दिल्ली दंगे का सबक
समाचार-विचार–– सतीश देशपाण्डे
फरवरी के अन्तिम सप्ताह में दिल्ली में जो हुआ वह सतही समानताओं के बावजूद हुबहू दंगा नहीं था। कम से कम इस शब्द से हम जो मतलब समझते हैं वैसा तो कतई नहीं। न ही इसे पुराने जमाने की परिभाषाओं जैसे “साम्प्रदायिक हिंसा” या “जातीय संहार” के जरिये अभिव्यक्त किया जा सकता है। सच्चाई यह है कि अभी तक हमारे पास ऐसा कोई एक शब्द या शब्दयुग्म नहीं है जिससे इस घटना को परिभाषित किया जा सके। दरअसल यह एक जारी परियोजना का नवीनतम चरण है, न कि कोई अलग–थलग घटना। इस परियोजना के बारे में चर्चा करने से पहले यह दर्ज करना शायद ज्यादा मददगार हो सकता है कि इसे पुरानी परिभाषाओं में फिट क्यों नहीं किया जा सकता?
विशद चित्रण
अगर 2002 का गुजरात दंगा मोबाइल फोन के शुरुआती जमाने की घटना थी, तो उसके बरक्स दिल्ली की हिंसक उन्मादी भीड़ ने स्मार्ट फोन के दौर में सार्वजनिक हिंसा के साथ भारत की पहली मुलाकात की पटकथा लिखी है। झूठेपन का निश्चित खतरा होते हुए भी निसन्देह यह पहली घटना है जहाँ थोक में हिंसा का अथाह ऑडियो–विजुवल दस्तावेजीकरण लगभग तुरन्त ही सामने आ गया। उधमी हिंसा की भयावह कार्रवाइयों की वीडियो क्लिप सोशल मीडिया में भरी पड़ी हैं जो वाकपटुता के साथ वह सब भी कह देती हैं जिन्हें शब्दों में बयाँ नहीं किया जा सकता। ये तस्वीरें जितनी खौफनाक हैं, इनका असर उससे भी ज्यादा चैंकाने वाला है। अमानवीयता के इस विशद चित्रण ने न तो पीड़ा जगायी, न ही हृदय परिवर्तन किया। इसके उलट इसने पक्षपात को और गहरा किया तथा रुख को और ज्यादा मजबूत किया। एक हफ्ते बाद तो कम से कम ऐसा ही लगा।
इसका एक स्पष्टीकरण है मीडिया, खास तौर पर टेलीविजन और डिजिटल माध्यम। हमारा समाज कभी मीडिया से इतना सराबोर नहीं रहा और न ही हमारा मीडिया कभी आज जैसा जबरदस्त पक्षपाती रहा है। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का बड़ा हिस्सा आँख मूँदकर और दृढ़ता से शासक पार्टी और सरकार के समर्थन में है तथा उस प्रधानमंत्री की चापलूसी में मशगूल है जो इस मीडिया की नजर में गलतियों से परे है। यहाँ तक कि तथाकथित गोदी मीडिया अकाट्य प्रमाणों के सामने होते हुए भी असमर्थनीय व्यक्ति के लिए समर्थन का कोई न कोई रास्ता ढूँढ ले रहा है, इनमें से आक्रामक तत्व तो ‘वैकल्पिक तथ्यों’ के सहारे ही हमलावर हो जा रहे हैं।
लेकिन स्पष्टीकरण का बड़ा हिस्सा कहीं और है और यह कहीं ज्यादा महत्त्वपूर्ण है। दिल्ली की हिंसा और इसका परिणाम इस सच्चाई की ओर इशारा करते हैं कि आज जनता के बहुत बड़े हिस्से में नफरत भर दी गयी है और इस हिस्से को एक ऐसा टीका लगा दिया गया है जो हर प्रतिरोधक को बेअसर कर देता है। ऐसे लोगों को यकीन है कि सभी जरूरी तथ्य उनके पास पहले से मौजूद हैं। उन्हें उनकी विश्वदृष्टि के खिलाफ दिये गये तर्कों को इसके खिलाफ एक षड़यंत्र के रूप में देखने के लिए गढ़ा गया है। उनकी कट्टर आस्थाएँ बेतरतीब विकृतियाँ या अतीत की विरासत नहीं हैं। वे जमीनी स्तरों पर लम्बे और श्रमसाध्य वैचारिक कार्यों का नतीजा हैं। इसका प्रतिरोध कैसे करें और इसके असर को कैसे खत्म करें यह हमारे दौर का केन्द्रीय सवाल है।
शाहीन बाग मॉडल
अतीत के बड़े दंगों से इस घटना का एक अनोखा फर्क यह है कि इसमें पहले जैसा कोई स्पष्ट उकसावा मौजूदा नहीं रहा है। 1984 की हिंसा सिक्ख अंगरक्षकों द्वारा प्रधानमंत्री की हत्या से फूटी थी, जबकि 2002 में गोधरा में रेल में हुई मौतों के लिए मुस्लिमों को दोषी ठहराया गया था। 2020 में ऐसा कुछ भी नहीं रहा सिवाय सीएए और एनआरसी के विरोध के, जिसका प्रतीक शाहीन बाग है। शाहीन बाग, जो महज एक जगह होने से कहीं ज्यादा एक प्रेरणादायक मॉडल है, इसका बेलगाम हिंसा और हत्याओं के लिए उकसावा बन जाना काफी अनोखा है। यह एक शान्तिपूर्ण विरोध प्रदर्शन है जिसका नेतृत्व अलग–अलग उम्र की औरतों के हाथ में है, जिनमंे उम्रदराज औरतें भी शामिल हैं। यह निरन्तर राष्ट्रवादी प्रतीकों का आह्वान करता रहा है, इसको भाषा गैर–साम्प्रदायिक भाषा का इस्तेमाल करता है और संविधान की प्रस्तावना को अपने घोषणापत्र के रूप में स्वीकार करता है। शाहीन बाग का विरोध प्रदर्शन का यह मॉडल पूरे देश में तेजी से फैल रहा है (कहीं ज्यादा, कहीं कम), जो 2014 में मोदी–शाह की जोड़ी के सत्ता में आने के बाद उनके सामने आयी पहली महत्त्वपूर्ण राजनीतिक चुनौती है।
इस विरोध प्रदर्शन ने रोज आने–जाने वालों को चाहे कितना भी परेशान किया हो और चाहे राजनीतिक कार्यकर्ताओं के विरोधी गुटों के बीच कितने भी अन्दरूनी टकराव हुए हों इसके बावजूद जो संगठित लूट, आगजनी, हत्या इसके नाम पर हुई उसको किसी भी तरह जायज नहीं ठहराया जा सकता है। दिल्ली की हिंसा दिल्ली को विधान सभा चुनाव में केन्द्र की शासक पार्टी को खारिज करने की “सजा” है, यह तर्क एक अपर्याप्त स्पष्टीकरण है क्योंकि इस चुनाव में हार से बड़े परिदृश्य पर बहुत ज्यादा फर्क नहीं पड़ा है। इस हिंसा से पहले और खास तौर पर इसके बाद आम आदमी पार्टी की चूक और छूट मौजूदा राजनीति की एक और बड़ी सच्चाई की ओर इशारा करती है। मोदी–शाह परियोजना की उपलब्धियों में सबसे महत्त्वपूर्ण यह है कि आज कोई भी बड़ी पार्टी मुस्लिम समर्थक दिखने का रत्तीभर खतरा भी उठाने को तैयार नहीं है।
बाजी पलटने वाला मोड़
इस तर्क को और विस्तारित किया जा सकता है। दिल्ली की हिंसा मोदी–शाह परियोजना के 2019 के बाद के चरण के उस निर्णायक मोड़ को चिन्हित कर सकती है जब राष्ट्रवादी तथा मुस्लिम विरोधी एजेण्डा ने चुनावी मजबूरियों को तोड़ने लायक आवेग पैदा कर दिया है। अगर यह सही है तो यह एक आवेगपूर्ण घटना है। इसका अर्थ है कि हिन्दू–बहुसंख्यावादी एजेण्डे ने राजनीतिक लड़ाई इतने निर्णायक ढंग से जीत ली है कि अब वे चुनाव हारने का जोखिम भी उठा सकते हैं। दूसरे शब्दों में अब चुनाव “कमतर” स्थानीय या तात्कालिक मुद्दों पर जीता या हारा जायेगा, लेकिन हारने वाले और जीतने वाले दोनों ही हिन्दू और बहुसंख्यकवाद का समर्थन करेंगे। उलटी तरफ से देखा जाये तो सिर्फ और सिर्फ चुनावी राजनीति के बाहर ही हिन्दू–बहुसंख्यकवाद को चुनौती दी जा सकती है।
लेकिन मोदी–शाह परियोजना हिन्दू–बहुसंख्यकवादी एजेण्डे से भी कहीं बड़ी और अलग है। यह फर्क महत्त्वपूर्ण है क्योंकि जो इन दोनों के खिलाफ हैं उनके लिए एकमात्र आशा की किरण यही है।
सामान्य रूप से कहा जाये तो मोदी–शाह परियोजना दो लोगों के लिए सत्ता हथियाने और कब्जे में रखने का एक घोर स्वेच्छाचारी दाँव है। यह परियोजना एक ही साथ दो घोड़ों पर सवार है–– दरबारी कॉर्पाेरेटवाद और हिन्दू–बहुसंख्यकवाद। 2019 के चुनाव में लगातार दूसरी जबरदस्त जीत के बाद ही मोदी–शाह जोड़ी ने इस योजना के वर्चस्वशाली हिस्सेदार तथा इसके सहयोगी बनने लायक ताकत हासिल की। लेकिन अब भी इस जोड़ी को दोनों की जरूरत है। मोदी–शाह जोड़ी और इनके दोनों सहयोगियों के बीच या खुद सहयोगियों के बीच की आपसी सम्भावित टकराहट का मैदान ही इस जोड़ी के खिलाफ चुनौती खड़ा करने की सबसे उर्वर जमीन है।
ठोस राजनीतिक शर्तों के आधार पर इन मैदानों का खाका बनाना बहुत मुश्किल लेकिन बेहद जरूरी कार्यभार है। यह बात स्पष्ट है कि यह ऐसी जगह है जहाँ अब तक किसी ने कदम नहीं रखा और मोदी–शाह जोड़ी की सफलता ने इस परिदृश्य को रूपान्तरित कर दिया है। निश्चय ही, चुनौती देने वालों को लगभग पूरी तरह आत्मसमर्पण कर चुके उन सभी संस्थानों से टकराना होगा जिन्हें संवैधानिक रूप से इस तरह बनाया गया था कि वे ठीक ऐसे ही लोकतान्त्रिक संघर्षों की हिफाजत करें, जिनमंे न्यायालय, पुलिस, नौकरशाही, मीडिया, विश्वविद्यालय और यहाँ तक कि सूचना इकठ्ठा करने वाली संस्थाएँ शामिल हैं।
अन्दर झाँककर देखिये
आखिरकार, 2020 की दिल्ली की यह घटना इससे पहले की सभी “साम्प्रदायिक हिंसा” की घटनाओं से मुख्यत: दो कारणों के चलते अलग है। पहला, यह मुसलमानों के “दलितीकरण” के एक साफ–सुथरे अभियान की शुरुआत को दर्शाती है, जिसके बारे में यहाँ बात नहीं हो सकती। दूसरा, यह मौजूदा भारतीय राजनीति में एक मोड़ की शिनाख्त करती है। इस नतीजे तक पहुँचने के सारे लक्षण स्पष्ट रूप से हिंसा के दौरान नहीं, बल्कि उसके बाद दिखायी दिये। पछतावे की तयशुदा गैर–मौजूदगी और उन्हीं आवाजों में उन्हीं नारों (जिसमें “गोली मारो” भी शामिल है) को उन जमावड़ों में उछालना जिसे अब “अमन का जुलूस” कहा जा रहा है, उसमें एक सन्देश छिपा हुआ था। स्मार्ट फोन में नक्शे की एप्लीकेशन की भाषा में कहें तो वह मानसिकता जिसे “हिन्दू राष्ट्र” कहा जाता है, अब मंजिल नहीं रह गयी – बल्कि यह शायद हमारी मौजूदा अवस्थिति बन चुकी है।
इससे पहले कि बहुत देर हो जाये हम भारतीयों को, खासकर उन्हें जो उस विराट बहुमत के साथ खुद को जोड़ते हैं या दूसरे लोग उन्हें इसका हिस्सा मानते हैं, हिन्दू होने के नाते, एक महत्त्वपूर्ण सवाल पूछना चाहिए। क्या यह वही है जो हम चाहते हैं?
द हिन्दू में प्रकाशित लेख का अनुवाद
लेखक की अन्य रचनाएं/लेख
राजनीति
- 106 वर्ष प्राचीन पटना संग्रहालय के प्रति बिहार सरकार का शत्रुवत व्यवहार –– पुष्पराज 19 Jun, 2023
- इलेक्टोरल बॉण्ड घोटाले पर जानेमाने अर्थशास्त्री डॉक्टर प्रभाकर का सनसनीखेज खुलासा 6 May, 2024
- कोरोना वायरस, सर्विलांस राज और राष्ट्रवादी अलगाव के खतरे 10 Jun, 2020
- जनसंख्या नियंत्रण विधेयक का तर्कहीन मसौदा 21 Nov, 2021
- डिजिटल कण्टेण्ट निर्माताओं के लिए लाइसेंस राज 13 Sep, 2024
- नया वन कानून: वन संसाधनों की लूट और हिमालय में आपदाओं को न्यौता 17 Nov, 2023
- नये श्रम कानून मजदूरों को ज्यादा अनिश्चित भविष्य में धकेल देंगे 14 Jan, 2021
- बेरोजगार भारत का युग 20 Aug, 2022
- बॉर्डर्स पर किसान और जवान 16 Nov, 2021
- मोदी के शासनकाल में बढ़ती इजारेदारी 14 Jan, 2021
- सत्ता के नशे में चूर भाजपाई कारकूनों ने लखीमपुर खीरी में किसानों को कार से रौंदा 23 Nov, 2021
- हरियाणा किसान आन्दोलन की समीक्षा 20 Jun, 2021
सामाजिक-सांस्कृतिक
- एक आधुनिक कहानी एकलव्य की 23 Sep, 2020
- किसान आन्दोलन के आह्वान पर मिट्टी सत्याग्रह यात्रा 20 Jun, 2021
- गैर बराबरी की महामारी 20 Aug, 2022
- घोस्ट विलेज : पहाड़ी क्षेत्रों में राज्यप्रेरित पलायन –– मनीषा मीनू 19 Jun, 2023
- दिल्ली के सरकारी स्कूल : नवउदारवाद की प्रयोगशाला 14 Mar, 2019
- पहाड़ में नफरत की खेती –– अखर शेरविन्द 19 Jun, 2023
- सबरीमाला मन्दिर में महिलाओं के प्रवेश पर राजनीति 14 Dec, 2018
- साम्प्रदायिकता और संस्कृति 20 Aug, 2022
- हमारा जार्ज फ्लायड कहाँ है? 23 Sep, 2020
- ‘प्रतिरोध की संस्कृति’ पर केन्द्रित ‘कथान्तर’ का विशेषांक 13 Sep, 2024
व्यंग्य
- अगला आधार पाठ्यपुस्तक पुनर्लेखन –– जी सम्पत 19 Jun, 2023
- आजादी को आपने कहीं देखा है!!! 20 Aug, 2022
- इन दिनों कट्टर हो रहा हूँ मैं––– 20 Aug, 2022
- नुसरत जहाँ : फिर तेरी कहानी याद आयी 15 Jul, 2019
- बडे़ कारनामे हैं बाबाओं के 13 Sep, 2024
साहित्य
- अव्यवसायिक अभिनय पर दो निबन्ध –– बर्तोल्त ब्रेख्त 17 Feb, 2023
- औपनिवेशिक सोच के विरुद्ध खड़ी अफ्रीकी कविताएँ 6 May, 2024
- किसान आन्दोलन : समसामयिक परिदृश्य 20 Jun, 2021
- खामोश हो रहे अफगानी सुर 20 Aug, 2022
- जनतांत्रिक समालोचना की जरूरी पहल – कविता का जनपक्ष (पुस्तक समीक्षा) 20 Aug, 2022
- निशरीन जाफरी हुसैन का श्वेता भट्ट को एक पत्र 15 Jul, 2019
- फासीवाद के खतरे : गोरी हिरणी के बहाने एक बहस 13 Sep, 2024
- फैज : अँधेरे के विरुद्ध उजाले की कविता 15 Jul, 2019
- “मैं” और “हम” 14 Dec, 2018
समाचार-विचार
- स्विस बैंक में जमा भारतीय कालेधन में 50 फीसदी की बढ़ोतरी 20 Aug, 2022
- अगले दशक में विश्व युद्ध की आहट 6 May, 2024
- अफगानिस्तान में तैनात और ऑस्ट्रेलियाई सैनिकों की आत्महत्या 14 Jan, 2021
- आरओ जल–फिल्टर कम्पनियों का बढ़ता बाजार 6 May, 2024
- इजराइल–अरब समझौता : डायन और भूत का गठबन्धन 23 Sep, 2020
- उत्तर प्रदेश : लव जेहाद की आड़ में धर्मान्तरण के खिलाफ अध्यादेश 14 Jan, 2021
- उत्तर प्रदेश में मीडिया की घेराबन्दी 13 Apr, 2022
- उनके प्रभु और स्वामी 14 Jan, 2021
- एआई : तकनीकी विकास या आजीविका का विनाश 17 Nov, 2023
- काँवड़ के बहाने ढाबों–ढेलों पर नाम लिखाने का साम्प्रदायिक फरमान 13 Sep, 2024
- किसान आन्दोलन : लीक से हटकर एक विमर्श 14 Jan, 2021
- कोयला खदानों के लिए भारत के सबसे पुराने जंगलों की बलि! 23 Sep, 2020
- कोरोना जाँच और इलाज में निजी लैब–अस्पताल फिसड्डी 10 Jun, 2020
- कोरोना ने सबको रुलाया 20 Jun, 2021
- क्या उत्तर प्रदेश में मुसलमान होना ही गुनाह है? 23 Sep, 2020
- क्यूबा तुम्हारे आगे घुटने नहीं टेकेगा, बाइडेन 16 Nov, 2021
- खाली जेब, खाली पेट, सर पर कर्ज लेकर मजदूर कहाँ जायें 23 Sep, 2020
- खिलौना व्यापारियों के साथ खिलवाड़ 23 Sep, 2020
- छल से वन अधिकारों का दमन 15 Jul, 2019
- छात्रों को शोध कार्य के साथ आन्दोलन भी करना होगा 19 Jun, 2023
- त्रिपुरा हिंसा की वह घटना जब तस्वीर लेना ही देशद्रोह बन गया! 13 Apr, 2022
- दिल्ली उच्च न्यायलय ने केन्द्र सरकार को केवल पाखण्डी ही नहीं कहा 23 Sep, 2020
- दिल्ली दंगे का सबक 11 Jun, 2020
- देश के बच्चे कुपोषण की गिरफ्त में 14 Dec, 2018
- न्यूज चैनल : जनता को गुमराह करने का हथियार 14 Dec, 2018
- बच्चों का बचपन और बड़ों की जवानी छीन रहा है मोबाइल 16 Nov, 2021
- बीमारी से मौत या सामाजिक स्वीकार्यता के साथ व्यवस्था द्वारा की गयी हत्या? 13 Sep, 2024
- बुद्धिजीवियों से नफरत क्यों करते हैं दक्षिणपंथी? 15 Jul, 2019
- बैंकों की बिगड़ती हालत 15 Aug, 2018
- बढ़ते विदेशी मरीज, घटते डॉक्टर 15 Oct, 2019
- भारत देश बना कुष्ठ रोग की राजधानी 20 Aug, 2022
- भारत ने पीओके पर किया हमला : एक और फर्जी खबर 14 Jan, 2021
- भीड़ का हमला या संगठित हिंसा? 15 Aug, 2018
- मजदूरों–कर्मचारियों के हितों पर हमले के खिलाफ नये संघर्षों के लिए कमर कस लें! 10 Jun, 2020
- महाराष्ट्र के कपास किसानों की दुर्दशा उन्हीं की जबानी 23 Sep, 2020
- महाराष्ट्र में कर्मचारी भर्ती का ठेका निजी कम्पनियों के हवाले 17 Nov, 2023
- महाराष्ट्र में चार सालों में 12 हजार से ज्यादा किसानों ने आत्महत्या की 15 Jul, 2019
- मानव अंगों की तस्करी का घिनौना व्यापार 13 Sep, 2024
- मौत के घाट उतारती जोमैटो की 10 मिनट ‘इंस्टेण्ट डिलीवरी’ योजना 20 Aug, 2022
- यूपीएससी की तैयारी में लगे छात्रों की दुर्दशा, जिम्मेदार कौन? 13 Sep, 2024
- राजस्थान में परमाणु पावर प्लाण्ट का भारी विरोध 13 Sep, 2024
- रेलवे का निजीकरण : आपदा को अवसर में बदलने की कला 23 Sep, 2020
- लोग पुरानी पेंशन योजना की बहाली के लिए क्यों लड़ रहे हैं 17 Nov, 2023
- विधायिका में महिला आरक्षण की असलियत 17 Nov, 2023
- वैश्विक लिंग असमानता रिपोर्ट 20 Aug, 2022
- श्रीलंका पर दबाव बनाते पकड़े गये अडानी के “मैनेजर” प्रधानमंत्री जी 20 Aug, 2022
- संस्कार भारती, सेवा भारती––– प्रसार भारती 14 Jan, 2021
- सत्ता–सुख भोगने की कला 15 Oct, 2019
- सरकार द्वारा लक्ष्यद्वीप की जनता की संस्कृति पर हमला और दमन 20 Jun, 2021
- सरकार बहादुर कोरोना आपके लिए अवसर लाया है! 10 Jun, 2020
- सरकार, न्यायपालिका, सेना की आलोचना करना राजद्रोह नहीं 15 Oct, 2019
- सरकारी विभागों में ठेका कर्मियों का उत्पीड़न 15 Aug, 2018
- हम इस फर्जी राष्ट्रवाद के सामने नहीं झुकेंगे 13 Apr, 2022
- हाथरस की भगदड़ में मौत का जिम्मेदार कौन 13 Sep, 2024
- हुकुम, बताओ क्या कहूँ जो आपको चोट न लगे। 13 Apr, 2022
कहानी
- जामुन का पेड़ 8 Feb, 2020
- पानीपत की चैथी लड़ाई 16 Nov, 2021
- माटी वाली 17 Feb, 2023
- समझौता 13 Sep, 2024
विचार-विमर्श
- अतीत और वर्तमान में महामारियों ने बड़े निगमों के उदय को कैसे बढ़ावा दिया है? 23 Sep, 2020
- अस्तित्व बनाम अस्मिता 14 Mar, 2019
- क्या है जो सभी मेहनतकशों में एक समान है? 23 Sep, 2020
- क्रान्तिकारी विरासत और हमारा समय 13 Sep, 2024
- दिल्ली सरकार की ‘स्कूल्स ऑफ स्पेशलाइज्ड एक्सलेंस’ की योजना : एक रिपोर्ट! 16 Nov, 2021
- धर्म की आड़ 17 Nov, 2023
- पलायन मजा या सजा 20 Aug, 2022
- राजनीति में आँधियाँ और लोकतंत्र 14 Jun, 2019
- लीबिया की सच्चाई छिपाता मीडिया 17 Nov, 2023
- लोकतंत्र के पुरोधाओं ने लोकतंत्र के बारे में क्या कहा था? 23 Sep, 2020
- विकास की निरन्तरता में–– गुरबख्श सिंह मोंगा 19 Jun, 2023
- विश्व चैम्पियनशिप में पदक विजेता महिला पहलवान विनेश फोगाट से बातचीत 19 Jun, 2023
- सरकार और न्यायपालिका : सम्बन्धों की प्रकृति क्या है और इसे कैसे विकसित होना चाहिए 15 Aug, 2018
श्रद्धांजलि
कविता
- अपने लोगों के लिए 6 May, 2024
- कितने और ल्हासा होंगे 23 Sep, 2020
- चल पड़ा है शहर कुछ गाँवों की राह 23 Sep, 2020
- बच्चे काम पर जा रहे हैं 19 Jun, 2023
अन्तरराष्ट्रीय
- अमरीका बनाम चीन : क्या यह एक नये शीत युद्ध की शुरुआत है 23 Sep, 2020
- इजराइल का क्रिस्टालनाख्त नरसंहार 17 Nov, 2023
- क्या लोकतन्त्र का लबादा ओढ़े अमरीका तानाशाही में बदल गया है? 14 Dec, 2018
- पश्चिम एशिया में निर्णायक मोड़ 15 Aug, 2018
- प्रतिबन्धों का मास्को पर कुछ असर नहीं पड़ा है, जबकि यूरोप 4 सरकारें गँवा चुका है: ओरबान 20 Aug, 2022
- बोलीविया में तख्तापलट : एक परिप्रेक्ष्य 8 Feb, 2020
- भारत–इजराइल साझेदारी को मिली एक वैचारिक कड़ी 15 Oct, 2019
- भोजन, खेती और अफ्रीका : बिल गेट्स को एक खुला खत 17 Feb, 2023
- महामारी के बावजूद 2020 में वैश्विक सामरिक खर्च में भारी उछाल 21 Jun, 2021
- लातिन अमरीका के मूलनिवासियों, अफ्रीकी मूल के लोगों और लातिन अमरीकी संगठनों का आह्वान 10 Jun, 2020
- सउ़दी अरब की साम्राज्यवादी विरासत 16 Nov, 2021
- ‘जल नस्लभेद’ : इजराइल कैसे गाजा पट्टी में पानी को हथियार बनाता है 17 Nov, 2023
राजनीतिक अर्थशास्त्र
साक्षात्कार
- कम कहना ही बहुत ज्यादा है : एडुआर्डो गैलियानो 20 Aug, 2022
- चे ग्वेरा की बेटी अलेदा ग्वेरा का साक्षात्कार 14 Dec, 2018
- फैज अहमद फैज के नजरिये से कश्मीर समस्या का हल 15 Oct, 2019
- भारत के एक बड़े हिस्से में मर्दवादी विचार हावी 15 Jul, 2019
अवर्गीकृत
- एक अकादमिक अवधारणा 20 Aug, 2022
- डीएचएफएल घोटाला : नवउदारवाद की एक और झलक 14 Mar, 2019
- फिदेल कास्त्रो सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यवस्था के हिमायती 10 Jun, 2020
- बायोमेडिकल रिसर्च 14 Jan, 2021
- भाषा और साहित्य के क्षेत्र में भारत को मुसलमानों का महान स्थायी योगदान 23 Sep, 2020
- सर्वोच्च न्यायलय द्वारा याचिकाकर्ता को दण्डित करना, अन्यायपूर्ण है. यह राज्य पर सवाल उठाने वालों के लिए भयावह संकेत है 20 Aug, 2022
जीवन और कर्म
मीडिया
- मीडिया का असली चेहरा 15 Mar, 2019
फिल्म समीक्षा
- समाज की परतें उघाड़ने वाली फिल्म ‘आर्टिकल 15’ 15 Jul, 2019