“औरतें जब भी आवाज उठाती हैं, सत्ता का निशाना बन जाती हैं।”

इस बातचीत में पहलवान विनेश फोगाट ने यौन उत्पीडन के आरोप को लेकर डब्लूएफआई के अध्यक्ष बृजभूषण शरण सिंह के खिलाफ विरोध प्रदर्शन के लिए साहस जुटाने और खिलाड़ियों की ओर से समर्थन में कमी के बारे में बात की है। सत्र को सह–सम्पादक निखिल कोशी ने संयोजित किया है।

निखिल कोशी–– तीन महीने पहले ही, जनवरी में आप जन्तर–मन्तर पर धरने पर बैठी थीं। और अब फिर से वापस आ गयी हैं। इन तीन महीनों में इस देश में खेलों को संचालित करने वाले लोगों के बारे में आपकी धारणाओं में क्या बदलाव आया है?

विनेश फोगाट–– खेल मन्त्री और सरकार खिलाड़ियों के लिए कुछ अच्छा तो कर ही रहे हैं। इस बात से मैं सहमत हूँ कि इस मद में खर्च की रकम बढ़ायी गयी है और जरूरी सुविधाएँ भी कुछ बेहतर हुई हैं। लेकिन उनकी नजरों में खिलाड़ियों की इज्जत वैसी ही है (पहले जैसी)। जब हमें मेडल मिलता है तो वे हमारे साथ फोटो खिंचवाते हैं और दिखाते हैं कि उन्हें हम पर कितना गर्व है लेकिन सच्चाई कुछ और ही है। और औरतों की बात करें तो उनकी मुश्किलें और ज्यादा हैं।

व्यवस्था से जुड़े लोग हैरत में हैं कि कोई औरत व्यवस्था के खिलाफ इतना ज्यादा कैसे बोल सकती है। जब औरतें व्यवस्था के खिलाफ बोलती हैं तो उन्हें अच्छा नहीं लगता। जब दूसरे खिलाड़ी आवाज उठाते हैं और उन मुद्दों पर सुनवाई वगैरा होती है तो उन्हें कोई खास दिक्कत नहीं होती है। लेकिन जब भी औरतें आवाज उठाती हैं तो सबसे पहले उन्हीं को निशाना बनाया जाता है। वे पूछते हैं कि व्यवस्था के खिलाफ बोलने की हमारी हिम्मत कैसे हुई।

वे कहते कुछ हैं और उनके दिल में कुछ और होता है। सबके सामने कुछ और ही दिखाते हैं। पहले हमारे साथ जैसा बर्ताव किया जाता था, अब भी वैसा ही है। इस मामले में कोई बदलाव नहीं हुआ है।

निखिल कोशी–– पीड़ित खिलाड़ियों और आपके लिए इस मुद्दे पर ऐसा कदम उठाना कितना कठिन था?

विनेश फोगाट–– लड़कियों के परिवारों को समझाना, खुद को और अपने आस–पास के लोगों को यह समझाना मुश्किल था कि हमने लड़ाई शुरू कर दी है और इसे जारी रखना पड़ेगा। हम डरे हुए भी थे। हमें पुलिस से डर लगता है। जब पहले दिन हम लोग सभी लड़कियों को इकट्ठा करके शिकायत दर्ज कराने थाने गये तो हमें डर लग रहा था क्योंकि इससे पहले हमने पुलिस का सामना नहीं किया था।

हमारे परिवार के कुछ लोग पुलिस में जरूर हैं लेकिन ऐसी स्थिति में हमने कभी पुलिस का सामना नहीं किया था। हमें पता ही नहीं था कि थाने में पुलिसवाले कैसे बात करते हैं या कैसा बर्ताव करते हैं।

मन्त्रालय ने हमसे और ज्यादा समय माँगा और कहा कि वे अपनी जाँच–पड़ताल के बाद स्थिति के अनुसार खुद एफआईआर दर्ज करवाएँगे। उन्होंने हमें बिलकुल चिन्ता नहीं करने को कहा और यह कि वे सब कुछ सम्भाल लेंगे। अब हमें लगता है कि हमें इन्तजार किये बिना उसी समय एफआईआर दर्ज करवानी चाहिए थी।

दरअसल उस वक्त हम लोगों में इतनी हिम्मत भी नहीं थी कि एफआईआर दर्ज करा दें क्योंकि हम सोच रहे थे कि इसके बाद क्या होगा, यही सब हमें किस–किस को समझाना पड़ेगा। कभी–कभार मीडिया भी तो घटनाओं के बारे में और उनके सबूत माँगकर पीड़ित को परेशान करता है।

परिवार भी डरे हुए थे, यह सोचकर कि उनके बच्चे खुलेआम यह सब क्या बोलने लगे हैं।

हम तिलमिला गये थे और हमने यह लड़ाई छेड़ दी। यह भी मन में आया कि व्यवस्था से टकराकर हमने ठीक नहीं किया। इस सबसे नजरें फेरकर हम मजे से पहलवानी जारी रख सकते थे। मेरा मतलब है मैं चार–पाँच साल और खेल सकती हूँ। मैं पेरिस ओलम्पिक में जरूर खेलूँगी। मेरे परिवार के लोग एक ओलम्पिक पदक के लिए बेताब हैं। उससे ठीक पहले हम विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं। इस तरह के हालात हमारे सामने थे, लेकिन कहीं से हमें हिम्मत मिली। इन्साफ की आग बुझती नहीं है।

हमें पता है कि कहीं से तो हमें समर्थन मिलेगा ही। भगवान इतना भी पत्थर–दिल नहीं है कि हमें इतना लड़ते और संघर्ष करते हुए देखे और फिर हमें ही सजा दे।

निखिल कोशी–– अब एफआईआर दर्ज कराने की क्या मजबूरी थी?

विनेश फोगाट–– सच कहूँ तो एफआईआर दर्ज कराने की हमें हिम्मत नहीं थी। और हम जिनके खिलाफ लड़ रहे हैं उन्हें भी उम्मीद नहीं थी कि हम एफआईआर करायेंगें। उन्होंने सोचा था कि अगर हम वाकई ऐसा करना चाहते तो उसी समय एफआईआर करवा देते। उन्हें पता है कि महिला खिलाड़ी होने के चलते, कितनी परेशानी उठानी पड़ेगी या शायद जान–बूझकर इसे अनदेखा कर रहे थे। वे हमारी मजबूरी का फायदा उठा रहे थे। उन्हें पता था कि हम डरे हुए भी हैं और लोगों की इज्जत भी करते हैं।

एफआईआर दर्ज करवाने के बाद तो ऐसा मानो कि हम ही लोगों को बता रहे हैं कि हम सच बोल रहे हैं और हमने कुछ गलत नहीं किया है। इतना समर्थन मिलना वाकई खुशी की बात है। पहले हमने छोटी–छोटी चीजों के लिए लड़ाई की है लेकिन इतने बड़े मामले को लेकर नहीं लड़े। मैं भगवान को मानती हूँ और यह कि हर चीज के बारे में उसकी कोई योजना होती है। हम इतना संघर्ष कर चुके हैं और वह इसे बेकार नहीं जाने देगा। सबका मालिक वही है। उसके काम हमारे जरिये ही होते हैं।

मिहिर वसवदा–– आप अपने कैरियर को आराम से पूरा कर सकती थीं, ओलम्पिक जा सकती थीं। अध्यक्ष के रूप में बृजभूषण का समय भी खत्म होने ही वाला था। ऐसे समय पर यह लड़ाई छेड़ने के पीछे क्या सोच थी?

विनेश फोगाट–– दरअसल अभ्यास या प्रतियोगिताओं में बृजभूषण मौजूद रहता था और वह ऐसे कहा करता था कि ‘मैं पहलवानी में अभी 20 साल और रहूँगा।’ हमने सोचा अगर ये 20 साल और रहा तो जो चल रहा है वह रुकनेवाला नहीं है। पहलवानी में इतने लोग आयेंगे और वह यहीं मौजूद होगा। मेरे परिवार में भी लड़कियाँ पहलवानी की तैयारी कर रही हैं और वे जब यहाँ तक पहुँचेंगी तब भी बृजभूषण यहीं रहेगा। हमने किसी तरह झेल लिया और हिम्मत करके यहाँ तक पहुँच गये। लेकिन अगर नयी पहलवान उस स्तर तक पहुँच ही न पायें जहाँ से उनकी आवाज सुनाई दे, तो? यही बात सता रही थी कि वह शख्स अब भी बहुत साल यहीं रहेगा। इसे वह अपनी जागीर मानता है और सबको अपने पैरों तले कुचल देगा। वह जो चाहेगा, करेगा।

मिहिर वसवदा–– कुश्ती महासंघ के अधिकारियों से निपटना कितना मुश्किल था?

विनेश फोगाट–– मैं इसे कैसे समझाऊँ? मान लीजिये मुझे राष्ट्रीय शिविर में जाने में थोड़ी देर होगी। उसके लिए आपको (सहायक सचिव विनोद) तोमर को कॉल करना पड़ेगा। तोमर नेता (बृजभूषण) से पूछेगा, फिर मुझे मुख्य कोच को पूछना पड़ेगा। वह एक प्रार्थना–पत्र लिखने के लिए कहेगा जबकि कुछ भी उसके हाथ में नहीं है। उसके बाद अगले दिन तोमर फोन उठाना बन्द कर देगा। अगर वह मुझसे नाराज है तो शो कॉज नोटिस थमा देगा।

अगर मेरे परिवार को हरियाणा सरकार से कोई नकद पुरस्कार लेने के लिए सर्टिफिकेट पर संघ के अधिकारियों का दस्तखत चाहिए तो अगर मैं मौजूद नहीं हूँ तो वे दस्तखत नहीं करेंगे और कहेंगे कि खिलाड़ी खुद आकर करवाये। छोटी–छोटी चीजों के लिए चक्कर कटवाएँगे। वे बहुत ही बुरा बर्ताव करेंगे और नेता का नाम लेकर धमकी देंगे। उनका बर्ताव वाकई बहुत भद्दा था। यहाँ तक कि जो वहाँ चाय बेचता है उनका रवैया भी ऐसा है कि ‘क्या है तू? मैं ही यहाँ सब कुछ हूँ।’ हमें पानी पिलाने वाले लड़के का रवैया भी ऐसा ही है।

किसी भी प्रतियोगिता में भाग लेने के लिए जाने वाले खिलाड़ियों से बर्ताव और हमें मिलने वाली सुविधाएँ बहुत घटिया किस्म की हैं। हम उन्हें मेल करते थे कि हमें दो दिन पहले फिजियो के पास भेज दिया जाये क्योंकि उसकी सख्त जरूरत है या बढ़िया कोच दिया जाये। ऐसा नहीं है कि हम 50 साल की उम्र तक पहलवानी करेंगे। हमारे पास खिलाड़ी के तौर पर बहुत कम समय होता है। इसका आधा हिस्सा तो अनुभव हासिल करने में निकल जाता है और जब हम अनुभवी खिलाड़ी हो जाते हैं तो ये लोग बिलकुल मदद नहीं करते। प्रशिक्षण या प्रतियोगिता के बजाय हम इनसे निपटने में ज्यादा थक जाते हैं। उनकी नजर में खिलाड़ियों की कोई कीमत नहीं है।

मिहिर वसवदा–– आपने कुश्ती महासंघ, खेल मंत्रालय और स्पोर्ट्स अथॉरिटी ऑफ इण्डिया के बारे में बहुत टिप्पणी की है। अगर इस समस्या का समाधान आपकी सन्तुष्टि लायक हो जाये तो चोटी की प्रतियोगिताओं में हिस्सेदारी करना आपके लिए कितना आसान या मुश्किल होगा?

विनेश फोगाट–– बहुत कठिन सवाल है। हम सोच रहे हैं कि भविष्य में क्या स्थिति बन सकती है। लेकिन अब शेर के मुँह में हाथ डाल ही दिया है तो क्या डरना! अगर हम कुछ भी न कहें, तो भी निशाने पर रहँगे, और अगर हमने मुँह खोला तो हमारे साथ कुछ भी बुरा हो सकता है। इसलिए आवाज उठायी जाये और जो भी नतीजा हो उसका सामना किया जाये।

हमें पता है कि अगर हम जीत भी गये तो भी मुश्किलों का सामना करना पड़ेगा। अपने कैरियर में ही नहीं, उसके बाद भी। खेल की दुनिया और खिलाडियों की बिरादरी से हमारे नाम और कामयाबियों को मिटाने की कोशिश की जायेगी। लेकिन हम उन लोगों और उनकी बातों से क्यों घबरायें जिन्होंने जिन्दगी में कुछ भी हासिल नहीं किया। अगर हमने मैडल जीता है तो इतिहास में दर्ज हो गया है। उसे कोई नहीं मिटा सकता।

शिवानी नाइक–– कुश्ती में अथोरिटी के लोगों की इज्जत करने, उनकी हर बात पर गौर करने और उसे मानने की संस्कृति है। क्या इस संस्कृति का दुरुपयोग किया गया है?

विनेश फोगाट–– जब बृजभूषण कुश्ती में नया था तो किसी भी अच्छे और उभरते हुए पहलवान की इज्जत करता था। लेकिन जैसे ही उसने अपने पैर जमा लिये तो अपना असली रंग दिखाने लगा। अगर कुछ पहलवान अच्छे दोस्त हैं और साथ मिलकर अच्छी तरह ट्रेनिंग लेते हैं तो वह अपना आदमी भेजकर उनके बीच फूट डाल देगा। वह फूट डालो और राज करो नीति पर ही चलता है।

ज्यादातर पहलवान हरियाणा, पंजाब और महाराष्ट्र से आते हैं और इज्जत के मामले में सबसे आगे हैं। बृजभूषण ने इस चीज का गलत फायदा उठाया है। मैं तो खिलाड़ियों को भी इसके लिए जिम्मेदार कहूँगी क्योंकि हम इस बात पर इतने समय तक चुप रहे और सहते रहें। अगर हमने पहले ही इन मामलों में लक्ष्मणरेखा खींच दी होती तो चीजें यहाँ तक नहीं पहुँचती। पूरी व्यवस्था के खिलाफ जाकर ऐसी रेखा खींचने में खिलाड़ियों को बहुत मुश्किलों का सामना करना पड़ेगा। कोई एक बृजभूषण तो है नहीं, सैकड़ों हैं। इतनों के खिलाफ हम कैसे लड़ेंगे? लेकिन एक को सही ढंग से निबटा लेंगे तो अपने आप में बहुत बड़ी बात होगी।

सन्दीप द्विवेदी–– ओलम्पिक या विश्व–चैम्पियनशिप में पदक जीतने के लिए जिन्दगीभर की मेहनत लगती है। किसी सम्भावित खिलाड़ी को पता भी नहीं होगा कि इन दूसरी तरह की परेशानियों से कैसे निपटना है। आप उन्हें क्या कहना चाहेंगी?

विनेश फोगाट–– इस कठिन सफर की कीमत सिर्फ खिलाड़ी और उनके परिवार ही जानते हैं। सबसे मुश्किल खेलों में गरीब परिवारों के बच्चे आते हैं जिन्हें अभाव और कठिनाइयों की आदत होती है। वे जानते हैं कि उनके पास कुछ नहीं है इसलिए जबरदस्त मेहनत के अलावा उनके पास कोई और रास्ता नहीं होता। उनके पास कोई ‘प्लान बी’ नहीं होता है। उन्हें बस इतना पता है कि आगे बढ़ना है।

पहलवानी और दूसरे खेलों में लोगों की दिलचस्पी बढ़ रही है। खासकर हरियाणा में लोग जमीन बेचकर अपने बच्चों की ट्रेनिंग, सही खुराक और प्रतियोगिता में भाग लेने का इन्तजाम करते हैं। उनके बच्चे स्वस्थ और फिट रहें। इसके लिए माँ–बाप अपने बच्चों के साथ जागते रहते हैं। बच्चों के साथ प्रतियोगिताओं में जाने के लिए पैसा बचाते हैं। अगर उनके पास पैसे न हों तो यह सोचकर उधार ले लेते हैं कि कुछ दिनों में लौटा देंगे। इस उम्मीद में वे सब कुछ दाँव पर लगा देते हैं कि एक दिन उनका बच्चा बड़ा खिलाड़ी बन जायेगा, फिर उनके पास सब कुछ होगा–– पैसा, इज्जत और सामाजिक पहचान।

यह सब सोचते हुए हमने सोचा कि अगर हम जीत भी गये तो इस लड़ाई से क्या हासिल होगा। हमारा भविष्य क्या होगा? हम जान गये थे कि हम लड़ें या न लड़ें हमें झेलना ही पड़ेगा। फिर हमने यह भी सोचा कि अगर हम लड़ें और जीत जायें तो हम कुछ बेहतर कर सकते हैं। लेकिन अगर हम नहीं लड़ते तो ताउम्र अफसोस रहता कि हमने कोशिश तक नहीं की।

सन्दीप द्विवेदी–– इसे जारी रखने की हिम्मत आपको कहाँ से मिलती है?

विनेश फोगाट–– हमें नहीं पता इतनी हिम्मत कहाँ से मिल रही है। मुझे यह भी नहीं पता कि हम वास्तव में नार्मल हैं या नार्मल होने का दिखावा कर रहे हैं। हमने किसी भी चीज की चिन्ता करना छोड़ दिया है। हमें नहीं पता जो रास्ता हमने चुना है वह हमें कहाँ ले जायेगा, इसमें इतनी सारी बाधाएँ हैं। हम एक बाधा को हटाते हैं तो कोई दूसरी आ जाती है।

लेकिन, हाँ, अगर सारे खिलाड़ी एकजुट हो जायें, अपनी ताकत इकट्ठी कर लें कि हमें लड़ना ही है तो कोई भी किसी खिलाड़ी का कुछ नहीं बिगाड़ सकता। सिर्फ पहलवान नहीं, बल्कि सभी खिलाड़ी।

पूरा देश क्रिकेट के पीछे पागल है लेकिन एक भी क्रिकेटर ने मुँह नहीं खोला है। हम यह नहीं कहते कि आप हमारे समर्थन में कुछ कहें लेकिन एक निष्पक्ष सन्देश तो दे ही सकते हैं और कह सकते हैं कि पीड़ित चाहे जो भी हो उसे न्याय मिलना चाहिए। इसी बात का मुझे दुख है।

हर खेल महासंघ में समस्याएँ हैं और बहुत से (दूसरे क्षेत्र के) खिलाड़ी मेरे दोस्त भी हैं। लेकिन ऐसा दिखावा नहीं होना चाहिए। मैं उनके मैच देखने जाती हूँ, वे मेरे मैच देखने आते हैं, हम एक साथ फोटो भी खिचवाते हैं, पदक जीतने पर एक–दूसरे को बधाई भी देते हैं। “आगे और ऊँचाई तक” जैसे शानदार सन्देश भी एक–दूसरे को भेजते हैं। खिलाड़ियों को सोशल मीडिया के बुलबुले से बाहर आकर सच्चाई बयान करनी चाहिए। उन्हें निजी फायदे–नुकसान से आगे बढ़कर अपने जमीर से पूछना चाहिए। हम सब इनसान हैं। किसी दिन हम भी खेलना छोड़ देंगे। हमें खेल की दुनिया से बाहर भी कोई विरासत छोड़नी चाहिए।

श्रीराम वीरा–– आपने समर्थन की कमी के बार में बात की है। कोई डर सकता है कि ‘अरे यह तो बहुत संवेदनशील मामला हैय हमें क्या पता क्या हुआ होगा, हम क्यों इसमें कूदें?’ ऐसे लोगों को आप क्या कहना चाहेंगी?

विनेश फोगाट–– वे क्या यह सोचते हैं कि हम ट्रायल से बचने या नेशनल चैंपियनशिप में हिस्सा न लेने के लिए यह सब करेंगे? हम इन आरोपों को हल्के में नहीं लेते हैं। इतनी आम समझ तो उनकी होनी ही चाहिए। अगर आप व्यवस्था के खिलाफ आवाज नहीं उठा सकते हैं––– अगर यह वाकई इतना छोटा मुद्दा होता तो हम यह लड़ाई लड़ते ही क्यों जिससे हम केवल जिन्दगी भर की दुश्मनी कमाएँगे?

लोग कहते हैं पहलवानों का दिमाग घुटनों में होता है। लेकिन मैं कहूँगी कि हमारा दिल, दिमाग सब सही जगह पर है। दूसरे खिलाड़ियों को टटोलना चाहिए उनका दिमाग कहाँ है। दिल तो उनके पास है ही नहीं।

ऐसे संघर्ष के समय अगर हम उनके समर्थन के काबिल नहीं हैं तो, भगवान करे, कल अगर हम कोई मैडल जीत जायें, और हम इसके लिए पूरी मेहनत करेंगे, तो वे हमें बधाई देने न आयें। तब यह न कहें कि हमारी काबलियत पर आपको भरोसा था, क्योंकि आपको भरोसा नहीं था, इसलिए आज आप हम पर शक कर रहे हैं।

श्रीराम वीरा–– क्या आप अपनी हिम्मत के बारे में कुछ कहेंगी? यह कहाँ से आती है?

विनेश फोगाट–– मेरी माँ से। हमारा रिश्ता दोस्तों से भी मजबूत है। हम एक–दूसरे से सब कुछ साझा करती हैं। वह सिर्फ 32 साल की उम्र में विधवा हो गयी थी। यह सोचकर मुझे दु:ख होता है। उसने हमारे लिए संघर्ष किया। उस संघर्ष में हमें पता ही नहीं चला कब बड़े हो गये। उस अकेली औरत को लोग ताना मारते थे, ऐसा था लोगों का बर्ताव। मेरे पिताजी की मौत से पहले मेरी माँ ने कभी घर के बाहर कदम भी नहीं रखा। उन्हें आटे–चावल का भाव भी नहीं पता था, अचानक कयामत आ पड़ी थी।

उसके बाद उन्हें कैंसर हो गया, और कीमोथेरेपी के लिए रोहतक जाना पड़ने लगा। वो, बिलकुल अनपढ़, उसे यह नहीं पता था कि कहाँ से (बस में) बैठना है, कहाँ उतरना है। किसी ने उसकी मदद नहीं की। हम उसका संघर्ष देखते–देखते बड़े हुए हैं। एक ऐसी अनपढ़ औरत अगर समाज से अकेली लड़कर हमें पहलवान बना सकती हैं तो हम भी लड़ सकते हैं। अगर आज हमने आवाज नहीं उठायी तो मेरी माँ का सारा संघर्ष बेकार जायेगा। मैंने मैडल जीत लिये, ठीक है, लेकिन अगर हम यह लड़ाई जीत गये तो वह फख्र से कहेगी कि “इन्हें मैंने जन्म दिया है”।

मुझे इस बात का फख्र है कि मेरी माँ ने इतनी हिम्मत और मजबूती से काम लिया था। लगता है वह बात मुझ में भी है। मेरे पिताजी भी ऐसे ही थे। मैं भी वैसी हूँ। मैं सीधी–सपाट बात करती हूँ, जो मन में आये।

इसे भी बहुत बार गलत समझा गया है। कईयों को लगता है, ‘अरे यह तो मुँहफट है’, लेकिन उन्हें मैं क्या ही कहूँ! मैं तो अपने दिल की कहती हूँ। जो अन्दर है वही बाहर आ जाता है। किसी को सही लगे या न लगे, बाकी अपने काम से काम रखें (हँसते हुए)।

(इंडियन एक्सप्रेस से साभार, अनुवाद – अमित इकबाल)