वैश्विक लिंग असमानता रिपोर्ट
समाचार-विचारये आँखें हैं तुम्हारी
तकलीफ का उमड़ता हुआ समुन्दर
इस दुनिया को
जितनी जल्दी हो बदल देना चाहिये।
––गोरख पाण्डेय
किसी देश–समाज की खुशहाली या बदहाली को जानना हो तो वहाँ महिलाओं और बच्चों की हालत देखकर आसानी से समझा जा सकता है। आजादी के अमृत महोत्सव मनाते देश में लैंगिक समानता के मामले में दुनियाभर में भारत का स्थान अत्यन्त चिन्ता और क्षोभ का विषय है।
हाल ही में जिनेवा में जारी वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम (डब्ल्यूईएफ) की वार्षिक जेण्डर गैप रिपोर्ट 2022 के अनुसार, लैंगिक समानता के मामले में भारत 135वें स्थान पर है। 146 देशों के सूचकांक में केवल 11 देश भारत से नीचे हैं, जिनमें अफगानिस्तान, पाकिस्तान, कांगो, ईरान और चाड सबसे खराब पाँच देशों में हैं। आइसलैण्ड ने दुनिया के सबसे अधिक लिंग–समान देश के रूप में अपना स्थान बरकरार रखा है, इसके बाद फिनलैण्ड, नॉर्वे, न्यूजीलैण्ड और स्वीडन का स्थान है। रिपोर्ट में आगे कहा गया है कि कोविड –19 ने एक लैंगिक समानता को एक पीढ़ी पीछे धकेल दिया है और इसमें सुधार की बेहद धीमी रफ्तार इस समस्या को विश्व स्तर पर बदतर बना रही है।
भारत के बारे में, डब्ल्यूईएफ ने कहा कि यहाँ लिंग भेद का स्तर पिछले 16 वर्षों में अपना सातवाँ स्थान दर्ज किया है, लेकिन यह विभिन्न मापदण्डों पर सबसे खराब प्रदर्शन करने वालों देशों में से एक है। अनुमानित अर्जित आय के लिए लिंग समानता स्कोर में सुधार हुआय जबकि पुरुषों और महिलाओं दोनों के लिए मूल्यों में गिरावट आयी, पुरुषों के मामले में उनमें और अधिक गिरावट आयी।
हालाँकि, राजनीतिक सशक्तिकरण के क्षेत्र में, उप–सूचकांक थोडा बेहतर, 48वें स्थान पर है, उसमें भी पिछले 50 वर्षों से महिलाओं ने राज्य के प्रमुख के रूप में काम करने वाले वर्षों में घटती हिस्सेदारी के कारण गिरावट आयी है।
स्वास्थ्य और उत्तरजीविता उप–सूचकांक पर, भारत सबसे नीचे 146वें स्थान पर है और 5 प्रतिशत से अधिक लिंग अन्तर वाले पाँच देशों–– कतर, पाकिस्तान, अजरबैजान और चीन की श्रेणी में शामिल है।
दक्षिण एशिया में, भारत को समग्र स्कोर के लिहाज से बांग्लादेश, नेपाल, श्रीलंका, मालदीव और भूटान से नीचे, छठा स्थान मिला। केवल ईरान, पाकिस्तान और अफगानिस्तान की स्थिति भारत से भी खराब है।
मौजूदा रफ्तार से, इस इलाके में लैंगिक अन्तर को पाटने में 197 साल लगेंगे। बांग्लादेश और भारत के साथ–साथ नेपाल सहित इन देशों में पेशेवर और तकनीकी क्षेत्र में महिलाओं की हिस्सेदारी बढ़ने से आर्थिक लिंग अन्तर में 1–8 प्रतिशत तक कमी हुई है।
डब्ल्यूईएफ के अनुसार सर्वेक्षण में शामिल 146 अर्थव्यवस्थाओं में से पाँच में से सिर्फ एक ने पिछले एक साल में लिंग अन्तर को कम से कम 1 प्रतिशत तक पाटने में कामयाबी हासिल की है।
डब्ल्यूईएफ की प्रबन्ध निदेशक सादिया जाहिदी ने कहा, “महामारी के दौरान श्रम बाजार में नुकसान के झटके सहने और स्वास्थ्य देखभाल के बुनियादी ढाँचे की निरन्तर अपर्याप्तता के बाद महिलाओं को जीवन यापन खर्च संकट बेहद बुरी तरह प्रभावित कर रही है।”
आगे उन्होंने कहा कि “धीमी गति से सुधार की स्थिति में, सरकार और पूँजीपतियों को दो तरह के प्रयास करने चाहिए–– कार्यबल में महिलाओं की वापसी और भविष्य के उद्योगों में महिलाओं की प्रतिभा के विकास के लिए योजनाबद्ध नीतियाँ। अन्यथा, हम पिछले दशकों के लाभ को स्थायी रूप से क्षरित करने का जोखिम उठायेंगे और भविष्य के विविधतापूर्ण आर्थिक प्रतिफल को गँवा देंगे।”
प्रगति की वर्तमान दरों पर, राजनीतिक सशक्तिकरण के लिंग अन्तर को पाटने में 155 साल लगेंगे, जो 2021 के अनुमान से 11 साल अधिक है तथा आर्थिक भागीदारी और अवसर के मामले में लिंग अन्तर पाटने में 151 वर्ष लगेंगे।
यह रिपोर्ट महिलाओं के प्रति हमारे शासकों की आपराधिक उपेक्षा और हृदयहीनता का आईना है। इन आँकड़ों को सरकारी विज्ञापनों की सुनहरी तस्वीर से ढकने की कुत्सित कोशिशें भी खूब हो रही हैं, जबकि समाज में महिलाओं की दुर्दशा के रूप में हम इनको हर जगह मूर्त रूप में देख रहे हैं।
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