-– उदय चे

ऐतिहासिक किसान आन्दोलन पिछले छह महीने से दिल्ली की सरहदों पर चल रहा है। छह महीने पहले जब आन्दोलन शुरू हुआ था, उस समय 26 नवम्बर को जब किसान दिल्ली की तरफ कूच कर रहे थे, मीडिया ने सवाल पूछा था कि कब तक के लिए आये हो, किसानों ने जवाब दिया था कि छह महीने का राशन साथ लेकर आये हैं।

26 मई को किसान आन्दोलन के छह महीने पूरे हो गये। सयुंक्त किसान मोर्चे ने 26 मई को मुल्क के अवाम से अपने घरों, गाड़ियों, दुकानों, रहेड़ियो पर काले झण्डे दिखा कर तानाशाही सत्ता का विरोध करने की अपील की। अपील का असर हुआ और देश के कई हिस्सों में किसानों ने सरकार को काले झण्डे दिखाकर प्रदर्शन किया। किसान आन्दोलन में उतार–चढ़ाव आने के बावजूद किसान मोर्चों पर किसान मजबूती से पाँव जमाये बैठे हुए हैं। 500 के लगभग किसान आन्दोलनकारियों ने इन छह महीनों में अपनी शहादत दी है। 26 जनवरी को हुई दिल्ली में किसान परेड जिसमें करोड़ो किसान दिल्ली पहुँचे ये अपने आप मे अद्भुत नजारा था।

भारतीय फासीवादी सत्ता ने अलग–अलग तरीकों से किसान आन्दोलन को कुचलने के प्रयास किये लेकिन किसान नेतृत्व जो पंजाब के संगठित किसान संगठनो व मुल्क के वामपंथी किसान संगठनो का सांझा मंच है। उन्होंने सत्ता के सभी हमलों का जवाब मजबूती से व कुशल रणनीति से अब तक दिया है।

सत्ता व कार्पाेरेट मीडिया दिन–रात किसान आन्दोलन खत्म होने के दावे करता रहा है, लेकिन इसके विपरीत पंजाब, हिमाचल, हरियाणा, गुजरात, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, बिहार, गुजरात, तमिलनाडु, बंगाल, कर्नाटका इन सभी राज्यों में किसानों की बड़ी–बड़ी रैलियाँ किसान आन्दोलन को मजबूती देने के लिए हुई। किसान आन्दोलन के प्रचार का असर ही था जिसके कारण भाजपा को बंगाल, केरल, तमिलनाडु में जनता ने सत्ता के नजदीक भी नहीं फटकने दिया।

सत्ता में बैठी भाजपा व उसके सहयोगी पार्टियों के नेताओं के सार्वजनिक व निजी कार्यक्रमों का किसान मोर्चे ने विरोध का आह्वान किया। ये विरोध पंजाब व हरियाणा में ज्यादा व्यापक रहा है। पंजाब में भाजपा विधायक नारंग की पिटाई व हरियाणा में मुख्यमंत्री व उप मुख्यमंत्री व उनके विधायकों का विरोध तीखा रहा है।

सत्ता में बैठे नेताओं का विरोध करना हो या किसान मोर्चे का कोई आह्वान हो, हजारों की तादाद में किसान इकट्ठा हो रहे है। सरकार द्वारा 16 मई के हिसार में मुख्यमंत्री के विरोध प्रदर्शन में किये गये बर्बर लाठीचार्ज व किसान नेताओं पर गम्भीर धाराओं में केस दर्ज करने के बाद से दर्जनों गाँव ने लॉक डाउन का विरोध व पुलिस व प्रशासन को गाँव में न घुसने देने का फरमान जारी किया गया है। 24 मई को हिसार में लाठी–डण्डों के साथ हजारों की तादाद में किसानों का इकठ्ठा होना, सत्ता व प्रशासन को खुली चेतावनी देना, इस किसान आन्दोलन में सत्ता व प्रशासन के खिलाफ उबल रहे लावे को दिखा रहा है।

आन्दोलन इतना मजबूत होने के बावजूद आन्दोलन में ऐसी क्या खामियाँ है जिसको चिन्हित किया जाना चाहिए ताकि उन खामियों का फायदा सत्ता न उठा सके।

जब हम फौरी तौर पर इस आन्दोलन को देखते है तो आन्दोलन मजबूत व जीत की तरफ बढ़ता दिख रहा है। लेकिन जब हम जमीनी हकीकत की जाँच पड़ताल करते है, जातीय सामाजिक बन्धनों के आधार पर समीक्षा करते हैं या मजदूर–किसान के मुद्दों की समीक्षा करते हैं तो आन्दोलन में बहुत ज्यादा खामियाँ हैं जिसका फायदा सत्ता कभी भी उठाकर आन्दोलन को तोड़ सकती है।

किसान आन्दोलन की खामियाँ क्या है ?

ये किसान आन्दोलन जो तीन खेती कानूनों के खिलाफ खड़ा हुआ। इन तीन खेती कानूनों से सिर्फ किसान को ही नुकसान होगा ऐसा नहीं हैं। इन खेती कानूनों से किसान, मजदूर, रहेड़ी लगाने वाला, मंडियों में काम करने वाले मजदूर, आढ़ती ये सब कानूनों की चपेट में आने वाले है।

लेकिन आन्दोलन में सिर्फ किसान ही क्यों शामिल है। किसान में भी जाट किसान शामिल है। क्यों इस आन्दोलन में गैर जाट किसान जातियाँ जो बहुमत पिछड़ी व मजदूर जो बहुमत में दलित जातियों से है, शामिल नहीं है। इसकी जमीनी जाँच पड़ताल बहुत जरूरी है।

जाट आरक्षण आन्दोलन

हरियाणा और उत्तर प्रदेश में आरक्षण की माँग को लेकर जाटों द्वारा आन्दोलन किया गया जिसमें सत्ता के जाल में फाँसकर जाट बनाम गैर जाट के बीच जमकर हिंसा हुई थी। हिंसा के पीछे कारण जो भी रहे हो, लेकिन उस आन्दोलन के बाद जाट व गैर जाट जातियों में आपसी नफरत की जो दीवार खड़ी हुई वो अब भी मजबूती से खड़ी है। इस किसान आन्दोलन ने उस नफरत की दीवार को कमजोर जरूर किया है। लेकिन उस दीवार को गिराने के सार्थक प्रयास दोनों तरफ से गम्भीरता से न पहले हुए और न ही इस ऐतिहासिक किसान आन्दोलन में हुए है।

सांगठनिक रणनीति का अभाव

इस आन्दोलन में पूरे हरियाणा में नौजवानों की बहुत बड़ी टीम निकल कर आयी जो काफी हद तक बहुत ईमानदार है। ये टीम आन्दोलन में मेहनत कर रही है। चन्दा इकठ्ठा करने से दिल्ली जाने और वहाँ स्थायी तम्भू लगाये रखने, दूध, सब्जी, लस्सी को किसान आन्दोलन में पहुँचाने, किसान पंचायतो में भीड़ जुटाने में बड़ी भूमिका निभा रही है। लेकिन इस टीम को सांगठनिक ढाँचे में ढालने का कोई प्रयास अब तक किसान नेतृत्व द्वारा नहीं किया गया है।

ऐसा ही महिला किसानों के साथ है। इस किसान आन्दोलन ने महिलाओ को किसान माना ये आन्दोलन की बहुत बड़ी उपलब्धियों में से है। महिलाओं की आन्दोलन में मजबूत भागीदारी रही है। महिलाएँ घर के चूल्हे–चैके, पशुओं व खेत का काम करके हजारों की तादाद में सभी विरोध प्रदर्शनों में शामिल होती है। महिलाओं ने सत्ता विरोधी गीत बनाये व अलग–अलग मंचो पर उन गीतों को गाया गया। लेकिन महिलाओं को भी कोई सांगठनिक मंच अभी तक नहीं मिला है।

महिलाओ को छेड़खानी व योनिक हिंसा से बचाने के लिए भी ये किसान आन्दोलन कोई सार्थक पहल नहीं कर पाया। बंगाल की लड़की के साथ जो अमानवीयता हुई, उसकी मौत के बाद भी किसान नेताओं की चुप्पी व आन्दोलन में शामिल खाप पंचायतों द्वारा आरोपियों के पक्ष में पंचायत करना व इन पंचायतों के खिलाफ किसान मोर्चे की चुप्पी अमानवीयता की हद पार कर रही है। किसान महिला नेताओ व महिला संगठनों की चुप्पी भी इस अमानवीयता में शामिल है।

किसान नेतृत्व की पृष्ठभूमि

हरियाणा में आन्दोलन की अगुवाई करने वाले नीचे से ऊपर तक बहुमत चेहरे जाट आरक्षण आन्दोलन के चेहरे रहे हैं जिसके कारण दूसरी जातियाँ आन्दोलन से दूर हैं। हरियाणा के किसान नेतृत्व होने का दावा करने वाले नेता जो आपको स्टेज पर लच्छेदार भाषण देते हर जगह मिलेंगे, वे न मजदूरों में गये, न किसानों में गये हैं, वे या तो दिल्ली सरहद पर रहते हैं या किसी पंचायत या विरोध प्रदर्शन में ही विशिष्ठ अतिथि की तरह आते हैं।

किसान पंचायतों या किसान मोर्चे के कार्यक्रम कैलेण्डर के कार्यक्रमों में वक्ता जाट ही रहे है। सन्त रविदास जयन्ती हो या फिर डॉ भीम राव अम्बेडकर की जयन्ती या मई मजदूर दिवस हो। वक्ता सब जगह जाट जाति से ही रहे है। गैर जाट जातियों के नेताओं को अब तक कोई विशेष जगह इस आन्दोलन में नहीं दी गयी है।

लाल झण्डे से नफरत

हरियाणा में जमीनी स्तर पर अखिल भारतीय किसान सभा, भारतीय मजदूर किसान यूनियन, किसान संघर्ष समिति, किसान सभा हरियाणा, अखिल भारतीय किसान महासभा, अखिल भारतीय खेत मजदूर यूनियन, मजदूर संघर्ष समिति के अलावा कई वामपंथी छात्र, नौजवान, महिलाओं के संगठन मजबूती से काम कर रहे है। जिनका मजबूत सांगठनिक ढांचा, संविधान, कार्यक्रम, झण्डा है।

इसके विपरीत कोई दूसरा किसान संगठन सांगठनिक तौर पर काम नहीं कर रहा है। भारतीय किसान यूनियन के नाम पर जरूर अलग–अलग गुट व्यक्तिगत नाम पर चल रहे है। लेकिन वे सिर्फ गुट ही हैं उनका सांगठनिक स्वरूप न के बराबर है।

वामपंथी संगठन के लाल झण्डे का विरोध एक खास सामन्ती विचारधारा के कारण किया जा रहा है। लाल झण्डे के संगठन मजदूरों के अलग–अलग हिस्सों में यूनियन बना कर काम करते हैं। फैक्ट्रियों में ट्रेड यूनियनें हैं। क्या लाल झण्डे का विरोध मजदूरों का विरोध नहीं है ?

कानूनों पर किसानों की समझ का अभाव

हरियाणा के किसानों को यह तो साफ समझ आ गयी कि इन कानूनों से मोटा–मोटी ये नुकसान होगा। लेकिन किसान नेतृत्व बारीकी से ये समझाने में विफल रहा है कि इन कानूनों से मजदूर व किसान को क्या–क्या नुकसान होगा। 6 महीने के किसान आन्दोलन में साहित्य पर जीरो काम हुआ है। हरियाणा में किसान आन्दोलन पर 100 करोड़ से ज्यादा रुपया खर्च हो चुका है लेकिन साहित्य, पर्चाे पर कुछ लाख भी खर्च नहीं किया गया।

हमने हरियाणा के कई गाँव का दौरा किया जहाँ किसान आन्दोलन के समर्थन में धरने चल रहे थे। इन सभी धरनों पर बैठे किसानों से बातचीत की, बातचीत का हिस्सा मजदूर भी रहा आखिर आन्दोलन में मजदूर शामिल क्यों नहीं हो रहे है।

सभी धरनों में शामिल किसानों का यही कहना था कि इन कानूनों के लागू होने के बाद मजदूर को सरकारी राशन की दुकान पर मिलने वाला राशन व स्कूलों में मिड डे मील मिलना बन्द हो जाएगा।

किसानों ने कहा कि जब उन्होंने इस बारे में मजदूरों से बात की तो, मजदूरों का मानना है कि ये तीनो कानून किसान के खिलाफ है, मजदूर को कुछ नुकसान होने वाला नहीं हैं। मजदूरों को राशन मिलना बन्द नहीं होगा।

मजदूरों का ये भी कहना था कि अगर राशन बन्द होगा तो भी किसानों को हमारी किसलिए चिन्ता हो रही है, क्योंकि राशन वितरण प्रणाली के खिलाफ सबसे ज्यादा किसान ही तो बोलते थे। फ्री का खाने वाले, देश को बर्बाद करने वाले, देश पर बोझ ऐसा मजदूरों को किसान ही तो बोलते थे।

कुछ किसानों का ये भी कहना था कि मजदूरों का बहुमत दलित जातियों से है। उनके जातीय संगठन बने हुए हैं। जब तक उनके संगठन शामिल होने को नहीं बोलेंगे मजदूर शामिल नहीं होंगे।

एक गाँव में तो जब किसान मजदूरों से आन्दोलन में शामिल होने की अपील करने गये तो मजदूरों ने किसानों को साफ–साफ बोल दिया कि ये लड़ाई जमीन बचाने की है तो हम क्यों लड़े, हमारे पास कौनसी जमीन है। अगर हमको लड़ाई में शामिल करना है तो जमीन हमको भी दो।

पंचायत की खेती भूमि, दुकानों का जब ठेका उठता है तो उसमें 33 प्रतिशत दलित के लिए आरक्षित है लेकिन कहीं भी उनको ये नहीं मिला है बस उनके नाम का कागज जरूर लग जाता है।

क्या किसान ये माँग करेंगे कि उनका हिस्सा उनको मिले।

इस ऐतिहासिक किसान आन्दोलन में मजदूर 1 प्रतिशत से ज्यादा शामिल नहीं हो सका है। किसान भी इस आन्दोलन में जातीय आधार पर बँटा हुआ है। बहुमत जाट जाति से सम्बन्ध रखने वाला किसान आन्दोलन के साथ मजबूती से खड़ा है तो इसके विपरीत गैर जाट जातियों से सम्बन्ध रखने वाला किसान हालाँकि आन्दोलन के खिलाफ नहीं खड़ा है, लेकिन वह पक्ष में भी नहीं खड़ा है।

किसान आन्दोलन के लिए जब चन्दा किया गया तो गाँव के मजदूरों ने भी चन्दा दिया। लेकिन चन्दे की कमेटी में मजदूर को शामिल नहीं किया गया। मजदूरों ने चन्दा तो जरूर दिया है लेकिन उनके अन्दर सवाल ये भी उठ रहा है कि कल को जब मजदूर अपने हक के लिए आन्दोलन करेगा तो क्या किसान उस आन्दोलन में चन्दा देगा ?

किसान आन्दोलन की सबसे बड़ी भूल या गलती कहंे, उसको लगता है की मजदूर किसान के झण्डे के नीचे आकर आन्दोलन करे। जबकि अगर ईमानदारी से मजदूर को इस आन्दोलन में शामिल करना है तो मजदूर अपने संगठन, झण्डे और मजदूर की माँगों के साथ आन्दोलन में समानान्तर खड़ा होगा न कि किसान का पिछलग्गू बनेगा।

क्या आन्दोलन में शामिल किसानों को यह मंजूर है ?

किसान स्वामीनाथन आयोग की रिपोर्ट लागू करने की माँग सरकार से करते हैं। लेकिन स्वामीनाथन आयोग की उन्हीं सिफारिशों  को लागू करने की माँग की जाती है जो किसान के फायदे की होती हैं। जैसे ही भूमिहीन खेतिहर को 1 एकड़ जमीन देने की माँग आती है तो किसान पीछे हट जाता है। अगर मजदूर आन्दोलन में शामिल होगा, तो उसकी ये माँगे आन्दोलन में रहेगी। जो किसानों के गले नहीं उतर रही है।

इसलिए सार्थक प्रयास न होने के कारण मजदूर इस आन्दोलन से दूर है। वैसे किसान नेतृत्व चाहता भी नहीं है की मजदूर आन्दोलन में शामिल हो। अगर ईमानदारी से वह चाहता तो वो मजदूरों की बस्तियों में जाता, उनसे बात करता, उनकी माँगों को उठाने की बात करता, लेकिन ऐसा नहीं किया गया।

मजदूरों में व्याप्त भ्रम

यह आन्दोलन मजदूर आन्दोलन होना चाहिए था। इन तीनांे कानूनों से सबसे बड़ी मार गाँव में रहने वाले खेत मजदूर पर पड़ने वाली है। कानून लागू होते ही सबसे पहले खेत में मिलने वाली मजदूरी पर संकट गहरायेगा। उसके बाद महिला मजदूर जो किसान के खेत से फ्री में पशुओं के लिए चारा लेकर आती है वह बन्द हो जाएगा। चारा बन्द होते ही मजदूर का पशुपालन चैपट होना लाजमी है।

कानून लागू होने के बाद फूड कार्पाेरेशन ऑफ इंडिया को सबसे पहले खत्म किया जाएगा। फूड कार्पाेरेशन ऑफ इंडिया खत्म होते ही सरकार सरकारी राशन की दुकान को बन्द करेगी। राशनकार्ड धारकों को सरकार राशन देने की जगह नगद पैसे देगी। सरकार इस स्कीम को भी गैस सिलेण्डर की ऑनलाइन सब्सिडी की तरह लागू करेगी। लाभ पाने वाला परिवार पहले अपने पैसे से राशन खरीदेगा उसके बाद उसके बैंक खाते में पैसे सरकार डालेगी। किसको कितना पैसा वापिस आएगा या कब धीरे–धीरे सब्सिडी खत्म कर दी जाएगी गैस सिलेण्डर की तरह, आम आदमी समझ भी नहीं पायेगा। जब तक समझेगा तब तक बहुत देर हो चुकी होगी।

कुछ मजदूरों को ये भी भ्रम बना हुआ है कि कॉन्ट्रैक्ट खेती के बाद भी उनको मजदूरी मिलती रहेगी। लेकिन ये भी उनका कोरा भ्रम ही है। जब बड़े–बड़े खेत बन जायेंगे, इन खेतांे का मालिक ज्यादा से ज्यादा मुनाफा कमाने के लिए आधुनिक व बड़ी मशीन खेती में इस्तेमाल करेगा। बड़ी मशीन आने से 80 प्रतिशत तक मजदूरी खत्म हो जाएगी। 20 प्रतिशत मजदूरी करवाने के लिए भी खेत मालिक सस्ती मजदूरी की तलाश में बाहरी राज्यांे से मजदूर को लाकर खेत मे काम देगा।

सरकारी मण्डी में जहाँ हजारों मजदूर काम करते हैं वहीं प्राइवेट मण्डी में हजारों मजदूरों की जगह काम सिर्फ कुछेक मजदूर करेंगे।

इसके बाद नम्बर आयेगा उस मजदूर का जो शहर या गाँव में रेहड़ी से फल–सब्जी बेचकर गुजारा करता है। कॉन्ट्रैक्ट खेती के बाद खेत मे पैदा हुई सब्जी व फल कॉन्ट्रैक्ट मालिक पूँजीपति के पास जाएगा। पूँजीपति जिसकी अपने शॉपिंग मॉल हैं वह अपने मॉल में फल व सब्जी मनमाने रेट पर बेचेगा। सब्जी मण्डी बन्द होने से रेहड़ी व छोटे दुकानदार भी बर्बाद हो जायेगें।

कानून लागू होने के बाद किसान जिसके पास खेती की जमीन है उसकी कमर एक समय बाद टूटेगी, उससे बहुत पहले मजदूर की कमर ये फासीवादी सत्ता तोड़ चुकी होगी।

इसलिए ये तीन कानून जिनको किसान विरोधी बोला गया है, असल में मजदूर विरोधी, उसको उजाड़ने वाले, उसकी रोटी छीनने वाले, उसको बेरोजगारी की तरफ धकेल कर भूखा मरने पर मजबूर करने वाले साबित होंगे।

आन्दोलन के छह महीने पूर्ण होने पर हरियाणा के किसान आन्दोलन को अपनी खामियों को दूर करने के लिए अभियान चलाना चाहिये। आन्दोलन को संगठित कैसे किया जाये ? मजदूरों व महिलाओं को आन्दोलन में कैसे शामिल किया जाये व उनकी सुरक्षा को कैसे मजबूत किया जाये ? लाल झण्डे के विरोध की बजाय फासीवादी सत्ता के विरोध की तरफ ध्यान केन्द्रित किया जाये। मजदूर संगठनों को भी मोर्चे में शामिल किया जाये। जो किसान जातियाँ आन्दोलन में शामिल नहीं है उनसे संवाद स्थापित करना बेहद जरूरी है।

मजदूरों को भी जिनका बहुमत दलित जातियों से है, उनको चार श्रम कानूनों, तीन खेती कानूनों के खिलाफ व भूमिहीन को जमीन मिले, “जो जमीन सरकारी है, वह जमीन हमारी है” इस नारे को धरातल पर लागू करने की जिम्मेदारी मजदूर व किसान दोनों की होनी चाहिए।

मजदूर व महिलाएँ जो सबसे अन्तिम पायदान पर खड़े हैं उनकी माँगों पर ध्यान देना व उनकी माँगों को प्रमुखता से उठाना इस आन्दोलन की जीत की तरफ बढ़ने के लिए जरूरी है।