–– जयपाल

पंजाब के विख्यात साहित्यकार डॉ गुलजार सिंह सन्धू के उपन्यास ‘गोरी हिरणी’ की साहित्य जगत में आजकल काफी चर्चा है। मूल रूप से पंजाबी में लिखा गया यह उपन्यास पहले अंग्रेजी और अब हिन्दी में अनुदित हुआ है। प्रकाशक दिगम्बर (गार्गी प्रकाशन) के अनुसार पाँच महीने में ही इसकी सारी प्रतियाँ बिक चुकी हैं और बहुत जल्द ही इसका दूसरा संस्करण आ रहा है। खुद गुलजार सिंह सन्धु ने कहा कि इसके पंजाबी और अंग्रेजी संस्करणों को इतनी लोकप्रियता नहीं मिली जितनी कि हिन्दी संस्करण को।

 पिछले दिनों विश्व पुस्तक मेला–– दिल्ली, देहरादून, अम्बाला, बठिण्डा और समराला में इस उपन्यास पर पाँच समीक्षात्मक गोष्ठियाँ हुर्इं। इस बहस में लेखक और अनुवादक दोनों के साहित्यिक प्रयास को खूब सराहा गया। उपन्यास को एक ऐतिहासिक उपन्यास बताते हुए कहा गया कि यह रचना फासीवादी तानाशाह को कटघरे में खड़ा करती है और सामाजिक ढाँचे पर उसके दीर्घकालिक दुष्प्रभाव को बहुत ही मार्मिकता के साथ सामने रखती है। इसीलिए इस उपन्यास की तुलना हावर्ड फास्ट के प्रसिद्ध उपन्यास ‘पुल बनाने वाले की कहानी’ से भी की गयी। इन विचार–गोष्ठियों को गार्गी प्रकाशन–दिल्ली, जनवादी लेखक संघ–– हरियाणा, प्रगतिशील लेखक संघ–– हरियाणा, लेखक मंच समराला–– पंजाब और हस्ताक्षर–– बठिण्डा (पंजाब) ने पिछले चार–पाँच महीनों में आयोजित किया था। इन विचार गोष्ठियों में ‘गोरी हिरणी’ के सृजन और अनुवाद की विशेषताओं को रेखांकित किया गया तथा दुनिया भर में मँडराते फासीवाद के खतरे पर गहरी चिन्ता व्यक्त की गयी।

आज हम अपने देश में भी साफ–साफ देख रहे हैं कि वर्तमान सत्ता के द्वारा अल्पसंख्यक लोगों के प्रति नफरत का प्रचार जोरों पर है। उसे देश का शत्रु घोषित किया जा रहा है। अभी हाल ही में उत्तर प्रदेश में छोटे–मोटे दुकानदारों /रेहड़ी–पटरी, सब्जी फल और ढाबे वालों के लिए अपनी पहचान लिखने का आदेश आया है। यह मुस्लिमों के प्रति नफरत को बढ़ावा देने का एक घटिया हथकण्डा है। काँवड़ यात्रा के दौरान हरिद्वार में कुछ मस्जिदों और मजारों को कपड़े से ढक दिया गया। लोकसभा चुनावों में प्रधानमंत्री के निशाने पर यही समुदाय रहा। दलितों और अल्पसंख्यकों के प्रति मॉब–लिंचिंग की घटनाएँ लगातार बढ़ रही हैं। यह बिल्कुल हिटलर के फासीवादी रास्ते पर चलने जैसा है। हिटलर ने जो कुछ किया अगर वही हमारे आस–पास घटने लगे तो समझ लीजिए हम हिटलरी युग की ओर बढ़ रहे हैं। यह उपन्यास हमें इसी खतरे के प्रति आगाह करता है। मानवता के प्रति प्यार और पशुता के प्रति घृणा की सीख देता है। इसकी पठनीयता, प्रासंगिकता और सार्थकता इसी में है कि इतिहास और सृजन के बहाने यह हमारे वर्तमान को मुखातिब है। हिटलर की तरह आज की प्रतिक्रियावादी सत्ता कलाकारों, साहित्य कर्मियों, पत्रकारों, बुद्धिजीवियों, वामपंथियों, किसानों–मजदूरों आदि को देशद्रोही और सत्ताधारी नेताओं/ पार्टी कार्यकर्ताओं/पूँजीपतियों/ धार्मिक पाखंडियों आदि को देशभक्त घोषित कर चुकी है। एक तरह से यह आने वाले संकट की आहट है।

लेखक ने बहुत पहले ही 2013 में इस उपन्यास को लिखकर भारतीय समाज को सावधान रहने का संकेत कर दिया था।

जर्मन समाज हिटलर के फासीवादी चक्रव्यूह को नहीं तोड़ पाया था जिसके जख्म आज भी जर्मनी के माथे पर स्पष्ट देखे जा सकते हैं। आज हम भी उसी दौर से गुजर रहे हैं। ‘गोरी हिरणी’ उपन्यास की नायिका मारथा के परिवार की कहानी के माध्यम से लेखक ने हिटलर के बाद जर्मन समाज के बिखराव को बहुत सूक्ष्मता और मानवीय संवेदना के साथ दर्शाया है। हिटलर की मौत/आत्महत्या के बाद वहाँ के बच्चे अनाथ हो गये। परिवार का ढाँचा पूरी तरह चरामरा गया। शिक्षा और स्वास्थ्य का वातावरण पूरी तरह तबाह हो गया। चारों तरफ विनाश ही विनाश––– विध्वंस ही विध्वंस–––मानव मांस और लहू की जहरीली गन्ध, गैस चैम्बर और मौत के शिविरों के दृश्य ––!!! रूस–यूक्रेन और इजराइल–फिलिस्तीन के खूनी जंग को तो हम अपनी आँखों से देख ही रहे हैं। दुनिया भर में दक्षिणपंथी सरकारों के रुझान से यह चिन्ता और भी बढ़ती जा रही है।

दूसरे विश्व युद्ध और उसके बाद के लेखकों ने फासीवादी विचारधारा के प्रति पूरी दुनिया को सचेत किया है। यह उपन्यास भी उसी दायित्व को निभाने जैसा है। बुद्धिजीवी अब इस खतरे को एशियाई देशों में भी देख रहे हैं और अपनी रचनाओं से समाज को सावधान कर रहे हैं। गुलजार सिंह सन्धू का उपन्यास इसी सन्दर्भ के साथ पढ़ा और समझा जाना चाहिए। गुरबख्श मोंगा और वन्दना सुखीजा के सरल और रोचक हिन्दी अनुवाद तथा गार्गी प्रकाशन की प्रतिबद्धता ने हिन्दी पाठकों के मन में इस पुस्तक के प्रति जिज्ञासा बढ़ा दी है।