–– पीटर रोनाल्ड डिसूजा

(यह लेख महान फुटबाल खिलाड़ी माराडोना की मौत पर द इण्डियन एक्सप्रेस में श्रद्धांजलि के रूप में प्रकाशित किया गया था। इसमें माराडोना के व्यक्तित्व के जुझारूपन के बारे में उन्हीं के एक मशहूर गोल के जरिये बात की गयी है। शासकों द्वारा स्थापित की गयी कानूनी नैतिकता के खिलाफ माराडोना की लड़ाई, फुटबाल के मैदान और उसके बाहर हमेशा चर्चित रही है। मौजूदा समाजव्यवस्था में नैतिकता अक्सर शासक तय करते हैं, लेकिन माराडोना ने हमेशा उस नैतिकता को मानने से इनकार किया है, चाहे फुटबाल का मैदान हो या चाहे साम्राज्यवाद के खिलाफ जनान्दोलन।)

1986 में मैक्सिको में आयोजित विश्व कप के क्वार्टर फाइनल में इंग्लैण्ड के खिलाफ माराडोना ने अपना पहला गोल–– “हैण्ड ऑफ गॉड” (ईश्वरीय) किया। हालाँकि छल–बल से दागे गये गोल के रूप में इसकी खुलेआम निन्दा की गयी, जिसके लिए फुटबाल में कोई जगह नहीं होती। कुछ ने इसे “हैण्ड ऑफ द डेविल” (शैतानी) करार दिया। अगर कोई व्यक्ति केवल यूरोपीय कमेंट्री करनेवालों को पढ़े, तो वह इस गम्भीर नैतिक फैसले से सहमति जताएगा। यूरोप–वासियों का गुस्सा समझ में आने लायक है। फुटबाल के अपने कायदे–कानून हैं। हैण्डबॉल गोल इनका उल्लंघन था। इंग्लैण्ड को अर्जेंटीना से 1–2 से नहीं हारना चाहिए था।

चूँकि यह लेख “कुदरत के हाथ” के गोल के बारे में केवल एक नैतिक फैसले के ऊपर है। इसलिए चर्चा को अंग्रेजों की नाराजगी, जिसे मैं एक बेईमानी के रूप में देखता हूँ, उसके बजाय मैं सिर्फ इसी मुद्दे तक सीमित कर रहा हूँ। वह दूसरी बात है। असल बात यह है कि माराडोना ने केवल चार मिनट बाद फिर गोल किया, जिसे सदी का सर्वश्रेष्ठ गोल माना जाता है, जो गोल उसने पाँच अंग्रेज खिलाडियों को पछाड़कर किया था, हम यहाँ इस पर भी बात नहीं करेंगे। “कुदरत के हाथ” के बारे में नैतिक मुद्दों की गम्भीरता इस दूसरे शानदार गोल से हल्की नहीं हो जाती। इसलिए, अगर कोई सिर्फ फुटबाल के नियमों के सन्दर्भ में “हैण्ड ऑफ गॉड” गोल को देखता है, जिनमें हाथ से गोल करना गलत है तो यह गोल, भले ही वह रेफरी ने इसे नहीं देखा, तब भी अस्वीकार्य था। फुटबाल की बेइज्जती हुई। इस मजेदार खेल पर एक बुरा धब्बा लग गया। इसके लिए माराडोना को सजा तो मिलनी ही चाहिए थी।

हालाँकि, अगर आप एक अलग नजरिये से गोल को देखते हैं, अगर आप इसमें अर्जेंटीना की गरिमा का ख्याल रखते हुए तर्क करते हैं तो यह गलत नहीं लगता। और अगर गोल को “डर्टी हैण्ड” के नजरिये से देखें तो फिर यह तर्क देना ठीक है कि अंग्रेजों को इसके परिणाम को भी “खुशी–खुशी और बिना कड़वाहट वाली तहजीब को आत्मविश्वास के साथ” स्वीकार कर लेना चाहिए था। जैसा कि मैरी बीयर्ड ने ऑक्सफोर्ड के छात्रों से रोड्स मस्ट फॉल अभियान का विरोध करते हुए कहा था। माराडोना ने ईटन के मैदानों पर फुटबाल नहीं सीखा था, जहाँ खेल के नियम जरूर सिखाये जाते हैं लेकिन औपनिवेशिक गुलामी के नहीं। उन्होंने अपने शहर ब्यूनस आयर्स के मुहल्लों की तंग गलियों में अपना फुटबाल सीखा। यहाँ, फुटबाल ही सब कुछ है। अगर आप अच्छे हैं, तो यह आपको अपनी नाजुकी से बाहर निकलने का रास्ता बता देता है। यह आपको हीरो बना देता है, बढ़िया जिन्दगी जीने का मौका देता है और आपको एक स्टार बनाता है। माराडोना एक ऐसे प्रतिभाशाली इनसान थे, जैसे फुटबाल की दुनिया में बहुत कम देखने को मिलते हैं। उनके माता–पिता पेरोनवादी थे। माराडोना ने एक ऐसी व्यवस्था के खिलाफ विद्रोह किया, जो हमें कानून की बेड़ियों से गुलाम बनाती है। जो लोगों को कुचलने के लिए ही कानून बनाती है और जब ये कानून उन पर ही भारी पड़ने लगते हैं तो उन्हें फाड़कर फेंक देती है।

पाँच फुट पाँच इंच का माराडोना एक सीधे गोल का सामना कर रहे अंग्रेज गोलकीपर पीटर शिल्टन से ज्यादा उछल गया था, केवल एक नियम की वजह से वह नाकाम नहीं हो सकता था। बहुत कुछ दाँव पर था। इंग्लैण्ड को हराने की जरूरत थी। माल्विनास में 1982 के युद्ध में हार का बदला लेना जरूरी था। उस युद्ध के शिकार नौजवानों को सम्मानित किया जाना था। अंग्रेजों को अपमानजनक सबक सिखाना जरूरी था। उसे गोल करना ही था। वह ऐसा करने के लिए अपना सब कुछ दाँव पर लगाने को तैयार था। और कुदरत ने माराडोना को एक हाथ देकर उन्हें छोटा कद देने की अपनी गलती का भुगतान किया।

ब्यूनस आयर्स की बस्तियों के लड़के की प्रवृत्ति हावी हो गयी। अपनी सारी चालाकी का इस्तेमाल करते हुए, उन्होंने हाथ से लगी गेंद को सर से लगी गेंद के रूप में पेश किया और गेंद को खुले गोलपोस्ट में डाल दिया। इसे पकड़ना रेफरी का काम था। पकड़ लेता तो शायद उन्हें सजा भी देता। अंग्रेजी कानून में इसे “अवरोधक वाले नियम” कहा जाता है। रेफरी ने हाथ से लगी गेंद को नहीं देखा। गोल किया जा चुका था। अर्र्जेंटीना ने उस मैच में बढ़त बना ली थी। माराडोना बहुत ऊँचे दाँव के लिए खेल रहा था। वह अपने लोगों के लिए खेल रहा था जो व्यवस्था के सताये हुए थे, वह अपने देश के लिए खेल रहा था जो युद्ध में इंग्लैण्ड से हार गया था, वह उन लोगों के सम्मान के लिए खेल रहा था जो इस युद्ध में शहीद हुए थे, उस पर नियमों के पालन का बोझ डालना महज भोलापन है। नियम का पालन रेफरी का काम था, इसे लागू करने का उसे अधिकार था। माराडोना ने मन ही मन जुआ खेला कि रेफरी इसे नहीं देखेगा। माराडोना बाजी जीत गये।

“डर्टी हैण्ड” एक तर्क के अलावा नैतिकता का एक सिद्धान्त भी है, जिसका इस्तेमाल करके माराडोना के गोल का बचाव किया जा सकता है। प्रिंसटन के दार्शनिक माइकल वाल्जर और कैम्ब्रिज के दार्शनिक बर्नार्ड विलियम्स इसको स्वीकार कर चुके हैं। यह साफ–साफ शब्दों में बताता है कि असामान्य परिस्थितियों में अनैतिक कार्य सही है, यानी हाथ गन्दा करना सही है अगर वह किसी ऊँचे नैतिक मकसद को हासिल करने के लिए किया गया हो। ऐसी परिस्थितियों में किसी के पास हाथ गन्दे करने के अलावा कोई दूसरा विकल्प नहीं होता है। मेरा मानना है कि मेराडोना का गोल इन शर्तों को पूरा करता है। जब उसके सामने खाली गोलपोस्ट था तो वह नियमों के बारे में कैसे सोच सकता था। जब उसके दिमाग में नाच रहा था कि अर्जेंटीना के लिए इस गोल का मतलब क्या होगा तो उसके हाथों से थोड़ी सी मदद कोई बड़ा नैतिक अपराध नहीं था। किसी की जान नहीं गयी। “डर्टी हैण्ड” का नैतिक सिद्धान्त इस गोल को सही ठहराने के लिए खड़ा नहीं किया गया था।

दिलचस्प बात यह है कि महाभारत में “डर्टी हैण्ड” तर्क को बार–बार इस्तेमाल किया गया है। भगवान कृष्ण, कर्ण के खिलाफ युद्ध में अर्जुन के रथ का मार्गदर्शन करते हुए कर्ण को कीचड़ में अटके हुए रथ के पहिये को उठाने के लिए अपने हथियार एक तरफ रखते हुए देखते हैं। उसे असुरक्षित देखकर पहचानते हैं कि यही वह मौका है जब कर्ण को मारा जा सकता है। जिसे अगर यूँ ही गवाँ दिया गया तो इसका मतलब अर्जुन की हार होगी। कृष्ण ने अर्जुन से कर्ण पर तीर चलाने का आग्रह किया। यह युद्ध के नियमों का उल्लंघन था। जब कोई निहत्था होगा तो उस पर हमला नहीं किया जाएगा। लड़ाई तभी हो सकती है जब दोनों सशस्त्र हों। अर्जुन ने नियम तोड़ने में संकोच किया। भगवान कृष्ण ने उन्हें निहत्थे कर्ण पर तीर चलाने के लिए मजबूर किया। अर्जुन ने वही किया। कर्ण की मौत हो गयी। “हैण्ड ऑफ गॉड” का एक और कारनामा।

फिर, माराडोना को अपने हाथ से किये गये गोल के लिए गाली क्यों दी जाये ? मेरे ख्याल से यह अनुचित है। दूसरे गोल ने माराडोना की प्रतिभा पर बहस को समाप्त कर दिया। वह एक मजे हुए कलाकार, उत्साही खिलाड़ी, फुटबाल का जानकार इनसान था। वह ब्यूनस आयर्स का लड़का था, जिसने इस व्यवस्था का सामना किया, इसे चुनौती दी, इसके द्वारा कुचला गया, लेकिन उसे कभी भी इसका पैरोकार नहीं बनाया जा सका। फुटबाल की दुनिया में वह चित्रकार विन्सेण्ट वान गॉग, शतरंज के विलक्षण खिलाड़ी बॉबी फिशर, बैले डांसर रुडोल्फ नुरेयेव, गणितज्ञ जॉन नैश के समकक्ष थे। उनकी जीवन शक्ति ने उन्हें दुनिया के साथ कदमताल करने की अनुमति नहीं दी। ऐसी जीवन शक्ति कभी भी ऐसा नहीं करती। माराडोना की अभी मृत्यु हुई है। माराडोना जिन्दाबाद।

(साभार इन्डियन एक्सप्रेस)