–– सतीश देशपाण्डे

फरवरी के अन्तिम सप्ताह में दिल्ली में जो हुआ वह सतही समानताओं के बावजूद हुबहू दंगा नहीं था। कम से कम इस शब्द से हम जो मतलब समझते हैं वैसा तो कतई नहीं। न ही इसे पुराने जमाने की परिभाषाओं जैसे “साम्प्रदायिक हिंसा” या “जातीय संहार” के जरिये अभिव्यक्त किया जा सकता है। सच्चाई यह है कि अभी तक हमारे पास ऐसा कोई एक शब्द या शब्दयुग्म नहीं है जिससे इस घटना को परिभाषित किया जा सके। दरअसल यह एक जारी परियोजना का नवीनतम चरण है, न कि कोई अलग–थलग घटना। इस परियोजना के बारे में चर्चा करने से पहले यह दर्ज करना शायद ज्यादा मददगार हो सकता है कि इसे पुरानी परिभाषाओं में फिट क्यों नहीं किया जा सकता?

विशद चित्रण

अगर 2002 का गुजरात दंगा मोबाइल फोन के शुरुआती जमाने की घटना थी, तो उसके बरक्स दिल्ली की हिंसक उन्मादी भीड़ ने स्मार्ट फोन के दौर में सार्वजनिक हिंसा के साथ भारत की पहली मुलाकात की पटकथा लिखी है। झूठेपन का निश्चित खतरा होते हुए भी निसन्देह यह पहली घटना है जहाँ थोक में हिंसा का अथाह ऑडियो–विजुवल दस्तावेजीकरण लगभग तुरन्त ही सामने आ गया। उधमी हिंसा की भयावह कार्रवाइयों की वीडियो क्लिप सोशल मीडिया में भरी पड़ी हैं जो वाकपटुता के साथ वह सब भी कह देती हैं जिन्हें शब्दों में बयाँ नहीं किया जा सकता। ये तस्वीरें जितनी खौफनाक हैं, इनका असर उससे भी ज्यादा चैंकाने वाला है। अमानवीयता के इस विशद चित्रण ने न तो पीड़ा जगायी, न ही हृदय परिवर्तन किया। इसके उलट इसने पक्षपात को और गहरा किया तथा रुख को और ज्यादा मजबूत किया। एक हफ्ते बाद तो कम से कम ऐसा ही लगा।

इसका एक स्पष्टीकरण है मीडिया, खास तौर पर टेलीविजन और डिजिटल माध्यम। हमारा समाज कभी मीडिया से इतना सराबोर नहीं रहा और न ही हमारा मीडिया कभी आज जैसा जबरदस्त पक्षपाती रहा है। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का बड़ा हिस्सा आँख मूँदकर और दृढ़ता से शासक पार्टी और सरकार के समर्थन में है तथा उस प्रधानमंत्री की चापलूसी में मशगूल है जो इस मीडिया की नजर में गलतियों से परे है। यहाँ तक कि तथाकथित गोदी मीडिया अकाट्य प्रमाणों के सामने होते हुए भी असमर्थनीय व्यक्ति के लिए समर्थन का कोई न कोई रास्ता ढूँढ ले रहा है, इनमें से आक्रामक तत्व तो ‘वैकल्पिक तथ्यों’ के सहारे ही हमलावर हो जा रहे हैं।

लेकिन स्पष्टीकरण का बड़ा हिस्सा कहीं और है और यह कहीं ज्यादा महत्त्वपूर्ण है। दिल्ली की हिंसा और इसका परिणाम इस सच्चाई की ओर इशारा करते हैं कि आज जनता के बहुत बड़े हिस्से में नफरत भर दी गयी है और इस हिस्से को एक ऐसा टीका लगा दिया गया है जो हर प्रतिरोधक को बेअसर कर देता है। ऐसे लोगों को यकीन है कि सभी जरूरी तथ्य उनके पास पहले से मौजूद हैं। उन्हें उनकी विश्वदृष्टि के खिलाफ दिये गये तर्कों को इसके खिलाफ एक षड़यंत्र के रूप में देखने के लिए गढ़ा गया है। उनकी कट्टर आस्थाएँ बेतरतीब विकृतियाँ या अतीत की विरासत नहीं हैं। वे जमीनी स्तरों पर लम्बे और श्रमसाध्य वैचारिक कार्यों का नतीजा हैं। इसका प्रतिरोध कैसे करें और इसके असर को कैसे खत्म करें यह हमारे दौर का केन्द्रीय सवाल है।

शाहीन बाग मॉडल

अतीत के बड़े दंगों से इस घटना का एक अनोखा फर्क यह है कि इसमें पहले जैसा कोई स्पष्ट उकसावा मौजूदा नहीं रहा है। 1984 की हिंसा सिक्ख अंगरक्षकों द्वारा प्रधानमंत्री की हत्या से फूटी थी, जबकि 2002 में गोधरा में रेल में हुई मौतों के लिए मुस्लिमों को दोषी ठहराया गया था। 2020 में ऐसा कुछ भी नहीं रहा सिवाय सीएए और एनआरसी के विरोध के, जिसका प्रतीक शाहीन बाग है। शाहीन बाग, जो महज एक जगह होने से कहीं ज्यादा एक प्रेरणादायक मॉडल है, इसका बेलगाम हिंसा और हत्याओं के लिए उकसावा बन जाना काफी अनोखा है। यह एक शान्तिपूर्ण विरोध प्रदर्शन है जिसका नेतृत्व अलग–अलग उम्र की औरतों के हाथ में है, जिनमंे उम्रदराज औरतें भी शामिल हैं। यह निरन्तर राष्ट्रवादी प्रतीकों का आह्वान करता रहा है, इसको भाषा गैर–साम्प्रदायिक भाषा का इस्तेमाल करता है और संविधान की प्रस्तावना को अपने घोषणापत्र के रूप में स्वीकार करता है। शाहीन बाग का विरोध प्रदर्शन का यह मॉडल पूरे देश में तेजी से फैल रहा है (कहीं ज्यादा, कहीं कम), जो 2014 में मोदी–शाह की जोड़ी के सत्ता में आने के बाद उनके सामने आयी पहली महत्त्वपूर्ण राजनीतिक चुनौती है।

इस विरोध प्रदर्शन ने रोज आने–जाने वालों को चाहे कितना भी परेशान किया हो और चाहे राजनीतिक कार्यकर्ताओं के विरोधी गुटों के बीच कितने भी अन्दरूनी टकराव हुए हों इसके बावजूद जो संगठित लूट, आगजनी, हत्या इसके नाम पर हुई उसको किसी भी तरह जायज नहीं ठहराया जा सकता है। दिल्ली की हिंसा दिल्ली को विधान सभा चुनाव में केन्द्र की शासक पार्टी को खारिज करने की “सजा” है, यह तर्क एक अपर्याप्त स्पष्टीकरण है क्योंकि इस चुनाव में हार से बड़े परिदृश्य पर बहुत ज्यादा फर्क नहीं पड़ा है। इस हिंसा से पहले और खास तौर पर इसके बाद आम आदमी पार्टी की चूक और छूट मौजूदा राजनीति की एक और बड़ी सच्चाई की ओर इशारा करती है। मोदी–शाह परियोजना की उपलब्धियों में सबसे महत्त्वपूर्ण यह है कि आज कोई भी बड़ी पार्टी मुस्लिम समर्थक दिखने का रत्तीभर खतरा भी उठाने को तैयार नहीं है।

बाजी पलटने वाला मोड़

इस तर्क को और विस्तारित किया जा सकता है। दिल्ली की हिंसा मोदी–शाह परियोजना के 2019 के बाद के चरण के उस निर्णायक मोड़ को चिन्हित कर सकती है जब राष्ट्रवादी तथा मुस्लिम विरोधी एजेण्डा ने चुनावी मजबूरियों को तोड़ने लायक आवेग पैदा कर दिया है। अगर यह सही है तो यह एक आवेगपूर्ण घटना है। इसका अर्थ है कि हिन्दू–बहुसंख्यावादी एजेण्डे ने राजनीतिक लड़ाई इतने निर्णायक ढंग से जीत ली है कि अब वे चुनाव हारने का जोखिम भी उठा सकते हैं। दूसरे शब्दों में अब चुनाव “कमतर” स्थानीय या तात्कालिक मुद्दों पर जीता या हारा जायेगा, लेकिन हारने वाले और जीतने वाले दोनों ही हिन्दू और बहुसंख्यकवाद का समर्थन करेंगे। उलटी तरफ से देखा जाये तो सिर्फ और सिर्फ चुनावी राजनीति के बाहर ही हिन्दू–बहुसंख्यकवाद को चुनौती दी जा सकती है।

लेकिन मोदी–शाह परियोजना हिन्दू–बहुसंख्यकवादी एजेण्डे से भी कहीं बड़ी और अलग है। यह फर्क महत्त्वपूर्ण है क्योंकि जो इन दोनों के खिलाफ हैं उनके लिए एकमात्र आशा की किरण यही है।

सामान्य रूप से कहा जाये तो मोदी–शाह परियोजना दो लोगों के लिए सत्ता हथियाने और कब्जे में रखने का एक घोर स्वेच्छाचारी दाँव है। यह परियोजना एक ही साथ दो घोड़ों पर सवार है–– दरबारी कॉर्पाेरेटवाद और हिन्दू–बहुसंख्यकवाद। 2019 के चुनाव में लगातार दूसरी जबरदस्त जीत के बाद ही मोदी–शाह जोड़ी ने इस योजना के वर्चस्वशाली हिस्सेदार तथा इसके सहयोगी बनने लायक ताकत हासिल की। लेकिन अब भी इस जोड़ी को दोनों की जरूरत है। मोदी–शाह जोड़ी और इनके दोनों सहयोगियों के बीच या खुद सहयोगियों के बीच की आपसी सम्भावित टकराहट का मैदान ही इस जोड़ी के खिलाफ चुनौती खड़ा करने की सबसे उर्वर जमीन है।

ठोस राजनीतिक शर्तों के आधार पर इन मैदानों का खाका बनाना बहुत मुश्किल लेकिन बेहद जरूरी कार्यभार है। यह बात स्पष्ट है कि यह ऐसी जगह है जहाँ अब तक किसी ने कदम नहीं रखा और मोदी–शाह जोड़ी की सफलता ने इस परिदृश्य को रूपान्तरित कर दिया है। निश्चय ही, चुनौती देने वालों को लगभग पूरी तरह आत्मसमर्पण कर चुके उन सभी संस्थानों से टकराना होगा जिन्हें संवैधानिक रूप से इस तरह बनाया गया था कि वे ठीक ऐसे ही लोकतान्त्रिक संघर्षों की हिफाजत करें, जिनमंे न्यायालय, पुलिस, नौकरशाही, मीडिया, विश्वविद्यालय और यहाँ तक कि सूचना इकठ्ठा करने वाली संस्थाएँ शामिल हैं।

अन्दर झाँककर देखिये

आखिरकार, 2020 की दिल्ली की यह घटना इससे पहले की सभी “साम्प्रदायिक हिंसा” की घटनाओं से मुख्यत: दो कारणों के चलते अलग है। पहला, यह मुसलमानों के “दलितीकरण” के एक साफ–सुथरे अभियान की शुरुआत को दर्शाती है, जिसके बारे में यहाँ बात नहीं हो सकती। दूसरा, यह मौजूदा भारतीय राजनीति में एक मोड़ की शिनाख्त करती है। इस नतीजे तक पहुँचने के सारे लक्षण स्पष्ट रूप से हिंसा के दौरान नहीं, बल्कि उसके बाद दिखायी दिये। पछतावे की तयशुदा गैर–मौजूदगी और उन्हीं आवाजों में उन्हीं नारों (जिसमें “गोली मारो” भी शामिल है) को उन जमावड़ों में उछालना जिसे अब “अमन का जुलूस” कहा जा रहा है, उसमें एक सन्देश छिपा हुआ था। स्मार्ट फोन में नक्शे की एप्लीकेशन की भाषा में कहें तो वह मानसिकता जिसे “हिन्दू राष्ट्र” कहा जाता है, अब मंजिल नहीं रह गयी – बल्कि यह शायद हमारी मौजूदा अवस्थिति बन चुकी है।

इससे पहले कि बहुत देर हो जाये हम भारतीयों को, खासकर उन्हें जो उस विराट बहुमत के साथ खुद को जोड़ते हैं या दूसरे लोग उन्हें इसका हिस्सा मानते हैं, हिन्दू होने के नाते, एक महत्त्वपूर्ण सवाल पूछना चाहिए। क्या यह वही है जो हम चाहते हैं?

द हिन्दू में प्रकाशित लेख का अनुवाद