रामवृक्ष बेनीपुरी का बाल साहित्य : मनुष्य की अपराजेय शक्ति में आस्था
जीवन और कर्म–– सुधीर सुमन
बेनीपुरी की लेखनी को जादू की छड़ी कहा जाता रहा है। अपने प्रवाहपूर्ण लालित्य से युक्त गद्यशिल्प के कारण वे हिन्दी साहित्य में बेहद चर्चित रहे। लेकिन अपने अद्भुत शिल्प के साथ ही अपने साहित्य के वैचारिक उद्देश्य के कारण भी वे उतने ही महत्त्वपूर्ण हैं। उन्होंने साहित्य की लगभग सभी विधाओं में अपनी लेखनी चलायी। खासतौर पर उनके यात्रा संस्मरण, वैचारिक ललित निबन्ध, रेखाचित्र और कहानियों से हिन्दी का आम पाठक परिचित है। लेकिन शायद यह कम लोगों को ही पता है कि बेनीपुरी ने अपने दौर के बच्चों के लिए अत्यन्त मूल्यवान साहित्य का सृजन किया। बेनीपुरी ग्रन्थावली के सम्पादक सुरेश शर्मा ने लिखा है कि रविन्द्रनाथ ठाकुर को छोड़कर किसी भी दूसरे भारतीय लेखक के बाल साहित्य में बेनीपुरी जितनी विविधता नहीं है। विविधता के साथ ही इन्साफ, बराबरी आजादी और मनुष्यता के लिए विकास की जो प्रतिबद्धता है वह बेनीपुरी के बाल साहित्य को भारतीय बाल–साहित्य में विशिष्ट दर्जा प्रदान करती है। काश! अगर समाजवादी–क्रान्तिकारी वैचारिक पृष्ठभूमि के दूसरे साहित्यकारों ने भी इसी तरह सुनियोजित तरीके से बाल साहित्य की रचना की होती तो हिन्दी बाल साहित्य और भी समृद्ध होता।
1925 में प्रकाशित बेनीपुरी जी का लघु बाल–उपन्यास ‘बगुला भगत’ प्रकाशन वर्ष की दृष्टी से उनकी पहली रचना है। इसमें बगुले और मछलियों की लोकप्रचलित कहानी को बिल्कुल नये युगीन सन्दर्भों में रोचक ढंग से रचा गया है। इसकी लोकप्रियता का अन्दाजा इसी से लगाया जा सकता है कि 1928 और 1937 में इसके दूसरे और तीसरे संस्करण भी छापने पड़े थे। हितोपदेश और पंचतंत्र शैली की कहानियों की तरह इसमें महज नीतिगत निष्कर्ष और मनोरंजन नहीं है। इसमें मछलियों की कई किस्मों की तो जानकारी है ही, मानवीय समाज में हो रहे बदलावों और राजनैतिक जागृति की स्पष्ट छाया भी है। आज इसे पढ़ते हुए हमें प्रेमचन्द की कहानी ‘दो बैलों की कथा’ की भी याद आ सकती है, जिसमें अपने दौर का राजनैतिक संघर्ष प्रतीकात्मक तौर पर मौजूद है। होता यह कि बगुले से मुक्ति के लिए जलचर एक महासम्मेलन करते हैं। दिलचस्प यह कि इसके पीछे एक नन्हीं पोठिया का दिमाग काम करता है। वह केकड़े को संघर्ष के लिए राजी करती है। फिर तो जब बगुला मछलियों का शिकार करने आता है, तो वह केकड़े के शिकंजे में फँस जाता है। केकड़ा बगुला भगत और उसकी पत्नी भगतिन की चोंच को कुतरने के साथ उनके अण्डों को भी खत्म कर देता है। मगर अन्त यहाँ नहीं होता। दूसरों की जिन्दगियों को नष्ट करने वाले बगुला भगतों के समूल नाश की चेतना के साथ कथा आगे बढ़ती है। भूख और कष्ट से बगुला भगत की पत्नी को अपनी जान गँवानी पड़ती है। बगुला भगत वैरागी होकर देश–भ्रमण और तीर्थ यात्राओं पर निकल पड़ते हैं। बगुला भगत के साथ–साथ बाल पाठक भी देश के विभिन्न दर्शनीय स्थलों का दर्शन करते हैं, रीति–रिवाजों से अवगत होते हैं। मगर जब बगुला भगत मानसरोवर पहुँचते हैं, तो उनका वैरागी मन डोल जाता है। ढेर सारी मछलियाँ देखकर उनकी लार टपकने लगती है। कटे हुए चोंच के जरिये वे तपस्वी हंस होने का स्वांग रचते हैं और भोले–भाले हंस उनके मायाजाल में फँस जाते हैं। लेकिन सच आखिर कब तक छुपता है! एक दिन मछली भकोसते बगुला भगत पकड़े जाते हैं और हंस उनकी जान ले लेते हैं। जनसेवक का मुखौटा लगाये शोषकों और अत्याचारियों का प्रतिनिधि लगता है बगुला भगत। जिस तरह लूशुन ने पुरानी लोककथाओं को नये रूप में पेश किया है, बेनीपुरी का यह उपन्यास भी एक पुरानी कथा को समसामयिक बना देता है।
1925 में ही प्रकाशित बेनीपुरी की लम्बी कहानी ‘सियार पाँड़े’ को भी पाठकों ने हाथों–हाथ लिया। यह सियार पाँड़े की जिन्दगी की कथा है, जिसमें सियार के बारे में प्रचलित कहावतों और लोककथाओं का भी इस्तेमाल किया गया है, लेकिन सन्दर्भ कुछ बदले–बदले से हैं। इस कहानी में सियार अपनी बुद्धिमानी से बाघ, हाथी, बिल्ली और बन्दर को मजा चखाता है। अपनी बुद्धि के बल पर शेर का विश्वासपात्र मन्त्री बन जाता है। अपने अपमान को सम्मान के किस्सों तथा हार की घटनाओं को जीत के तौर पर प्रचारित करने में वह माहिर है। वह दिखाता है कि जंगल में जहाँ एक से एक खतरनाक जानवर हैं, वहाँ कैसे एक मामूली सा कमजोर प्राणी सियार अपनी हिम्मत और चतुराई के बल पर ही जीवित रह सकता है।
‘बिलाई मौसी’ बच्चों के लिए लिखी गयी बेनीपुरी जी की तीसरी किताब है। बेनीपुरी की जादुई लेखनी से इसमें संग्रहित लोकप्रचलित कहानियों का अभाव और भी बढ़ गया है। इसी तरह 1948–50 में प्रकाशित ‘संसार की मनोरम कहानियाँ’ में देशी–विदेशी पृष्ठभूमि की ऐतिहासिक और लोकप्रचलित कहानियों को जगह दी गयी है। इनमें स्वप्न–वासवदत्ता, लैला–मजनू की प्रेम कहानियों के साथ चीनी और जापानी लोककथाओं पर आधारित कथाएँ शामिल हैं। ये प्रेम, त्याग, साहस और आदर्श की ऐसी विरासत हैं, जिन्हें लेखक भविष्य की पीढ़ी को सौंपने की कोशिश करता है। ‘अमृत की वर्षा’ कहानी में जीमूतवाहन सोचता है कि मनुष्य एक दिन इतना ऊँचा उठ जाएगा कि न कोई राजा होगा, न कोई प्रजा। कोई किसी से लड़ाई–झगड़ा नहीं करेगा। सभी शान्ति से सुख से रहेंगे। जीमूतवाहन गरुड़ से नागों को बचाने के लिए अपना बलिदान दे देता है।
बेनीपुरी की खासियत यह है कि उन्होंने न केवल अपने देश की गौरवशाली घटनाओं और शख्सियतों से बच्चों को परिचित करावाया, बल्कि पूरी दुनिया में जो श्रेष्ठ है और उत्प्रेरक है उसे भी उन तक पहुँचाया। उदाहरण के लिए बड़ी उम्र के बच्चों के लिए लिखी गयी विक्टर ह्यूगो, टॉलस्टाय, जार्ज इबर, सर्वेंतिस, शेक्सपियर, होमर, चैसर, मेटर लिंक की रचनाओं पर आधारित किताब ‘फूलों का गुच्छा’ देखा जा सकता है। इसमें डान क्विकजोट, मर्चेण्ट ऑफ वेनिस, रिसरेक्शन, राबिंसन क्रूजो, ला–मिजरेबुल जैसी विश्वप्रसिद्ध रचनाएँ कानून, नैतिकता, दोस्ती, शोषण और मानवीय मूल्यों के जटिल संसार से साक्षात्कार करवाती हैं।
बेनीपुरी साहित्य के इतिहास के साथ–साथ दुनिया के महानतम लोगों से भी बच्चों को परिचित कराते हैं। ‘हमारे पुरखे, हमारे पड़ोसी’ के पहले खण्ड में उन्होंने चन्द्रगुप्त चाणक्य, अशोक, पृथ्वीराज, राणा प्रताप, अकबर, भामा शाह, शिवाजी, क्लाइव, बाबू कुँवर सिंह, दादा भाई नौरोजी, रवीन्द्रनाथ ठाकुर और महात्मा गाँधी जैसे महापुरुषों से नन्हें पाठकों का परिचय कराया है। इसके दूसरे खण्ड में गैरीबल्डी, विस्मार्क, पीटर, जोन आर्क, जार्ज वाशिंगटन, नेपोलियन, लिंकन, सन–यात–सेन तथा कमाल पाशा जैसे दुनिया के इतिहास निर्माताओं की जीवनी दी है। बेनीपुरी अतीत के भारत की गौरवशाली तस्वीर को भी सामने लाते हैं, ऋषियों, दार्शनिकों, कवियों, विचारकों तथा भारतीय आदर्शों को बड़े फख्र से याद करते हैं, लेकिन पाठकों को उसी में खोये नहीं रहने देते। वे यह भी कहते हैं कि ‘हमें सभी क्षेत्रों में उन्नति और विकास करना है, क्योंकि इसके बिना हम संसार में सर ऊँचा करके नहीं रह सकते।’ बेनीपुरी जी को मनुष्य की अपराजय शक्ति में आस्था है। इसलिए ‘जान हथेली पर’ रखकर ‘पृथ्वी पर विजय’ और ‘प्रकृति पर विजय’ हासिल करने वाले साहस के पुतले उन्हें आकर्षित करते हैं। उनका आग्रह है कि देश के नौनिहाल उसी पद–चिन्ह पर चलें। ये सब उनकी किताबों के नाम हैं। इनमें कई तरह के अन्वेषकों और खोजियों की कहानियाँ हैं। मानवीय साहस, आदर्श, संवेदनशीलता और कुर्बानियों की उत्प्रेरक दास्तान हैं।
इन किताबों के मकसद को स्पष्ट करते हुए बेनीपुरी ने 1938 में प्रकाशित ‘पदचिन्ह’ में लिखा है–– “मेरे छोटे–छोटे साथियों, कहीं तुम भटक न जाओ, कुराह पर न चले जाओ, इसलिए ये पदचिन्ह तुम्हारे आगे रखता हूँ। तुम जो भी बनना चाहो–– साहसी, देशभक्त, वैज्ञानिक, मानव हितैषी–– इनमें से किसी पदचिन्ह को पकड़ लो और बढ़ते चलो। मुझे उम्मीद है, यह तुम्हें सफलता तक पहुँचा देगा।” यहाँ बेनीपुरी में हमें आधुनिक चेतना साफ तौर पर दिखाई देती है। इसी चेतना को उनके निबन्ध ‘स्कूलों की दुनिया’ में भी देखा जा सकता है। उन्होनें लिखा है–– “अब तो लड़के चाव से स्कूल जाने लगे हैं। इसका कारण है, ‘लड़कों को किसी हाल में नहीं पीटना चाहिए, इस सिद्धान्त को लोग समझने लगे हैं।”
‘भारत की खोज में’ शीर्षक लेख उनकी पुस्तक ‘पद–चिन्ह’ का पहला लेख है, जिसमें भारत की खोज में निकले साहसी लोगों का वर्णन है। लेख के आखिर में बेनीपुरी सवाल करते हैं कि ‘क्या हमारा देश कभी ऐसा हो सकता है ? क्या हमारे देश में मार्काे पोलो, कोलम्बस, वास्को–डी–गामा और मैगलन ऐसे साहस के पुतले हो सकेंगे ?’ आधुनिक यूरोप बेनीपुरी के लिए एक चुनौती की तरह है। यूरोपीय सभ्यता का विकास, स्वतंत्रता–संग्राम और लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए होने वाले संघर्ष तथा दर्शन, चिकित्साशास्त्र, अर्थनीति और राजनीति का कल्याणकारी रूप उन्हें अपनी ओर खींचते हैं। भौगोलिक खोजों, वैज्ञानिक अनुसन्धानों के साथ ऊँचे दर्जे के यूरोपीय साहित्य से भी वे प्रभावित दिखते हैं। मगर इनसे सिर्फ परिचय कराना ही उनका मकसद नहीं है, बल्कि इसे वे एक पैमाना बनाकर भी पेश करते हैं। ‘जीवन त्राता’ नामक लेख में धन्वन्तरी, चरक और सुश्रुत का जिक्र करते हुए वे आधुनिक चिकित्सीय अनुसन्धान में जीवन लगा देने वाले लुईस पाश्चर, जोसेफ लिस्ट, डॉ रोबर्ट कोच, कैरल आदि तक पहुँचते हैं। ‘पदचिन्ह’ में ही बेनीपुरी का एक लेख ‘मानव कल्याण की ओर’ है। इसमें रूसो, बेंथम, एडम स्मिथ, क्रोपाटिकन, बाकुनिन से लेकर कार्ल मार्क्स के युगान्तकारी विचारों की चर्चा है। रूसो के बारे में बेनीपुरी ने लिखा है–– “रूसो गरीबों के लिए प्रकाश देवदूत था। उसने वह संसार देखा था, जहाँ आदमी कराहता रहता, स्त्रियाँ बेइज्जत होतीं, बच्चे भूख, जाड़ा और मूर्खता के शिकार होते और जहाँ इस परिस्थिति को बदलने की चेष्टा करने वाले नाना तरह के कष्ट भोगते हैं। रूसो ने इसके खिलाफ आवाज उठायी और उसने उन सभी चीजों पर प्रहार किया, जिनके चलते यह स्थिति है।” इसमें कोई दो राय नहीं कि बेनीपुरी अपने बाल साहित्य के जरिये बच्चों के संवेदनशील जेहन में मनुष्य की अपराजेय शक्ति में आस्था, बन्धुत्व, लोकतंत्र, इन्साफ और आजादी के साथ परिवर्तन के बीज रोपते हैं।
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