खामोश हो रहे अफगानी सुर
साहित्य–– प्रो. कृष्ण कुमार रत्तू
वतन इश्के तूं इछतेखारम
उपरोक्त फारसी गीत का अर्थ है, “अपने प्यारे देश पर मुझे मान है।” 1970 के दशक में जब फारसी भाषा–भारत के सुप्रसिद्ध गायक अब्दुल वहाब मदादी ने इसे लिखा तो एक उत्कृष्ट रचना के तौर पर पूरे देश में गाया जाता था। पर अब पिछले दो दशकों से स्थिति पूरी तरह बदल गयी है। इन दिनों फिर तालिबानी हकूमत ने अफगानिस्तान के सुर, साज, गीत–संगीत पर पाबन्दी लगा दी है। फतवाबन्दी के चलते अब तक 40 से ज्यादा प्रसिद्ध लोक–गायकों और संगीतकारों को गोली से उड़ा दिया गया है। यह विरासत को दफनाना नहीं तो और भला क्या है!
यह वही धरती है जहाँ सूफीयों और सूफी संगीतकारों ने कभी सदियों पहले शान्ति और अमन का सुर छेड़ा था। आज वहाँ पर जो हश्र संगीत का है, वह किसी भी सभ्य समाज की कल्पना से परे है। ये दिल को दहला देने वाला मंजर है। पिछले दिनों पश्तो और फारसी गजल गायक को जिस तरह बेइज्जत करके शरे–मैदान गोली मारी गयी, वह जालिमाना वीडियो देखकर आप परेशान हो सकते हैं। इसे पूरी दुनिया ने देखा है।
हमारे इतिहास और परम्परा विरासत में गीत, संगीत और सुरों को ईश्वर की देन और उसकी आवाज माना गया है। अमन का पैगाम इन सुरों के माध्यम से ही पूरी दुनिया में पहुँचा है, लेकिन अब अफगानिस्तान में तालिबानी शासन इसका विनाश कर रहा है। आज सैंकड़ों अफगान पश्तो और फारसी लेखक, गीतकार, संगीतकार और गायक पेशावर, पाकिस्तान में शरण लेकर अपने संगीत के हुनर और अपने साजों को बचाकर परम्परागत पश्तून संगीत और अफगान सुरों की हिफाजत कर रहे हैं।
पिछले दिनों अफगानिस्तान में गीत–संगीत के प्रसिद्ध कलाकारों को चुन–चुन कर मार डाला गया है। यहाँ तक कि फिल्मसाज भी अपनी जान बचाकर भाग रहे हैं। महिला गायकों की स्थिति तो और भी खराब है। निम्न लाइनों से आप इसका अन्दाजा लगा सकते हैं, जो अफगानिस्तान से देश निकाला सहते हुए गीतकार ने लिखी हैं। ईरान में शरण लेकर रह रहे अन्दगयी कहते हैं––
पंजशीर की घाटियों में
महफिलें तो इतिहास हो गयीं
मेलों और मजारों के चिराग बुझ गये
अब बारूद है पंजशीर की वादियों में
हर सड़क पर पहरा है
संगीत गायब है
सुर अदृश्य हैं
गर्दों–गुबार और बारूद की गन्ध है चहुँ ओर
मेरी हरी–भरी इस अफगान धरती के टुकड़े पर।
पिछले दिनों जिन फारसी और पश्तो गायकों को घरों से बाहर निकाल कर मैदान में गोली मारी गयी, उनमें शामिल प्रसिद्ध संगीतकारों में वे नाम भी शामिल हैं जिन्होंने पश्तो गीतों की धूम से ईरान, पाकिस्तान, उजबेकिस्तान और तजाकिस्तान से लेकर यू–टयूब और पूरी दुनिया में अपने परम्परागत संगीत से अपनी जगह बनायी। लोक–गायक जिसका नाम था फवाद अन्दराबी, जिसे गोली मारकर साजों समेत शरेआम जला दिया गया। एक और जान गवाँने वाले गायक संरगद के गले में तबला और दूसरे साज डालकर इलाके में घुमाया और कूनर के मैदान में गोली से उड़ा दिया। अब्दुल हक उमेरी को भी साजों समेत जला दिया गया। ये पकतीया राज्य की घटना है।
तालिबानी प्रशासन कहता है कि वे शरीया कानून के अधीन हैं जिसमें गीत–संगीत हराम हैं, लेकिन वे यह भूल जाते हैं कि इस क्षेत्र में संगीत की परम्परा सदियों से चली आ रही है। सूफी मजारों पर फारसी कलाम और पश्तो सूफी के नृत्य कार्यक्रम हजारों लोग सुनते रहे हैं। अफगानिस्तान में औरतों को टीवी पर काम करने से रोक दिया गया है। यह कैसा निजाम है जहाँ साहित्य और कलाओं को दफन किया जा रहा है।
उल्लेखनीय है कि अफगानिस्तान में संगीत की परम्परा सूफी परिपाटी से जुड़ी हुई है। समूह गायन शैलियाँ जिसमें मर्सिया, मनकासत, नोहेर और रोजेह शामिल हैं। असल में यह इस्लामी चिश्ती काबली कबीले की परम्परा का संगीत है। इसमें हारमोनियम और तबला प्रयोग किया जाता है। हेलमण्ड प्रान्त के हैरात में सूफी दरगाहों पर कई–कई रातों तक संगीत की महफिलें सजा करती थीं। इनमें फारसी भाषा के साथ उप भाषाएँ–– लोगारी, शेमाली आदि भी शामिल रहती थीं।
अफगानिस्तान के उस्ताद गायकों में बेहद प्रभावशाली रहे मुहम्मद हुसैन सरहांग, रहीम बख्श, उस्ताद सरहांग ने पश्तो और दादरी भाषाओं में संगीत और नृत्य की ऐतिहासिक परम्परा कायम की। उस्ताद मुहम्मद हुसैन को उस्ताद बड़े गुलाम अली खाँ के समकालीन के रूप में भी देखा जाता है। कन्धार घाटी के उबैदुल्ला जन कन्धराई के साथ उस्ताद कासिम और उस्ताद रहीम बख्श ऐसे गायक हुए हैं, जो विभाजन से पहले भारत में भी प्रसिद्ध रहे। लेकिन सच्चाई यह भी है कि शुद्ध अफगान और दारी पश्तो शैली में उस्ताद अहमत जहीर ने इसे घर–घर पहुँचाया।
फरहाद दरिया ने 1970 में इस शैली के माध्यम से पश्तो संगीत में नयी रूह भर दी थी। इस शैली को बाद में ईरानी संगीतकार गूगोश ने जाज शैली में प्रयुक्त किया और हरदिल–अजीजी की नयी दमदार शैली को सिरे चढ़ाया। अफगानिस्तान में रैप, पॉप और शैक संगीत ने भी पैर पसारे, लेकिन यह तालिबानी हकूमत से पहले की स्थिति थी।
बीन, रबाब, सरोद, हारमोनियम और तबला, घुँघरू सब कुछ वही है, जो भारतीय उपमहाद्वीप में संगीत की पहचान है। रबाब को अफगानिस्तान में केवल शहतूत की लकड़ी से तीन तारों के साथ बनाया जाता है। घिचकी भी एक अफगान साज है। 1925 में जब रेडियो अफगानिस्तान शुरू हुआ, परबीन पहली महिला गायिका थी। 1950 से 1979 तक अफगान दारी, पश्तो और फारसी भाषाओं में संगीत की धमक पड़ोसी देशों तक सुनायी देती थी। उस्ताद दाऊद वजीरी, डॉ मुहम्मद सादिक फितरत, रहीम महरयार और हैदर सलीम प्रसिद्ध अफगानी गायकों में शामिल थे जिन्होंने संगीत की एक नयी दुनिया बसायी जो अब तालिबानी राज में खत्म हो गयी है।
वर्ष 2001 में अमरीकी हस्तक्षेप के साथ फिर एक दौर गीत, साहित्य और संगीत का शुरू हुआ जो तालिबानी शासन के दोबारा आने पर समाप्त हो गया है। वर्तमान मंे 40 से अधिक गायकों और संगीतकारों की अप्रत्याशित मौत के बाद अफगान संगीतकार काबुल से दूसरे शहरों में विस्थापित हो गये हैं या भूमिगत हो गये हैं।
संगीतकारों और गायकों के लिए अफगानिस्तान में अब कोई जगह नहीं है। गायक पासुन मुन्नवर के अनुसार, “हम गाना छोड़ भी दें तब भी तालिबानी प्रशासन हमें जान से मार देगा। इसलिए वतन छोड़ दिया है।” गुलाब अफरीदी का कहना है “रबाब की तारों में अब मौत का ताण्डव है।” रिकार्डिंग स्टूडियो बन्द हैं। साज जलाये जा रहे हैं। कहा जाता है कि जिस देश को बर्बाद करना हो, उसकी भाषा, संस्कृति, गीत–संगीत को हथिया लो वहाँ जिन्दगी समाप्त हो जाएगी। आज अफगान धरती पर यही सब हो रहा है।
जिन्दगी के उल्लास का सन्देश गीतों की लय और संगीत की लहरों के बीच है। संतूर और रबाब जैसे साज जब तबले की थाप के साथ उठती स्वर लहरियाँ–– जिन्दगी के सपनों की उड़ान भरती है तो प्रकृति धरती पर उतर आती है।
एशियाई क्षेत्र की खूबसूरत धरती अफगानिस्तान पिछले कई दशकों से जिस दौर का सामना कर रही है, वह पूरी दुनिया के कलाकारों और संगीतकारों के लिए दुखद है। अफगानी कलाकारों के लिए तो बेवतनी, जिल्लत और मौत का सामना करना इसे और भी भयावह बना दे रहा है। अब यह संघर्ष मौत और जिन्दगी के बीच फँसी हुई सांस्कृतिक पहचान, भाषा, गीत–संगीत का है जो खत्म हो रहा है। साजों को जलाया जा रहा है, गायकों को गोली मारी जा रही है। “क्या दुनिया की कोई आवाज इस सुर संगीत की दुनिया को बचाने हेतु तालिबानी फतवे के विरुद्ध आवाज उठाएगी। ईरान में रहने वाले गायक और संंगीतकार फियाज से जब मैंने फोन पर यह सवाल पूछा तो अपनी नयी गजल का अर्थ बताते हुए उसने कहा––
“अब धुआँ ही धुआँ है मेरे चारों ओर
अब सन्नाटा पसरा है, धान के खेत भी चुप हैं
अब बारूद है फसलों के बीजों में
मौत की फसल के बीज बो रहे हैं
हम इन दिनों अपनी
स्वर्ग जैसी धरती में”
(प्रो. कृष्ण कुमार रत्तू दूरदर्शन के पूर्व महानिदेशक रह चुके हैं। उर्मिल मोंगा ने इस लेख का पंजाबी से हिन्दी में अनुवाद किया है।)
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