–– सुन्दर सरुक्कई

इन दिनों एक शिक्षक होना बहुत मुश्किल है। संस्थानों का विध्वंस, जो इस सरकार की प्रमुख चिन्ता प्रतीत होती है, उसकी शुरुआत शिक्षा से ही हुई। अस्थायी भर्ती, आरक्षण पर सवाल उठाने तथा भय और धमकी का माहौल बनाने के माध्यम से प्रमुख सार्वजनिक विश्वविद्यालयों पर हमला लगातार जारी है। यह एक ऐसा समय है जब कई शिक्षक शिक्षण के अर्थ पर पुनर्विचार करने के लिए मजबूर हैं।

शिक्षक का स्थान

इसके चलते स्कूलों, कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में आम तौर पर शिक्षकों के बारे में संदेह का माहौल पैदा हुआ है। शिक्षकों पर लगातार हमले हो रहे हैं–– उन प्रणालियों द्वारा जो छात्रों की हिफाजत करना चाहते हैं (खासकर इसलिए कि आजकल छात्रों को फायदेमन्द ‘उपभोक्ता’ समझा जाता है), माता–पिता द्वारा जो यह तय करते हैं कि एक शिक्षक को क्या और कैसे पढ़ाना चाहिए, एक ऐसी सरकार द्वारा जो शिक्षकों को जलील और इस्तेमाल करती है, और निजी प्रबन्धकों द्वारा जो शिक्षकों को एक अनिवार्य ‘बुराई’ के रूप में देखते हैं, जिसको सहन करना है। हमारे कॉलेज और स्कूल आज भी सामन्ती रोब–दाब और अत्याचारी श्रम स्थितियों वाली जगहें हैं। ऐसे वातावरण में, अपने जीवन में पहली बार, मैं यह पूछना शुरू कर रहा हूँ कि क्या यह माहौल बिलकुल भी पढ़ाने लायक है?

पहले भी एक शिक्षक होना आसान नहीं था। वेतन काफी कम था और जो काम लिया जाता था, खासकर सैकड़ों परीक्षाओं की कॉपी जाँचना, वह कुछ खास मजेदार नहीं था। लेकिन मामला कुछ अलग थाय पढ़ाने के काम में सेवा और प्रतिबद्धता की भावना थी, कुछ हद तक चिकित्सा पेशे के समान। छात्रों के मन में भी, शिक्षकों के लिए सम्मान की भावना थी।

भारत में, शिक्षकों की कई कहानियाँ हैं जिन्होंने पढ़ाने के लिए बहुत त्याग किया। शिक्षण का मतलब छात्रों को प्रेरित करना, उन्हें बेहतर इनसान बनाना और जीवन में आगे बढ़ने के लिए सक्षम बनाना था। एक अच्छा गणित शिक्षक हमेशा गणित से कहीं ज्यादा सिखाता है। हर अच्छे शिक्षक से छात्रों ने जो सीखा, वह न केवल विषय से सम्बन्धित था, बल्कि दुनिया में जीने के तौर–तरीके से भी जुड़े थे।

शिक्षण की इस दुनिया का पहला विघटन तब हुआ जब शिक्षण ‘ट्यूशन देने’ के समतुल्य हो गया। और फिर दूसरी कई प्रमुख समस्याएँ आयीं जिन्होंने शिक्षण के प्रति इस संदेह को बढ़ा दिया। एक डिजिटल दुनिया में, एक शिक्षक की भूमिका उत्तरोत्तर अस्पष्ट होती गयी है। इस बात पर स्पष्टता की कमी है कि वास्तव में एक शिक्षक को क्या सिखाना चाहिए–– सामग्री, या सोचने के विविध तरीके, या दूसरों के साथ मिलकर सीखना?

इसी मुद्दे से सम्बन्धित है शिक्षा तक समान पहुँच का निरन्तर अभाव। हमारे यहाँ लोगों को शिक्षा प्रणाली के भीतर लाने की तुलना में उनको बाहर रखने पर अधिक पैसा लगाया और कहीं ज्यादा प्रयास किया गया है। इसका अधिकांश हिस्सा बुद्धि और योग्यता नामक उस संदिग्ध अवधारणा के माध्यम से किया जाता है, जिसे परीक्षाओं के जरिये संचालित किया जाता है। यह आश्चर्य की बात नहीं है कि शिक्षा के सभी स्तरों पर हमारा सकल नामांकन अनुपात काफी कम है, क्योंकि शुरुआत से ही इस प्रणाली का उद्देश्य नियंत्रण के तरीकों को खोजना था कि शिक्षा के दरवाजे से कौन भीतर आएगा और कौन नहीं। यह एकलव्य ग्रन्थि की एक निरन्तरता है, और यह इसलिए सम्भव है क्योंकि हमने एक ऐसी प्रणाली बनायी है जिसमें जो कुछ पढ़ाया जाता है उसमें बहिष्कृत लोगों के जीवन, उनकी जीवनदृष्टि और उनकी अभिव्यक्तियों का शायद ही कभी प्रतिनिधित्व होता है।

जाति और जानने की एक कहानी

अस्तित्व के इस संकट के दौरान, मैंने एक ताजा तमिल फिल्म देखी, जिसका नाम है सर्वम ताल मयम। यह एक ऐसी फिल्म है, जिसकी आलोचना जाति के मुद्दों से बचने के लिए की गयी है, हालाँकि यह फिल्म मुख्यत: जाति के साथ कर्नाटक संगीत के सम्बन्ध पर है। हो सकता है कि यह सच हो, लेकिन इसमें शिक्षण और सीखने की प्रकृति के बारे में जो कुछ भी कहा गया है, उसमें मुझे अधिक दिलचस्पी है। तमिल मुख्यधारा के मुहावरे में यह एक आधुनिक एकलव्य कथा है, और एकलव्य की कहानी की तरह ही, जो जाति और विशेषाधिकार के बारे में है, अपने मूल में यह फिल्म शिक्षण और सीखने की प्रक्रियाओं के बारे में है।

एकलव्य की कहानी सर्वविदित है और शिक्षा से बहिष्कार की समस्याओं को उजागर करने के लिए एक शक्तिशाली रूपक के रूप में इसका उपयोग किया जाता रहा है–– इस बारे में कि कैसे शिक्षा पर विशेषाधिकार प्राप्त लोग अपना वर्चस्व कायम करते हैं, भले ही दूसरे लोग उनसे कहीं बेहतर हों। यह फिल्म हमें यह पूछने पर मजबूर करती है–– आज एकलव्य क्या करेगा, अगर द्रोण उसे सिखाने से इनकार करते हैं?

आधुनिक एकलव्य, पीटर जॉनसन, एक मृदंगम बनानेवाले कारीगर का बेटा है। वह बहुत प्रतिभाशाली है। जब वह अचानक एक मृदंगम विद्वान, वेम्बु अय्यर का वादन सुनता है, तो वह मंत्रमुग्ध हो जाता है। लेकिन चेन्नई का यह एकलव्य आसानी से इस विद्वान का छात्र नहीं बन सकता है और बहुत–सी बाधाएँ उनके जातिगत भिन्नता से सम्बन्धित हैं। लड़के के पिता द्वारा इन भिन्नताओं का सबसे स्पष्ट रूप से इजहार किया जाता है जो इन उपकरणों का सृजन करते हैं, लेकिन मानो उन्होंने इस सच्चाई को स्वीकार कर लिया है कि उन्हें उसके वादन की अनुमति नहीं होगी।

हालाँकि, जब वेम्बु अय्यर ने उन्हें अपने छात्र के रूप में लेने से इनकार कर दिया, तो आधुनिक एकलव्य ने हार नहीं मानी। वह कोशिश जारी रखता है और अन्त में अय्यर के छात्र के रूप में अपना लिया जाता है क्योंकि पीटर के जुनून और वास्तविक प्रतिबद्धता को अय्यर ने महसूस कर लिया। पीटर अपने गुरु के प्रति पूर्ण समर्पण के मामले में एकलव्य की तरह ही है, लेकिन एक गलतफहमी के कारण गुरु ने बिना किसी गलती के पीटर को निष्कासित कर दिया। उनका पुनर्मिलन वास्तव में कहानी का मर्म है, क्योंकि यह न केवल विभिन्न जाति के पदसोपान पर स्थित लोगों के बीच, बल्कि शिक्षक और छात्र के पदसोपान के बीच भी एक समझौता वार्ता है।

यदि अर्जुन मूल कहानी में एकलव्य के समकक्ष थे, तो इस आधुनिक संस्करण में एक उतना ही शक्तिशाली समकक्ष भी है। यह एक गौर वर्ण, तमिल ब्राह्मण एनआरआई के रूप में है, जिसका नामांकन हार्वर्ड विश्वविद्यालय में पीएचडी कार्यक्रम में हुआ है। वह अर्जुन से कहीं अधिक विशेषाधिकार के साथ आता है! लेकिन पीटर घबराता नहीं है। वह परम्परावादियों को उनके अपने ही खेल में निशाने पर लेता है। फिल्म के चरमोत्कर्ष पर, उसकी अपनी ऐतिहासिक और सांस्कृतिक चेतना को अपनी शक्ति से झुठलाते हुए दिखाया गया है। पीटर अपने गुरु से सामना होने के कारण बदल जाता है लेकिन वह उस वाद्य को और शास्त्रीय संगीत की उस परम्परा को भी बदल देता है जो उस वाद्य का उपयोग करती है।

वेम्बु अय्यर का किरदार एक शिक्षक के सभी संघर्षों का खुलासा करता है, जो एक विशेष परम्परा से सम्बन्धित है, लेकिन उसमें शिक्षा का एक आदर्श है जो उस बहिष्करण की सीमा को लाँघ जाता है। एक गुरु वही होता है जो एक सच्चे शिष्य की खातिर अपनी परम्परा और सुख–सुविधा से परे जाने में सक्षम होता है। फिल्म हमें याद दिलाती है कि एक शिक्षक अच्छे छात्रों के बिना अधूरा है, लेकिन अच्छा होने का अर्थ केवल बौद्धिक क्षमता नहीं हैय बल्कि उससे कहीं ज्यादा है। फिल्म का अन्तिम दृश्य, जब गुरु अपने शिष्य को एक ऐसे व्यक्ति के रूप में स्वीकार करता है, जो न केवल परम्परा को आगे बढ़ा सकता है, बल्कि उसमें अपनी तरफ से सुधार भी ला सकता है, शिक्षण के केन्द्रीय नैतिक सिद्धान्तों में से एक को गहराई से रेखांकित करता है।

एक समावेशी प्रणाली की आवश्यकता

यह फिल्म हमें याद दिलाती है कि वर्तमान शिक्षा प्रणाली एक प्रभावशाली तबके के विशिष्ट गुणों, विशेषताओं और इच्छाओं पर आधारित है। यह समावेशी नहीं है, क्योंकि इसमें पीटर जैसे छात्रों तथा विभिन्न संस्कृतियों और विविध ऐतिहासिक शक्तियों पर आधारित, शिक्षा के सत्य, ज्ञान और विशेषताओं के लिए कोई जगह नहीं है। लेकिन पीटर का संघर्ष शिक्षकों को यह याद दिलाता है कि शिक्षण एक सेवा है, लेन–देन की चीज नहीं। हमारा समाज ऐसे अनगिनत प्रतिबद्ध शिक्षकों से भरा हुआ है, लेकिन वे सभी उन शक्तियों द्वारा दबा दिये जाते हैं जो शिक्षा को अपनी व्यक्तिगत और राजनीतिक महत्त्वाकांक्षाओं की पूर्ति का साधन समझ कर संचालित करते हैं।

(सुन्दर सरुक्कई नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ एडवांस स्टडीज, बेंगलुरु में दर्शनशास्त्र के प्रोफेसर हैं। “द हिन्दू” के प्रति आभार सहित। अनुवाद–– दिगम्बर)