएँ इतनी जबरदस्त हैं कि दस्त तक का इलाज ढंग से नहीं हो पाता। जनता के टैक्स के पैसे से प्रोजेक्ट पास होते हैं, बिल्डिंग बनती है, लेकिन पदभार सम्भालने को कोई राजी नहीं। कौन चढ़े पहाड़? तो आमजन झोलाछाप डॉक्टरों को ही अपना जीवन सौंप देते हैं। कम से कम वे छोटी बीमारियों का इलाज तो कर लेते थे। लेकिन अब उन पर भी तलवार लटक रही है। आये दिन डोले में लाते मरीजों की खबर अलग–अलग क्षेत्रों से आती रहती है। गर्भवती महिलाओं को बच्चे कहीं भी जनने पड़ रहे हैं। बरसात में तो एम्बुलेंस बेचारी खुद पीड़ित होती है वो क्या पीड़ित तक पहुँच पाएगी।

ऑलवेदर रोड़ की तारीफ मुझसे ना हो पाएगी, क्योंकि घर से निकलते ही कुछ दूर चलते ही मिल जाता है जाम, टूटी सड़कें, दरकते पहाड़ और कभी जानलेवा बोल्डर, तो क्या बोलें? और वैसे भी सड़कें वहाँ बनी जहाँ कोई निवासी नहीं बचा है। लेकिन जहाँ लोग बसे हैं वहाँ की पगडण्डी भी मरम्मत की गुहार लगाती है। पहाड़ी इतने भोले होते हैं कि उन्हें मेहनत करने से डर नहीं लगता और यही कारण है कि कुछ इन परिस्थितियों में भी डटे हैं।

गाँव में सबसे पहले तो रोजगार ही नहीं हैं। रोजगार की बात करें तो, या तो सब्जी उगाओ, या दुकान खोल लो, या दूध की डेयरी चला लो। और अगर फाइनेंस की समस्या है, तो उसके लिए सरकार की बहुत सारी योजनाएँ मिल जाएँगी। फिर दफ्तरों के चक्कर लगाओ, कागज पत्तर में लगे रहो और फिर जब बैंक में आपकी फाइल पास होकर पहुँचे तो उसके बाद वसूली का जो विकल्प आप बताओगे, अगर बैंक को वह पसन्द नहीं आया, तो हो गया प्लान चैपट। अब बचा क्या! वही “सभ्भी धाणी देहरादून, होणी खांणी देहरादून” (सब कुछ देहरादून में है और रहना खाना भी देहरादून में है) कुछ का दिल्ली, कुछ मुम्बई या और कहीं।

शिक्षा के मंदिर इतने हैं, लेकिन न भक्त हैं ना पुजारी और ज्ञान की देवी तो सरकार से ऐसे रूठ गयी की सरकारी स्कूलों का रूख ही नहीं कर रही। निजी विद्यालयों में जा बैठी है। और जाते भी क्यों न, सरकार आरटीई लागू करके भला जो कर रही है। वैसे सरकारी विद्यालयों की स्थिति में सुधार करते तो ना भक्त कम पड़ते ना पुजारी नदारद रहते। तो पढ़ने के लिए भी अब देहरादून दूर नहीं।

यहाँ बुनियादी समस्याओं का जिक्र किया गया है। तो ऐसे में क्या करें गाँव के लोग?

अब बात करते हैं उन लोगों की जो पलायन करके शहर में जीवन जी रहे हैं या ठेल रहे हैं! क्योंकि गाँव में रह रहे लोगों को, शहर का रूख कर चुके लोगों के पलायन के विषय में कुछ भी कहने से बड़ी चिढ़ होती है। जैसे कोई बाघ के मुंह में हाथ डाल ले। क्योंकि गाँव वालों को लगता है, शहर जा चुके लोग मौजा ही मौजा वाली धुन में थिरक रहे हैं। जबकि वास्तव में सबके हालात वैसे नहीं हैं। कुछ तो इस तकलीफ को बयान तक नहीं कर पाते क्योंकि उनकी शान में गुस्ताखी हो जायेगी। कुछ अपवादों को अगर छोड़ दिया जाए तो पलायन ज्यादातर लोगों के लिए सजा ही है।

वैसे पलायन भी आदमी अपनी गुंजाइश के हिसाब से करता है। गाँव का आदमी देहरादून, दिल्ली आदि बड़े शहरों के लिए पलायन कर रहा है। बड़े शहरों के लोग विदेशों के लिए पलायन कर रहे हैं तो वहीं विदेशी यहाँ के लिए पलायन कर रहे हैं। और ये मुद्दा चरम पर तो है पर ज्यादा गर्म नहीं हो पाता है। और सब इस कटु सत्य को भी पचाने में लगे हैं कि, दुनिया गोल है जहाँ सब पलायन करके गोल गोल घूम रहे हैं।