–– विद्यासागर नौटियाल

शहर के सेमल का तप्पड़ मोहल्ले की ओर बने आखिरी घर की खोली में पहुँचकर उसने दोनों हाथों की मदद से अपने सिर पर धरा बोझा नीचे उतारा। मिट्टी से भरा एक कनस्तर। माटी वाली। टिहरी शहर में शायद ऐसा कोई घर नहीं होगा जिसे वह न जानती हो या जहाँ उसे न जानते हों, घर के कुल निवासी, बरसों से वहाँ रहते आ रहे किरायेदार, उनके बच्चे तलक। घर–घर में लाल मिट्टी देते रहने के उस काम को करने वाली वह अकेली है। उसका कोई प्रतिद्वन्द्वी नहीं।

उसके बगैर तो लगता है, टिहरी शहर के कई एक घरों में चूल्हों का जलना तक मुश्किल हो जाएगा। वह न रहे तो लोगों के सामने रसोई और भोजन कर लेने के बाद अपने चूल्हे–चैके की लिपाई करने की समस्या पैदा हो जाएगी। भोजन जुटाने और खाने की तरह रोज की एक समस्या। घर में साफ, लाल मिट्टी तो हर हालत में मौजूद रहनी चाहिए। चूल्हे–चैकों को लीपने के अलावा साल–दो साल में मकान के कमरों, दीवारों की गोबरी–लिपाई करने के लिए भी लाल माटी की जरूरत पड़ती रहती है। शहर के अन्दर कहीं माटीखान है नहीं। भागीरथी और भीलांगना, दो नदियों के तटों पर बसे हुए शहर की मिट्टी इस कदर रेतीली है कि उससे चूल्हों की लिपाई का काम नहीं किया जा सकता। आने वाले नये–नये किरायेदार भी एक बार अपने घर के आँगन में उसे देख लेते हैं तो अपने आप माटी वाली के ग्राहक बन जाते हैं। घर–घर जाकर माटी बेचने वाली नाटे कद की एक हरिजन बुढ़िया–माटी वाली।

शहरवासी सिर्फ माटी वाली को नहीं, उसके कनस्तर को भी अच्छी तरह पहचानते हैं। रद्दी कपड़े को मोड़कर बनाये गये एक गोल डिल्ले(1) के ऊपर लाल, चिकनी मिट्टी से छुलबुल भरा कनस्तर टिका रहता है। उसके ऊपर किसी ने कभी कोई ढक्कन लगा हुआ नहीं देखा। अपने कनस्तर को इस्तेमाल में लाने से पहले वह उसके ऊपरी ढक्कन को काटकर निकाल फेंकती है। ढक्कन के न रहने पर कनस्तर के अन्दर मिट्टी भरने और फिर उसे खाली करने में आसानी रहती है। उसके कनस्तर को जमीन पर रखते–रखते सामने के घर से नौ–दस साल की एक छोटी लड़की कामिनी दौड़ती हुई वहाँ पहुँची और उसके सामने खड़ी हो गयी।

“मेरी माँ ने कहा है, जरा हमारे यहाँ भी आ जाना।”

“अभी आती हूँ।”

घर की मालकिन ने माटी वाली को अपने कनस्तर की माटी कच्चे आँगन के एक कोने पर उड़ेल देने को कह दिया।

“तू बहुत भाग्यवान है। चाय के टैम पर आयी है हमारे घर। भाग्यवान आये खाते वक्त।”

वह अपनी रसोई में गयी और दो रोटियाँ लेती आयी। रोटियाँ उसे सौंपकर वह फिर अपनी रसोई मंे घुस गयी।

माटी वाली के पास अपने अच्छे या बुरे भाग्य के बारे में ज्यादा सोचने का वक्त नहीं था। घर की मालकिन के अन्दर जाते ही माटी वाली ने इधर–उधर तेज निगाहें दौड़ायीं। हाँ, इस वक्त वह अकेली थी। उसे कोई देख नहीं रहा था। उसने फौरन अपने सिर पर धरे डिल्ले के कपड़े के मोड़ांे को हड़बड़ी में एक झटके में खोला और उसे सीधा कर दिया। फिर इकहरा। खुल जाने के बाद वह एक पुरानी चादर के एक फटे हुए कपड़े के रूप में प्रकट हुआ।

मालकिन के बाहर आँगन में निकलने से पहले उसने चुपके से अपने हाथ में थामी दो रोटियों में से एक रोटी को मोड़ा और उसे कपड़े पर लपेटकर गाँठ बाँध दी। साथ ही अपना मुँह यों ही चलाकर खाने का दिखावा करने लगी। घर की मालकिन पीतल के एक गिलास में चाय लेकर लौटी। उसने वह गिलास बुढ़िया के पास जमीन पर रख दिया।

“ले, सद्दा–बासी साग कुछ है नहीं अभी। इसी चाय के साथ निगल जा।”

माटी वाली ने खुले कपड़े के एक छोर से पूरी गोलाई में पकड़कर पीतल का वह गरम गिलास हाथ में उठा लिया। अपने होंठों से गिलास के किनारे को छुआने से पहले, शुरू–शुरू में उसने उसके अन्दर रखी गरम चाय को ठण्डा करने के लिए सू–सू करके, उस पर लम्बी–लम्बी फूँक मारीं। तब रोटी के टुकड़ों को चबाते हुए धीरे–धीरे चाय सुड़कने लगी।

“चाय तो बहुत अच्छा साग हो जाती है ठकुराइनजी।”

“भूख तो अपने में एक साग होती है बुढ़िया। भूख मीठी कि भोजन मीठा ?”

“तुमने अभी तक पीतल के गिलास सँभालकर रखे हैं। पूरे बाजार में और किसी घर में अब नहीं मिल सकते ये गिलास।”

“इनके खरीदार कई बार हमारे घर के चक्कर काटकर लौट गये। पुरखों की गाढ़ी कमाई से हासिल की गयी चीजों को हराम के भाव बेचने को मेरा दिल गवाही नहीं देता। हमें क्या मालूम कैसी तंगी के दिनों में अपनी जीभ पर कोई स्वादिष्ट, चटपटी चीज रखने के बजाय मन मसोसकर दो–दो पैसे जमा करते रहने के बाद खरीदी होंगी उन्होंने ये तमाम चीजें, जिनकी हमारे लोगों की नजरों में अब कोई कीमत नहीं रह गयी है। बाजार में जाकर पीतल का भाव पूछो जरा, दाम सुनकर दिमाग चकराने लगता है। और ये व्यापारी हमारे घरों से हराम के भाव इकट्ठा कर ले जाते हैं, तमाम बर्तन भाँडे। काँसे के बरतन भी गायब हो गये हैं, सब घरों से।”

“इतनी लम्बी बात नहीं सोचते बाकी लोग। अब जिस घर में जाओ वहाँ या तो स्टील के भाँडे दिखाई देते हैं या फिर काँच और चीनी मिट्टी के।”

“अपनी चीज का मोह बहुत बुरा होता है। मैं तो सोचकर पागल हो जाती हूँ कि अब इस उमर में इस शहर को छोड़कर हम जाएँगे कहाँ!”

“ठकुराइन जी, जो जमीन–जायदादों के मालिक हैं, वे तो कहीं न कहीं ठिकाने पर जाएँगे ही। पर मैं सोचती हँू मेरा क्या होगा! मेरी तरफ देखने वाला तो कोई भी नहीं।”

चाय खत्म कर माटी वाली ने एक हाथ में अपना कपड़ा उठाया, दूसरे में खाली कनस्तर और खोली से बाहर निकलकर सामने के घर में चली गयी।

उस घर में भी ‘कल हर हालत में मिट्टी ले आने’ के आदेश के साथ उसे दो रोटियाँ मिल गयीं। उन्हें भी उसने अपने कपड़े के एक दूसरे छोर में बाँध लिया। लोग जानें तो जानें कि वह ये रोटियाँ अपने बुड्ढे के लिए ले जा रही है। उसके घर पहुँचते ही अशक्त बुड्ढा कातर नजरों से उसकी ओर देखने लगता है। वह घर में रसोई बनने का इन्तजार करने लगता है। आज वह घर पहुँचते ही तीन रोटियाँ अपने बुड्ढे के हवाले कर देगी। रोटियों को देखते ही चेहरा खिल उठेगा बुड्ढे का।

साथ में ऐसा भी बोल देगी, “साग तो कुछ है नहीं अभी।”

और तब उसे जवाब सुनाई देगा, “भूख मीठी कि भोजन मीठा ?”

उसका गाँव शहर के इतना पास भी नहीं है। कितना ही तेज चलो फिर भी घर पहुँचने में एक घंटा तो लग ही जाता है। रोज सुबह निकल जाती है वह अपने घर से। पूरा दिन माटीखान में मिट्टी खोदने, फिर विभिन्न स्थानों में फैले घरों तक उसे ढोने में बीत जाता है। घर पहुँचने से पहले रात घिरने लगती है। उसके पास अपना कोई खेत नहीं। जमीन का एक भी टुकड़ा नहीं। झोंपड़ी, जिसमें वह गुजारा करती है, गाँव के एक ठाकुर की जमीन पर खड़ी है। उसकी जमीन पर रहने की एवज में उस भले आदमी के घर पर भी माटी वाली को कई तरह के कामों की बेगार करनी होती है।

नहीं, आज वह एक गठरी में बदल गये अपने बुड्ढे को कोरी रोटियाँ नहीं देगी। माटी बेचने से हुई आमदनी से उसने एक पाव प्याज खरीद लिया। प्याज को कूटकर वह उन्हें जल्दी–जल्दी तल लेगी। बुड्ढे को पहले रोटियाँ दिखाएगी ही नहीं। सब्जी तैयार होते ही परोस देगी उसके सामने दो रोटियाँ। अब वह दो रोटियाँ भी नहीं खा सकता। एक ही रोटी खा पाएगा या हद से हद डेढ़। अब उसे ज्यादा नहीं पचता। बाकी बची डेढ़ रोटियों से माटी वाली अपना काम चला लेगी। एक रोटी तो उसके पेट में पहले ही जमा हो चुकी है। मन में यह सब सोचती, हिसाब लगाती हुई वह अपने घर पहँुच गयी।

उसके बुड्ढे को अब रोटी की कोई जरूरत नहीं रह गयी थी। माटी वाली के पाँवों की आहट सुनकर हमेशा की तरह आज वह चैंका नहीं। उसने अपनी नजरें उसकी ओर नहीं घुमार्इं। घबराई हुई माटी वाली ने उसे छूकर देखा। वह अपनी माटी को छोड़कर जा चुका था।

टिहरी बाँध पुनर्वास के साहब ने उससे पूछा कि वह रहती कहाँ है।

“तुम तहसील से अपने घर का प्रमाणपत्र ले आना।”

“मेरी जिनगी तो इस शहर के तमाम घरों में माटी देते गुजर गयी साब।”

“माटी कहाँ से लाती हो ?”

“माटीखान से लाती हँू माटी।”

“वह माटीखान चढ़ी है तेरे नाम ? अगर है तो हम तेरा नाम लिख देते हैं।”

“माटीखान तो मेरी रोजी है साहब।”

“बुढ़िया हमें जमीन का कागज चाहिए, रोजी का नहीं।”

“बाँध बनने के बाद मैं क्या खाऊँगी साब ?”

“इस बात का फैसला तो हम नहीं कर सकते। वह बात तो तुझे खुद ही तय करनी पड़ेगी।”

टिहरी बाँध की दो सुरंगों को बन्द कर दिया गया है। शहर में पानी भरने लगा है। शहर में आपाधापी मची है। शहरवासी अपने घरों को छोड़कर वहाँ से भागने लगे हैं। पानी भर जाने से सबसे पहले कुल श्मशान घाट डूब गये हैं।

माटी वाली अपनी झोपड़ी के बाहर बैठी है। गाँव के हर आने–जाने वाले से एक ही बात कहती जा रही है–– “गरीब आदमी का श्मशान नहीं उजड़ना चाहिए।”