बेरोजगार भारत का युग
राजनीति–– माया जॉन
तथ्यों के ऐसे बहुत से सूचक मौजूद है जो भारत में रोजगार सृजन के लम्बे चैड़े वादों का खण्डन करते हैं।
रेलवे नौकरी के अभ्यर्थियों के हालिया विरोध प्रदर्शन के सामने आये दृश्यों और रिपोर्टों ने भारतीय युवाओं के बीच व्याप्त भयानक रोजगार असुरक्षा की बड़ी समस्या को उजागर कर दिया है। कोविड–19 महामारी के दौरान लगाये गये 2020–21 के लॉकडाउन के कारण हुए विशाल पलायन से पहले ही बेरोजगारी के चेतावनी भरे आँकड़े सामने आ चुके थे। महामारी से काफी पहले राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन ने 2017–18 में, 6–1 फीसदी बेरोजगारी दर चिन्हित की थी, जो कि पिछले 40 सालों में सबसे खराब थी। अप्रैल–मई 2020 के बाद के महीनों में यह तस्वीर और अधिक निराशाजनक ही साबित हुई है।
उदाहरण के लिए दिसम्बर 2021 में सेन्टर फॉर मोनिट्रिंग इण्डियन इकोनोमी (सीएमआईई) ने बताया कि करीब 5 करोड़ 30 लाख भारतीयों के पास कोई काम नहीं है, जिनमें से बड़ा हिस्सा महिलाओं का है। दिसम्बर 2021 में बेरोजगारी दर 7–9 फीसदी के आसपास मण्डरा रही थी। हालाँकि जनवरी 2022 में बेरोजगारी दर के घटने की चर्चाएँ जोरों पर रही मगर तब भी आँकड़े 6–57 फीसदी के चिंताजनक स्तर पर बने हुए थे।
दावों का भण्डाफोड़
सरकारी एजेंसियों और नीति निर्माताओं द्वारा पेश किये गये आँकड़ों और बेरोजगारी दर पर बहस हो सकती है लेकिन सबूतों के ऐसे ढेर सारे सूचक मौजूद हैं जो रोजगार सृजन के दावों का खण्डन करते हैं। ऐसा ही एक सूचक है–– पात्रता से अधिक योग्य नौजवानों में मध्य और निम्न श्रेणी की सरकारी नौकरी हासिल करने के लिए पैदा हुई इच्छा द्वारा सामने आया दबाव, जो कि अपने साधारण वेतन के बावजूद मिलने वाली रोजगार सुरक्षा के कारण उनकी पसन्द बन गयी है। जैसा कि उम्मीद थी रेलवे भर्ती बोर्ड द्वारा 35 हजार पदों के लिए निकाले गये विज्ञापन के बाद सवा करोड़ आवेदन आये। इनमें पोस्टग्रेजुएट डिग्री धारक काफी बड़ी संख्या में थे। इस परिघटना ने उन छात्रों के बीच भारी असुरक्षा पैदा कर दी जो न्यूनतम योग्यता रखते हैं लेकिन उच्च शिक्षा प्राप्त छात्रों के साथ प्रतियोगिता करने को मजबूर कर दिये गये हैं।
बहुत से जरूरी पदों के काम बाहर से करवाये जाने और ठेकेदारी प्रथा के प्रचलन से कम हो रही सरकारी नौकरियों की विभिन्न श्रेणियों में भयानक प्रतियोगिता जन्म ले चुकी है जिसकी एक मिसाल रेलवे के हालिया भर्ती विवाद में सामने आयी। जैसा कि रेलवे भर्ती बोर्ड और रेल मंत्री ने बताया कि जिस दूसरे स्तर की परीक्षा के चलते विरोध भड़क उठा, उसके छोटे से बड़े स्तर तक के पदों के आवेदकों की भारी संख्या ने बोर्ड को मजबूर कर दिया कि वह हर स्तर की परीक्षा के लिए 20 गुना अभ्यर्थियों को सूचीबद्ध करें।
इस बात से हैरानी होती है कि निम्न श्रेणी की मुट्ठी भर सरकारी नौकरियों का विज्ञापन भी बड़ी संख्या में आवेदकों को लुभाता है। सितम्बर 2021 में प्रकाशित एक खबर के अनुसार हिमाचल प्रदेश सचिवालय में चपरासी, माली आदि के 42 पदों के के लिए 18000 आवेदन आये, जिनमें से सैकड़ों डॉक्टरेट की डिग्री धारक थे और कई सारे पोस्ट ग्रेजुएट। इससे पहले मार्च 2021 में पानीपत जिला अदालत में चपरासी के 13 पदों के लिए 27000 से अधिक बीए, बीएससी, एमएससी, एमकॉम, इंजीनियरिंग जैसे डिग्री धारकों ने आवेदन किये। इसी तरह अगस्त 2018 में यूपी पुलिस में अर्दली के 62 पदों के लिए कुल 97000 आवेदन आये, जिनमें से 3700 पीएचडी डिग्री धारक और 50,000 ग्रेजुएट थे। इस पद के लिए केवल पाँचवी तक पढ़ाई और ‘साइकिल चलाने की योग्यता के लिए एक स्वघोषित प्रमाण पत्र ही चयन का मापदण्ड था।
सरकारी नौकरी के लिए इस भयानक संघर्ष का कारण निसन्देह व्यापक रोजगार असुरक्षा (भर्ती करो और निकालो की सरल प्रक्रिया), तुच्छ वेतन और काम के अधिक घण्टों में निहित है, जो कुल मिलाकर निजी क्षेत्र की नौकरियों की खासियतें हैं। ऐतिहासिक रूप से मालिक–मजदूर सम्बन्धों में बहुत थोड़े ऐसे हैं और वह भी ज्यादातर संगठित क्षेत्र से सम्बन्धित हैं जो राज्य द्वारा विनियमित हंै। हालाँकि हाल के कुछ दशकों में संगठित क्षेत्र में भी पूँजी–श्रम सम्बन्धों के राज्य द्वारा विनियमन में लगातार कमी देखने को मिली है। विनियमन की यह कमी सार्वजनिक क्षेत्र के तेजी से जारी निजीकरण के साथ जुड़ी हुई है। एक साथ घटित हो रहे ये सभी बदलाव कुशल और अकुशल श्रमिकों के बीच सामयिक बेरोजगारी को जन्म देते हैं और रोजगार बाजार में शामिल होने वाले नये लोगों के लिए बाधा खड़ी करते हैं।
काबू से बाहर होता प्रभाव
इस पूरी प्रक्रिया से कई स्तर का फर्क पैदा होता है। एक स्तर पर संगठित क्षेत्र में मालिक–मजदूर के कार्य सम्बन्धों का लगातार घटता विनियमन अतिकुशल श्रमिकों की ‘आवधिक बेरोजगारी’ को बढ़ा देता है, जिसका परिणाम असंगठित क्षेत्र के कम कुशलता के रोजगारों में भीड़ बढ़ जाने के रूप में सामने आता है। इसी तरह, भारत के रोजगार बाजार में मध्य और उच्च श्रेणी की पेशेवर नौकरियों में आवधिक बेरोजगारी बढ़ जाने का परिणाम यह निकलता है कि अधिक योग्य युवा आबादी निम्न श्रेणी की सरकारी नौकरियों की तरफ जाने को मजबूर हो जाती है।
यह प्रवृत्ति अपने आप में उन लोगों के लिए एक गहरा संकट खड़ा कर देती है जो निम्न शैक्षिक योग्यता के सहारे छोटी सरकारी नौकरियों के लिए संघर्षरत होते हैं और जिनके लिए पारम्परिक रूप से माना जाता है कि वे ऐसी नौकरियाँ ही करेंगे।
शिक्षा, स्वास्थ्य सहित अन्य सभी सामाजिक क्षेत्रों में राज्य द्वारा किया जाने वाला खर्च घटने से रोजगार कम पैदा हो रहे हैं, जबकि तथ्य यह है कि सार्वजनिक सुविधाओं की माँग लगातार बढ़ रही है। एक ऐसे देश के लिए जिसकी शैक्षिक जरूरतें बढ़ रही हंै, खास तौर से उनके लिए जो शिक्षा से खुले रास्ते के जरिये अपनी पुश्तैनी गरीबी से निकलने की कोशिश में है, सरकारी विद्यालयों और विश्वविद्यालयों की कमी हमें चेता रही है।
उच्च शिक्षा के क्षेत्र को करीब से देखने पर हम पाते हैं कि आवेदक छात्रों की संख्या में लगातार इजाफा हो रहा है। यह परिस्थिति स्वाभाविक रूप से मौजूदा उच्च शिक्षा संस्थानों के विस्तार और नये सार्वजनिक अनुदान प्राप्त उच्च शिक्षा संस्थानों के निर्माण के जरिये और अधिक योग्य शिक्षकों की भर्ती की माँग पैदा करती है। हालाँकि आने वाली हर सरकार ने सार्वजनिक अनुदान प्राप्त उच्च शिक्षा संस्थानों में नये अध्यापकों की भर्ती को अटकाने के साथ–साथ उस पर रोक लगाने के काम को जारी रखा है। मिसाल के लिए, किसी बड़े सार्वजनिक अनुदान प्राप्त विश्वविद्यालय, जैसे कि दिल्ली विश्वविद्यालय में सालों से भर्ती संकट गहराता जा रहा है, जिसके चलते 4500 शिक्षकों के पद अस्थायी शिक्षकों से भरने पड़े हैं और स्थायी शिक्षकों की भर्ती का काम लगातार टाला जा रहा है।
योग्यता के अधिकार का विरोध
भर्तियों का यह संकट शैक्षिक पदों के मद की दूसरी किस्त की मंजूरी में बेतुकी देरी का परिणाम है, जो अन्य पिछड़े वर्गों के आरक्षण को लागू करने के परिणामस्वरूप पैदा हुई संस्थानों के विस्तार की माँग से जुड़ा है। ऐसे विश्वविद्यालयों को पूरी तरह तबाह करने के लिए लगातार एक ऐसा उपाय किया जा रहा है जिसमें बेहद कुशल अध्यापकों की भारी संख्या गम्भीर असुरक्षा के माहौल में ठेके पर नौकरी करने के लिए मजबूर है जबकि और अधिक योग्य नये अभ्यर्थी लगातार रोजगार बाजार में प्रवेश कर रहे हैं। इस लगातार बढ़ती प्रतियोगिता का एक विवादास्पद परिणाम यह निकलता है कि सरकार सार्वजनिक शिक्षण संस्थानों में प्रवेश–स्तर की शैक्षिक नौकरियों के लिए ऊँची से ऊँची योग्यता निर्धारित करती चली जाती है।
इसी तरह, अपेक्षाकृत अच्छे वेतन वाली सरकारी नौकरियों के लिए जरूरी योग्यता में मनमानी वृद्धि कर देना और साथ ही साथ पेशेवर संस्थानों में प्रवेश के लिए नयी शर्तें लगाना बढ़ती रोजगार असुरक्षा और बेरोजगारी का एक अन्य सूचक है। यह रुझान केवल सार्वजनिक संस्थानों में ही सामने नहीं आ रहा है जिनमें प्रवेश–स्तर के शैक्षिक पदों के लिए मास्टर डिग्री और यूजीसी–नेट की पात्रता के साथ–साथ पीएचडी डिग्री को अनिवार्य कर दिया गया है। यह अत्यधिक प्रचलित शैक्षिक डिग्रियों जैसे चिकित्सा में ‘नीट’ और स्कूलों में शिक्षक की नौकरी के लिए आवश्यक सीटेट जैसी केन्द्रीकृत परीक्षा जैसी आम प्रवेश परीक्षाओं की बाधाओं के बावजूद भी सच है। जिस प्रकार सीटों और रिक्त पदों की संख्या में बढ़ोतरी रोक दी गयी है हम देख रहे हैं कि मनमानी योग्यताएँ और परीक्षाएँ गढ़कर निर्मम तरीके से परीक्षार्थियों को बाहर करने के व्यवस्थित प्रयास किये जा रहे हैं।
बेरोजगारी की भयानक पीड़ा में दिन काटते अति योग्य लोगों को ध्यान में रखकर सोचें तो ‘स्किल इंडिया’ जैसे अभियान खोखले लगते हैं। भयानक बेरोजगारी के परिणामस्वरूप हमें युवाओं के कुण्ठा और विरोध की और अधिक घटनाएँ देखने को मिलंेगी। बड़ी संख्या वाली शिक्षित महत्त्वाकांक्षी युवा आबादी को ध्यान में रखते हुए अर्थव्यवस्था के प्रचलित तर्क से परे जाकर सोचना ही वह निर्णायक बिन्दु है जिसके आगे बेरोजगारी मुक्त दुनिया की परिकल्पना की जा सकती है। यह एक अर्थव्यवस्था है जो कुछ लोगों से क्षमता से अधिक काम करवाती है जबकि बड़ी संख्या में लोग बेकार घूमते रहते हैं। काम से थका हुआ भारत और बेरोजगार भारत आज एक ही सिक्के के दो पहलू बन गये हैं। नौजवानों को भी यह एहसास करना ही होगा कि उनका सम्मानजनक रोजगार पाने का सपना अलगाव में रहकर पूरा नहीं हो सकता बल्कि उनका यह सपना उनके चारों ओर की भयानक शोषित आबादी की बुनियादी जरूरतों जैसे शिक्षा, चिकित्सा और आजीविका तक पहुँच से भी जुड़ा है। बदलती हुई परिस्थितियाँ आज नयी तरह की संवेदनशीलता और एकजुटता की भावना के इन्तजार में है।
माया जॉन एक श्रम इतिहासकार हैं और दिल्ली विश्वविद्यालय में सहायक प्रोफेसर हैं।
(साभार–– द हिन्दू, 28 मार्च 2022)
अनुवाद–– विशाल
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