(प्रो– लालबहादुर वर्मा की याद में देहरादून में आयोजित व्याख्यान–माला में प्रो– जगमोहन सिंह, अध्यक्ष, जम्हूरी अधिकार संगठन, पंजाब का व्याख्यान)

प्रो– लालबहादुर वर्मा ने इतिहासबोध शब्द दिया, इस शब्द में बहुत गहराई है, मैं इसी से अपनी बात शुरू करना चाहूँगा। वर्मा जी लिखते हैं कि अतीतग्रस्तता व्यक्ति को रूढ़िवादी, पुरातनपन्थी, संकीर्ण, हताशोन्मुख और प्रतिक्रियावादी बनाता है। अतीतग्रस्तता का सही जबाव इतिहासबोध है। इतिहासबोध व्यक्ति को मुक्त, रुस्तमरुख, उदार, आशावान, समतावादी और प्रगतिवादी बनाता है। इतिहास को लेकर ये दो विरोधी नजरिये हैं। इनका कामन ग्राउण्ड क्या है? इन दोनों की जन्मभूमि अतीत की घटनाएँ हैं। अतीत को लेकर ये दोनों नजरिये चलन में हैं। एक की यात्रा कल से शुरू होकर आज पर खत्म हो जाती है और दूसरे की कल से आज और भावी कल तक चलती है, भविष्य तक चलती है दूसरे को ही इतिहासबोध कहते हैं। पहला पीछे खींचता है, जबकि दूसरा आगे बढ़ाता है। एक व्यवधान है दूसरा समाधान, एक आँख का परदा है दूसरा दृष्टि। अतीत कितना प्रासंगिक है, कितना प्रवाहित है, कितना जीवित है और आज के लिए कितना आवश्यक और उपयोगी है? यह जानना और इसे चरितार्थ करना ही इतिहासबोध है। आज हम जिस परिस्थिति में हैं, उसमें इतिहासबोध को इस तरह समझना जरूरी है। वर्मा जी ने कहीं लिखा है कि इतिहास में तो बहुत सारी कहानियाँ हैं, लेकिन इतिहासबोध यह है कि इन कहानियों से हमने क्या सीखा है। यह इस बात को जाँचने का एक तरीका है कि हमने जो सीखा उनमें से क्या अपनाया।

जब मैं भगत सिंह की जिन्दगी को देखता हूँ, तो उनमें यह खूबी देखने को मिली कि जो भी उन्होंने पढ़ा उसको तुरन्त व्यवहार में और जीवन में उतारने की कोशिश की। जब पहली दफा उनको गिरफ्तार किया गया, आपने चारपाई पर बैठे हुए उनकी जो फोटो देखी है, वह 1927 में उनकी पहली गिरफ्तारी की फोटो है, उसके बाद उनकी 60 हजार रुपये की जमानत हुई। पिता ने कहा कि काका तुम घर से भागने में सक्षम हो, लेकिन अब तुम्हे घर रहना है क्योंकि मेरे दोस्तों ने तुम्हारी जमानत ली है, तो उनको परेशानी में मत डालना। उन दिनों वे लियो टालस्टाय को पढ़ रहे थे, पिता जी ने उनको काम दिया कि जो खेती में हमारी मदद करने वाले लोग हैं उनका कुछ लेन–देन है जिसका हिसाब करना है। तुम घर में रहते हो मैं बाहर रहता हूँ, तो तुम यह काम कर दो। भगत सिंह ने लोगों से पूछा कि आप लोगों ने उधार किसलिए लिया था, एक ने कहा कि मेरी पत्नी बीमार हो गयी थी उसके इलाज के लिए लिया था। दूसरे ने कहा कि मेरा बच्चा बीमार हो गया था तो उसके इलाज के लिए लिया था। तो भगत सिंह ने सारा हिसाब काट दिया और कहा कि तुम हमारे लिए काम करते हो, तुम्हें जो समस्याएँ आती हैं उनको दूर करने की जिम्मेवारी हमारी है, इसलिए यह कर्ज नहीं है, यह तो आपकी जरूरत थी। जब माता जी ने पूछा कि काका हिसाब कर आये तो चुटकी बजाकर कहा कि यह घर गरीबों में बाँट दो, पिता जी को भी यही दलील दी। उनके पिता जी को मैं सलाम करता हूँ कि उन्होंने भगत सिंह को डाँटा नहीं, उनकी दलील सुनकर उनकी तारीफ की और कहा कि बात तो तू ठीक कह रहा है। उन्होंने जो कुछ पढ़ा उसे जिन्दगी में उतारा, यह बहुत ही महत्वपूर्ण काम है। सिर्फ पढ़ना कोई बड़ा काम नहीं है।

अपने देश की क्रान्तिकारी विरासत की कुछ नयी बातों पर गौर करना जरूरी है। 1857 का इतिहास हमें कितना पढ़ाया गया, उसके बारे में क्या बताया गया? कोई कहता है कि वह जमींदारों और राजाओं की बगावत थी। उसी वक्त दो अंग्रेज इतिहासकारों ने इस पर किताब लिखी थी जिनमें एक “काई” था, उसने चार भागों में अपनी किताब लिखी थी। उसने बताया है कि असल में रोहेलखण्ड, बुन्देलखण्ड और लखनऊ के अवध इलाके में सबसे बड़ी बगावत हुई। इसमें किसान और सिपाही हमारे खिलाफ थे। इसका कारण क्या था? उस वक्त अंग्रेजो ने “थामसन रूल” लगाया था। थामसन एक ब्रिटिश ऑफिसर था उस काले कानून को वे “थामसन रिफार्म” कहते हैं। इस रिफार्म में किसानों पर बहुत ज्यादा लगान लगाया गया जिसकी वजह से किसान कर्जे में डूब गये।

दूसरी बात, सबसे पहला अकाल जो ईस्ट इडिया कम्पनी के शासन में पड़ा, वह बंगाल में 1769–1770 का अकाल था। वह अकाल दरअसल अंग्रेजों की गलत नीति की वजह से पड़ा था। हमें नीति को समझना बेहद जरूरी है और नीति का प्रभाव दूरगामी होता है। आज भी सबसे ज्यादा गरीब इलाका–– बिहार, बंगाल और उड़ीसा है और बांग्लादेश भी है। ये क्यों गरीब हो गये? यह उसी गलत नीति की वजह से हुआ जिसके चलते उस दौरान भयानक अकाल पड़ा था। ईस्ट इण्डिया कम्पनी जब भारत नहीं आयी थी तब कृषि उत्पादन में स्टेट की हिस्सेदारी थी। स्टेट किसानों को उत्पादन का चार–पाँच हिस्सा देता था जिससे किसानों के पास कुछ बच जाता था। लेकिन जब ईस्ट इण्डिया कम्पनी भारत आयी तो चूँकि उनका काम किसानों को लूटना था, इसलिए उन्होंने कहा कि हमें आपकी फसल से कोई लेना–देना नहीं है, हमें तो आपसे लगान वसूलना है। जमीन का मालिकाना अंग्रेजों ने ले लिया और किसानों से कहा कि वे लगान देंगे। अब किसान लगान कहाँ से चुकाते? वह भी नगद देना होता था, तो उसके लिए वे कर्ज लेते थे, जो आज भी किसानों की बड़ी समस्या है क्योंकि किसान उस वक्त भी कर्जे में थे, आज भी कर्ज में डूबे हैं। यही कारण था कि लोग गाँव छोड़कर चले गये क्योंकि उनके पास रोजी–रोटी का कोई इन्तजाम नहीं हुआ।

मैं कई दफा कहता हूँ कि कभी आप रेवेन्यू रिकार्ड देखें तो आपको सामाजिक जिन्दगी की हकीकत का पता चलेगा। उनमें कितने बेचिराग गाँव दर्ज हैं। जिन गाँवों में कोई रहता नहीं, आज भी रिकार्ड में उनको बेचिराग गाँव कहा जाता है। वहाँ चिराग नहीं जलता, दीया नहीं जलता और यह अंग्रेजों की उसी नीति की देन है। गलत नीति का जवाब कैसे दिया जाता है इस पर आगे बात करेंगे।

अब हम फिर से 1857 पर आते हैं। जैसा कि मैंने कहा कि ‘काई’ ने यह खुद माना था कि असल में हम अंग्रेजों ने ही इस देश के लोगों को उजाड़ने का काम किया। अंग्रेज यहाँ के किसानों से कहते कि अपनी जमीन का कागज दिखाओ। अगर कोई परिवार सैकड़ों साल से वहाँ खेती कर रहा है, लेकिन उसके पास जमीन का कागज नहीं है तो वे कहते कि यह जमीन अंग्रेज सरकार की है, हमारी है और किसान बेदखल कर दिये गये। हाल ही में मैं उत्तर प्रदेश के फैजाबाद इलाके में गया था तो वहाँ भी बिलकुल वही कहानी दुहरायी जा रही है कि आप दिखाओ कि आपके पास जमीन का कागज है तब आपको मालिकाना हक मिलेगा। ट्रेजडी देखिए कि एक परिवार जो 1947 में फैजाबाद में बसा था और वह एक बड़ा परिवार था। उसने गलती की कि कागज नहीं बनवाया, तो उन्हें निकालकर सड़क पर खड़ा कर दिया गया।

उसी दौरान मुझे यह भी पता चला कि वह गोरखपुर के पास मऊआ डाबर एक आबाद गाँव हुआ करता था, जो अब बेचिराग है, लेकिन जो लोग वहाँ से उजड़े थे, उनमें से एक परिवार का वारिस मुझे मिला जिसने बताया कि मेरा गाँव मऊआ डाबर था। जब उसका इतिहास निकाला तो 1857 में गोरखपुर इलाके में ब्रिटिश जागीरदार थे। आज भी वहाँ आपको 14 बरनी गाँव मिलेंगे। बरनी एक ब्रिटिश ऑफिसर था। आज भी बरनी–1, बरनी–2, बरनी–3 रिकार्ड में दर्ज है। अंग्रेजों ने 25 हजार एकड़ जंगल साफ करवाकर खेती के लिए जमीन दी, लेकिन वहाँ के जमींदार कौन थे, ब्रिटिश जमींदार थे। उनमें एक “पपाया” था जिसको मजिस्ट्रेट का हक दे दिया गया। उसने उस गाँव को पूरा बर्बाद कर दिया। उस गाँव में बसे लोग मुर्सिदाबाद से उजड़कर आये थे, वे दस्तकार थे। चूँकि इस इलाके में जमींदारों का क्रूर शासन था, इसलिए हजारों किसानों ने मिलकर उन जमीदारों को यहाँ से भगा दिया। इन बातों का कहीं कोई जिक नहीं आता। कहने का मतलब यह जो जुल्म और बगावत साथ–साथ चलती है इसे समझना ही इतिहासबोध का एक हिस्सा है। यही कि किसी कहानी के पीछे के हालात क्या थे, इसे ठोस रूप से समझना। यही हम प्रो– लालबहादुर वर्मा से सीखते हैं कि आपको उसके पीछे के हालात को जानना–समझना है और सही निष्कर्ष तक पहुँचना है।

फिर से आजादी की लड़ाई पर बात करते हैं। जब जलियाँवाला बाग की बात आती है तो मेरे मन में एक प्रश्न उठता है और शायद आपके मन में भी उठा हो कि क्या जनरल “डायर” और “ओ डायर” पागल थे या कि वे बहुत इटेलिजेन्ट थे। उस समय एक बहस चल रही थी, अब मुझे समझ में आया कि गाँधी जी ने रौलेट एक्ट को क्यों चुनौती दी थी? क्योंकि अंग्रेज नौकरशाही यहाँ दमनकारी कानून लाना चाहती थी। इंग्लैण्ड में शासक समझते थे कि ऐसे दमन से हम साम्राज्य को आगे नहीं बढ़ा सकते, हमें थोड़ी रियायत देनी पड़ेगी। इसलिए उस समय वहाँ यह बात चल रही थी कि यहाँ पर रौलेट एक्ट पास कर दिया जाये। लेकिन इसका जबाब लोगों ने एकता के दम पर दिया। लोग इकट्ठे हुए और मैं समाझता हूँ कि हमारे इतिहास का यह बहुत ही खुबसूरत पहलू है कि उस वक्त लोगों में एकजुटता आयी। मैं एनी बेसेन्ट के योगदान की बात कर रहा हूँ, जिनके बारे में कई दफा आज के प्रगतिवादी भी कहते हैं कि वह ब्रिटिश नागरिक थी, वह ब्रिटिश नहीं आयरिश थी, उस आयरिश महिला ने “होम रूल” के मुद्दे पर सारे दक्षिण भारत को एकजुट कर दिया। उस 72 साल की महिला को जेल में डाल दिया गया।

यह सब जिस वक्त चल रहा था उसकी तीन बड़ी बातें हैं। रौलेट एक्ट में रौलेट ने बेनहर्डी नाम के एक जर्मन स्कालर की किताब का जिक्र किया है। बेनहर्डी लिखता है कि इंग्लैण्ड ने अब तक ‘फूट डालो और राज करो’ की अपनी नीति के तहत भारत में मुसलमानों और हिन्दुओं को एक दूसरे के विरुद्ध खड़ा करने का प्रयास किया है, लेकिन अब एक नयी प्रवृति, एक राष्ट्रवादी प्रवृत्ति विकसित हो गयी है। अगर ब्राहम्ण और शूद्र, हिन्दू और मुसलमान इकट्ठे हो जायेंगे तो यह ब्रिटिश शासन के अन्त का कारण बनेगा। यह रौलेट की रिर्पाेर्ट कह रही है। और “डायर” तथा “ओ डायर” ने इस रिपोर्ट को अच्छी तरह से पढ़ा होगा। उन्हें लग रहा होगा की अगर एकता हुई तो यह ब्रिटिश हुकूमत के लिए बहुत बड़ा खतरा है।

दूसरी बात, जी एम फोरेस्ट ने 1904 में इलाहाबाद में मिली 1857 से सम्बन्धित कुछ अंग्रेजों की डायरी और कुछ मौलिक दस्तावेजों का अध्ययन किया। उसने भी यही निष्कर्ष निकाला कि हममें से जो इतिहासकार हैं वे इसी नतीजे पर पहुँचे हैं कि अगर हिन्दुस्तान में लोग धर्मों और जातियों से ऊपर उठकर आपस में एकजुट हो जायें तो ब्रिटिश राज्य का अन्त हो जायेगा। यही बात “काई” ने पहले कही और फिर जर्मन स्कालर ने कही। इसलिए डायर और ओ डायर को डर लग रहा था कि यह एकता बहुत खतरनाक है।

एकता ऐसी बनी कि बम्बई में भी रौलेट एक्ट के खिलाफ हिन्दू–मुस्लिम एक हो गये। इसी तरह की एकता अमृतसर और लाहौर में बनी। पहले विश्व युद्ध के बाद लोगों के पास खाने को रोटी नहीं थी, महँगाई बहुत बढ़ गयी थी। पहले जब लोगों को विरोध–प्रदर्शन के लिए बुलाया गया तो वे घरों के बाहर नहीं आये। राजनीतिक कार्यकर्ताओं ने समझने की कोशिश की कि समस्या क्या है? उन्होंने देखा कि लोगों के पास खाने को नहीं है, तो उन्होंने कहा कि इसका समाधान तो हम कर देंगे। उन्होंने लंगर लगाना शुरू किया। हर मोहल्ले में दो दफा लंगर लगता था, सभी लोग इकट्ठे बैठ के खाते थे।

इससे हुआ यह कि वह एकता जमीनी हो गयी, उसका एक बहुत खुबसूरत नजारा 9 अप्रैल 1919 को रामनवमी के दिन देखने को मिला। उस दिन सभी ने रामनवमी इकट्ठे होकर मनायी। अमृतसर से रामनवमी जुलूस की अगुआई डॉ– बाशीर कर रहे थे और उस दिन ऐसा हुआ कि हिन्दू पानी और मुस्लिम पानी जो पहले अलग–अलग होता था वह एक हो गया और फर्क मिट गया। इसने अंग्रेज अफसरों के दिलों में खौफ पैदा कर दिया। तब डायर ने अपने आप ड्यूटी ले ली, किसी ने ड्यूटी पर लगाया नहीं था। उसने अपने लड़के से कहा था कि बहुत बड़ा खतरा आ गया है। उसको सभी वायसराय सपोर्ट करते थे क्योंकि वायसरायों की रौलेट एक्ट बनाने में हिस्सेदारी थी।

देश के लोगों में एकता कायम हुई, अमृतसर और लाहौर में सभाएँ हो रही थीं, लाहौर में शाही–मस्जिद में सभा हो रही थी, शान्ति से लोग मीटिंग करके निकल रहे थे तब 12 अप्रैल को उन पर गोली चलायी गयी। अमृतसर में जो पहली गोली चलायी गयी वह 10 अप्रैल को चलायी गयी। कहने का मतलब यह है कि यह जो एकता का सन्देश है उसको तोड़ने की कोशिश की गयी, वह कोशिश आज भी जारी है। ये हमारे इतिहासबोध का हिस्सा बनना चाहिए कि एकता ही हमारी समस्याओं का समाधान करेगी। भगत सिंह ने कहा था कि एकता या बराबरी भाईचारे के बिना नहीं आती, क्योंकि कुछ लोगों में आपसी बराबरी हो सकती है, लेकिन अगर समाज में बराबरी लानी है तो वह भाइचारे के साथ ही हो सकती है। इस विरासत को जब हम इस तरह देखेंगे तो व्यवहार में आज की समस्याओं को समझंेगे और उनके समाधान के काम में मदद करेंगे।

1924 में हुए जलियाँवाला बाग नरसंहार की घटना को इस साल 2024 में सौ साल पूरा हो गया है। उस घटना के बाद भी अंग्रेजों ने हर तरह से एकता को तोड़ने की कोशिश की। लोगों को डराने और जो बड़े–बड़े वकील उसमें शामिल थे उनसे बदला लेने के लिए कि आप एकता कायम करते हैं, एक मुस्लिम और एक हिन्दू को जो जानेमाने वकील थे उनको बाँधकर जुलुस निकाला गया। उसके बाद भयानक दमन का दौर आया, दंगे हुए और दंगे का दौर दो–तीन साल चला।

उसी दौरान भगत सिंह जवान हो रहे थे, उनके साथियों के बीच इन मुद्दों पर चर्चा हो रही थी। उनके साथी कामरेड रामचन्द्र ने लिखा कि हमारे संगठन ‘नौजवान भारत सभा’ में चर्चा हो रही थी, हमने रूस से जो सीखा था कि मजदूरों और किसानो को एकजुट कर लेंगे तो इन्कलाब की तरफ बढ़ा जा सकता है। भगत सिंह ने कहा कि मैंने जितना पढ़ा है कि हर जगह चाहे वह आयरलैण्ड हो, रूस हो, वहाँ सबसे पहले नौजवान आन्दोलन खड़ा हुआ। इसलिए हमारा पहला काम है कि हम नौजवानों को संगठित करें। इसके लिए ‘नौजवान भारत सभा’ बनाने पर विचार हुआ। उन्होंने चार बुनियादी उसूल रखे और पाँचवाँ एक जरूरी मुद्दा भी रखा। उन्होंने जो चार उसूल बताये वे बहुत जरूरी थे––

पहला, हमारी लड़ाई दोधारी है–– पहली अपनी कमजोरियों के खिलाफ लड़ना, जिन कमजोरियों का फायदा समाज के खुदगर्ज लोग उठाते हैं और हमारे दुश्मन भी उठाते हैं, जो अंग्रेज हैं। सबसे पहले, नौजवानों को अपने दिमाग से धार्मिक संकीर्णता को निकालना है। दूसरा, जात–पात की भावना को निकालना है। तीसरा, महिलाओं को बराबरी देनी है। चैथा, नौजवानों को लोगों के साथ जुड़कर, उन्हें तीन “एस” का नारा देना है। सर्विस (सेवा करना), सफरिंग (कष्ट सहना) और सेक्रिफाइश (त्याग करना)। जनता के लिए अगर मुश्किलें भी झेलनी पड़े तो आप बर्दाश्त कीजिये और त्याग का मतलब यह नहीं होता कि आप सब कुछ छोड़कर भाग जायें, इसका मतलब है कि जो आपको सबसे ज्यादा प्रिय है उनको छोड़ना, गुजारे के लिए आपने जो पैसा कमाकर जमा किया, उसको छोड़ना है। पाँचवा, हम जिसको इन्कलाबी विरासत कह रहे हैं वह क्यों है?

आज की गैरबराबरी के बारे में हाल ही में थॉमस पिकेट्टी ने एक टिप्पणी की है, मोदी ने भी एक इण्टरव्यू में पिकेट्टी का नाम लिया था, जो एक फ्रांसिसी अर्थशास्त्री है जिसने दुनिया की 250 साल की गैरबराबरी पर काम किया। उसका कहना है कि भारत में 1920–1930 में जितनी गैरबराबरी थी, उतनी आज 2016 में दुबारा वापस आ गयी है। भगत सिंह अपने ‘नौजवान भारत सभा’ के घोषणापत्र में लिखते हैं कि हम जिस समाज के निर्माण की बात कर रहे हैं वह 98 प्रतिशत लोगों के लिए होगा और 98 प्रतिशत लोगों की हिस्सेदारी से आयेगा। वे कहते हैं कि अक्सर रामराज्य का नारा दिया जाता है। रामराज्य कोई संकल्पना नहीं है, बल्कि एक ऐसी मूँग की दाल है, जिसको जैसे सूट करेगा उसको वह वैसे इस्तेमाल करेगा। लेकिन इसका वैज्ञानिक आधार है–– समाजवाद। समाजवाद लोगों की सोच का हिस्सा बने तब उन्हें लगेगा कि उनका ध्येय क्या है। जब ध्येय समझ आयेगा तभी वे इसके लिए लड़ेंगे। तभी उन्होंने अपनी पार्टी के नाम में समाजवाद शब्द जोड़ा।

उस वक्त पर आप गौर करें, 1924 बहुत महत्वपूर्ण दौर था क्योंकि एक तरफ अंग्रेज देश में दंगे भड़का रहे थे तो दूसरी तरफ उत्तर भारत में ‘नौजवान भारत सभा’ बन रही थी। तमिलनाडु में पेरियार एक नया आन्दोलन खड़ा कर रहे थे क्योंकि जब वे काशी पढ़ने आये थे तो उनके सामने बहुत मुश्किलें आयी थीं। जो खाना पण्डित गोत्रों के लिए मुफ्त होता था, वह उनको नहीं मिलता था। उन्होंने अपने संस्मरण में लिखा है कि मैंने सोचा कि मैं पण्डितों का पहनावा पहन लेता हूँ, फिर मुझे खाना मिल जायेगा। उन्होंने मेरी मूछें देख ली तो वे कहने लगे कि तुम्हारी मूछें है, इसलिए तुम पण्डित नहीं हो सकते। तब पेरियार बहुत निराश होकर वापस गये। उनका आन्दोलन था–– “सोशल जस्टिस विद साइंटिफिक नालेज”। भगत सिंह ने भी ‘नौजवान भारत सभा’ में कहा कि नौजवानों को वैज्ञानिक सोच बनानी चाहिए। वह क्या है?

इसके लिए आप हर चीज के पीछे का कारण समझें। विज्ञान यही है और हमारा इतिहासबोध भी यही कहता है कि हम चीजों का कारण समझें। अगर कारण समझेंगे तभी उसका समाधान निकलेगा। उसी दौरान बाबा साहेब अम्बेडकर 1924 में एक मूवमेण्ट चला रहे थे। उनका एक बहुत ही लोकप्रिय कथन है कि ‘शिक्षा शेरनी का वह दूध है जो अगर मेरे बच्चों को मिल गया तो वे खुद दहाड़ेगें।’ उनका एक और नारा है, ‘शिक्षित बनो, संगठित हो, संघर्ष करो।’ दहाड़ने का मतलब है कि अपने हक के लिए आप लड़ें। अपने साथ उन्होंने कुछ वकीलों को भी खड़ा किया।

एक और आन्दोलन जो केरल में चल रहा था। वहाँ मन्दिर के पास से एक रास्ता गुजरता था, उस पर दबे–कुचले लोगों को चलने की इजाजात नहीं थी। नारायण गुरु उनकी लड़ाई लड़ रहे थे और सबसे दिलचस्प बात थी कि पंजाब में भी जलियाँवाला बाग का जो प्रभाव था उसकी वजह थी कि वहाँ के जागीरदारों ने इसका स्वागत किया, लेकिन उसके जवाब में गुरद्वारा रिफार्म शुरू हुआ क्योंकि अंग्रेज सिख्खों पर मानसिक तौर पर राज करने के लिए गुरुद्वारे का इस्तेमाल करते थे। गुरुद्वारे को अंग्रेजों के प्रभाव से मुक्त कराने की शुरुआत हुई। नारायण गुरु ने जो आन्दोलन चलाया था उसके लिए यहाँ से केरल जाकर लंगर लगाने का काम किया गया। यह एक दूसरे के काम आने की एक मिसाल थी। ये 1924 की बात है।

वर्मा जी ने दो बातें बतायी हैं–– एक तो इतिहासबोध की मुहीम, यानी इतिहास को आगे ले जाने की लड़ाई और दूसरी अतीतग्रस्तता, जिसकी बात शुरुआत में की गयी है। आरएसएस 1925 में बनी। अगर हम इस बहस को समझंेगे तभी हम उनके नकारात्मक एजेण्डे के खिलाफ अपने इतिहास की सकारात्मक चीजों को लेकर आगे बढ़ेंगे। भगत सिंह और उनके साथियों को जो आन्दोलन प्रभावित करता था वह हमारा नामधारी आन्दोलन है जिसे “कूका” आन्दोलन भी कहते हैं। गुरु रामसिंह ने 15 साल में डेढ लाख लोगों को इतने मजबूत इरादे वाला बना दिया कि उनके 69 लोगों को तोपो से उड़ाया गया। उनमें एक छोटा लड़का 11–12 साल का था। सजा देने वाले जज के साथ उसकी पत्नी भी थी। उस महिला ने कहा कि इस लड़के को तो छोड़ दो, तो उसने लड़के को बुलाया और कहा कि तुम यह कह दो कि रामसिंह तुम्हारे गुरु नहीं हैं तो तुम्हें छोड़ दिया जायेगा। उस लड़के ने जज की दाढ़ी पकड़ ली और कहा जाता है कि वह इतनी मजबूत पकड़ थी कि लड़के का हाथ काटकर दाढ़ी छुड़ानी पड़ी। यह जो इतने मजबूत लोग तैयार हुए, वह इतिहासबोध का हिस्सा है। उन्होंने पुराने से सीखा और जिन्दगी में उतारा।

हमने बात की कि भगत सिंह ‘नौजवान भारत सभा’ बना रहे थे, उसके पाँच उसूल बना रहे थे, तो वे भी अपने अतीत की चीजों से सबक लेकर ही आगे बढ़ रहे थे। जैसे एक उदाहरण है कि कैसे भगत सिंह ने खुद को जातिवाद से मुक्त कर लिया था। कहानी यह है कि उनकी काल कोठरी में एक लड़का उनका मल–मूत्र उठाने आता था, उसको पहले दिन से ही भगत सिंह कहते कि मेरी बेबे आ गयी। जिस लड़के का दूसरे लोग साया भी नहीं देखना चाहते थे, वह कहता सरदार आप मुझसे ये हँसी–मजाक मत करो। भगत सिंह ने कहा कि मेरी जिन्दगी में दो लोगों ने मेरा मल–मूत्र उठाया है। बचपन में मेरी माँ ने और अब यह ड्यूटी तुम्हें मिली है। इस रिश्ते से तुम मेरी माँ के बराबर हो, बेबे हो। जिस काम को हमने मान लिया कि यह करना है, उसे हमें व्यवहार में उतारना है, यही हमारी इन्कलाबी विरासत का हिस्सा है।

इसी तरह एक और उदाहरण है कि भगत सिंह कैसे सीख रहे थे। जब देश में दंगे हुए और 1921 में गाँधी जी ने चैरी चैरा की घटना के बाद असहयोग आन्दोलन वापस ले लिया, उसी साल आयरलैण्ड ने ब्रिटिश के साथ डोमिनियन स्टेटस का अधिकार हासिल किया। भगत सिंह का तुरन्त इस घटना पर ध्यान गया कि उनके पास ऐसा क्या है, हम उनसे क्या सीखें, जिसके चलते हम कामयाब नहीं हुए, पर वे कामयाब हो गये। 17 साल की उम्र में भगत सिंह ने आयरलैण्ड के नामी गोरिल्ला फाइटर डैनियल ब्रीन की आत्मकथा “माई फाइट फॉर आयरिश फ्रीडम” का हिन्दी अनुवाद किया। उन्होंने देखा कि काकोरी केस के बाद, लोग बगैर किसी भावना के गवाहियाँ दे रहे हैं, रामप्रसाद बिस्मिल और अशफाकउल्लाह जैसे हमारे इतने शानदार लोग, उनको बाकी लोग पहचान ही नहीं रहे हैं। भगत सिंह कहते हैं कि हमने आधी किताब ही सीखी, आधा सबक ही सीखा। पूरा सबक यह है, जैसा डैनियल ब्रीन कहते हैं कि अगर मैं वाइसराय पर हमला करके अपने गाँव आ जाऊँ, तो लोग हर तरह की सजा भुगत लेंगे, पर मेरा नाम नहीं बताएँगे। हमारे यहाँ भी जब लोगों में चेतना आयी तो उन्होंने खुद को बदला।

हमारे यहाँ भगत सिंह थे, तो गाँधी जी भी थे। प्रो– लालबहादुर वर्मा ने कहा है कि इतिहासबोध हमें समझाता है कि हम दोनों से सीखें। इतिहास यह है कि वे दो अलग–अलग विचारों वाले व्यक्ति हैं, इतिहासबोध यह बताता है कि हमें दोनों से क्या सीखना है। गाँधी जी ने अपना प्रोग्राम बनाया, उसमें एक बिन्दु था–– सरकारपरस्त (लॉयलिस्ट) को देशभक्त कैसे बनाया जाये। उसमें एक दिलचस्प बात यह है कि अरविन्दो के बारे में हमें इतिहास में पढ़ाया जाता है कि पहले वे एक एक्सट्रिमिस्ट थे, फिर मॉडरेट हो गये थे, इस पर अरविन्दो कहते हैं कि वे किसी कैटेगरी में बँधे नहीं, जबकि फिलोसोफी में बेसिक कैटेगरी होती है। उस दौरान दो कैटेगरी के लोग थे–– एक नेशनलिस्ट और एक लॉयलिस्ट। एक वे लोग, जो सम्पूर्ण आजादी चाहते थे, जो देशभक्त थे, कौमपरस्त थे और एक वे जो सरकारपरस्त थे, लॉयलिस्ट थे।

गाँधी जी ने चार सूत्री कार्यक्रम बनाया कि सरकारपरस्तों को सरकारपरस्ती से कैसे निकाला जाये। पहला, उन्होंने कहा कि शिक्षा लॉयलिज्म तैयार कर रही है, तो नौजवानों को पढ़ाई छोड़कर हमारे साथ आना चाहिए। दूसरा, जो पद और ओहदे दिये जाते हैं वे लॉयलिस्ट बनाते हैं, उसे छोड़ा जाये। तीसरी बात यह कि अगर आप सरकारी नौकरी में हैं तो आप लॉयलिस्ट हैं, आप सरकारी नौकरी छोड़ दो। चैथा, अगर आप अदालतों में सरकार की मदद कर रहे हैं तो आप लॉयलिस्ट ही तैयार कर रहे हैं। इसीलिए जो बड़े वकील गाँधी जी की आवाज पर आये, उन्होंने वकालत छोड़ दी।

इसके आलावा, जैसा भगत सिंह ने कहा है कि गाँधी जी ने जो सबसे बड़ा क्रान्तिकारी काम किया है, वह यह कि वे आम आदमी को आजादी की लहर में ले आये। भगत सिंह उनसे एक कदम आगे जाते हैं। वे कहते हैं कि अंग्रेज राज की पकड़ उसकी चार संस्थाओं में है और उन चारों को अगर हम ध्वस्त कर दें तो हम देश को आजाद कराने में कामयाब हो जाएँगे। पहला एक्शन होना चाहिए पुलिस सिस्टम पर और यह कार्रवाई उन्होंने श्रीमती सिया दास वसन्ती देवी की चुनौती पर की। लाला लाजपत राय की मौत के बाद, लोगों में गुस्सा पैदा हुआ। लेकिन जब साण्डर्स के मामले में उन पर केस हुआ तो वैसा ही गुस्सा नौजवान पुलिस ऑफिसर में होने लगा। हमारे पंजाब में फुलौर एक जगह है जहाँ पर पुलिस ट्रेनिंग सेण्टर है। भगत सिंह, राजगुरु, सुखदेव को जिस कलम से फाँसी की सजा लिखी गयी थी, वह कलम वहाँ रखी हुई थी। जब हम उसे लेने वहाँ गये, तो उन्होंने हमसे कहा कि यह साण्डर्स की फोटो है और यह कलम है। तब मुझे समझ आया कि जो डर नौजवान पुलिस ऑफिसर्स में उस एक एक्शन से हुआ, उस दहशत को निकालने के लिए और यह बताने के लिए कि वे एक को मारते हैं तो हम तीन को फाँसी देते हैं, वह कलम वहाँ रखी गयी।

भगत सिंह और साथियों का मानना था कि पार्लियामेण्ट में बैठ के आजादी नहीं आयेगी, इसीलिए उन्होंने पार्लियामेण्ट वाला एक्शन किया, उसके बाद जेल। उसमें एक दिलचस्प चीज है। एक मिस्टर हॉकिंसन थे जो एक ब्रिटिश जर्नलिस्ट थे जिन्हें सजा हुई थी, तो वह भी जेल में थे। वह लिखते हैं कि हम भगत सिंह को एक बम फोड़ने वाला नौजवान मानते थे, पर उनसे पहले जो सत्याग्रह होते थे उसमें नारे या तो वन्दे मातरम का लगता था या महात्मा गाँधी की जय का। भगत सिंह और उनके साथी जब राजनीति में आये तो तीन चैथाई नारा इन्कलाब जिन्दाबाद का लगता था और एक चैथाई महात्मा गाँधी की जय का।

हॉकिंसन लिखते है कि एक व्यक्ति की जय के नारे को उन्होंने एक विचार की जीत की ओर मोड़ दिया। इस बारे में भगत सिंह का कहना था कि मैं एक नारा दे रहा हूँ, अगर मेरे देश के लोग उसे समझ जायें तो मुझे मेरी जिन्दगी की कीमत मिल जायेगी। वह पूरा नारा है–– साम्राज्यवाद मुर्दाबाद, इन्कलाब जिन्दाबाद। अगर इस द्वन्द्व को नहीं समझेंगे तो लोगों की जिन्दगी में इन्कलाब का क्या मतलब है यह नहीं समझ पाएँगे। भगत सिंह ने भी कहा था कि इसका मतलब खून–खराबा नहीं है। क्रान्ति के नाम से डरते हैं लोग, पर क्रान्ति का मतलब एक नयी व्यवस्था और संस्कृति को लाना है जिसमें समानता हो, जिसमें लोगों को उनकी मेहनत का फल मिले, यह तभी होगा जब साम्राज्य की लूट खत्म होगी। यह समझ उनको गदर पार्टी से मिली थी। गदर पार्टी पूरी दुनिया में फैली हुई थी और उन्होंने इसे बारीकी से समझा कि जब हम कहते थे कि अंग्रेज गोरे हैं और हम काले, तो यह एक निचले स्तर की समझ थी। फिर हम कहते कि इंग्लैण्ड हम पर राज कर रहा है, तो वह एक थोड़ी ऊपर की समझ है। पर गदर पार्टी ने एक व्यवस्था को समझा जो वे पूरी दुनिया में देख रहे थे, अफ्रीका में भी थी, लातिन अमरीका में भी थी, वह व्यवस्था सभी जगह थी। तो उसे भगत सिंह ने “डाउन विथ इम्पीरिअलिज्म, लॉन्ग लीव रिवोल्यूशन” का जो द्वन्द है उससे समझाया।

हमारी विरासत का यही पक्ष है जिसे हमें और ज्यादा गहराई से समझना है और हमारे समाज में आज जो संकीर्णता और विभाजन बढ़ रहा है उसका मुकाबला करना है। आने वाले समय में हमारे सामने बहुत बड़ी चुनौती आने वाली है। वह यह कि कोई भी सरकार चुनकर आ जाये, लेकिन जमीनी स्तर पर लोगों की भागीदारी में कोई फर्क नहीं पड़ेगा। क्योंकि पहले कांग्रेस के शासन में पंचायती राज कानून बनाया गया था जिसमें गाँव के लोगों को अपने फैसले करने का अधिकार दिया गया था। लोग खुद पहल लेने के काबिल बनेंगे तभी वे सवाल उठाने की कोशिश कर पाएँगे। लेकिन पिछले दिनों ग्राम सभा को कैसे आहिस्ता–आहिस्ता कमजोर किया गया है। मैं समझता हूँ कि आज एक चुनौती तो यह है कि संकीर्णता के खिलाफ हम अपने इतिहास बोध की संकल्पना को समझने और उसको लागू करने का प्रयास करें। दूसरा यह कि लोगों को अपने फैसले करने के काबिल बनाया जाये।

अभी छोटे स्तर पर हमने पंजाब में देखा कि लोगों को सिर्फ धार्मिकता की तरफ नहीं, बल्कि उनको एक संकीर्णता की तरफ ले जाया जा रहा है। जो लोग पूजा करते हैं उनके मन में यह बात घर कर जाती है कि हमारी समस्या की वजह इस दुनिया से कहीं बाहर है और उसका हल अगले जन्म में होगा। यानी इस व्यवस्था से लड़ने की जरूरत नहीं है, भजन–कीर्तन करने की जरूरत है। दूसरा यह कि उस संकीर्णता के चलते लोग आपस में नफरत करेंगे और एक दूसरे से दूर हो जायेंगे।

महाराष्ट्र में एक कानून लागू हुआ कि दलित शब्द असंवैधानिक और शिड्यूल कास्ट संवैधानिक है, इसलिए दलित शब्द का इस्तेमाल गैर कानूनी है। कानून बन गया, वह पड़ा रहा, उसे किसी ने लागू नहीं किया। फिर अचानक कोई हाईकोर्ट चला गया कि इस कानून को लागू किया जाये। अब आप देखिए, इसमें अन्तर क्या है? दलित का मतलब डिप्रेस्ड क्लास है, एक समूह जिसमें वंचित लोग हैं। शिड्यूल कास्ट में उनका अपना डिवीजन है। इसका मतलब उनको एक दूसरे के खिलाफ खड़ा करना हैं, उनकी वंचना पर पर्दा डालना है कि दलित के बजाय आप उस समूह को शिड्यूल कास्ट कहें। तो इन चीजों को भी समझने की जरूरत है।

एक और जरूरी बात यह कि बहुत से साथी जो किसानों में काम करते हैं उनके लिए आज इस बात पर गौर करना बहुत जरूरी है कि जो तीन कृषि कानून बने थे, जिनके खिलाफ किसानों ने साल भर से ज्यादा लम्बी लड़ाई लड़ी, वे कहाँ से आये? वे देशी–विदेशी कॉर्पाेरेट के फायदे के लिए बनाये गये थे। आज का साम्राज्यवाद या आज का कॉर्पोरेटवाद एक दैत्य है और एक पुरानी कहानी है कि दैत्य की जान तोते में होती है। अगर हम तोता पकड़ लेंगे तो दैत्य को हरा सकते हैं। यह तोता उनकी पॉलिसी है, उनकी नीति है।

जिस कृषि नीति के खिलाफ किसानों ने आन्दोलन किया और सरकार को उसे वापस लेने के लिए मजबूर किया उसे किसने बनाया था? उसके दो दस्तावेज हैं। ओइसीडी ने एक दस्तावेज तय किया “एग्रीकल्चर इन इण्डिया” जिसमें उनका खास मकसद सरकार को यह समझाना था कि आप किसानों को सब्सिडी नहीं दे रहे हो, आप उनसे 8 प्रतिशत कमाई कर रहे हैं जीएसटी और दूसरे टैक्स के जरिये। उसमें दूसरी बात यह हैं कि आपकी खेती का उत्पादन खर्च दूसरे देशों की तुलना में कम है। यह आपके लिए बहुत अच्छा मौका है, आप निर्यात करो। लेकिन निर्यात करने में दो बाधाएँ हैं–– एक तो आपने जो मार्केटिंग सिस्टम बनाया है उसे खत्म करके सीधा खरीदने–बेचने का सिस्टम बनाइये। उनका यह भी कहना था कि इस कानून को बदलिये कि खाने वाली चीजों का निर्यात नहीं किया जायेगा, क्योंकि वह पहले अपने देश के लोगों की जरूरत पूरी करने के लिए हैं, पैसा कमाने के लिए नहीं। यह बात वे किसको बता रहे थे कि यहाँ खेती का उत्पादन खर्च कम है? वे कॉर्पोरेट को बता रहे थे। अब कॉर्पोरेट किसान की जमीनें कैसे कब्जा करेगा और खेती के व्यापर पर कैसे कब्जा करेगा उसी की नीति बनायी गयी थी। सरकार ने दिसम्बर 2018 में जो तीन कृषि कानून बनाये उनमें यही बातें थीं जो ओइसीडी के दस्तावेज में थीं। 

अब एक और खतरनाक रिपोर्ट आयी है–– ओइसीडी की “एग्रीकल्चर प्रोजेक्शन इन 2030” यानी 2030 में भारत का कृषि व्यापार कैसा होगा। उसमें एकदम साफ–साफ लिखा है इससे 21 प्रतिशत की कमाई हो रही है। लेकिन साथ ही उसमें यह भी कहा गया है कि जितने खाड़ी के देश हैं वे आयातक होंगे। हमें बाहर से खाने के लिए अनाज मँगाने पड़ेंगे अपने नहीं होंगे। आपने सुना होगा कि श्रीलंका ने उन्हीं साम्राजी संस्थाओं की सलाह पर अपनी पूरी कृषि नीति बदल दी जिससे वहाँ की अर्थव्यवस्था चैपट हो गयी। वे कहते थे कि हम आपसे जैविक खेती के उत्पाद खरीदेंगे और नतीजा यह कि श्रीलंका की खेती तबाह हो गयी। अभी दो दिन पहले पाकिस्तान की खबर है कि जितना गेहूँ वहाँ पैदा होता था उससे दोगुना गेहूँ आयात करवाया गया है, क्योंकि उनकी अर्थव्यवस्था आईएमएफ पर निर्भर है। इसका मतलब है कि वे उनकी खेती भी खत्म करेंगे। आने वाले समय में वे भारत की खेती का क्या करेंगे, यहाँ के लिए कौन–सी नीति बनायेंगे उसे मिल–बैठकर समझने की जरूरत है। ओइसीडी नें अपनी रिपोर्ट में इस बात का संकेत कर दिया है कि भारत की खेती को कैसे बर्बाद किया जायेगा।

हरित क्रान्ति भी इसी का एक उदहारण है, क्योंकि एग्रीकल्चर यूनिवर्सिटी में 32 साल मंैने टीचरों को कम्प्यूटर पढ़ाया। मंैने उनसे कहा कि आपने कम्प्यूटर सीखा या नहीं, मुझे नहीं पता, लेकिन मैं जरूर यह जान गया कि कृषि नीति कैसे बनती है और किसके फायदे के लिए बनती है। हरित क्रान्ति कैसे लायी गयी, उसका भी एक दस्तावेज है। हमारे यहाँ अकाल की स्थिति थी। अमरीका से गेहूँ मँगाना जरूरी था जिसके लिए उसने अपने पीआईएल कानून के तहत कई शर्त लाद दिये। फिर विश्व बैंक के कर्जे और अमरीकी शर्तों पर ग्रीन रेवोल्यूशन (हरित क्रान्ति) वाली टेक्नोलॉजी यहाँ आयी जो पहले ही फेल हो गयी थी। इसका क्या नतीजा हुआ यह सबको पता है। मेरे कहने का मतलब यह कि आप लोग जो खेती और गाँव की अर्थव्यवस्था से जुड़े हुए है, उनको इस चीज का ध्यान रखना है। हमें इतिहास को इस तरह देखने की जरूरत है कि उस दौर में अन्तर्विरोध क्या थे, कैसे–कैसे और किनके स्वार्थ काम कर रहे थे और लोगों ने अपने–अपने हितों की लड़ाई कैसे लड़ी। प्रो– लाल बहादुर वर्मा जिसे इतिहासबोध कहते हैं, वह यही है। उस दौर में एक तो अंग्रेजों की नीतियाँ थीं, लेकिन दूसरी तरफ आजादी की लड़ाई लड़ रहे लोगों की भी नीतियाँ थीं, जो लगातार आगे बढ़ रहे थे।

गदर पार्टी ने बहुत कुर्बानियाँ दीं और उसका असर यह हुआ कि उनके बीच न तो जात–पात थी न ही उनमें गैर–बराबरी। अमरीका–कानाडा से 8000 लोग आये। करतार सिंह सराभा उनमें सबसे कम उम्र के नौजवान थे और दिलचस्प बात यह कि वे पंजाब छोड़कर कटक में पढ़ने गये। जिस स्कूल में वे पढ़े, वहाँ नेताजी सुभाष चन्द्र बोस उनसे एक साल जूनियर थे। नेताजी ने कहा कि उस स्कूल में मेरे हैडमास्टर ने मुझे देशभक्ति सिखायी, वरना मैं तो गुरु ढूँढने के लिए ऋषिकेश और इधर–उधर घूम रहा था, लेकिन मुझे कोई मिला नहीं तो मैं वापस आ गया। करतार सिंह सराभा उसी स्कूल से पढ़कर अमरीका गये। उनके बारे में जो सबसे खूबसूरत बात है वह यह कि जज ने देखा कि ये तो छोटा लड़का है, तो उसने सीधा सवाल किया कि आप आठ हजार लोग भारत में इन्कलाब करने के लिए आये और साथ में एक झण्डा लेकर आये–– गदर पार्टी का, जिसमें तीन रंग हैं, तो इसका मतलब क्या है? यह बहुत टेढ़ा सवाल था लेकिन सराभा ने जो जवाब दिया उसने जज को परेशानी में डाल दिया। उन्होंने कहा कि ये तीन रंग तीन सिद्धान्तों के रंग हैं, जिनसे समाज आगे बढ़ता है–– इक्वलिटी, लिबर्टी, फ्रेटरनिटी (समानता, स्वतंत्रता, भाईचारा)। ये ही सिद्धान्त हमारे संविधान का हिस्सा बने हैं। उस जज को यह सब लिखना पड़ा, यह जजमेण्ट में लिखा हुआ है।

उन्हीं क्रान्तिकारियों में एक तारकनाथ दास थे जिन्होंने लियो टॉलस्टॉय को चिट्ठी लिखी थी कि मेरे देश में एक करोड़ नब्बे लाख लोग 1890 और 1900 के बीच, सिर्फ दस साल में अकाल से मर गये। मैंने आपका उपन्यास ‘वार एण्ड पीस’ पढ़ी, शानदार उपन्यास है लेकिन कभी हिन्दुस्तान के बारे में भी लिखें। हैट्स ऑफ टू लियो टॉलस्टॉय! टॉलस्टॉय ने उस चिट्ठी का जवाब दिया। वह 16 पेज का जवाब है और उसे लिखने के पहले उन्होंने कृष्ण को पढ़ा, नानक को पढ़ा और कहा कि आप यह भूल गये कि प्रेम आपकी मूल भावना थी। दूसरा यह कि आपको अपने आप कुछ करने में विश्वास ही नहीं है, आप इन्तजार करते हैं कि कोई अवतार आयेगा और हमारा उद्धार कर देगा, आपकी यही कमजोरी आपको गुलाम बनाये हुए है। हमें अपने इतिहास और अपनी इन्कलाबी विरासत से सीखना चाहिए कि कैसे अपनी कमजोरियों से लड़कर वे आगे बढ़े और अपने कामों के दौरान हमें अपने कार्यकर्ताओं को शिक्षित करना चाहिए। हमें देखना चाहिए कि ऐसी कोई कमजोरी हमारे अन्दर भी तो नहीं है और खुद भी अपनी कमजोरियों से लड़कर निकलना चाहिए।

एक बात और, जैसे वर्मा जी कहते थे कि कहानियाँ तो होती हैं, लेकिन आप उन कहानियों को लोगों के सामने कैसे रखेंगे जिससे वे आसानी से समझ लें। जैसे मैं आजकल कहता हूँ कि महाभारत आज भी हो रहा है, अब महाभारत के लक्षण क्या हैं? पहला लक्षण यह है कि राज करनेवाले लोग इतने लालची हो जाते हैं कि वे दूसरे लोगों के लिए पाँच गाँव नहीं छोड़ना चाहते। अभी जिस तरह लोगों के रोजी–रोटी के साधन छीने गये हैं पॉलिटिकल पार्टी ने, यह भी वही लालच है। मतलब पहले आप उनको बेहद कमजोर कर दें और आपको हैरानी होती है कि वे फिर भी लड़ रहे हैं। फिर आप अपने ही दोस्त के बारे में कहते हैं कि वह देखो टम्पू भर के पैसा भेज रहा है, मेरे हिसाब से यह पहला लक्षण है।

दूसरा है जुआ को बढ़ावा देना, जबकि हमारे नीतिशास्त्र में पैसे से पैसा बनाना हमेशा गलत समझा गया है, लेकिन महाभारत में तो जुआ खेला गया था और युधिष्ठिर जैसा सबसे सच्चा आदमी भी उसमें फँस गया। हमारे यहाँ भी यह खेल बड़े पैमाने पर चल रहा है। आप देखें कि इलेक्ट्रोरल बॉण्ड में जिसने सबसे ज्यादा पैसा दिया, 600 करोड़ रुपये, वह कौन है? एक ऐसी कम्पनी जो सट्टेबाजी का धन्धा करती है। सोचने की बात है कि जिस कम्पनी ने इतनी बड़ी रकम चुनाव के लिए चन्दा दिया, उसने कमाई कितनी की होगी? आज देश की अर्थव्यवस्था में अरबों–खरबों की कमाई हो रही है, उसमें सबसे ज्यादा हिस्सा सट्टेबाजी का है। यानी जो कम्पनियों के पास पैसा है वह लोगों की जेबों से निकल रहा है। इसका मतलब है कि जुआ का कितना चलन हो गया है, क्योंकि यहीं जब मैं घूम रहा था, गाँव में एक दीवार पर लिखा हुआ था कि आप इस एप को डाउनलोड करें, जो दरअसल जुए का है। और अब मोबाइल आपके बच्चे के हाथ में है। मतलब हमने नशे के खिलाफ तो लड़ाई लड़ी, लेकिन यह एक नया नशा चल रहा है। यह महाभारत का दूसरा लक्षण है।

तीसरा लक्षण यह है कि अगर महिलाओं की बेज्जती हो रही है और सब लोग चुप बैठे हैं, तो इससे बड़ी चुनौती समाज में क्या हो सकती है? अगला है कि द्रोणाचार्य जो महाभारत के महान गुरू थे, उनको मारना है तो आधा सच बोलकर मार सकते हैं। और अगर नौजवानों को मारना है तो आधे ज्ञान से, क्योंकि अभिमन्यु को आधे ज्ञान से मारा गया था। मेरा कहना है कि अगर हम पुरानी कहानी को आज से जोड़कर बताएँ तो लोगों को शायद समझ आये, कि जो हो रहा है, यह बहुत ही भयानक, उथल–पुथल भरा और बहुत खतरनाक है, इससे हम कैसे निबटें?

मैंने प्रो– वर्मा को बहुत नहीं पढ़ा, उनसे बहुत कुछ नहीं सीखा। उनकी एक पुस्तिका है–– ‘इतिहास : क्या, क्यों, कैसे’। मैंने उसी की कुछ बातें यहाँ दुहरार्इं। यह कितने कमाल की बात है कि अतीत के बारे में दो नजरिये हैं–– पहला, अतीतजीवी जो आपको दृष्टिहीन बनाता हैं और दूसरा, इतिहासबोध जो आपको प्रेरित और सक्रिय करता है, जिसके जरिये हम इतिहास से प्रेरणा लेकर उसको आगे ले जा सकते हैं।

धन्यवाद!