भारत के एक बड़े हिस्से में मर्दवादी विचार हावी
साक्षात्कार(एजाज अशरफ द्वारा आशीष नन्दी का साक्षात्कार)
एजाज अशरफ : आप एक राजनीतिक मनोविश्लेषक हैं। इस लिहाज से 2019 के चुनावों में बीजेपी की बड़ी जीत को आप कैसे समझते हैं?
आशीष नन्दी : जिस तरह का काम इन लोगों ने 5 सालों में किया था उससे मुझे उम्मीद नहीं थी कि बीजेपी को इतनी बड़ी जीत हासिल होगी। मुझे लगता है कि इन लोगों ने आक्रामक शैली में प्रचार अभियान चलाया जिसके बूते यह जीत हासिल हुई। इन पाँच सालों में इनके सामने केवल चुनाव था और सारे काम इसे ही ध्यान में रख कर किये गये। इस वजह से इनके पास कुछ और करने का वक्त ही नहीं था। बीजेपी के चुनाव अभियान का एक जरूरी भाग मोदी को भारत का तारणहार दिखाना था।
एजाज अशरफ : क्या हम इस जीत को बदलते भारत की छाया की तरह देख सकते हैं?
आशीष नन्दी : मेरे लिए यह शर्म की बात है कि बीजेपी का चुनाव प्रचार और उसकी जीत हिन्दुत्व विचारक विनायक दामोदर सावरकर से उधार लिये गये राज्य के सिद्धान्त पर आधारित है। यह सिद्धान्त राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की सोच पर लम्बे समय से हावी रहा है।
एजाज अशरफ : सावरकर की राज्य की अवधारणा क्या थी?
आशीष नन्दी : सावरकर की राज्य की कल्पना अत्यंत मर्दवादी थी। राष्ट्रवाद सहित सभी चीजें इस मर्दवादी राज्य के मातहत आती हैं। आप इसे राज्यवाद कह सकते हैं। इसका मतलब है कि आपके और मेरे जीवन में राज्य की भूमिका केन्द्रीय होगी।
2019 के चुनाव परिणाम से हम जान सकते हैं कि भारत के एक बड़े हिस्से में मर्दवादी विचार हावी हो गया है जो राष्ट्रवाद और देशप्रेम तथा हिन्दू राष्ट्रवाद और राष्ट्रवाद में अन्तर नहीं कर पाता।
एजाज अशरफ : मर्दवादी राज्य के लक्षण या चरित्र क्या हैं?
आशीष नन्दी : यह साहस का पौरुषिकरण, अधिकार का पौरुषिकरण और राष्ट्र की पहचान का पौरुषिकरण करना है। बीजेपी की बात करें तो इसने कई मर्तबा इससे किनारा भी किया है। उदाहरण के लिए जब मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री थे तो वह कहा करते थे कि वह सब को साथ लेकर चलते हैं।
एजाज अशरफ : आपने देशप्रेम और राष्ट्रवाद के अन्तर पर बहुत लिखा है। क्या आप हमें इस अन्तर के बारे में बता सकते हैं?
आशीष नन्दी : देशप्रेम का मतलब प्रादेशिकता या क्षेत्रियता है जो मानव जाति का नैसर्गिक गुण है। इस तरह की प्रादेशिकता सभी जीवों में पायी जाती है। यहाँ तक कि कुत्ते और बिल्लियों में भी। दूसरे शब्दों में, देशप्रेम मानव जाति के लिए प्राकृतिक चीज है। लेकिन राज्यवाद का विचार देशप्रेम को पर्याप्त नहीं मानता।
एजाज अशरफ : क्या इसका सम्बन्ध नेशन–स्टेट (राज्य) के विकास–क्रम से जुड़ा है?
आशीष नन्दी : यूरोप में राजतंत्र के खत्म हो जाने के बाद नेशन–स्टेट का उद्भव हुआ। राजा के पास दैवीय अधिकार थे। हालाँकि सम्भ्रांत (एलीट) वर्ग खुद इस पर विश्वास नहीं करता था। लेकिन वह यह जरूर मानता था कि राजा एक प्रतीक है जो राज्य में रहने वाले विभिन्न समुदायों को साथ रखता है। सम्भ्रांत लोगों को डर था कि यदि राजतंत्र नहीं रहेगा तो यूरोप की सर्वसाधारण जनता राज्य के प्रति वफादार नहीं रहेगी। विभिन्न समुदायों को एक साथ रखने के लिए राष्ट्रवाद का प्रचार यूरोप के समाजों में किया गया।
हालाँकि यूरोप का सम्भ्रांत स्वयं राष्ट्रवादी नहीं था। राज परिवारों की शादियाँ बाहर नहीं की जा सकती थीं इसलिए उन लोगों ने दूसरे राष्ट्रों के राज घरानों में ब्याह रचाया। जिन्होंने दूसरे राष्ट्रों के राजघरानों में शादियाँ कीं उन लोगों ने उन्हीं राष्ट्रों की राष्ट्रीयता ग्रहण कर ली।
आम जनता के लिए राज्य एक नया खुदा बन गया। इसका मतलब है कि राष्ट्र, राष्ट्रवाद और राज्य एक साथ घटित होने वाली परिघटनाएँ हैं। ठीक इसी तरह का प्रचार आज भारत में हो रहा है।
एजाज अशरफ : भारत में राष्ट्रवादी प्रचार हावी क्यों हो रहा है?
आशीष नन्दी : यह इसलिए हो रहा है क्योंकि इन लोगों ने देशप्रेम और राष्ट्रवाद के बीच की रेखा धुँधली कर दी है। हर भारतीय जन्म से ही देशप्रेमी होता है। इसके बरअक्स राष्ट्रवाद राज्य के प्रति वफादारी का भरा गया (निर्मित) भाव है। अधिकांश लोग राष्ट्रवाद और देशप्रेम के बीच अन्तर नहीं कर पाते। भारत में ये दोनों शब्द एक ही अर्थ में प्रयोग किये जाते हैं। बीजेपी लगातार देशद्रोह की बात करती है और उसका लक्ष्य राष्ट्रवाद और देशप्रेम के बीच के अन्तर को धुँधला कर देना है।
एजाज अशरफ : इसके पीछे बीजेपी की मंशा क्या है?
आशीष नन्दी : इसके पीछे हर तरह के विपक्ष को राष्ट्रद्रोही ब्रांड करना है।
एजाज अशरफ : इस अन्तर को मिटा देने के बीजेपी के प्रयास का लोगों में क्या असर हुआ है?
आशीष नन्दी : भारतीय लोग अपनी स्वतंत्रता, भारतीयता के विचार और नेशन–स्टेट का सम्मान करते हैं। लेकिन इस बारे में उनका विचार बहुत अलग किस्म का है। उन्हें एकतरफा सन्देश दिया जा रहा है। इसलिए लोग देश की बदलती राजनीति को समझने में नाकाम हैं। भारतीय लोगों के भीतर टीवी को लेकर एक तरह का विश्वास है जो 50 साल पहले अमरीका के लोगों का था। आलोचनात्मक दृष्टि पैदा नहीं हुई है या यूँ कहें कि उसे पैदा होने नहीं दिया गया।
एजाज अशरफ : क्या आपको लगता है कि पंजाब और कश्मीर में जिस तरह के आक्रामक आन्दोलन चले, उसकी वजह से उत्पन्न बेचैनी के कारण भारतीय लोग बीजेपी के विचार को स्वीकार करते हैं?
आशीष नन्दी : हिंसक आन्दोलन से अधिक मुझे लगता है जनता हर तरह की हिंसा को लेकर बेचैन है।
एजाज अशरफ : लेकिन हिंसा ने बेचैन तो किया ही है।
आशीष नन्दी : यह सही है। इस बेचैनी की वजह से लोगों को लगता है कि एक केन्द्रीकृत राज्य, शान्ति व्यवस्था बहाल कर देगा। ब्रिटिश शासन के तहत भारतीयों की पहली पीढ़ी भी यही समझती थी। बंकिम चन्द्र चट्टोपाध्याय, जो बंगाल के डिप्टी मजिस्ट्रेट थे, वह भी मानते थे कि मुगल शासन के अंतिम दिनों में जिस तरह की अराजकता थी उसका समाधान ब्रिटिश शासन है। यह वह समय था जब मराठा शक्तिशाली थे। उनकी लूटने वाली संस्कृति थी। यहाँ तक कि 1857 के विद्रोह के समय ब्रिटिश सत्ता की जीत के लिए कोलकाता में लोगों ने पूजा–अर्चना की थी।
एजाज अशरफ : क्या 2019 के चुनाव परिणाम को हिंसा और असुरक्षा की प्रतिक्रिया के रूप में समझना चाहिए?
आशीष नन्दी : 2019 का चुनाव परिणाम आरएसएस द्वारा सावरकर की विचारधारा को फैलाये जाने का परिणाम है। वह यूरोप जैसा नेशन–स्टेट चाहता है। सावरकर ने स्पष्ट तौर पर कहा था कि हिन्दुत्व का मतलब हिन्दू धर्म नहीं है। लेकिन चुनावों के लिए इस अन्तर को मिटा दिया गया। सावरकर नास्तिक था। उसने अपनी पत्नी का रीति सम्मत अंतिम संस्कार भी नहीं किया। यहाँ तक कि उसका स्वयं का अंतिम संस्कार धार्मिक तरीके से नहीं हुआ।
कुछ साल पहले सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसाइटीज ने एक सर्वे किया था जिसमें मैंने पहली बार सावरकर के विचार के सफल होने के लक्षण देखे थे। उस सर्वे में पाया गया था कि भारत के तमाम राज्यों में हिन्दू धर्म के प्रति समर्पण का हिन्दुत्व को मिल रहे समर्थन से सम्बन्ध नहीं है। इसका अपवाद सिर्फ गुजरात था।
अर्थशास्त्री प्रणब बर्धन ने इसे बहुत खूबसूरती से बयान किया है। उन्होंने कहा है कि प्रधानमंत्री के रूप में मोदी के पहले पाँच सालों में गुजरात का विकास मॉडल गुजरात से बाहर नहीं फैल पाया और जल्द इसके फैलने का कोई लक्षण दिखायी नहीं देता। लेकिन नफरत का गुजराती मॉडल पिछले पाँच सालों में पूरे भारत में फैल गया है।
एजाज अशरफ : क्या हम गुजरात के अनुभव से भारत को समझ सकते हैं?
आशीष नन्दी : 1961 में मैं पहली बार मनोविश्लेषण क्लीनिक के लिए गुजरात गया। उस वक्त मैंने पाया कि गुजराती लोग मुसलमानों को अलग समुदाय नहीं समझते थे। वे लोग जब भी मुसलमानों की बात करते थे उनके दिमाग में उत्तर प्रदेश और बिहार से कपड़ा मिलों में काम करने के लिए आने वाले मुसलमान होते थे। जब मैं वहाँ के मुसलमानों की बात करता तो कोई गुजराती मुझे समझाने लगता कि नहीं वह मेमोन या बोहरा है। गुजराती मुसलमानों को उनके धर्म से नहीं बल्कि उनकी पंथ से पहचाना जाता था। लेकिन आज वहाँ मुस्लिमों की एक अलग पहचान है।
बहुत लम्बे समय तक मुझे लग रहा था की जाति हिन्दुत्व का जवाब है। लेकिन ऐसा नहीं हुआ।
एजाज अशरफ : इसका मतलब है कि भारतीय मनोविज्ञान में फंडामेंटल या आधारभूत बदलाव आ चुका है।
आशीष नन्दी : हाँ, बदलाव जरूर आया है लेकिन आप उसे आधारभूत बदलाव नहीं कह सकते। एक बदलाव यह आया है कि देशप्रेम और राष्ट्रवाद का अन्तर मिट गया है। दूसरा बदलाव यह है कि उन्हें लगता है कि एक मजबूत केन्द्रीकृत राज्य, हिंसा से ग्रस्त समाज में सन्तुलन बनाने के लिए जरूरी है। यह विचार अभी बढ़ रहा है। इस सन्दर्भ में एक और महत्त्वपूर्ण कारक यह है कि लोगों को विस्थापित होना पड़ा। यह विस्थापन विकास परियोजनाओं के कारण हो रहा है। क्या हमें इतने सारे बड़े बाँधों की आवश्यकता थी?
एजाज अशरफ : तो क्या एलीट वर्ग ने नीचे पैदा होने वाले दबाव को नियंत्रित करने के लिए एक मजबूत राज्य का विकल्प चुना है?
आशीष नन्दी : आप कह सकते हैं कि कारोबारी एलीट ने विकास के अपने मॉडल के लिए मजबूत राज्य का विकल्प चुना है। मध्यमवर्ग के बड़े हिस्से ने इस विचार को ग्रहण कर लिया है। इस मॉडल में अन्तर्निहत खतरे हैं। मेरी किताब “द इललेजिटिमेसी ऑफ नेशनलिज्म – रविन्द्रनाथ टैगोर एंड पॉलिटिक्स ऑफ सेल्फ” का चीन में तीसरा अनुवाद हुआ है। इस बार पीपल्स पब्लिशिंग हाउस ने इसका अनुवाद किया है जिसका मतलब है कि यह राज्य प्रायोजित अनुवाद है। मेरा मानना है कि चीन का सम्भ्रांत वर्ग खुद के फैलाए राष्ट्रवाद से डरा हुआ है। वे लोग अब राष्ट्रवाद को पूँजी नहीं मानते। ऐसा इसलिए है कि वे स्वयं इसके शिकार हो गये हैं। चीन की जनता चाहती है कि चीन सैन्य शक्ति के दम पर दक्षिण चीन सागर को हासिल कर ले।
एक बार राष्ट्रवाद को ढीला छोड़ दिया गया तो ऐसी स्थिति का पैदा हो जाना बहुत आसान है जो 1930 के यूरोप में थी। बड़े पैमाने पर हत्याएँ होने से पहले न्यायपालिका और शिक्षा व्यवस्था को व्यवस्थित और कमजोर कर दिया गया था। इसके बाद किताब जलाये जाने जैसी परिघटना सामने आयी।
एजाज अशरफ : आज जो भारत में हालात हैं क्या आप उससे चिंतित हैं?
आशीष नन्दी : जी बिल्कुल। भारत दुनिया की लिंचिंग राजधानी बन गया है। 1950 तक यह दर्जा अमरीका को प्राप्त था।
एजाज अशरफ : क्या आप इसलिए भी चिंतित हैं क्योंकि आपको लगता है कि यह सरकार की मिलीभगत से हो रहा है?
आशीष नन्दी : हाँ, ऐसा ही पाकिस्तान में भी है।
एजाज अशरफ : क्या हम पाकिस्तान जैसा बन रहे हैं?
आशीष नन्दी : हम पाकिस्तान की तरह देखने लगे हैं। हमारी सेना उसकी सेना की तरह ही राज्य की भाषा बोल रही है और मुझे शक है कि निचली न्यायपालिका का अधिकांश हिस्सा यही कर रहा है।
आप को समझना चाहिए कि भारत में यह काम इसलिए हो पाया है क्योंकि बीजेपी–आरएसएस ने संस्थाओं में अपने लोग घुसा दिये हैं। आप किसी को सरकारी नौकरी देते हैं तो वह आपका वफादार बन जाता है। अगर बीजेपी अगला चुनाव या 2029 का चुनाव हार भी जाती है तो ऐसे लोग वहाँ (संस्थाओं में) बने रहेंगे।
मोदी सरकार ने जो किया है उसकी कीमत भारत की एक पीढ़ी को चुकानी पड़ेगी। हम यूरोप के नेशन–स्टेट से जुड़ी खामियों के साथ वैसा ही नेशन–स्टेट बनते जाएँगे। हमारा देश विविधता वाला समाज है जिससे आरएसएस–बीजेपी के लोगों को डर लगता है।
एजाज अशरफ : विविधता से संघ इतना भयभीत क्यों रहता है?
आशीष नन्दी : उनके डर से ही हमें पता चलता है कि न वह हिन्दू हैं और न भारतीय। इसने नेशन–स्टेट का अपना मॉडल यूरोप से जस का तस चुराया है। यही सावरकर चाहता था।
एजाज अशरफ : 2019 में बीजेपी की जीत का सेहरा मोदी को दिया गया। उनके व्यक्तित्व की वह खास बात क्या है जो लोगों को आकर्षित करती है? क्या आपको लगता है कि उनकी आक्रामकता, बदलते भारतीय मनोविज्ञान को आकर्षित करती है?
आशीष नन्दी : यह सही है। लोगों को उनके गरीब परिवार से आने और सफल होने की कहानी आकर्षित करती है। लोगों को लगता है कि प्रधानमंत्री ने कोई गलती की भी है तो यदि वह उनको झेलते रहेंगे तो लम्बे समय में उन्हें लाभ मिलेगा। इस भाष्य को गढ़ने में मीडिया की बड़ी भूमिका है और इस चुनाव को राष्ट्रपति चुनाव जैसा बना दिया गया।
एजाज अशरफ : क्या प्रेम की भाषा लोग पसन्द नहीं करते?
आशीष नन्दी : यह मत भूलिए कि हमारे सामने कोई ऐसा बड़ा व्यक्तित्व नहीं है जो प्रेम की भाषा को विश्वसनीय बना सके। जयप्रकाश नारायण ने इसका प्रयास किया था और वे सफल रहे थे। जो व्यक्ति प्रेम के प्रति लोगों में विश्वास जगाना चाहता है उसके जीवन में बलिदान (खो देने) का गुण होना चाहिए।
एजाज अशरफ : मीडिया ने मोदी की जो छवि पेश की उसके बारे में आपका क्या कहना है?
आशीष नन्दी : नेताओं की छवि बनाने में मीडिया की बड़ी भूमिका न सिर्फ भारत में बल्कि अन्य देशों में भी है। इसलिए एक ही वक्त में हमारे सामने भारत में मोदी, तुर्की में रजब तैयब इरदुगान, फिलीपींस में रोड्रिगो दुतेर्ते और अमरीका में डोनाल्ड ट्रम्प हैं।
एजाज अशरफ : क्या आपको लगता है कि यह लोग मीडिया का इस्तेमाल लोगों के दिमाग पर कब्जा करने के लिए करते हैं?
आशीष नन्दी : हाँ। मैं भारतीयता के विचार पर एक किताब का सम्पादन कर रहा हूँ। मुझे पता है कि यदि इस किताब का अनुवाद भारत की सभी भाषाओं में हो जाये तो इसे बहुत पढ़ा नहीं जाएगा। भारतीयता के विचार को जनता की चेतना में समाने में बहुत लम्बा समय लगेगा क्योंकि जनता को गलत किताबों से अन्य तरह का विचार दिया जा रहा है।
एजाज अशरफ : क्या भारतीयता की अवधारणा बदल गयी है?
आशीष नन्दी : मध्यम वर्ग को देखिए, जो आमतौर पर नेशन–स्टेट के विचार को स्वर देने का काम करता है। आप पाएँगे कि भारतीयता का विचार बदल गया है। राजनीति को मर्दवादी बना देना, राज्यवादी बना देना और निरन्तर प्रगति के विचार को स्वीकार्य बनाने में मध्यम वर्ग जिम्मेदार है। भारतीय लोग यह सोचते हैं कि प्रगति न केवल स्थायी है बल्कि यह एक ही दिशा में चलने वाली रेखा की तरह है। आज ऐसी प्रगति मुमकिन नहीं है। हम ऐसी अवस्था में पहुँच गये हैं जहाँ अन्तत: हम अपनी दुनिया को नष्ट कर देंगे।
एजाज अशरफ : राष्ट्रीय पहचान क्या है? ऐसा माना जाता था कि भारतीय पहचान जाति, धर्म, धार्मिक और भाषाई पहचान के जोड़ से अधिक है। अब देखा जा सकता है कि भारतीय पहचान हिन्दू होना हो गयी है।
आशीष नन्दी : इस तरह की चेतना, जिस की बात आप कर रहे हैं। वह हमेशा से थी। लेकिन यह दबी हुई थी, अवचेतन में थी। बहुसंख्यक को पहले लगता था कि वह बहुसंख्यक है, लेकिन अब उसे लगता है कि वह पीड़ित बहुसंख्यक है। मेरे मित्र राजनीतिक विज्ञानी डीएल सेठ को एक बार आरएसएस ने अपने सदस्यों को सम्बोधित करने के लिए बुलाया था। सेठ भारत के चन्द शानदार राजनीतिक विचारकों में से हैं। सेठ ने उनसे कहा कि पहले आप मेजॉरिटी की तरह बात करना सीख लें तब मैं आकर अपनी बात रखूँगा। पीड़ित होने की भावना बहुसंख्यक के अन्दर पैठ कर गयी है। इससे पहले बहुसंख्यक के भीतर आत्मविश्वास था।
इस भावना के पीछे मध्यमवर्ग है। इसकी संख्या और प्रभाव बढ़ा है लेकिन इसका आत्मविश्वास कमजोर हो गया है। अब यह सिर्फ अपने बारे में नहीं सोचता। यह मध्यम वर्ग का काम है कि समाज को विचार दे। मध्यमवर्ग निर्णय करता है कि कौन से विचार गलत हैं। विश्वविद्यालय और स्कूलों की यहाँ भूमिका है लेकिन अब मध्यमवर्ग का विचार गड्ड–मड्ड है जो उसे मीडिया से मिल रहा है।
एजाज अशरफ : क्या मध्यम वर्ग के जीवन में अनिश्चितता के भाव के बढ़ने की वजह से उसकी चेतना पर असर पड़ रहा है?
आशीष नन्दी : एकदम यही बात है। मध्यम वर्ग आसपास घट रही चीजों की कोई समझ नहीं रखता। उदाहरण के लिए पंजाब को लीजिए। वहाँ क्या हुआ? पंजाब देश की ड्रग राजधानी अनायास ही नहीं बन गया। पंजाब के बाहर लोग आज भी सोचते हैं कि वहाँ हरित क्रांति चल रही है। लेकिन वास्तव में पंजाब के किसान अपनी जमीन ऊँचे दामों में बेचकर अपने बच्चों को ऑस्ट्रेलिया जैसे देशों में पढ़ने के लिए भेज रहे हैं।
एजाज अशरफ : उनके बर्ताव में बदलाव क्या दर्शाता है?
आशीष नन्दी : आधुनिक हो रहे समाजों में किसान बर्बाद हो रहे हैं। ऐसे समाज में एक अलिखित नियम है कि कृषि पर निर्भर लोग कम होते जाएँगे। पहले यह विचार था कि भारत को आधुनिक बनना चाहिए लेकिन इससे बेदखली नहीं होनी चाहिए और यदि आधुनिकरण की प्रक्रिया में कृषि पर निर्भर लोग कम होते हैं तो यह ठीक है।
1995 से आज तक तीन लाख किसानों ने आत्महत्या की है। शायद जापान को एक अपवाद माना जा सकता है लेकिन अन्य किसी सभ्य समाज में यह असहनीय बात होती। धनी देशों में जापान में सबसे अधिक आत्महत्या दर है। हर जगह एक तरह का अलगाव है।
एजाज अशरफ : बीजेपी ने भोपाल से साध्वी प्रज्ञा को लोकसभा का उम्मीदवार बनाया था इस बारे में आप क्या सोचते हैं?
आशीष नन्दी : यह बीजेपी के आत्मविश्वास का प्रतीक है कि उसे अब इस बात का डर नहीं है कि वह क्या बोलती है। उसने मतदाताओं को विश्वास में ले लिया है।
एजाज अशरफ : बीजेपी की जीत से यह सन्देश जाता है कि उसका दावा सही है।
आशीष नन्दी : जी हाँ इस पर कोई सन्देह नहीं। बीजेपी को अब एकमात्र डर न्यायपालिका से है।
(एजाज अशरफ दिल्ली में पत्रकार हैं। कारवाँ हिन्दी वेब से साभार)
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- सरकार, न्यायपालिका, सेना की आलोचना करना राजद्रोह नहीं 15 Oct, 2019
- सरकारी विभागों में ठेका कर्मियों का उत्पीड़न 15 Aug, 2018
- हम इस फर्जी राष्ट्रवाद के सामने नहीं झुकेंगे 13 Apr, 2022
- हाथरस की भगदड़ में मौत का जिम्मेदार कौन 13 Sep, 2024
- हुकुम, बताओ क्या कहूँ जो आपको चोट न लगे। 13 Apr, 2022
कहानी
- जामुन का पेड़ 8 Feb, 2020
- पानीपत की चैथी लड़ाई 16 Nov, 2021
- माटी वाली 17 Feb, 2023
- समझौता 13 Sep, 2024
विचार-विमर्श
- अतीत और वर्तमान में महामारियों ने बड़े निगमों के उदय को कैसे बढ़ावा दिया है? 23 Sep, 2020
- अस्तित्व बनाम अस्मिता 14 Mar, 2019
- क्या है जो सभी मेहनतकशों में एक समान है? 23 Sep, 2020
- क्रान्तिकारी विरासत और हमारा समय 13 Sep, 2024
- दिल्ली सरकार की ‘स्कूल्स ऑफ स्पेशलाइज्ड एक्सलेंस’ की योजना : एक रिपोर्ट! 16 Nov, 2021
- धर्म की आड़ 17 Nov, 2023
- पलायन मजा या सजा 20 Aug, 2022
- राजनीति में आँधियाँ और लोकतंत्र 14 Jun, 2019
- लीबिया की सच्चाई छिपाता मीडिया 17 Nov, 2023
- लोकतंत्र के पुरोधाओं ने लोकतंत्र के बारे में क्या कहा था? 23 Sep, 2020
- विकास की निरन्तरता में–– गुरबख्श सिंह मोंगा 19 Jun, 2023
- विश्व चैम्पियनशिप में पदक विजेता महिला पहलवान विनेश फोगाट से बातचीत 19 Jun, 2023
- सरकार और न्यायपालिका : सम्बन्धों की प्रकृति क्या है और इसे कैसे विकसित होना चाहिए 15 Aug, 2018
श्रद्धांजलि
कविता
- अपने लोगों के लिए 6 May, 2024
- कितने और ल्हासा होंगे 23 Sep, 2020
- चल पड़ा है शहर कुछ गाँवों की राह 23 Sep, 2020
- बच्चे काम पर जा रहे हैं 19 Jun, 2023
अन्तरराष्ट्रीय
- अमरीका बनाम चीन : क्या यह एक नये शीत युद्ध की शुरुआत है 23 Sep, 2020
- इजराइल का क्रिस्टालनाख्त नरसंहार 17 Nov, 2023
- क्या लोकतन्त्र का लबादा ओढ़े अमरीका तानाशाही में बदल गया है? 14 Dec, 2018
- पश्चिम एशिया में निर्णायक मोड़ 15 Aug, 2018
- प्रतिबन्धों का मास्को पर कुछ असर नहीं पड़ा है, जबकि यूरोप 4 सरकारें गँवा चुका है: ओरबान 20 Aug, 2022
- बोलीविया में तख्तापलट : एक परिप्रेक्ष्य 8 Feb, 2020
- भारत–इजराइल साझेदारी को मिली एक वैचारिक कड़ी 15 Oct, 2019
- भोजन, खेती और अफ्रीका : बिल गेट्स को एक खुला खत 17 Feb, 2023
- महामारी के बावजूद 2020 में वैश्विक सामरिक खर्च में भारी उछाल 21 Jun, 2021
- लातिन अमरीका के मूलनिवासियों, अफ्रीकी मूल के लोगों और लातिन अमरीकी संगठनों का आह्वान 10 Jun, 2020
- सउ़दी अरब की साम्राज्यवादी विरासत 16 Nov, 2021
- ‘जल नस्लभेद’ : इजराइल कैसे गाजा पट्टी में पानी को हथियार बनाता है 17 Nov, 2023
राजनीतिक अर्थशास्त्र
साक्षात्कार
- कम कहना ही बहुत ज्यादा है : एडुआर्डो गैलियानो 20 Aug, 2022
- चे ग्वेरा की बेटी अलेदा ग्वेरा का साक्षात्कार 14 Dec, 2018
- फैज अहमद फैज के नजरिये से कश्मीर समस्या का हल 15 Oct, 2019
- भारत के एक बड़े हिस्से में मर्दवादी विचार हावी 15 Jul, 2019
अवर्गीकृत
- एक अकादमिक अवधारणा 20 Aug, 2022
- डीएचएफएल घोटाला : नवउदारवाद की एक और झलक 14 Mar, 2019
- फिदेल कास्त्रो सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यवस्था के हिमायती 10 Jun, 2020
- बायोमेडिकल रिसर्च 14 Jan, 2021
- भाषा और साहित्य के क्षेत्र में भारत को मुसलमानों का महान स्थायी योगदान 23 Sep, 2020
- सर्वोच्च न्यायलय द्वारा याचिकाकर्ता को दण्डित करना, अन्यायपूर्ण है. यह राज्य पर सवाल उठाने वालों के लिए भयावह संकेत है 20 Aug, 2022
जीवन और कर्म
मीडिया
- मीडिया का असली चेहरा 15 Mar, 2019
फिल्म समीक्षा
- समाज की परतें उघाड़ने वाली फिल्म ‘आर्टिकल 15’ 15 Jul, 2019