भारत में शोध–अनुसन्धान के लिए मूलभूत ढाँचे और संसाधनों की भारी कमी है। देश के विकास के लिए सरकार द्वारा विश्वविद्यालयों, संस्थानों में शोध के कार्यों को प्रोत्साहित करना चाहिए था, लेकिन आज वास्तविकता इसके उलट है। शोध छात्र आज अपना शोध बीच में ही छोड़ सरकार के खिलाफ प्रदर्शन करने को मजबूर हैं। उनकी मुख्य माँग है कि बढ़ती महँगाई के साथ उनकी फेलोशिप में बढ़ोत्तरी की जाये।

“सबसे ऊँची डिग्री, सबसे नीची तनख्वाह”, “बिना पैसे रिसर्च कैसे?”, “मेरे और मेरे परिवार के खर्चों का क्या?”, “फेलोशिप बढ़ाओं, देश का भविष्य बचाओ” जैसे प्लेकार्ड को लेकर छात्र कॉलेज परिसरों में आवाज बुलन्द करते नजर आ रहे हैं। फेलोशिप के नाम पर सरकार इन्हें चन्द सिक्के पकड़ा दे रही है। एचआरए को बढ़ाने के बजाय घटा दिया गया है। जेआरएफ की सीटें घटा दी गयी हैं।

हाल यह है कि 2014 से 2021 तक बिना प्रदर्शन किये फेलोशिप में बढ़ोतरी नहीं हुई। जो हुई भी वह ऊँट के मुँह में जीरे के सामान थी। पिछली बार छात्रों ने सरकार से फेलोशिप को 80–100 फीसदी तक बढ़ाये जाने की माँग की थी, लेकिन केवल 24 फीसदी ही बढ़ोतरी हुई जो अब तक की सबसे कम थी। एक बार फिर चार साल से ज्यादा बीत जाने के बाद वे प्रदर्शन करने को मजबूर हैं। इन प्रदर्शनों में आईआईएसईआर, आईआईटी और एनआईटी जैसे प्रतिष्ठित संस्थानों के छात्र भी शामिल हैं।

सरकार जय विज्ञान और जय अनुसन्धान के नाम पर बड़ी–बड़ी डींग हाँकती है, लेकिन आज इन छात्रों से बातचीत को भी राजी नहीं है। इन युवा शोधार्थियों का कहना है कि अगर सरकार उनकी माँगों की अनदेखी करती जायेगी तो वे जंतर–मंतर पर बड़ा आन्दोलन करने को मजबूर होंगे।

सरकार द्वारा अपने शोध के लिए फेलोशिप पाने में शोधार्थियों को बहुत मशक्कत करनी पड़ती है। पहले तो कठिन चयन प्रक्रिया से होकर गुजरना पड़ता है जिसमें बहुत थोड़ी संख्या में छात्र चयनित होते हैं। इसके बाद ये छात्र बेहद कम संसाधनों में अपना शोध शुरू करने को मजबूर होते हैं। बड़ी मेहनत से दिन के 16–16 घण्टे प्रयोगशाला में काम करते हैं। इसपर भी फेलोशिप कभी समय पर नहीं आती। कभी 4–6 महीने लेट तो कभी साल भर बाद आती है। कई छात्रों की आर्थिक स्थिति खराब होती है या फिर उनके कन्धों पर परिवार की भी जिम्मेदारियाँ होती हैं। ऐसे में एक मात्र सहारा फेलोशिप ही होती है। ये छात्र जिन्दगी में आये सुनहरे जवानी के पड़ाव को दाँव पर लगाकर, अपने को परिवार–समाज से काटकर शोध पूरा करते हैं। इसपर भी पीएचडी पूरे होने पर टीचर असिसमेंट की इनको कोई गारण्टी नहीं मिलती।

आज इतनी खराब स्थिति है कि छात्र आत्महत्या करने का रास्ता चुन रहे हैं। शिक्षा मंत्रालय द्वारा दिये गये आँकड़े बताते हैं कि साल 2014–21 में आईआईटी, एनआईटी, केन्द्रीय विश्वविद्यालयों और अन्य केन्द्रीय संस्थानों के 122 छात्रों ने आत्महत्या की। ये आँकड़े बताते हैं कि कड़ी मेहनत करने के बाद भी छात्र मानसिक और आर्थिक रूप से पीड़ित हैं।

छात्रों को जल्द ही यह समझ आ जाएगा कि समाज की आर्थिक–राजनीतक परिस्थितियाँ ही शिक्षा और युवाओं के भविष्य को तय करती हैं। आजादी से पहले भारत जैसे देश में जहाँ औद्योगिक विकास की अपार सम्भावनाएँ थीं, अंग्रेजों ने अपने वर्चस्व और लूट को कायम रखने के लिए यहाँ के आर्थिक विकास को बाधित किया। आजादी के बाद भारत को उत्पादन में आत्मनिर्भर बनाने के लिए बड़े पैमाने पर जनता की गाढ़ी कमाई से बड़े–बड़े उद्योग लगाये गये जिनमें नवरत्न–– गेल, सेल, भेल आदि प्रख्यात हैं। इसके साथ स्थानीय और घरेलू उद्योगों को जो पारम्परिक तौर तरीकों से माल बनाते थे, उन्हें संरक्षण दिया गया। यह सब भारत को वैश्विक दुनिया में सक्षम बनाने के लक्ष्य के साथ किया गया। उद्योगों को चलाने के लिए भारी संख्या में इंजीनियर, वैज्ञानिक, बुद्धिजीवियों की आवश्यकता थी जिसके लिए देशभर में विभिन्न विश्वविद्यालयों, वैज्ञानिक संस्थानों, जैसे कि जेएनयू, आईआईटी, एनआईटी को स्थापित किया गया। साथ ही शोध को प्रोत्साहन दिया गया जिससे उत्पादकता बढ़ाने के लिए नयी–नयी खोजें की जा सकें।

60 के दशक के अन्त में भारत में पूँजीवाद की जरूरतों के अनुसार ही कृषि को बाजार केन्द्रित किया गया जिसे हरित क्रान्ति नाम दिया गया। इसका उद्देश्य कृषि में उत्पादकता बढ़ाना था। हालाँकि हरित क्रान्ति के कुछ नुकसान भी हुए, लेकिन इससे भारत खाद्य सुरक्षा के मामले में आत्मनिर्भर हो गया।

देश में विज्ञान के विकास के साथ जनता को भी इसका लाभ पहुँचा। सरकारी मेडिकल कोलेजों के खुलने से मृत्यु दर कम हुई, जीवन प्रत्याशा दर बढ़ी। खाद्य सुरक्षा के साथ अकाल, भुखमरी कम हुई।

80 के दशक का अन्त आते–आते देश आर्थिक संकट में फँस गया। इस संकट का समाधान देश के शासकों ने देश की अस्मिता को साम्राज्यवादी देशों और वर्ल्ड बैंक, विश्व व्यापार संगठन जैसी साम्राज्यवादी संस्थाओं के यहाँ गिरवी रखकर, उनके द्वारा थोपी गयीं नयी आर्थिक नीतियों को देश में लागू करके निकाला। अब हमारे देश के शासकों का देश को आत्मनिर्भर बनाने में कोई सरोकार नहीं रह गया है। कृषि, स्वास्थ्य समेत हर क्षेत्र को पूँजीपतियों द्वारा मुनाफा बटोरने के लिए खोल दिया गया। पीढ़ी दर पीढ़ी विकसित होते आये सामूहिक ज्ञान पर साम्राज्यवादियों ने पेटेण्ट कानून के जरिये एकाधिकार जमा लिया। शोध का कार्य इसपर निर्भर हो गया है कि क्या वह शोध कम्पनी को मुनाफा देगी या नहीं। जनता के लिए, उसके हित में विज्ञान का विकास अवरुद्ध हो चला है।

राजीव गांधी की सरकार ने 1986 में नयी शिक्षा नीति लेकर आयी। इसमें शिक्षा को मिलने वाले बजट में लगातार कटौती करने का मंसूबा था। साथ ही शिक्षा के क्षेत्र को निजी निवेश के लिए खोलकर शिक्षा को खरीदने बेचने वाले माल की तरह बनाना था। उच्च शिक्षा के लिए भी फंडिंग लगातार काटी गयी। मोदी सरकार द्वारा लायी गयी 2020 की नयी शिक्षा नीति 1986 की उसी शिक्षा नीति की निरंतरता ही है। इसका मकसद देश में सस्ते मजदूर तैयार करना है जिसके लिए शोध की कोई आवश्यकता नहीं। 

हमारे देश में शोध करने वाले छात्रों में इतनी क्षमता है कि अगर सही मायनों में इन्हे मौका मिलता या शोध के लिए जरूरी सभी संसाधन मुहैया होते तो ये आज विज्ञान के विभिन्न विषयों में नयी ऊँचाइयाँ छूते, मानव जाति के ज्ञान के कोष में अभूतपूर्व बढोत्तरी कर, उसकी सेवा करते।

आज शोध छात्रों का केवल यही कर्त्तव्य नहीं है कि वे अपना शोध कार्य पूरा करें, बल्कि शोध कार्य में आने वाली बाधाओं को भी उन्हें दूर करना है। इसके लिए उन्हें सरकार की गलत नीतियों का विरोध करने के लिए कदम आगे बढ़ाना होगा और सरकार की जनविरोधी नीतियों को पलटने के लिए संघर्ष करना होगा।