ना दौड़, ना दौड़

ते उंदार्यों का बाटा उंदार्यों का बाटा

उत्तराखंड के प्रत्येक नौजवान, बड़े बुजुर्गाे ने नरेंद्र सिंह नेगी जी का ये गीत जरूर सुना होगा, जिसमें नीचे की तरफ जा रहे रास्तों में न दौड़ने को कहते हुए खाली होते घरों और पलायन की विकट परिस्थिति का जिक्र किया गया है। गाँव के गाँव खाली हो गये हैं और वे गाँव भी अब “घोस्ट विलेजेस” के नाम से प्रसिद्ध हैं। अगर भारत के घोस्ट विलेजेस को गूगल सर्च इंजन में ढूँढेंगे तो उत्तराखंड के घोस्ट विलेज सबसे पहले दिखने शुरू हो जाते हैं और वहीं इनके आँकड़े देखें तो स्थिति बहुत दयनीय है। पलायन के सुख दो चार दिन के हैं लेकिन जब कोई व्यक्ति पलायन करता है तो वह अकेले नहीं जाता। वह ले जाता है अपने साथ अपनी ऐतिहासिक संस्कृति को, अपने क्षेत्र के भविष्य को, जो वह अपने क्षेत्र में सुरक्षित करने में असमर्थ है। उत्तराखंड का नाम सुनते ही कल्पना करने लगते हैं कि बहती नदियाँ, सुंदर विहंगम दृश्य, हरे भरे जंगल, पहाड़ियाँ आदि होंगी। लेकिन यह कल्पना कितने समय तक की जा सकती है यह एक बड़ा सवाल है। विकास की राह में दौड़ रहे उत्तराखंड ने पृथक होने के 22 साल बाद घोस्ट विलेजेस की लम्बी सूची बना ली है, जिसका मुख्य कारण पलायन है जो राज्य के उत्तर प्रदेश से पृथक होने के बाद कई गुना बढ़ा है।

क्या है घोस्ट विलेजेस?

घोस्ट विलेजेस से ये बिल्कुल ना माने की गाँव में भूत या प्रेत है, घोस्ट का मतलब वीरान या खाली  होने से है यानी वीरान हो चुके गाँव ही घोस्ट विलेज हैं जहाँ गिने चुने लोग बचे हैं वे भी अधिकतर बुजुर्ग लोग ही बचे हैं। जिन गाँवों में लोगों की संख्या 10 व्यक्तियों से कम हो या शून्य हो वे गाँव घोस्ट विलेज की श्रेणी में आते हैं।

घोस्ट विलेज के बारे में क्या कहते हैं आँकड़े?

 2011 की जनगणना के अनुसार उत्तराखंड के 13 जिलों में से लगभग 1048 गाँवों में 0 जनसंख्या थी और लगभग 44 गाँवों की जनसंख्या 10 लोगों से कम थी। लगभग 2–80 लाख घरों में ताले लग गये थे।

2018–2022 की अपनी अंतरिम रिपोर्ट उत्तराखंड के ग्रामीण विकास पलायन निवारण आयोग ने राज्य सरकार को सौंप दी है। रिपोर्ट में कहा गया है कि 2018 से 2022 तक कुल 303 लाख लोग राज्य के अलग अलग क्षेत्रों में, खासकर पहाड़ों से पलायन कर गये हैं। इनमें से 6436, गाँवों के 3 लाख लोगों ने अस्थायी प्रवासन किया है। वहीं इस अवधि में 2067 गाँवों के 28,631 लोग स्थायी रूप से पलायन कर चुके हैं। 2011 के आँकड़े के अनुसार उत्तराखंड में लगभग 1,048 गाँव निर्जन थे जो 2018 तक लगभग 734 और बढ़ गये हैं। जिससे घोस्ट विलेजेस की संख्या बढ़कर लगभग 1,782 हो गये।

घोस्ट विलेजेस के कारणों पर एक नजर

घोस्ट विलेज की संख्या बढ़ने का सबसे मुख्य कारण पलायन है। गाँव में रोजगार नहीं है, पानी की सुविधा नहीं, बिजली भी नहीं है, अच्छे स्कूल नहीं है, सड़क नहीं है, अस्पताल नहीं है, खेती बाड़ी भी नहीं है तो सवाल यह है कि यह सब अचानक से कहाँ विलुप्त हो गये? क्या राज्य के पृथक होने के बाद उत्तराखंड में कोई सुधार नहीं आया? अगर आया है तो गाँव खाली क्यों हो रहे हैं? सरकारों के दावे तो हैं की उत्तराखंड ने बहुत तरक्की की है तो फिर पलायन आयोग बनाने की जरूरत क्यों आन पड़ी? अगर आयोग बना है तो किस हद तक पलायन रोका गया है?

सरकारी आँकड़ों की माने तो 70 हजार हेक्टेयर भूमि बंजर हुई है और वहीं गैर सरकारी आँकड़े पर गौर करे तो बंजर कृषि भूमि का रकबा 1 लाख हेक्टेयर से अधिक है। यदि ग्रामीणों की माने तो उनकी खेती हमेशा से ऐसी नहीं थी कुछ साल एक या दो दशक पहले तक गाँव में बन्दरों का कोई आतंक नहीं होता था न ही गाँव के नजदीक तेंदुए आते थे, लेकिन मैदानी क्षेत्रों से बन्दर गाँव में लाकर छोड़ दिये गये जिससे ग्रामीण खेती तो करते हैं लेकिन उनकी फसल को बन्दर या सुवर खा ले रहे हैं तो खेती को सुरक्षा देने के लिए सरकार ने क्या सुझाव दिये या क्या प्रयास किये? सरकारी अस्पतालों की दुर्दशा किसी से भी अनभिज्ञ नहीं है तो उनकी हालातों के सुधार में क्या व्यवस्था की जा रही है? क्यों खाली पड़े पदों पर कोई पदभार नहीं सम्भाल रहे?   

उत्तराखंड में बेहद योजनागत तरीके से तमाम उद्योग, विश्वविद्यालय, अस्पताल, प्रशासनिक कार्यालय मैदानी क्षेत्रों में खोले गये और पहाड़ी क्षेत्रों को अपने हाल पर छोड़ दिया गया। पर यह छोड़ना पूरे तरीके से अक्रिय नहीं था। सरकार ने वन कानून के नाम पर लोगों से बड़ी संख्या में जमीन हड़प ली।

नये विकास मॉडल के परीक्षण के लिए इंडोनेशिया में तीन शोधकर्ताओं की टीम ने मिलकर प्रवास को समस्या को समझने का प्रयास किया। इस मुद्दे को लेकर शोधकर्ताओं के बीच एक विवाद बहुत पुराना है जिसका मुख्य केन्द्रबिन्दु यह है कि इसमें एक पक्ष नये विकास मॉडल के साथ पलायन की समस्या को कम होता हुआ बताते हैं जिसका आधार वह बढ़ते राजनीतिक भागीदारी से जोड़ते हैं, वहीं दूसरा धड़ा इसे पूरी तरह से नकारते हुए यह बताता है कि पिछले एक दशक में पलायन की दर में वृद्धि हुई है और इसका आधार वह घटती बुनियादी सुविधाएँ, शासन व्यवस्था का सुचारू रूप से कार्य न करना और उचित कार्यान्वयन को बताते हैं। दूसरे पक्ष की बात को अगर आगे बढ़ते हुए इस बात पर जोर दिया जाये कि विकास को केवल सड़कों के बन जाने से और बिजली के आ जाने से नहीं समझा जाना चाहिए। लोगों को रोजगार मिल पाना कठिन होता जा रहा है। यह बात हम भारत में मनरेगा की बदहाली से भी समझ सकते है जिसमे सरकार ने हर बार बजट में कटौती की है। इसके अलावा कम आमदनी के कारण लोगों पर कर्ज की व्यापक समस्या बढ़ी है। 2021–22 में मनरेगा को 98,468 करोड़ का आबंटन किया गया था जो 2023 के बजट में 60,000 करोड़ हो गया है।

जॉर्ज कैफेंटजिस, अफ्रीका के शोधकर्ता अपने पेपर में इस बात की विस्तार से चर्चा करते हैं कि किस प्रकार से विश्व बैंक और आईएमएफ के ढाँचागत समायोजन कार्यक्रम को लागू करने के लिए ग्रामीण विकास के बजट को कम किया गया है। यह कार्यक्रम जहाँ विकास के खास मॉडल पर काम करता है जिसे नवउदारवादी बाजार नीति के तहत समझा जा सकता है। इसके अनुसार समाज की हर एक चीज या प्रक्रिया एक माल (कमोडिटी) है जिसे केवल बाजार के मानकों के द्वारा ही बेहतर तरीके से विकसित किया जा सकता है। यहाँ न केवल श्रमिक अपितु इनसान की भावनाएँ, उसकी संस्कृति, उसके जीने के सलीके सभी बाजार के लिए माल है और पूँजी को पुनरुत्पादित करने के साधन। जॉर्ज मानक शहर के मॉडल पर बात करते हुए इस बात को दोहराते हैं कि गाँव के सभी रोजगार के साधनों को छीन कर वहाँ पर सड़कें बिछाई जा रही हैं जिसका सीधा सम्बन्ध ग्रामीण उत्पाद को कम दाम में खरीद कर तथा पहाड़ से खनिज और कच्चा माल खोदकर ले जाया जा सके।

कुलसारी की महिलाएँ दिखा रहीं नया रास्ता

एक तरफ जहाँ उत्तराखंड के पहाड़ी इलाकों में व्यापक पलायन जारी है, वहीं कुलसारी की महिलाएँ इतिहास की धारा में एक नये चरण को जोड़ने के लिए संघर्षरत है। कुलसारी गाँव की महिलाएँ पास के एक गाँव की महिलाओं के साथ मिलकर पहाड़ों के पत्थरों को कटने वाले क्रशर के प्रयोग के विरोध में पिछले एक साल से संघर्षरत है और विकास के विनाशकारी मॉडल के बढ़ाव को अपने क्षेत्र में रोके हुई है। उनका मानना है कि “अगर यह क्रशर चलता है तो उसके पास में स्थित हमारे खेत उसके धूलकणों से बंजर हो जाएँगे। बच्चों के विद्यालय पास में होने के कारण यह मशीन उनके शिक्षा में भी बाधा है। इसके अलावा महिलाओं ने अपने आन्दोलन में यह भी बताया कि हमारी संस्कृति हमारी धरोहर हमारे पहाड़ों से जुड़ी हुई है और सरकार की यह पहल हमें अन्तिम रूप से पलायन कराने की है, जिसके लिए हम बिलकुल तैयार नहीं हैं।”

सरकारी पर्यावरणवादियों और एनजीओवादियों का समूह व्यापक अध्ययनों के बाद भी इन बारीकियों को समझ पाने में असक्षम है जिसके बारे में यह महिलाएँ अपने अनुभव के आधार पर बोल रही हैं। महिलाओं ने चैड़े सड़क और भरी ट्रकों के आगमन का विरोध करते हुए यह बताया कि हमारा क्षेत्र भूस्खलन क्षेत्र में आता है और इतने भारी–भरकम सड़क और निर्माण कार्य के लिए प्रयोग में आने वाली मशीनों के लिए यह क्षेत्र सक्षम नहीं है। आन्दोलनरत महिलाओं के ऊपर सरकारी कार्य में बाधा डालने का मुकदमा लाद दिया गया है। इसके अलावा राज्य का महकमा, ठेकेदार, मुखिया, कांट्रेक्टर, पुलिस सभी लगातार अलग–अलग रूप से महिलाओं को प्रताड़ित कर रहे हैं।

क्षेत्र की महिलाओं ने एक टीवी इंटरव्यू में यह भी बताया कि इस क्षेत्र में ठेकेदार भी बाहरी हैं और मजदूर भी बाहर से लाये जा रहे हैं। रोजगार के नाम पर स्थानीय लोगों के संसाधनों की यह लूट जारी है। महिलाओं ने अपनी जमीन और पानी की लड़ाई को अपने अस्तित्व से जोड़कर जिस संघर्ष को शुरू किया है वह पूरे हिमालय के लिए एक बड़ा उदाहरण है कि आगे का रास्ता संघर्ष से होकर जाएगा। केन्द्र सरकार ने उत्तराखंड सरकार को स्थानीय लोगों के संसाधन को लूटने के लिए खुली छूट दे रखी है। हालाँकि स्थानीय लोगों में एक बहुत छोटा सा खेमा है जो इस विकास मॉडल का समर्थन कर रहा है जिसे इस दमन की राजनीति में थोड़ा फायदा मिल रहा है। इसके अलावा उत्तराखंड की व्यापक जनता इसके विरोध में खड़ी है।

अलग हुए उत्तराखंड की स्थानीय राजनीतिक पार्टियाँ जैसे उत्तराखंड क्रान्ति दल, उत्तराखंड परिवर्तन पार्टी भी जनता के मूल मुद्दों पर एक दीर्घकालीन संघर्ष चला पाने में सक्षम नहीं रही जिसका एक बड़ा कारण इन पार्टियों की लीडरशिप मध्यमवर्गीय आकांक्षाओं और नैतिकताओं पर टिकी हुई है। इन पार्टियों में भी अन्य चुनावी पार्टियों की तरह वोट की राजनीति और उससे फायदे के लिए समझौतावादी रुख व्यापक रूप से नजर आये हैं। चाहे वह पर्यावरण का मामला हो या स्थानीय अर्थव्यवस्था को स्वचालित करने का मामला हो, उत्तराखंड के निवासियों को आसान पलायन की दिशा को छोड़ कर संघर्ष के रास्ते से अपने जल, जंगल और जमीन की रक्षा करने के लिए तैयार होना चाहिए। स्थानीय युवाओं और अनुभवी एक्टिविस्टों को विस्थापन विरोधी मंच जैसे प्लेटफार्म का निर्माण कर उसके अलग–अलग चैप्टर्स को अलग–अलग जिलों में लागू करना चाहिए। इन प्लेटफार्मों के जरिये पर्यावरण के मुद्दे का राजनीतिक आकलन और वर्तमान विकास मॉडल के विरोध में स्थानीय जागरूकता कमेटी के द्वारा लोगों में चेतना का विकास करना चाहिए और साथ ही उन्हें लम्बे संघर्ष के लिए तैयार करना चाहिए।

यह आज के आन्दोलनों पर बड़ा प्रश्नचिन्ह है कि हम संगठित होकर संघर्ष करने के ऐतिहासिक तरीके को नजरंदाज या खारिज करते जा रहे है। लेकिन वास्तविकता यही है कि राज्य के सारे उपकरण पुलिस, लोकल गुंडा गिरोह, जमीन और लकड़ी माफिया, विदेशी पूँजी, न्यायालय आदि, बेहद संगठित ढँंचे का प्रतिनिधित्व करते हैं। यह ढाँचा आम लोगों का समूह नहीं है, बल्कि कुछ विशिष्ट और अमीर लोगों का अनैतिक समूह है जो केवल अपने संकीर्ण हित में कार्य कर रहा है। यह समूह ही हमारे बीच में जाति, धर्म, मान्यताओं की कृत्रिम सीमाएँ गढ़ कर अपने आप को सफलता से पुनरुत्पादित कर रहा है। यह बात हमें गाँठ बाँध लेनी चाहिए कि हमे बाँट कर ही राज्य मशीनरी मजबूत होती है। अगर हम भी संगठित हो जायें तो हमें हमारे संसाधनों से हटाना उतना ही मुश्किल या नामुमकिन होगा जितना नियमगिरि में हुआ था।

(नजरिया मैगजीन डॉट इन से साभार)