–– यानिस इकबाल

सउ़दी अरब जैसे एक निरंकुश सुन्नी राजतन्त्र को वैश्विक ‘लेकतन्त्र’ के तथाकथित पैरोकार पश्चिम का पुरजोर समर्थन क्यों मिल रहा है? यह सवाल शायद ही पूछा जाता हो। जब तेल और हथियारों के व्यापार का मामला आता है तो उदारवादी लोकतन्त्र और धार्मिक कट्टरवाद के उ़परी तौर पर दिखायी देनेवाले बेमेल स्वरूप पर तुरन्त ही पर्दा डाल दिया जाता है। यह रवैया सिर्फ पश्चिम के दोगलेपन को ही जाहिर नहीं करता है। इसकी जड़ें उस ऐतिहासिक प्रक्रिया में हैं जिसके तहत बड़ी ताकतों ने सउ़दी अरब को साम्राज्यवादी हितों की चैकी और क्रान्तिकारी विचारधाराओं के खिलाफ दीवार के रूप में खड़ा किया था।

वहाबी पंथ के स्थापक शेख मुहम्मद इब्ने अब्दुल वहाब (1703–92) उन्नीसवीं सदी के एक किसान थे, जिन्होंने खजूर की खेती और पशुपालन छोड़कर स्थानीय इलाकों में सातवीं सदी की शुद्ध आस्थाओं की तरफ वापस जाने के प्रचार के लिए खुद को समर्पित कर दिया था। उन्होंने सभी पवित्र स्थलों की पूजा करने को गलत बताया और ‘ईश्वर एक और एकमात्र है’ पर जोर दिया। उन्होंने अमानवीय व्यवहारों के लिए पिटाई के एकमात्र रास्ते पर जोर दिया, जैसे चोर के हाथ–पैर काट देने चाहिए और अपराधियों को सरेआम मौत के घाट उतार देना चाहिए। जब उन्होंने अपने प्रचार की बातों पर अमल करना शुरू किया तो इस इलाके के धार्मिक नेता उनके खिलाफ हो गये और उइयाना के स्थानीय मुखिया ने उन्हें इलाका छोड़कर चले जाने के लिए कहा।

सल्तनत का निर्माण

1744 में वहाब देरैया भाग गये, जहाँ उन्होंने मौजूदा सउ़दी अरब पर राज करने वाले राजवंश के स्थापक, नाज्द जनजाति के सरदार मोहम्मद इब्ने सौद के साथ समझौता किया। वहाब की बेटी इब्ने सौद की बीबियों में शामिल हुई। इब्ने सौद ने वहाब के आध्यात्मिक जोश का इस्तेमाल जनजातियों को वैचारिक रूप से अनुशासित करने में किया और बाद में इनको ओटोमन साम्राज्य के खिलाफ जंग में झोंक दिया। वहाब इस्ताम्बुल के सुल्तान को इस्लाम का खलीफा होने के काबिल नहीं समझते थे और इस्लाम को आधुनिक बनाने वालों तथा काफिरों के खिलाफ स्थायी जिहाद की नैतिकता का प्रचार करते थे।

इस्लामिक सभ्यता की खोयी हुई गरिमा का विलापगान गाते हुए वे सभी नये तौर–तरीकों को हटा देने की इच्छा जताते थे। उन तौर–तरीकों को वह इस्लाम के असली मतलब के खिलाफ मानते थे। खुद सुन्नत (रसूल हजरत मोहम्मद जैसी जिन्दगी) और हदीस के रास्ते पर चलकर वे इस्लामी दुनिया का शुद्धीकरण करना चाहते थे, यानी ओटोमन तुर्क और उनके हमराहों द्वारा इस्लामी दुनिया में लाये गये पतित रस्मों–रिवाजों को मिटा देना चाहते थे।

1801 में इब्ने सौद की सेना ने शियाओं के पवित्र शहर करबला पर हमला करके हजारों लोगों का कत्ल किया और पूजे जाने वाले सभी मजारों को तबाह कर दिया। सदियों पुरानी इस्लामी वास्तुकला के नमूनों, मक्का और मदीना के मजारों को भी इस सेना ने धूल में मिला दिया क्योंकि वहाबी आस्था के अनुसार यह अनमोल चीजें मूर्तिपूजा का प्रतीक थीं। ओटोमनों ने हिजाज पर कब्जा करके तथा मक्का और मदीना को अपनी जिम्मेदारी में लेकर इसका बदला लिया। पहले विश्वयुद्ध के बाद ओटोमन साम्राज्य के पतन तक इब्ने सौद और वहाब का गठबन्धन अन्दरूनी इलाकों तक सीमित रहा। 1926 आते–आते नये सरदार अब्दुल अजीज इब्ने सौद के नेतृत्व में अल–सौद जनजाति और उनके गठजोड़ के उन्मादी वहाबी मित्र इख्वान यानी “ब्रदरहुड” ने फिर से इस्लामी दुनिया के सबसे पवित्र शहरों पर कब्जा कर लिया और साथ ही साथ इस क्षेत्र के पश्चिमी तट पर महत्वपूर्ण व्यावसायिक बन्दरगाहों को भी अपने कब्जे में ले लिया।

अठारहवीं सदी के शुरुआती अभियानों की तरह ही यह अभियान भी खून–खराबे, जबरन धर्मान्तरण, गुलाम बनाने और वहाबी पंथ के उन्मादी कानून लोगों पर थोपने वाला था। इस अभियान की बुनियाद में अब्दुल अजीज और ब्रिटिश साम्राज्य का गठजोड़ भी था। 1915 में किये गये एक समझौते के मुताबिक अब्दुल अजीज द्वारा कब्जाये गये भूखण्ड के संरक्षण की जिम्मेदारी ब्रिटेन ने ले ली और उसके बदले ब्रिटिश सरकार ने विरोधी जनजातियों के सरदारों के खिलाफ अब्दुल अजीज की मदद की और ओटोमन साम्राज्य के खिलाफ साझा मोर्चे में लड़ना तय किया। ओटोमन साम्राज्य के बिखर जाने के बाद भी ब्रिटिश साम्राज्यवादियों और अब्दुल अजीज के रिश्ते लगातार अन्तरंग रहे हैं, जो मक्का के शरीफ हुसैन (पवित्र शहरों के रक्षक खानदान का सरदार, जो रसूल के अपने वंशज हैं) के खिलाफ लडा़ई में दिखायी दिया।

हुसैन ने पाला बदलकर और जून 1916 में “अरब विद्रोह” का नेतृत्व करके ओटोमन साम्राज्य की पराजय में योगदान दिया था। जिसके चलते अरब इलाके में तुर्की की राजनीतिक उपस्थिति खत्म हो गयी थी। वह मिस्र के ब्रिटिश हाईकमिश्नर हेनरी मैकमहोन से बात करके अपना पक्ष बदलने पर तब सहमत हुआ जब मैकमहोन ने उन्हें यकीन दिला दिया कि तुर्कों को युद्ध में पराजित करने के बाद फारस की खाड़ी से लेकर गाजा तक एक एकीकृत अरब देश का निर्माण किया जायेगा। हुसैन और मैकमहोन के बीच हुए पत्र–व्यवहार को मैकमहोन–हुसैन वार्ता के रूप में जाना जाता है। युद्ध खत्म होते ही हुसैन ने ब्रिटिशों से अपना वादा पूरा करने की माँग की। लेकिन ब्रिटिशों की ख्वाहिश थी कि हुसैन ब्रिटेन और फ्रांस के बीच हुए अरब दुनिया के बँटवारे (साइक्स–पिको समझौता) को स्वीकार कर ले।

इसके साथ ही बेल्फौर घोषणा के अनुसार फिलिस्तीन में यूरोपीय यहूदियों का उपनिवेश कायम करवाकर “यहूदियों के लिए एक राष्ट्रीय घर” सुनिश्चित करने में भी ब्रिटिश साम्राज्यवादी हुसैन की सहमति की उम्मीद कर रहे थे। यह सभी माँगें ब्रिटिशों द्वारा लिखी गयी एंग्लो–हिजाज सन्धि में रखी गयी थी, जिस पर दस्तखत करने से हुसैन ने इनकार कर दिया था। 1924 में ब्रिटिशों ने इब्ने सौद को हुसैन से लड़ा दिया। लार्ड कर्जन (1905 में बंगाल का बँटवारा किया था) हुसैन पर ‘अन्तिम चोट’ कह कर इसकी तारीफ की।

अब्दुल अजीज के साम्राज्यवादी ताकतों की गोद में बैठ जाने से इख्वान बेहद नाराज थे, हालाँकि यही ताकतें उनका वित्तपोषण भी करती थीं। इख्वान अब्दुल अजीज के विलासितापूर्ण जीवन, पश्चिम के साथ उसके परिवार के सम्बन्धों, शियायों के प्रति सापेक्षिक उदारता (जबकि शियाओं का बर्बरतापूर्ण दमन जारी था) से भी नाराज थे। नतीजतन 1927 में जब अब्दुल अजीज ने ब्रिटिशों के साथ एक और समझौता किया, जिसके तहत हिजाज और नाज्द तथा उन पर निर्भर इलाकों पर उनकी “परिपूर्ण और निरंकुश” सत्ता स्वीकार कर ली, तो इसके कुछ ही दिन बाद इख्वानों ने खुलकर विद्रोह कर दिया।

अरब के कई इलाके जीतने के बाद इख्वानी विद्रोहियों ने ब्रिटिशों और फ्रांसीसियों द्वारा संरक्षित ट्रान्सजॉर्डन, सीरिया और इराक को वहाबी विचारधारा का अनुयायी बनाने के लिए उन पर हमला करना शुरू किया। ऐसा करके वे मध्यपूर्व में साम्राज्यवादी हितों के साथ सीधे टकराव में आ गये। ब्रिटिश साम्राज्य की सैनिक मदद से तीन साल तक चली लड़ाई के बाद अब्दुल अजीज ने उन्हें पराजित किया और उनके नेताओं को मौत की सजा दी। 1932 में अपनी जीत को सुनिश्चित करने के लिए अब्दुल अजीज ने खुद को एक नये राज्य का राजा घोषित किया, जिसका नाम उसने परिवार के नाम पर सउ़दी अरब रखा, लेकिन इख्वानी विद्रोह का दमन किसी भी मायने में वहाबी कट्टरवाद का खात्मा नहीं था। इस्लामी उग्रवाद के डर से राजपरिवार ने इख्वान आन्दोलन के स्थानीय नेताओं को राज्य मशीनरी में शामिल करके उन्हें अपने पक्ष में कर लिया। इस तरह एक पिछड़ी विचारधारा वाले राज्य की नींव रखी गयी। धार्मिक एकता और एक ही परिवार के प्रति वफादारी के चलते पूरी दुनिया में सउ़दी अरब इकलौता देश है जिसका मालिकाना एक राजवंश के पास है।

अमरीका का पिट्ठू बनना

1933 में अब्दुल अजीज को भयानक वित्तीय संकट का सामना करना पड़ा क्योंकि हज का टैक्स, जो उसकी आमदनी का मुख्य स्रोत था, उस समय चल रही महामन्दी के चलते घट गया। ऐसे में उसे 50 हजार पाउण्ड की कीमत के सोने के बदले अमरीका के स्टैण्डर्ड आयल ऑफ कैलिफोर्निया (सोकाल) को तेल के कारोबार में छूट देनी पड़ी। अब्दुल अजीज और सोकाल के समझौते ने डगमगाते राजा को राजसत्ता सम्भालने के लिए पर्याप्त धन दिया। वास्तव में अब्दुल अजीज का शासन इतना कमजोर था कि अपने जीते हुए इलाकों पर सौद परिवार का उतना मजबूत कब्जा नहीं था जितना कब्जा इस परिवार के उ़पर ब्रिटिशों का था। सोकाल ने अब्दुल अजीज को 2.8 करोड़ डॉलर का कर्ज दिया और 1930 के दशक में तेल के खनन के लिए सालाना 28 लाख डॉलर राजस्व देने का भी फैसला किया।

बाद में सोकाल ने दूसरी अमरीकी कम्पनियों (एस्सो, टेक्सेको, मोबिल) के साथ मिलकर अरेबियन अमेरिकन आयल कम्पनी (अरामको) स्थापित की। इस कम्पनी ने पूर्वी अरब में तेल का खनन किया और 1938 में सउ़दी अरब में तेल का उत्पादन शुरू हो गया। जब तेल के उत्पाद और निर्यात के लिए उन्होंने मजदूर बस्तियाँ, कॉर्पोरिट शहर, सड़कें, रेलवे, बन्दरगाह तथा दूसरी जरूरी संरचना निर्माण करना शुरू किया तो सउ़दी अरब की विकासशील राजनीतिक–आर्थिकी तुरन्त ही अरामको और उसके अमरीकी मददगारों के साथ जुड़ गयी। इन निर्माण परियोजनाओं को अमरीकी सरकार की तरफ से भरपूर सब्सिडी मिलती रही जिसकी रकम करोडों डॉलर तक थी।

दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान उभरने वाले अमरीकी साम्राज्यवाद के विश्वस्त जोड़ीदार के रूप में सउ़दी अरब की भूमिका मजबूत हुई। 1943 में वाशिंगटन ने घोषणा की कि “सउ़दी अरब की रक्षा संयुक्त राज्य अमरीका की रक्षा के लिए महत्वपूर्ण है” और युद्धकालीन जरूरतों के बदले सउ़दी अरब की जमीन को युद्ध के लिए इस्तेमाल करने का समझौता किया गया। अब्दुल अजीज की सेना को प्रशिक्षित करने के लिए एक अमरीकी सैन्य मिशन पहुँचा और अमरीकी वायु सेना ने दहरान में तेल के कुओं के पास वायु सेना क्षेत्र का निर्माण करना शुरू किया, जिससे अबादान में ब्रिटिश छावनी का सहारा लेना अमरीका के लिए जरूरी नहीं रह गया। यह सैन्य ठिकाना जापान और जर्मनी के बीच और सोवियत औद्योगिक प्लाण्टों के नजदीक सबसे बड़ा अमरीकी वायु सेना अड्डा था। इस सैन्य ठिकाने पर वाशिंगटन का कब्जा केवल 1962 तक ही रहा, जब साम्राज्यवाद विरोधी प्रतिरोध ने सउ़दी राजतन्त्र को अमरीकी सेना से वापस जाने के लिए कहने को मजबूर कर दिया। लेकिन कुछ दशक बाद अगस्त 1990 में जब इराक ने कुवैत पर हमला किया तो अमरीकियों को इस पर दुबारा कब्जा करने का मौका मिल गया।

1945 में जब स्वेज नहर के बारे में अमरीकी राष्ट्रपति फ्रेंकलिन डी रूजवेल्ट और अब्दुल अजीज की बैठक हुई थी तब ही अमरीका और सउ़दी अरब के रिश्ते पर वह मशहूर मोहर लग गयी थी। दोनों नेताओं ने तय किया था कि सउ़दी अरब अमरीका को तेल देता रहेगा और अमरीका सउ़दी अरब को सुरक्षा तथा सैनिक सहायता देता रहेगा। साल दर साल अमरीकी राष्ट्रपति सउ़दी अरब की सुरक्षा के बारे में अपनी प्रतिबद्धता को दोहराते आये हैं। 1947 के ट्रूमैन सिद्धान्त को भी अमरीकी–सउ़दी सैनिक गठबन्धन में इस्तेमाल किया गया था, जिसमें कहा गया था कि जिन देशों को सोवियत कम्युनिज्म से खतरा है अमरीका उन्हें सैन्य मदद भेजेगा। 1950 में अमरीकी राष्ट्रपति हैरी एस ट्रूमैन ने अब्दुल अजीज से कहा था, “आपकी राजशाही के लिए हर खतरा अमरीका के लिए जरूरी सरोकार का विषय है”। यही आश्वासन 1957 में आइजनहावर सिद्धान्त में दोहराया गया।

1969 के निक्सन सिद्धान्त में इस इलाके में अमरीका के तीन रणनीतिक मित्रों ईरान, सउ़दी अरब और इजराइल को मदद देना शामिल किया गया। ईरान में अमरीका–समर्थित शासक की हार और अफगानिस्तान में सोवियत हमले के बाद अमरीकी राष्ट्रपति जिमी कार्टर ने अपने सिद्धान्त को सोवियत के खिलाफ सीधी धमकी के रूप में पेश किया, जिसमें स्पष्ट रूप से जाहिर किया गया था कि मध्यपूर्व के तेल पर सिर्फ अमरीका का एकाधिकार है। कार्टर के बाद आये रोनल्ड रीगन ने इस नीति को अक्टूबर 1981 में विस्तार दिया “कार्टर सिद्धान्त का रीगन अनुसिद्धान्त”, जिसमें घोषणा की गयी कि सउ़दी शासकों की रक्षा के लिए अमरीका हस्तक्षेप करेगा। कार्टर सिद्धान्त ने बाहरी ताकतों के खतरे पर ध्यान केन्द्रित किया था। लेकिन रीगन अनुसिद्धान्त ने राजशाही की अन्दरूनी स्थिरता को सुनिश्चित करने का वादा किया।

प्रति–क्रान्ति का प्रसार

साठ और सत्तर के दशकों में सउ़दी पेट्रो–राष्ट्रवाद का उद्भव हुआ। जिसका आधार तेजी से बढ़ता हुआ तेल उद्योग और राष्ट्रेतर उ़र्जा निगमों की वृद्धि था। पश्चिमी अर्थव्यवस्थाओं के तेल उपभोग पर टिकी इस पेट्रोल समृद्धि ने ना सिर्फ सउ़दी अरब राज्य की तिजोरी भरने का काम किया, बल्कि उसे वहाबी विचारधारा को फैलाने की क्षमता भी प्रदान की, जो अब मात्र एक अल्पमत वाली उग्र विचारधारा नहीं थी बल्कि इस्लाम की शिक्षा को प्रभावित करने वाला एक सांकृतिक निर्यात भी थी। इस्लामी दुनिया की विरोधी व्याख्याओं और मजहबों का मुकाबला करने के लिए तेल की सम्पदा ने सउ़दी राजपरिवार को मजबूत बनाया और उम्माह (इस्लाम में आस्था रखने वाली कौम) पर अपने प्रभाव का विस्तार करने में उसकी मदद की। दूसरे शब्दों में, सउ़दी अभिजात शासक वर्ग ने खुद को उम्माह के सर्वोच्च रक्षक और नीतिनिर्धारक के रूप में स्थापित करने का प्रयास किया।

दूसरे देशों में वहाबी विचारधारा का निर्यात अमरीका–सउ़दी अरब की दूसरे विश्वयुद्ध के बाद की रणनीति का हिस्सा था जिसमें दोनों देशों ने सोवियत “ईश्वरहीन कम्युनिज्म” के खिलाफ मोर्चा कायम किया था। अमरीका ने इस युद्ध में कम्युनिज्म को निशाना बनाया जबकि सउ़दी अरब ने इस समीकरण के “ईश्वरहीन” हिस्से को लेकर ज्यादा मशक्कत की। वहाबी विचारधारा ने नासेर विचारधारा, बाथ विचारधारा और ईरानी क्रान्ति के शिया क्रान्तिकारिता के खिलाफ प्रति–क्रान्तिकारी हथियार के रूप में काम किया। सउ़दी अरब ने 1962 में विश्व मुस्लिम लीग, नाम के एक संगठन की शुरुआत की जिसका मकसद था “इस्लाम के दुश्मनों द्वारा रची गयी खतरनाक साजिशों का मुकाबला करना जो मुस्लिमों को उनके मजहब से दूर ले जा रहे हैं और उनकी आपसी एकता तथा भाईचारे को तबाह कर रहे हैं”। इसके निशाने पर खासतौर पर गणराज्यवाद (नासेर से प्रभावित) और कम्युनिज्म था। इसका मुख्य मकसद इन राजतन्त्र–विरोधी विचारधाराओं को शु’उबी (अरब–विरोधी) विचार के रूप में स्थापित करना था।

समाजवादी झुकाव रखने वाले नॉन अलाइन मूवमेण्ट (एनएएम) के खिलाफ सन्तुलन कायम करने के लिए 1969 में स्थापित की गयी संस्था, आर्गेनाईजेशन ऑफ इस्लामिक कोऑपरेशन (ओआईसी) का सउ़दी अरब केन्द्रीय सदस्य था। इन भू–राजनीतिक कार्यों के अलावा सउ़दी अरब ने ओआईसी का इस्तेमाल अपने क्षेत्रीय विरोधियों, जैसे नासेरवादी मिस्र का मुकाबला करने के लिए भी किया।

1979 की इरानी क्रान्ति ने सउ़दी राजपरिवार तथा अमरीकी राजसत्ता के उच्च संस्थानों के अन्दर खलबली मचा दी। मोहम्मद रेजा शाह पहलवी की राजशाही के उखड़ जाने के साथ ही लोकतन्त्र के इस्लामी रूप के निर्माण का आगाज हो गया था। ईरान के इस्लामी नेता अयातुल्लाह रूहौल्लाह खोमेनी ने कहा था कि इस्लाम और राजतन्त्र का कोई सामन्जस्य नहीं है। उन्होंने सउ़दी अरब को फारस की खाड़ी में अमरीकी दलाल बताया। सउ़दी शासकों को खतरा नजर आया। उन्होंने ईरान की क्रान्ति की विधर्मी शियाओं का राजनीतिक उभार कहकर निन्दा की, लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ। इस क्षेत्र में इस्लामी गणराज्य का झण्डा बुलन्द होता गया, पाकिस्तान से लेकर मरोक्को तक।

आखिरकार, 1980 में सउ़दी शासकवर्ग और पश्चिमी ताकतों ने ईरान में इराकी सेना भेजने के लिए सद्दाम हुसैन को उकसा दिया। यह लड़ाई 1988 तक जारी रही जिसमें रियाध और वाशिंगटन के फायदे के लिए इराक और ईरान दोनों अपना खून बहाते रहे। इस लम्बी लड़ाई से कमजोर हुआ इराक अपर्याप्त मदद के कारण अरब की खाड़ी में इस लडाई से फायदे उठाने वालों के खिलाफ हो गया और 1990 में कुवैत पर हमला बोल दिया और साथ ही सउ़दी अरब को भी धमकी दे डाली। अब रंगमंच पर अमरीका युद्ध की अपनी पुरजोर तैयारी के साथ घुस गया और इराक पर बमबारी करके उसे खण्ड–खण्ड कर दिया। इसके साथ ही अमरीका ने सउ़दी अरब को निश्चित सन्देश दिया कि अमरीकी सेना आखिरी समय तक उसकी रक्षा करेगी।

एक बार सउ़दी अरब का इतिहास समझ लिया जाये तो आसानी से इस निष्कर्ष पर पहुँचा जा सकता है कि इस राजशाही के राजाओं ने जानबूझकर पश्चिमी ताकतों के भू–राजनीतिक सेवादार होने का रिश्ता कबूल किया था। पूरी दुनिया में इस राजशाही का महत्व बहुत कम या सीमित होता अगर अमरीका और ब्रिटिश साम्राज्य ने दिलो–जान से इसकी मदद/समर्थन नहीं किया होता। इनके मजबूत समर्थन के बदौलत ही सउ़दी अरब एक महत्वपूर्ण राजनीतिक खिलाड़ी बना है। अपने यहाँ तेल के विराट भण्डार के जोर पर ही सउ़दी अरब के पतनशील राजा और राजकुमार कई देशों पर नरसंहार और युद्ध थोपते रहे हैं जैसे यमन में बमबारी, सीरिया और लीबिया में अप्रत्यक्ष हमले आदि। सभी ताकतों ने यह सब होने दिया और राजपरिवार को इनके अनगिनत अपराधों के लिए प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष समर्थन दिया। जैसा कि चे ग्वेरा ने कहा था, “साम्राज्यवाद की पशुता की कोई सीमा नहीं है, न ही इसकी कोई राष्ट्रीय सीमा है।”

(सोशलिस्ट प्रोजेक्ट से साभार)

अनुवाद–– अमित इकबाल