क्या लोकतन्त्र का लबादा ओढ़े अमरीका तानाशाही में बदल गया है?
अन्तरराष्ट्रीय––जॉन डब्ल्यू व्हाइटहैड
“गरीब और दबे कुचले लोग बढ़ते जा रहे हैं। नस्लीय न्याय और मानवाधिकार बचे नहीं हैं। उन्होंने एक दमनकारी समाज बनाया है और हम सब इच्छा न होते हुए भी उनके साथी हैं। उनका इरादा बचे हुए लोगों की चेतना का सत्यानाश करके शासन करने का है। हमें थपकियाँ दे–देकर समाधि में सुलाया जा रहा है। उन्होंने हमें हमसे ही अलग कर दिया है और दूसरों से भी। हमारा ध्यान सिर्फ अपने फायदे पर ही रहता है।”
––दे लिव (1988), जॉन कारपेंटर।
हम दो दुनिया में रहते हैं, आप और मैं।
एक दुनिया, जिसे हम देखते हैं (देखने के लिए ही बने हैं) और फिर दूसरी दुनिया, जिसे हम महसूस करते हैं (कभी–कभी इसकी एक झलक ले लेते हैं)। इसमें दूसरी वाली दुनिया सरकार और उसके प्रायोजकों (स्पाँसर) द्वारा संचालित प्रचार और गढ़ी गयी वास्तविकता से कोसों दूर है, प्रचार में मीडिया भी शामिल है।
वास्तव में, ज्यादातर अमरीकी समझते हैं कि अमरीका में जीवन विशेषाधिकार प्राप्त, प्रगतिशील और स्वतंत्र है। पर ऐसा नहीं है, क्योंकि आर्थिक गैरबराबरी बढ़ रही है, वास्तविक कार्यसूची और वास्तविक ताकत ओर्वेलियन द्विअर्थी शब्दों और कॉर्पाेरेट के अन्धकार की परतों के नीचे दफन कर दी गयी है और “स्वतन्त्रता” बन गयी है–– सशस्त्र फौज के मुँह के लिए छोटी सी कानूनवादी खुराक।
सब कुछ वैसा नहीं है जैसा दिखाई देता है।
“आप उन्हें गलियों में देखते हैं। आप उन्हें टेलीविजन पर देखते हैं। यहाँ तक कि आप इस पतन के लिए उन्हें वोट दे देते हैं। आप सोचते हैं कि वे बिलकुल आप जैसे हैं। आप गलत हैं। पूरी तरह से गलत।”
यह बात जॉन कारपेंटर की फिल्म “दे लिव” में प्रस्तावना के तौर पर कही गयी है। यह फिल्म 30 साल पहले नवम्बर 1988 को रिलीज हुई थी और आज भी हमारे आधुनिक दौर के लिए भयावह रूप से बेचैन करनेवाली एकदम उपयुक्त फिल्म है।
अपनी डरावनी फिल्म हैलोवीन (1978) के लिए पहचाने जाने वाले कारपेंटर, यह मानते हैं कि शैतान का कहीं न कहीं निवास है इसलिए अँधेरा खत्म नहीं किया जा सकता। कारपेंटर के काम का ज्यादातर हिस्सा सत्तावादी और स्थापित चीजों की खिलाफत को मजबूती से समेट लेता है। फिल्म बनाने वाले का थोड़ा सा झुकाव उस सरोकार में है जिसमें वह हमारे समाज और खास तौर पर सरकार की परतें उधेड़ते हैं।
कई बार, कारपेंटर ने चित्रित किया है कि सरकार अपने नागरिकों के खिलाफ काम कर रही है, बहुत से लोगों को सच्चाई छू तक नहीं पा रही है, तकनीक आपे से बाहर है और भविष्य किसी भी डरावनी फिल्म से ज्यादा डरावना है।
इस्केप फ्रॉम न्यूयॉर्क (1981) में, कारपेंटर फासीवाद को अमरीका के भविष्य के रूप में प्रस्तुत करते हैं।
द थिंग (1982), यह 1951 में बनी विज्ञान गल्प क्लासिक की रीमेक है। इसमें भी कारपेंटर का मानना है कि हम सब तेजी से अमानवीय हो रहे हैं।
क्रिस्टीन (1983), यह फिल्म भूत–प्रेत द्वारा कब्जाई गयी कार के बारे में स्टीफन किंग के उपन्यास पर बनी है। इसमें तकनीक अपनी इच्छा और चेतना का प्रदर्शन करती है और कातिलाना उपद्रव करने लगती है।
इन द माउथ ऑफ मेडनेस में कारपेंटर बताते हैं कि बुराई तब बढ़ने लगती है “जब लोग यथार्थ और कपोल कल्पना (फंतासी) के बीच अन्तर करने की योग्यता खो देते हैं।”
और फिर कारपेंटर की दे लिव (1988) है जिसमें दो प्रवासी मजदूर यह जान लेते हैं कि दुनिया वैसी नहीं है जैसी यह दिखती है। वास्तव में जनता एलिएंस (दूसरे ग्रह के वासियों) द्वारा नियंत्रित और शोषित की जा रही है। एलिएंस कुलीनतंत्रीय अभिजात वर्ग के साथ साझेदारी में काम कर रहे हैं। हर समय, जनता अपनी जिन्दगी को प्रभावित करने वालेे वास्तविक एजेंडे से आनन्दपूर्वक अनजान है–– खुश करके सुला दी गयी है, उसे आज्ञापालन की शिक्षा दी गयी है, उस पर मीडिया भटकाओं की बमबारी की गयी है, टेलीविजन और दूसरे इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों द्वारा अशिष्ट सन्देशों से सम्मोहित किया गया है और वह इसी तरह की तमाम चीजों से अनजान है।
यह तब पता चलता है जब बेघर आवारा जॉन नडा (स्वर्गीय रोडी पाइपर ने यह भूमिका निभायी थी) एक डॉक्टर्ड हॉफमन लेंस वाले धूप के चश्मे की एक जोड़ी खोज लेता है। उससे वह देखता है कि अभिजात वर्ग द्वारा गढ़ी गयी वास्तविकता की परतों के नीचे क्या झूठ छुपा हुआ है–– नियंत्रण और बन्धन।
जब सच्चाई के लेंस से देखा गया तब अभिजात वर्ग का लबादा हट गया। जो इससे पहले बहुत ही मानवीय दिखते थे वे उन राक्षसों के रूप में दिखायी देते हैं जिन्होंने नागरिकों का शिकार करने के लिए उन्हें गुलाम बना रखा है।
इसी तरह, विज्ञापन तख्तियों में छिपा सच बाहर दिखता है, आधिकारिक सन्देशों का पर्दाफाश होता है–– एक विज्ञापन में बिकनी पहने हुए महिला के पीछे सन्देश है–– जैसे वह दर्शकों को “शादी और प्रजनन” के लिए आदेश दे रही हो। एक पत्रिका चिल्लाती है “उपभोग करो” और “आज्ञा पालन करो”। विक्रेता के हाथों में डॉलर की एक गड्डी दावा करती है, “यह आपका भगवान है।”
जब नडा के हॉफमन लेंसों से देखा गया तब लोगों के अवचेतन में ठूँसे गये छुपे सन्देश नजर आये–– कोई स्वतंत्र सोच नहीं, उनके अनुरूप ढलना, अधीनता स्वीकार करना, सोते रहो, खरीददारी करो, टीवी देखो, कोई कल्पना मत करो और सत्ता से सवाल मत पूछो।
दे लिव में अभिजात वर्ग द्वारा इस आज्ञापालन अभियान से, जिसने अमरीकी संस्कृति के पतन का अध्ययन किया हो, भलीभाँति परचित है।
एक नागरिक जो अपने जैसों के लिए नहीं सोचता है, बिना किसी सवाल के आज्ञा पालन करता है, दब्बू है, सत्ता को चुनौती नहीं देता, बने–बनाये ढर्रे के बाहर नहीं सोचता है और बैठकर मनोरंजन करता है, तो वह ऐसा नागरिक है जिसे आसानी से नियंत्रित किया जा सकता है।
इस तरह दे लिव का मुख्य सन्देश एक ऐसा सही नजरिया देता है जबकि अमरीकी पुलिस राज्य में जिन्दगी के बारे में हमारा नजरिया विकृत है। जैसा कि दार्शनिक स्लावो जिजेक ने “लोकतन्त्र में तानाशाही” के सन्दर्भ में कहा है, “अदृश्य व्यवस्था जो हमारी आभासी स्वतन्त्रता को बनाये रखती है।”
हमको सावधानी से गढ़ी गयी ऐसी कपोल कल्पना कीे खुराक दी जा रही है, जिसका वास्तविकता से कोई लेना–देना नहीं है।
सत्ता हमें ऐसी ताकतों से डराना चाहती है जो हमारे नियंत्रण से बाहर हैं, जैसे–– आतंकवादियोंे, निशानेबाजोंे और हमलावरों से।
वे हमारी सुरक्षा और कल्याण के लिए सरकार और हथियारबन्द सेनाओं से डराना और उन पर आश्रित बनाना चाहती हैं।
वे चाहती हैं कि अपने पूर्वाग्रहों के चलते हम आपस में बँट जायें, एक–दूसरे का विश्वास न करें और एक–दूसरे के खून के प्यासे बन जायें।
उनमें से ज्यादातर, अपने हुक्म के अनुसार हमसे कदमताल करवाना चाहते हैं।
हमें विचलित करने, भटकाने और मदहोश करने के सरकारी प्रयास की गन्दगी को असफल करना है, और इस देश में जो वास्तविकता है उसके सुर में सुर मिलाना है, और तब आप अचूक, ठोस सत्य की तरफ सिर के बल आगे बढ़ेंगे। धनवान अभिजात वर्ग जो हम पर शासन करता है, वह हमें बलि का बकरा समझता है और कभी भी बलिदान करने को तैयार हैय हमें उपभोग का संसाधन समझता है, दुर्व्यवहार का पात्र और त्याज्य समझता है।
असल में, प्रिंसटन और नॉर्थवेस्टर्न यूनिवर्सिटी ने एक अध्ययन से निष्कर्ष निकाला है कि अमरीकी सरकार अमरीकी नागरिकों के बहुमत का प्रतिनिधित्व नहीं करती है। निस्सन्देह, इस अध्ययन से पता चला कि सरकार धनवानों और ताकतवर या कहिए आर्थिक रूप से अभिजात वर्ग द्वारा चलायी जा रही है। इसके अतिरिक्त, अनुसंधानकर्ताओं ने निष्कर्ष निकाला कि इस सरकार द्वारा बनायी गयी नीतियों से लगभग हमेशा अभिजात वर्ग का विशेष लाभ होता है और उनमें लॉबिंग करने वाले गिरोहों का पक्ष होता है।
दूसरे शब्दों में, हम पर लोकतन्त्र का लबादा ओढ़े कुलीनतंत्र द्वारा शासन किया जा रहा है और यकीनन हमें फासीवाद के रास्ते पर बढ़ाया जा रहा है। फासीवाद में एक ऐसी सरकार होती है जिसमें निजी व्यवसायों के हिसाब से नियम बनते हैं, जिसमें धन को भगवान कहा जाता है, जनता को महज नियंत्रित किये जाने लायक समझा जाता है।
आजकल चुनाव में जीतने के लिए आपको न केवल धनवान होना पड़ेगा, बल्कि धन्नासेठों पर पकड़ भी कायम रखनी होगी। वैसे चुनाव में जीतना अपने आप में अमीर बनने का सटीक रास्ता है। सीबीएस समाचार के अनुसार एक बार चुने जाने के बाद कांग्रेस के सदस्य, सम्बद्धों और सूचनाओं तक पहुँच जाने का लाभ उठाते हैं, और वे अपनी सम्पत्ति को बढ़ाने में इनका इस्तेमाल करते हैं। ऐसा शानदार रास्ता निजी क्षेत्र में ढूँढने पर भी नहीं मिलेगा। यहाँ तक कि जब राजनीतिज्ञ किसी पद पर नहीं रहते तब भी उनके सम्बन्ध उन्हें फायदा पहुँचाते रहते हैं।
अमरीकी राजनीतिक व्यवस्था के इस जबरदस्त भ्रष्टाचार की निन्दा करते हुए, भूतपूर्व राष्ट्रपति जिम्मी कार्टर ने व्हाइट हाउस, गवर्नर की हवेली के लिए चुनाव की प्रक्रिया का भण्डाफोड़ करते हुए, कांग्रेस या राज्य विधायिकाओं को “असीमित राजनीतिक रिश्वत” करार दिया था और कहा था कि ‘‘हमारी राजनीतिक व्यवस्था में जो जिसका खायेगा उसका गायेगा जैसी स्थिति पैदा हो गयी। वे कार्यकाल पूरा हो जाने के बाद भी अपने हित साधने की चाहत रखते हैं और कभी–कभी उसमें कामयाब भी हो जाते हैं।’’
लगता है कि अमरीका में फासीवाद जब अपनी अन्तिम कील ठोकेगा, तब भी सरकार का मूलरूप ऐसा ही बना रहेगा–– फासीवाद दोस्ताना लगेगा। सत्र में विधायक होंगे, चुनाव भी होंगे, और मीडिया इसी तरह मनोरंजन और मामूली राजनीति पर समाचार देता रहेगा। वास्तव में पर्दे के पीछे से सरकार का नियंत्रण पूरी तरह कुलीनतंत्र के हाथों में सौंप दिया जायेगा।
जानी पहचानी आवाज?
स्पष्ट रूप से, आज हम सरकारी और कार्पोरेट हितैषी अभिजात वर्ग द्वारा शासित हैं।
हम “कॉर्पाेरेटवाद” (मुसोलिनी इसी का पक्षधर था) में घुस चुके हैं। यह फासीवाद के नंगे नाच के रास्ते के बीच में एक पड़ाव है।
कॉर्पाेरेटवाद वह व्यवस्था है जहाँ कुछ धन्नासेठों के हितों के लिए, बहुसंख्यक पर शासन किया जाता है, धन्ना सेेठों के इन हितों का चुनाव नागरिक नहीं करते। इस तरह से, यह लोकतन्त्र या सरकार का गणतांत्रिक रूप नहीं है, जिसके लिए कभी अमरीकी सरकार स्थापित की गयी थी। यह शीर्ष द्वारा नीचे के लोगों पर शासन करने वाली सरकार का एक रूप है और यह अतीत के उन साम्राज्यवादी शासनों का एक आदर्श रूप है, जिनके विकास का एक भयानक इतिहास है–– यह एक पुलिस राज्य है, जहाँ हर किसी के ऊपर निगरानी की जाती है, मामूली बात पर ही सरकारी एजेंटों द्वारा घेरकर पुलिस नियंत्रण और हिरासत शिविरों में रखा जाता है।
फासीवाद के अन्तिम प्रहार के लिए एक सबसे महत्त्वपूर्ण घटक की जरूरत होगी–– यानी अधिकांश लोगों को यह मानना होगा कि यह केवल फायदेमन्द ही नहीं बल्कि आवश्यक भी है।
लेकिन एक ऐसे दमनकारी शासन से लोग क्यों सहमत होंगे?
उत्तर हर युग में एक ही है : डर।
डर लोगों को मूर्ख बनाता है।
डर राजनीतिज्ञों द्वारा सरकार की ताकत बढ़ाने के लिए अक्सर उपयोग किया जाने वाला तरीका है। और जैसा कि अधिकांश सामाजिक टिप्पणीकारों ने स्वीकार किया है कि आधुनिक अमरीका में डर का माहौल है–– आतंकवाद का डर, पुलिस का डर, अपने पड़ोसियों का डर और इसी तरह अन्य डर।
डर के दुष्प्रचार का उन लोगों द्वारा काफी प्रभावी ढंग से उपयोग किया जाता है जो नियंत्रण हासिल करना चाहते हैं, और यह अमरीकी आम जनता पर काम कर रहा है।
इन तथ्यों के बावजूद कि आतंकवादी हमले की तुलना में दिल की बीमारी से मरने की हमारी सम्भावना 17,600 गुना ज्यादा हैय एक हवाई जहाज केे किसी आतंकवादी साजिश का शिकार होने की तुलना में हवाई जहाज दुर्घटना से मरने की सम्भावना 11,000 गुना अधिक है, आतंकवादी हमले की तुलना में एक कार दुर्घटना से मरने की 1,048 गुना अधिक सम्भावना है और एक आतंकवादी की तुलना में एक पुलिस अधिकारी के हाथों मरने की 8 गुना अधिक सम्भावना है, हमने सरकारी अधिकारियों को अपने जीवन का नियंत्रण सौंप दिया है जो हमें एक वस्तु समझते हैं और ज्यादा से ज्यादा धन और सत्ता पाने का स्रोत मानते हैं ।
जैसा कि दे लिव फिल्म में दाढ़ी वाला आदमी चेतावनी देता है, ‘वे सो रहे मध्यम वर्ग को खत्म कर रहे हैं। अधिक से अधिक लोग गरीब बन रहे हैं। हम उनके मवेशी हैं। हम दासता के लिए पैदा हुए हैं।’
इस सम्बन्ध में, हम दे लिव फिल्म में उत्पीड़ित नागरिकों से ज्यादा अलग नहीं हैं।
पैदा होने से मरने तक हम इस बात पर विश्वास करते हैं कि जो लोग हम पर शासन करते हैं, वे हमारे भले के लिए करते हैं। सच इससे बहुत अलग है।
सच्चाई का सामना करने के बजाय, हम खुद को भयभीत, नियंत्रित, ठंडी लाश बन जाने देते हैं।
हम नकार की सतत अवस्था में जीते हैं जो दीवार–दर–दीवार लिखे मनोरंजक समाचारों और चलचित्र उपकरणों की वजह से अमरीकी पुलिस राज्य की दर्दनाक सच्चाई से बेखबर है।
इन दिनों अधिकांश लोग लाश की तरह सिर को मोबाइल की स्क्रीन में घुसाये घूमते रहते हैं, भले ही वे सड़क पार कर रहे हों। परिवार अपने सिर को नीचे झुकाये रेस्तराँ में बैठते हैं, अपनी–अपनी स्क्रीन की वजह से साथ होकर भी अलग होते हैं और उनके आस–पास क्या हो रहा है इससे अनजान रहते हैं। विशेष रूप से युवा अपने हाथों में रखे उपकरणों के प्रभुत्व में रहते हैं, इस तथ्य से अनजान हैं कि वे आसानी से एक बटन दबा कर, उपकरण को बन्द कर सकते हैं और आराम से आ–जा सकते हैं।
दरअसल, स्क्रीन यानी टेलीविजन, लैपटाप, कम्प्यूटर, सेल फोन आदि, देखने से बढ़कर कोई सामूहिक गतिविधि नहीं है। वास्तव में, नीलसेन अध्ययन की एक रिपोर्ट से पता चलता है कि अमरीका में स्क्रीन देखना हमेशा उच्चस्तर पर बना रहता है। उदाहरण के लिए, औसत अमरीकी प्रति माह लगभग 151 घण्टे टेलीविजन देखता है।
सवाल उठता है कि स्क्रीन के इतने इस्तेमाल का किसी के दिमाग पर क्या असर होता है?
मनोवैज्ञानिक रूप से यह नशे की लत जैसा है। शोधकर्ताओं ने पाया कि ‘टीवी चलते ही दर्शक ने ज्यादा आरामदायक महसूस किया और चूँकि ऐसा बहुत तेजी से हुआ है, इसलिए टीवी बन्द होते ही तनाव उतनी ही तेजी से लौट आता है, टीवी देखना लोगों के लिए तनाव कम करने की जरूरी शर्त है।’ शोध यह भी दिखाता है कि प्रोग्राम में दिलचस्पी न रखने के बावजूद, दर्शकों के दिमाग की तरंगें धीमी हो जाती हैं, इस प्रकार उन्हें ज्यादा निष्क्रिय और अप्रतिरोधी अवस्था में बदल देती हैं।
ऐतिहासिक रूप से, टेलीविजन का इस्तेमाल सत्ता में बैठे लोगों द्वारा असन्तोष को ठण्डा करने और विध्वंसकारी लोगों को शान्त करने के लिए किया जाता है। न्यूजवीक के अनुसार, ‘बढ़ती भीड़ तथा पुनर्वास और परामर्श के लिए कम बजट की गम्भीर समस्या के चलते अधिकतर जेल अधिकारी कैदियों को शान्त रखने के लिए टीवी का उपयोग कर रहे हैं।’
हम सब जानते हैं कि अमरीकियों द्वारा टेलीविजन पर जो कुछ भी देखा जाता है, वह छह बड़े निगमों द्वारा नियंत्रित चैनलों के माध्यम से प्रसारित किया जाता है, जिसे हम देखते हैं वह कॉर्पाेरेट अभिजात वर्ग द्वारा नियंत्रित किया जाता है और यदि उस अभिजात वर्ग को किसी विशेष विचारधारा को बढ़ावा देने या अपने दर्शकों के गुस्से पर काबू करने की आवश्यकता होती है, तो वह ऐसा बड़े पैमाने पर कर सकता है।
अगर हम टीवी देख रहे हैं, तो हम कुछ नहीं कर रहे हैं।
सत्ता इसका अर्थ समझातीे है। जैसे कि टेलीविजन पत्रकार एडवर्ड आर मुरो ने 1958 के भाषण में चेतावनी दी थी––
‘‘इस समय हम अमीर, मोटे, आरामदायी और आत्मसन्तुष्ट हैं। इस समय अप्रिय या परेशान करने वाली जानकारी के प्रति हमारे मन में घृणा है। हमारा जन मीडिया इसे प्रतिबिम्बित करता है। लेकिन जब हम अपने अतिरिक्त मोटापे को दूर नहीं कर देते और यह नहीं मान लेते कि टेलीविजन का उपयोग मुख्य रूप से विचलित करने, भ्रमित करने, जी बहलाने और हमें बाँटने के लिए किया जाता है, तब जाकर टेलीविजन और जो इसे वित्तपोषित करते हैं, जो इस पर निगरानी रखते हैं और जो लोग इसमें काम करते हैं उनकी एक पूरी तस्वीर उभर सकती है।”
यह बात मुझे वापस दे लिव फिल्म पर ले आती है। जिसमें शॉट्स बोलने वाले एलियंस असली मुद्दा नहीं हैं बल्कि जनता है जो नियंत्रित होने पर आनन्दित हो रही है।
सारी बातों का लब्बोलुवाब यह है कि दे लिव की दुनिया हमारी दुनिया से बहुत अलग नहीं है।
हम भी, केवल अपने निजी सुख, पक्षपात और मुनाफे पर ध्यान केन्द्रित कर रहे हैं। हमारे गरीब और दबे–कुचले लोग बढ़ रहे हैं। नस्लीय अन्याय बढ़ रहा है। मानवाधिकार लगभग खत्म है। हम भी दूसरों के प्रति उदासीन, एक समाधि में थपकियाँ दे–देकर सुला दिये गये हैं।
हमारे आगे क्या झूठ बोला जा रहा है उसके प्रति हमें भुलक्कड़ बना दिया गया है, हमें हेरफेर के दम पर यह विश्वास दिलाया जा रहा है कि यदि हम उपभोग करना, आज्ञापालन करना और विश्वास करना जारी रखते हैं, तो अच्छे दिन आ जायेंगी। लेकिन यह मजबूत होते शासनों के बारे में कभी भी सच नहीं रहा है। और जब तक हम महसूस करेंगे कि हथौड़ा हमारे सिर के ऊपर आ रहा है, तब तक बहुत देर हो जायेगी।
तो फिल्म के अन्त में वह हमें कहाँ छोड़ता है?
कारपेंटर की फिल्मों को आबाद करने वाले कुछ पात्र अन्तर्दृष्टि प्रदान करते हैं।
अपनी मर्दानगी के झंडे के नीचे वे अभी भी स्वतंत्रता और समान अवसर के आदर्शों में विश्वास करते हैं। उनकी धारणा उन्हें कानून और प्रतिष्ठान के लगातार विरोध में रखती है, लेकिन फिर भी वे कोई और नहीं, स्वतंत्रता सेनानी हैं।
उदाहरण के लिए, जब जॉन नडा दे लिव फिल्म में विदेशी हाइनो–ट्रांसमीटर को नष्ट कर देते हैं, तो वह अमरीका को आजादी के लिए जागृत करके फिर से आशा बहाल करते हैं।
यह सबसे महत्त्वपूर्ण है–– हमें जागने की जरूरत है।
अपने आप को व्यर्थ राजनीतिक नजरिये द्वारा आसानी से विचलित होने की अनुमति देना बन्द करें और देश में वास्तव में क्या चल रहा है उस पर ध्यान दें।
रिपब्लिकन और डेमोक्रेट के बीच इस देश के नियंत्रण के लिए असली लड़ाई मतपत्र से नहीं चल रही है।
जैसा कि मैंने अपनी पुस्तक, “बैटलफील्ड अमरीका–– द वॉर ऑन द अमरीकन पीपल” में स्पष्ट किया है, इस देश के नियंत्रण के लिए असली लड़ाई सड़कों पर, पुलिस के वाहनों में, गवाह के कठघरे में, फोन लाइनों पर, सरकारी कार्यालयों में, कॉर्पाेरेट कार्यालयों में, सार्वजनिक स्कूल के बरामदे और कक्षाओं में, पार्क और नगर परिषद की बैठकों में, तथा इस देश के कस्बों और शहरों में हो रही है ।
आजादी और अत्याचार के बीच असली लड़ाई हमारी आँखों के ठीक सामने हो रही है, हमें बस आँखों को खोलने की जरूरत है।
अमरीकी पुलिस राज्य के सभी साजो–सामान अब सीधे दिख रहे हैं।
जाग जाओ, अमरीका।
यदि वे (अत्याचारी, उत्पीड़क, आक्रमणकारी, अधिपति), जिन्दा हैं तो केवल इसलिए क्योंकि ‘हम लोग’ सोये हुए हैं।
अनुवाद : राजेश कुमार
(काउण्टरपंच डॉट ऑर्ग से साभार)
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- महाराष्ट्र के कपास किसानों की दुर्दशा उन्हीं की जबानी 23 Sep, 2020
- महाराष्ट्र में कर्मचारी भर्ती का ठेका निजी कम्पनियों के हवाले 17 Nov, 2023
- महाराष्ट्र में चार सालों में 12 हजार से ज्यादा किसानों ने आत्महत्या की 15 Jul, 2019
- मानव अंगों की तस्करी का घिनौना व्यापार 13 Sep, 2024
- मौत के घाट उतारती जोमैटो की 10 मिनट ‘इंस्टेण्ट डिलीवरी’ योजना 20 Aug, 2022
- यूपीएससी की तैयारी में लगे छात्रों की दुर्दशा, जिम्मेदार कौन? 13 Sep, 2024
- राजस्थान में परमाणु पावर प्लाण्ट का भारी विरोध 13 Sep, 2024
- रेलवे का निजीकरण : आपदा को अवसर में बदलने की कला 23 Sep, 2020
- लोग पुरानी पेंशन योजना की बहाली के लिए क्यों लड़ रहे हैं 17 Nov, 2023
- विधायिका में महिला आरक्षण की असलियत 17 Nov, 2023
- वैश्विक लिंग असमानता रिपोर्ट 20 Aug, 2022
- श्रीलंका पर दबाव बनाते पकड़े गये अडानी के “मैनेजर” प्रधानमंत्री जी 20 Aug, 2022
- संस्कार भारती, सेवा भारती––– प्रसार भारती 14 Jan, 2021
- सत्ता–सुख भोगने की कला 15 Oct, 2019
- सरकार द्वारा लक्ष्यद्वीप की जनता की संस्कृति पर हमला और दमन 20 Jun, 2021
- सरकार बहादुर कोरोना आपके लिए अवसर लाया है! 10 Jun, 2020
- सरकार, न्यायपालिका, सेना की आलोचना करना राजद्रोह नहीं 15 Oct, 2019
- सरकारी विभागों में ठेका कर्मियों का उत्पीड़न 15 Aug, 2018
- हम इस फर्जी राष्ट्रवाद के सामने नहीं झुकेंगे 13 Apr, 2022
- हाथरस की भगदड़ में मौत का जिम्मेदार कौन 13 Sep, 2024
- हुकुम, बताओ क्या कहूँ जो आपको चोट न लगे। 13 Apr, 2022
कहानी
- जामुन का पेड़ 8 Feb, 2020
- पानीपत की चैथी लड़ाई 16 Nov, 2021
- माटी वाली 17 Feb, 2023
- समझौता 13 Sep, 2024
विचार-विमर्श
- अतीत और वर्तमान में महामारियों ने बड़े निगमों के उदय को कैसे बढ़ावा दिया है? 23 Sep, 2020
- अस्तित्व बनाम अस्मिता 14 Mar, 2019
- क्या है जो सभी मेहनतकशों में एक समान है? 23 Sep, 2020
- क्रान्तिकारी विरासत और हमारा समय 13 Sep, 2024
- दिल्ली सरकार की ‘स्कूल्स ऑफ स्पेशलाइज्ड एक्सलेंस’ की योजना : एक रिपोर्ट! 16 Nov, 2021
- धर्म की आड़ 17 Nov, 2023
- पलायन मजा या सजा 20 Aug, 2022
- राजनीति में आँधियाँ और लोकतंत्र 14 Jun, 2019
- लीबिया की सच्चाई छिपाता मीडिया 17 Nov, 2023
- लोकतंत्र के पुरोधाओं ने लोकतंत्र के बारे में क्या कहा था? 23 Sep, 2020
- विकास की निरन्तरता में–– गुरबख्श सिंह मोंगा 19 Jun, 2023
- विश्व चैम्पियनशिप में पदक विजेता महिला पहलवान विनेश फोगाट से बातचीत 19 Jun, 2023
- सरकार और न्यायपालिका : सम्बन्धों की प्रकृति क्या है और इसे कैसे विकसित होना चाहिए 15 Aug, 2018
श्रद्धांजलि
कविता
- अपने लोगों के लिए 6 May, 2024
- कितने और ल्हासा होंगे 23 Sep, 2020
- चल पड़ा है शहर कुछ गाँवों की राह 23 Sep, 2020
- बच्चे काम पर जा रहे हैं 19 Jun, 2023
अन्तरराष्ट्रीय
- अमरीका बनाम चीन : क्या यह एक नये शीत युद्ध की शुरुआत है 23 Sep, 2020
- इजराइल का क्रिस्टालनाख्त नरसंहार 17 Nov, 2023
- क्या लोकतन्त्र का लबादा ओढ़े अमरीका तानाशाही में बदल गया है? 14 Dec, 2018
- पश्चिम एशिया में निर्णायक मोड़ 15 Aug, 2018
- प्रतिबन्धों का मास्को पर कुछ असर नहीं पड़ा है, जबकि यूरोप 4 सरकारें गँवा चुका है: ओरबान 20 Aug, 2022
- बोलीविया में तख्तापलट : एक परिप्रेक्ष्य 8 Feb, 2020
- भारत–इजराइल साझेदारी को मिली एक वैचारिक कड़ी 15 Oct, 2019
- भोजन, खेती और अफ्रीका : बिल गेट्स को एक खुला खत 17 Feb, 2023
- महामारी के बावजूद 2020 में वैश्विक सामरिक खर्च में भारी उछाल 21 Jun, 2021
- लातिन अमरीका के मूलनिवासियों, अफ्रीकी मूल के लोगों और लातिन अमरीकी संगठनों का आह्वान 10 Jun, 2020
- सउ़दी अरब की साम्राज्यवादी विरासत 16 Nov, 2021
- ‘जल नस्लभेद’ : इजराइल कैसे गाजा पट्टी में पानी को हथियार बनाता है 17 Nov, 2023
राजनीतिक अर्थशास्त्र
साक्षात्कार
- कम कहना ही बहुत ज्यादा है : एडुआर्डो गैलियानो 20 Aug, 2022
- चे ग्वेरा की बेटी अलेदा ग्वेरा का साक्षात्कार 14 Dec, 2018
- फैज अहमद फैज के नजरिये से कश्मीर समस्या का हल 15 Oct, 2019
- भारत के एक बड़े हिस्से में मर्दवादी विचार हावी 15 Jul, 2019
अवर्गीकृत
- एक अकादमिक अवधारणा 20 Aug, 2022
- डीएचएफएल घोटाला : नवउदारवाद की एक और झलक 14 Mar, 2019
- फिदेल कास्त्रो सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यवस्था के हिमायती 10 Jun, 2020
- बायोमेडिकल रिसर्च 14 Jan, 2021
- भाषा और साहित्य के क्षेत्र में भारत को मुसलमानों का महान स्थायी योगदान 23 Sep, 2020
- सर्वोच्च न्यायलय द्वारा याचिकाकर्ता को दण्डित करना, अन्यायपूर्ण है. यह राज्य पर सवाल उठाने वालों के लिए भयावह संकेत है 20 Aug, 2022
जीवन और कर्म
मीडिया
- मीडिया का असली चेहरा 15 Mar, 2019
फिल्म समीक्षा
- समाज की परतें उघाड़ने वाली फिल्म ‘आर्टिकल 15’ 15 Jul, 2019