राजनीति में आँधियाँ और लोकतंत्र
विचार-विमर्श–– आनन्द कुमार पाण्डेय
पिछली रात की आँधी के बाद घर बिखरा पड़ा है। जो सामान अपनी जगह होना चाहिए, वहाँ नहीं है। पड़ोसी की चादर मेरे घर में है और मेरे कपड़े सड़क पर। आँधियाँ ऐसी ही होती हैं। सुबह जो धूल हम बाहर फंेकते हैं, रात में आँधी के साथ उससे ज्यादा घर के भीतर आ जाती है। मैं इन्हें रोक नहीं सकता, लेकिन उनके जाने के बाद बद्दुआ दे सकता हूँ। इसी आँधी में कहीं से उड़कर अखबार का एक पन्ना भी आया है। वैसे देश में अखबार हो या उसको लिखने–छापने वाले, वे हल्के से झोंके में उड़ जाते हैं। एक बार मित्र से मेरी शर्त लगी। उसने कहा, “अखबार से हल्के उनके सम्पादक हैं।” मैंने कहा, “नहीं। चैथा खम्बा हल्का नहीं हो सकता। लोकतंत्र बैठ जायेगा। विकलांगों की तिपहिया होती है। चैथे खम्भे के बिना लोकतंत्र विकलांग हो जायेगा। अखबार और उसके सम्पादक को ठोस होना चाहिए।” मित्र अडिग रहा। उसने कहा, “पहले तो लोकतंत्र को चैपाया नहीं होना था। इसे दो पैरों पर खड़ा होना था। चारों पायों में एक पाया बहुत हल्का है बाकी तीन जरूरत से ज्यादा भारी।” देखने में विचित्र लगता है। अखबार और प्रेस वाले बाकी तीन पैरों के नीचे चले जा रहे है। उसकी लुगदी बन रही है। इन सम्पादकों को मालिकों ने चारागाह में खुला छोड़ने की जगह नाद के सामने बाँध दिया है। वे मालिक का चारा खाते हैं और उसे दूध देते हैं। गोबर हम सबेरे अखबार में पढ़ लेते हैं। मेरा एक पड़ोसी अखबार रोज लेता है। पढ़ता कम है, छोटे बच्चे की गन्दगी ज्यादा साफ करता है। यह विरोधाभासों की लय है।
उड़कर आये अखबार में देखता हूँ, सोनिया गाँधी की लड़की प्रियंका गाँधी की फोटो है। नीचे लिखा है–– यह राजनीति की नयी आँधी है। मैं घबरा गया। पीछे लौटकर देखता हूँ। हमारी राजनीति कितनी ही आँधियों से पटी है। इन्हीं आँधियों ने देश की यह दशा की है। भारतीय राजनीति की पहली प्रतिष्ठित आँधी नि:सन्देह इन्दिरा गाँधी ही थी। हमने खुद भीड़ के साथ खड़े होकर नारे लगाये थे। उस आँधी में सब हिलने लगा था। लोकतंत्र के दरवाजे तथा चूलें सभी हिल गयीं। हमने इस आँधी के सामने जे पी को तूफान बनाकर खड़ा किया। आँधी–तूफान से हमारी जिन्दगी धूल से तरबतर हो गयी। तूफान के डर से आँधी की ओर फिर लौटना पड़ा।
सभ्यताओं की इसलिए खुदाई करनी पड़ती है कि वे टनों मिट्टी के नीचे दब जाती हैं। यह आँधी तूफान का ही नतीजा है। कुछेक साल पहले हमने अन्ना हजारे वाली आँधी भी झेली। हमने उस समय भी नारे लगाये थे, ‘अन्ना नहीं आँधी है, देश का दूसरा गाँधी है।’ इस दूसरे गाँधी ने अपना जवाहर पैदा किया। केजरीवाल अन्ना हजारे के जवाहरलाल नेहरू साबित हुए। इस जवाहरलाल ने दूसरे गाँधी को ठेगा दिखाया। गुरू ने कहा, ‘मुझे पहले से मालूम था। मैंने ठेंगा दिखाना ही सिखाया था। यह मेरा सच्चा शिष्य है।’ फिर अन्ना हजारे हम लोगों को ठेगा दिखाकर चले गये। लोकपाल का आन्दोलन उस लड़की के समान ही था, जिसे दूल्हा मण्डप में यह कहकर छोड़ गया हो कि लड़की बदल दी गयी है।
सरकार कहती है कि हमने चूहे पकड़ने के लिए चूहेदानियाँ रखी हैं। एकाध चूहेदानी की हमने भी जाँच की। उसमें घुसने के छेद से बड़ा छेद पीछे से निकलने के लिए है। चूहा इधर फँसता है और उधर से निकल जाता है। पिंजडे बनाने वाले और चूहे पकड़ने वाले चूहों से मिले हैं। वे इधर हमें पिंजडा दिखाते हैं और चूहे को छेद दिखा देते हैं। हमारे माथे पर सिर्फ चूहेदानी का खर्च चढ़ रहा है। –– हरिशंकर परसाई |
अचानक सुनने में आया कि अन्ना फिर आन्दोलन करेंगे। उसके पहले वे महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री से मिल आये। पूछा, “आपके पास मेरा अनशन तुड़वाने का टाइम कब है? पिछली बार केजरीवाल ने फँसा दिया था। पहले अनशन तोड़ने की तारीख तय कर लें, फिर अनशन करूँगा। मैं मरना नहीं चाहता।” फिर उन्होंने अनशन किया, दो दिन बाद महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री फड़नवीस ने जूस पिलाकर अनशन तुड़वा दिया। अन्ना की आँधी वयोवृद्ध आँधी है, थम–थम कर चलती है। यह आँधी खुद को नुकसान पहुँचने से डर जाती है, खाट पर पड़े–पड़े दूसरों का मुँह देखती है। दूसरों को लगता है कि अनशन पर है। जबकि बुढ़ापे के कारण उसे भूख ही कम लगती है। यह भ्रमित करने वाली आँधी थी और हम दूसरी तीसरी आजादी का नारा लगा रहे थे।
हाँ तो हम रात की आँधी को कोस ही रहे थे कि एक नयी आँधी की सूचना मिली, “प्रियंका नहीं आँधी है, दूसरी इन्दिरा गाँधी है।” इन्दिरा वाली आँधी से एक पूरी पीढ़ी सदमें में थी। नयी आँधी भय पैदा कर रही है। उन्हीं अखबारवालों ने बताया कि लगता है इन्दिरा की राजनीति में वापसी हो रही है। वैसे ही बाल और वही मुस्कान। मुझे मुस्कान में आपातकाल की याद आ रही है। बंगाल के राज्यपाल सिद्धार्थ शंकर रे चले आ रहे हैं और इन्दिरा के कान में कुछ कह रहे हैं। तब इन्हीं अखबारों ने समाचार दिया था कि बंगाल और बिहार से हजारों नौजवान लापता हो गये हैं।
राजनीतिज्ञों की मुस्कान हमेशा स्वागत करने योग्य नहीं होती। वह डर भी पैदा करती है। आँधियाँ कभी फायदा नहीं पहुँचाती हैं। प्रियंका गाँधी के पति ने कहा कि वह बहुत अच्छी पत्नी और बढ़िया माँ है। अब देश को उनकी जरूरत है। हम कहते हैं कि अभी बच्चों को अपनी माँ की जरूरत है। आपका भी सीबीआई और ईडी में आना जाना लगा हुआ है। हमें इस आँधी की अभी जरूरत नहीं है। अलबत्ता राजनीति में प्रियंका का आना आपकी मजबूरी अधिक लग रही है।
देश अभी एक अन्धड़ को झेल रहा है, जिसने आँखों में धूल और मुँह में गर्द जमा दी है। कुछ देखते और बोलते नहीं बन रहा। देश को अभी इससे उबरना है। घर–आँगन धूल और गन्दगी से अटा पड़ा है। सत्ता सम्भालते ही मोदी ने पुरानी संस्कृति बदलने की बात की। उन्होंने कहा, “अब कांग्रेसी संस्कृति नहीं चलने वाली। वायदे और भ्रष्टाचार पुराने दिनों की बात होंगे और रामराज्य आने से कोई रोक नहीं पाएगा।” अगले ही दिन अखबार में प्रधानमंत्री का वक्तव्य होता है–– “रामराज्य बुरे लोगों को बर्दाश्त नहीं हो रहा।” सोचता हूँ, यह रामराज्य कब आया? रात के अन्धेरे में आया होगा। मुझे तो कहीं नहीं दिखा।
इस रामराज्य की आहट को जनता से पहले नेताओं ने पहचान लिया था। आधे से अधिक कांग्रेसी भाजपा में शामिल हो गये। उन्होंने शोर को और तेज किया कि रामराज्य आ गया। लगा, फिर आँधी आ गयी। हम अन्दाजा भी नहीं लगा पाये और रामराज्य आ गया। भीड़ गाय के खरीददारों को तस्कर समझकर पीट रही है। थाने पर धावा बोलकर थानाध्यक्ष की हत्या कर रही है, ऑक्सीजन की कमी से बच्चे मर रहे हैं और साड़ों के लिए सरकार करोड़ों का बजट दे रही है। यह रामराज्य की आँधी है। हमें छिपने की जगह नहीं मिल रही है।
कांग्रेसवाले भाजपा के मुकाबले अपनी आँधी उतार रहे हैं। हम हिम्मत बाँध रहे हैं। भगवान हमें इन आँधियों को झेलने की हिम्मत दे। हमारी सभ्यता धूल–गर्द से ढँकती जा रही है। नशेमन उजड़ रहे हैं, बागों में कोहराम है। लोकतंत्र इन आँधियों से ढहा जा रहा है। कोई हमें इन आँधियों से बचाये।
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