–– सुहास पालशीकर

क्या भारत के सार्वजनिक जीवन में भी कोई जार्ज फ्लायड जैसी परिघटना होगी? निश्चय ही, यह महज अन्याय की एक घटना के खिलाफ फूट पड़ने वाले आक्रोश तक की ही बात नहीं है बल्कि एक प्रताड़ना के शिकार व्यक्ति के साथ खुद को खड़ा करने की तात्कालिक आवश्यकता को समझने, हाशिए पर फेंक दिये गये लोगों के खिलाफ व्यवस्थित पूर्वाग्रह का अहसास करने और ‘हम’ और ‘वे’ के बीच की दहलीज को पार करने के बारे में है। सबसे ऊपर यह वक्त नागरिकों की पहलकदमी का वक्त है। लेकिन दूसरी ओर, भारत के हाल के अनुभवों से ऐसा लगता है कि हमने अन्याय को लोकतंत्र पर लगातार हमले के साथ जोड़ कर समझने का अपना आग्रह खो दिया है।

कुछ महीने पहले, पूरे मीडिया में प्रवासी मजदूरों के पलायन और उनकी पीड़ा की छवियाँ छाई हुई थी। उनकी पीड़ा को लेकर दो बातें चैंकाने वाली हैं–– इस मानवीय त्रासदी को लेकर सार्वजनिक आक्रोश की कोई अभिव्यक्ति सामने नहीं आयी और खुद पीड़ितों ने भी सबकुछ चुपचाप सहन करने का रास्ता चुना। वे शिकायत कर सकते थे, या दबी जुबान से सरकार को कोस सकते थे, लेकिन ऐसा लगता है कि हमारा लोकतंत्र, दरअसल उन्हें अपने अधिकारों की माँग करने या उनका दावा करने की इजाजत ही नहीं देता। आज न सिर्फ प्रवासी, बल्कि अल्पसंख्यक भी ‘जनता’ के विचार से बाहर कर दिये जाने की अकथनीय पीड़ा झेल रहे हैं। महिलाओं, गाँव के गरीबों, दलितों और आदिवासियों का अपमान तो इससे भी ज्यादा रोजमर्रा की बात हो गयी है।

यहाँ प्रश्न उठता है कि भारतीय लोकतंत्र, समाज के इतने बड़े हिस्से को यातना देना कैसे बर्दाश्त कर लेता है और कैसे यह सुनिश्चित करता है कि पीड़ित लोग विनम्र बने रहें?

आज यह बेहद जरूरी है कि भारतीय लोकतंत्र में मौजूद इस अधीनता को आत्मान्वेषण और आत्मविश्लेषण का विषय बनाया जाये। इस सवाल के तीन प्रकार के उत्तर सोचे जा सकते हैं–– लोकतंत्र के सामान्य कार्यकलाप से सम्बन्धित, भारतीय राज्य की प्रकृति का ऐतिहासिक विश्लेषण करने वाले या फिर समकालीन आन्दोलनों के सन्दर्भ में इसकी व्याख्या करने वाले।

लोकतंत्र के भीतर एक शैतानी प्रवृत्ति, एक बुनियादी विरोधाभास मौजूद है। इसकी शुरुआत जरूर ‘लोक’ या ‘जनता’ के नाम पर होती है लेकिन जनता की परिभाषा दिनोंदिन संकीर्ण होती चली जाती है। अक्सर समाज का कोई एक हिस्सा या कोई गठजोड़ खुद को “जनता” के तौर पर स्थापित कर लेता है–– वह खुद को जनता मानता है और उसके विचार “जनता के विचार” का छद्म वेश धारण कर लेते हैं। इससे अपरिहार्य तौर पर समाज में नागरिकों की परतें बन जाती हैं। लोकतंत्र की शुरुआत व्यक्ति को संस्थाओं से ऊपर समझने से होती है लेकिन देर–सवेर वह व्यक्ति की अज्ञानता से व्यवस्था में पड़ने वाले व्यवधान का बहाना करके उन्हें इस अधिकार से भी वंचित कर देता है। इसके अलावा लोकतंत्र ‘अधिकार’ के विचार को भी बढ़ावा देता है लेकिन व्यवस्था बनाये रखने के नाम पर अधिकारों में कटौती की इजाजत भी देता है। संक्षेप में, अभिजात वर्ग और आम जनता, सक्रिय नागरिक और दब्बू नागरिक, तथा ‘अधिकार’ और ‘व्यवस्था’ के बीच के ये अन्तरविरोध ही लोकतंत्र के जीवन का निर्धारण करते हैं। यह महज सिद्धान्त और व्यवहार या अवधारणा और उसके ठोस जीवन के बीच की दूरी का मामला नहीं है बल्कि इस बात पर गौर करने की जरूरत है कि किसी दिये हुए वक्त पर कितना लोकतंत्र होगा, यह इन्हीं अन्तरविरोधों द्वारा पूर्व निर्धारित होता है। लोकतंत्र को औपचारिक तौर पर स्वीकार कर लेने और यह मानकर बैठे रहने से कि लोकतंत्र है, जीवन्त लोकतान्त्रिक व्यवहार अपने आप सुनिश्चित नहीं हो जाता। लोकतान्त्रिक राजनीति अपने प्रयासों से गढ़नी पड़ती है।

नागरिकों की लोकतंत्र में भागीदारी को लेकर भारतीय राज्य का रवैया हमेशा से ही उद्दण्डता पर आधारित रहा है। राज्य कानून–व्यवस्था के शब्दाडम्बर पर, सुविचारित तरीके से जरूरत से ज्यादा जोर देता है। यह रवैया राज्य को इस मान्यता की ओर ले जाता है कि नागरिक राज्य के सक्रिय तत्व नहीं हैं और न ही होने चाहिए। यानी नागरिकों को खुद को संगठित करने, नेतृत्व करने या निगरानी करने के लिए नेताओं का इन्तजार करना चाहिए। इस प्रकार, उनके लिए क्या अच्छा है और क्या बुरा है यह तय करने के मामले में नागरिकों को राज्य की दरियादिली के भरोसे रहना चाहिए। यह सरकार में खुद को केयरटेकर या माई–बाप समझने और नेताओं में खुद को राजनीतिक आका या संरक्षक समझने की मनोग्रन्थि (सिण्ड्रोम) पैदा करता है। कानून–व्यवस्था के मामले में भी भारतीय राज्य को विशेष अधिकार प्राप्त है। यदि खुद को माई–बाप समझने वाला राज्य लोकतंत्र में ‘लोक’ की सक्रियता के विचार को नकार देता है तो कानून–व्यवस्था पर जोर इस नकार को वैधता प्रदान करता है। इस तरह, व्यक्ति के अधिकारों और उसकी गरिमा के विमर्श की केवल तभी अनुमति दी जाती है, जब वह ‘व्यवस्था’ के बारे में राज्य के अपने नजरिये के मातहत हो।

वैधानिक कल्पनाशीलता, न्यायिक विवेचना और लोकानुभूति की धारणा–– ये सभी एक प्रदर्शनकारी के तौर पर नागरिक की पहचान के खिलाफ टाल लगाकर खड़े हो जाते हैं। आजादी के आन्दोलन की विरासत के विपरीत भारत में लोकतंत्र और उसमें जनता की भागीदारी को, सैद्धान्तिक और कानूनी, दोनों रूप से एक व्यवस्थित समाज से असंगत और अक्सर उसके विरोधी तर्क के तौर पर देखा जाता है। चाहे वह 1950 का गोपालन केस हो या व्यक्तिगत आजादी के खिलाफ बहुत से कानूनी स्मारक, जैसे कि हाल ही में प्रयुक्त बदनाम यूएपीए (गैर कानूनी गतिविधि निवारक अधिनियम) कानून। हमेशा दो बातों पर जोर दिया जाता रहा है–– कि राज्य को पता है कि वह सही है और राज्य के विशेषाधिकार होने चाहिए तथा नागरिकों की सक्रियता सन्दिग्ध होती है और वह व्यवस्था कायम करने में बाधा बन सकती है, इसलिए वह सजा की हकदार है।

राज्य द्वारा अधिकारों को मातहत कर लेने और लोक की सक्रियता को असंवैधानिक करार दिये जाने की इसी पृष्ठभूमि में आज वह वक्त आ पहुँचा है कि आलोचना करना लगभग राजद्रोह समझा जाने लगा है, हाशिये पर फेंक दिये गये लोगों के अधिकारों की माँग करने को राज्य के खिलाफ युद्ध की संज्ञा दी जा सकती है और सामाजिक अन्याय के शिकार लोगों के साथ हमदर्दी रखना उपहास का विषय है या निषिद्ध करार दिया गया है। वर्तमान शासन ने राज्य के लोकतान्त्रिक कार्यकलापों के निम्नस्तरीय झुकाव को एक डरावनी कला में बदल दिया है।

हम आज यह बात कर रहे हैं तो हम यह नहीं भूले हैं कि 1975 में तत्कालीन सरकार द्वारा कमोबेश अनाड़ी की तरह पूरी राज्य मशीनरी का नियन्त्रण अपने हाथ में लिया गया था। लेकिन आज लोगों को चुप कराने के लिए उससे कहीं ज्यादा संगठित और सुव्यवस्थित व्यूह–रचना की गयी है। तथापि यह विरोध–प्रदर्शन कर रहे नागरिकों पर बरपा हुआ राज्य का दमनकारी पक्ष नहीं है जो इस प्रश्न का समुचित उत्तर दे सके कि क्यों “किसी और के साथ” होने वाले घोर अन्याय के वक्त भी नागरिकों ने खामोशी अख्तियार करना पसन्द किया।

यह विडम्बनापूर्ण लग सकता है लेकिन दमन के उच्च स्तर के बावजूद आम जनता के भीतर से प्रतिरोध की कमजोरी की बड़ी वजह वर्तमान शासन द्वारा गढ़ा गया वह आख्यान (नैरेटिव) है जो न सिर्फ लोगों की पीड़ा, उनके साथ अन्याय और उत्पीड़न की मौजूदगी जैसी बातों को अमान्य करार देता है बल्कि उनकी मौजूदगी के यथार्थ को ही नकार देता है। यह आख्यान यथार्थ को उसके विपरीत में बदल देता है। सरकार की कामयाबी यह है कि वह आम लोगों को इसका यकीन दिलाने में समर्थ है।

इस वैकल्पिक यथार्थ के युग में जो लोग जुल्म के शिकार हैं, वे अपराधी हैं (जैसे मुसलमान), अगर गलत सूचना के आधार पर बढ़ा–चढ़ाकर नहीं बताये गये हैं तो भी कष्ट भोगना, तपस्या है (जैसे प्रवासियों की दुर्दशा के मामले में) और हाशियाकरण और बहिष्करण पिछली राजनीति के परिणाम हैं (जैसे दलितों और आदिवासियों के मामले में)। इस तरह के आख्यान दो परस्पर विरोधी खेमों को एक दूसरे के खिलाफ ला खड़ा करते हैं। पहला है राष्ट्र–– जो एकता, प्रगति और एक सम्भावित महान युग का प्रतिनिधित्व करता है और जिसके सामने बाकी सभी विभाजनकारी और टुकड़े–टुकड़े गैंग हैं। इसलिए हर वह आवाज जो किसी समूह–विशेष के कष्ट–परेशानी की बात करती है, राष्ट्र के विकास के मार्ग में रोड़ा बन जाती है और हाशिये पर पड़े लोगों का कोई भी संश्रय इस परिभाषा के तहत राष्ट्र–विरोधी रंगत अख्तियार कर लेता है।

यह इस अफसाने की ही ताकत है जिसके सामने कष्ट, जलालत और अन्याय विचारोत्तेजन की अपनी सामर्थ्य खो देते हैं, वे सरकार को कलंकित कर पाने में असमर्थ हो जाते हैं और समाज में कोई नैतिक प्रतिक्रिया नहीं जगा पाते। इस तरह लोकतंत्र के भीतर ‘बहुत तरह के अन्याय’ और ‘खामोश नागरिक समाज’ उस समय सह–अस्तित्व में रह सकते हैं जब इस तरह के आख्यानों के जरिये तथ्यों की पुनर्रचना करने के साथ–साथ राज्य आमजन को उन पर विश्वास दिलाने में भी सफल हो जाये। आज के दौर की यह खामोशी इस पुनर्रचित यथार्थ की सच्चाई में आम जनता के यकीन और वैकल्पिक नैतिकता को अपना लेने का नतीजा है।

जब अमरीकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प कहता है कि जार्ज फ्लायड “ऊपर से देख रहा है” और यह कहता प्रतीत हो रहा है कि (बेरोजगारी में कमी) “एक बड़ी बात है–– जो हमारे देश में हो रही” तो वह फ्लायड की हत्या के प्रभाव को पलटने और लोकतंत्र का नया व्याकरण गढ़ने वालों का प्रतिनिधित्व कर रहा है, कि इस वक्त का महत्त्वपूर्ण तथ्य फ्लायड की हत्या नहीं बल्कि बेरोजगारी की दर में मामूली गिरावट हैय और कि फ्लायड की नाराजगी अपनी हत्या को लेकर नहीं बल्कि अर्थव्यवस्था को लेकर रही होगी। इसलिए जो चीज ठीक करने की जरूरत है वह एक समुदाय–विशेष के साथ होने वाला संस्थागत भेदभाव नहीं बल्कि प्रदर्शन करके मृतक का अपमान करने वाले लोग हैं।

राज्य की इस प्रतिक्रिया का सावधानी से अध्ययन करें तो हम समझ पायेंगे कि हमारा देश भी सच्चे अर्थों में अपने खुद के फ्लायड के क्षण को जी रहा है।

(साभार इंडियन एक्सप्रेस, 11 जून 2020। लेखक ‘स्टडीज इन इंडियन पॉलिटिक्स’ जर्नेल के मुख्य सम्पादक है)

अनुवाद–– ज्ञानेन्द्र