डीएचएफएल घोटाला : नवउदारवाद की एक और झलक
अवर्गीकृतऐसा कोई दिन नहीं जाता, जब देश के महामहिम अखबार के पहले पन्ने पर देश की अवाम की प्रगति, खुशहाली की डींगें मारते न दिखायी दें और उसी अखबार के किसी कोने में किसी न किसी बड़ी कम्पनी के डूबने या किसी घोटाले की खबर न हो। यह अद्भुत समय है कि विकास गाथा का बखाान हो रहा है और विनाश लीला रची जा रही है।
29 जनवरी को दिल्ली के प्रेस क्लब में एक प्रेस कॉन्फ्रेन्स आयोजित हुई थी। यह आयोजन एक जानी–मानी समाचार कम्पनी कोबरा पोस्ट ने किया था, जिसमें कोबरा पोस्ट के सम्पादक अनिरुद्ध बहल, पूर्व भाजपा नेता यशवन्त सिन्हा, वित्तीय घोटालों के विशेषज्ञ पत्रकार जोसेफ, प्रांजय गुहा ठाकुराता और सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वकील प्रशान्त भूषण शामिल थे।
प्रेस कॉन्फ्रेन्स में ‘दीवान हाउशिंग फाइनेन्स लिमिटेड’ (डीएचएफएल) में 31,000 करोड़ रुपये के घोटाले का पर्दाफाश किया गया। डीएचएफएल एक गैर बैंकिंग वित्तीय संस्था है, जो राष्ट्रीय आवास बैंक के साथ पंजीकृत है और भारतीय रिजर्व बैंक की पूर्ण स्वामित्व वाली सहायक कम्पनी है। यह भारत की हाउशिंग फाइनेन्स कम्पनियों को नियंत्रित करती है और मुख्य रूप से झुग्गी पुनर्वास, आवास विकास और अचल सम्पत्ति के दूसरे व्यवसायों के लिए धन मुहैया कराती है।
कपिल वाधवन, अरुण वाधवन और धीरज वाधवन डीएचएफएल के प्रमुख हैं। डीएचएफएल का घोटाला वित्तीय वर्ष 2018–19 के कुल स्वास्थ्य बजट का 59 फीसदी है। इससे हम इस घोटाले के आकार का अनुमान लगा सकते हैं।
डीएचएफएल की कुल परिसम्पत्ति 8795 करोड़ रुपये है। इसने अपनी हैसियत के दस गुना से ज्यादा रकम लगभग 96,000 करोड़ रुपये का कर्ज ले रखा था। डीएचएफएल की वार्षिक रिपोर्ट के अनुसार, यह कर्ज सरकारी और गैर–सरकारी 36 बैंकों से कर्ज लिया गया है, जिसमें एसबीआई का 11,500 करोड़ रुपये, बैंक ऑफ बड़ौदा का 5,000 करोड़ रुपये और पंजाब नेशनल बैंक तथा आईसीआईसीआई बैंक से बिना गारंटी के, कागजी आश्वासन पर लिया गया भारी कर्ज शामिल है। 96,000 करोड़ रुपये के कर्ज में से इसने 84,982 करोड़ रुपये दूसरी कम्पनियों को कर्ज के रूप में दिया। कर्ज लेकर कर्ज बाँटना, वह भी बिना जमानत के सिर्फ कागजी वादे पर, हमारी उदारवादी आर्थिक नीति की विशेषता है, क्योंकि जो रकम कर्ज पर दी जा रही है, वह कर्जदाता की नहीं है और जो कर्ज पर लेकर आगे कर्ज दे रहा है, ही उसकी भी नहीं है। वह बैंकों में जमा मेहनतकश जनता की गाढ़ी कमाई है, फिर उसे दाँव पर लगाने में क्या हर्ज है!
आइए, इस मसले को और बारीकी से समझें। डीएचएफएल ने ये कर्ज कवच कम्पनियों के जरिये दिये हैं। कवच कम्पनी को मुखौटा कम्पनी या छद्म कम्पनी भी कहते हैं। कवच कम्पनियाँ कागजों पर चलती हैं और किसी तरह का आधिकारिक काम नहीं करतीं। इन कम्पनियों का इस्तेमाल काले धन को सफेद करने के लिए किया जाता है।
डीएचएफएल ने कर्ज के रूप में जुटाये गये 96,000 करोड़ रुपये में से एक मोटी रकम 31,000 करोड़ रुपये कवच कम्पनियों को कर्जे के रूप में दी। कवच कम्पनियों या इनके निदेशकों के नाम पर किसी प्रकार की कोई सम्पत्ति नहीं थी। जाहिर है कि पैसा डूबना तय था। इसका नुकसान उन बैंकों और शेयरधारकों को उठाना पड़ा, जिन्होंने डीएचएफएल को पैसा दिया था।
सभी गैर–बैंकिंग वित्तीय कम्पनियों में बड़े लोन देने के लिए एक विशेष कमेटी का गठन किया जाता है। डीएचएफएल में भी इसी प्रक्रिया का पालन किया गया था। फर्क सिर्फ इतना है कि यहाँ पर 200 करोड़ रुपये से अधिक का कर्ज देने के लिए फाइनेन्स कमेटी के सदस्य इस कम्पनी के प्रमुख शेयरधारक ही हैं, यानी कपिल वाधवन और धीरज वाधवन।
डीएचएफएल की फाइनेन्स कमेटी द्वारा मंजूर किये गये कर्ज उन कवच कम्पनियों को मिले हैं, जिन पर वाधवन का नियंत्रण है। एक–एक लाख रुपये की पूँजी से दर्जनों फर्जी कम्पनियाँ बनाकर उन्हें कई नयी कम्पनियों में बाँट दिया गया। इनमें से कई कम्पनियों का पता एक ही है। इनका लेखा–जोखा भी एक ही ग्रुप से कराया गया है, ताकि घोटाले पर पर्दा डाला जा सके।
कोबरा पोस्ट ने 45 ऐसी कम्पनियों की पहचान की है, जिनका इस्तेमाल वाधवन के जरिये किया जाता था। इन कम्पनियों को 14,282 करोड़ रुपये से अधिक के कर्ज दिये गये हैं। बाद में इन कवच कम्पनियों को दिये गये कर्ज की रकम से दुबई, मारीशस, श्रीलंका और ब्रिटेन में परिसम्पत्तियाँ खरीदी गयीं।
कोबरा पोस्ट द्वारा चिन्हित की गयी 45 कम्पनियों में से 34 कम्पनियों की आय का पता नहीं चला है और न ही उनके व्यापार का। डीएचएफएल के प्रोमोटरों ने मनी लार्ड्रिंग का यह खेल रिजर्व बैंक और वित्त मंत्रालय की नाक के नीचे खेला। इस घोटाले को न आयकर विभाग पकड़ पाया, न ही आडिट करने वाली एजेंसियाँ। आखिर ऐसा कैसे हो सकता है कि लाखों किसान कर्ज न चुका पाने के कारण आत्महत्या कर लेते हैं, वहीं डीएचएफएल जैसी कम्पनियाँ करोड़ों रुपये के घोटाले करती हैं और किसी के कान पर जूँ तक नहीं रेंगती? इसका जवाब है ‘जब सर्इंया भये कोतवाल तो डर काहे का’। कपिल वाधवन और धीरज वाधवन की कम्पनियाँ, आरकेडब्ल्यू डेवलपर्स, स्किल रियलटर्स प्राइवेट लिमिटेड और दर्शन डेवलपर्स प्राइवेट लिमिटेड ने भाजपा को 2014–15 और 2016–17 के बीच कुल 19.5 करोड़ रुपये का चन्दा दिया था। भाजपा को दिया गया चन्दा कम्पनी अधिनियम 2013 की धारा 182 का उल्लंघन है, जिसके अनुसार, कोई भी कम्पनी अपने पूर्ववर्ती तीन वित्तीय वर्षों के दौरान अर्जित औसत शुद्ध लाभ का
7.5 फीसद ही चन्दा दे सकती है। जबकि वित्तीय वर्ष 2012–13 में इस कम्पनी को 25 लाख रुपये का नुकसान हुआ।
कम्पनी अधिनियम धारा 182 के अनुसार, प्रत्येक कम्पनी को अपने लाभ–हानि खाते में किसी भी राजनीतिक दल को दिये गये चन्दे का खुलासा दिये गये कुल चन्दे और पार्टी के नाम सहित दर्शाना होता है, लेकिन डीएचएफएल और इसकी सहायक इन तीनों कम्पनियों ने इस नियम का पालन नहीं किया। यह दर्शाता है कि बैंकों में जमा जनता की गाढ़ी कमाई की लूट बिना राजनीतिक बल के नहीं हो सकती। कोबरा पोस्ट की जाँच में एक बात और सामने आयी है कि जिन कवच कम्पनियों को महाराष्ट्र में स्लम पुनर्वास के नाम पर कर्जे दिये गये, उनका नाम स्लम पुनर्वास प्राधिकरण के वेबसाइट में कहीं नजर नहीं आता। गौरतलब है कि इन कवच कम्पनियों के तार वाधवन ग्रुप और सहाना ग्रुप से जुड़े हुए हैं और सहाना ग्रुप के निदेशक जितेन्द्र जैन अभी जेल में है। वित्त मंत्रालय की आर्थिक अपराध शाखा उस पर गम्भीर आर्थिक अपराधों की जाँच कर रही है। सहाना ग्रुप का एक और नामी और प्रमुख शेयरधारक डालवी शिवराम गोपाल है, जो शिवसेना का पूर्व विधायक है।
अब तक का सबसे बड़ा यह गैर–बैंकिंग वित्तीय संस्थान घोटाला, आर्थिक, राजनीतिक और आपराधिक तीनों पहलुओं को दर्शाता है।
आखिर क्या कारण है कि इतने बड़े घोटाले की कहीं कोई सुगबुगाहट नहीं है? सरकार के कान पर जूँ तक नहीं रेंग रही है? मीडिया में डीएचएफएल के शेयर की कीमत गिरने की खबर तो आयी, लेकिन कौन बरबाद हुआ, इसका कोई जिक्र नहीं है।
गैर बैंकिंग वित्तीय संस्थान बैंक न होते हुए भी वित्तीय सहायता प्रदान करते हैं। लेकिन इनका अपना कोई धन नहीं होता और धन का जुटान यह शेयर जारी करके, अल्पकालिक कर्ज, जैसे–– म्युचुअल फंड और दीर्घकालिक कर्ज बैंकों से ब्याज पर लेकर करते हैं। इन माध्यमों से जो धन जुटाया जाता है, वह बैंक में जमा जनता की मेहनत की कमाई होती है। इस क्षेत्र में कुछ भी उत्पादन नहीं होता। वह सिर्फ कागजों पर होता है। जनता के उसी पैसे को ये अपनी सहूलियत के हिसाब से नियमों को ताक पर रखकर आगे जनता को ब्याज पर देते हैं और उससे मुनाफा कमाते हैं। वित्तीय सहायता जैसे लुभावने शब्दजाल के सहारे ये अपनी लूट के कारोबार को कानूनी जामा पहना कर दिन–दूनी, रात–चैगुनी तरक्की करते हैं। इस एक बात से ही लूट के इस कारोबार को समझ सकते हैं कि डीएचएफएल की हैसियत 8,795 करोड़ रुपये है जबकि उसने 96,000 करोड़ रुपये कर्ज के रूप में हासिल किया।
आज देश के हर हिस्से में गैर–बैंकिंग वित्तीय संस्थान हजारों की संख्या में अपनी लूट के कारोबार को बढ़ा रहे हैं। आये दिन किसी न किसी कम्पनी के भाग जाने, डूब जाने, दिवालिया हो जाने की खबरें आती रहती हैं।
अभी हाल ही में एक गैर बैंकिंग वित्तीय संस्थान आइएल एंड एफएस के डूबने की खबर आयी है। इस कपनी ने जनता का 91 हजार करोड़ रुपया दाव पर लगा दिया। सरकार ने आनन–फानन एक जाँच समिति गठित की और अपना एक निदेशक मंडल भी गठित किया, लेकिन उसने डीएचएफएल घोटाले में जाँच करना जरूरी नहीं समझा। विजय माल्या का 9,500 करोड़ का घोटाला, विनसम डायमंड्स का 7,000 करोड़ रुपये का घोटाला, नीरव मोदी का 13,000 करोड़ रुपये का घोटाला और न जाने कितने घोटाले जारी हैं।
अब यह सवाल उठना सही है कि इस देश की सरकार तथा न्याय और कानून व्यवस्था क्या कर रही हैं? क्या वित्तमंत्री साहब अनभिज्ञ हैं, बिलकुल नहीं!
सीबीआई में एक विभाग है, बैंकिंग एंड सिक्योरिटी फ्राड सेल (बीएसएफसी)। इस सेल के एसपी थे सुधांशु धर मिश्रा। इन्होंने 22 जनवरी को बैंक फ्राड मामले में चन्दा कोचर, जो आईसीआईसीआई बैंक की सीईओ हैं, के खिलाफ, उनके पति दीपक कोचर और वीडियोकोन के वीएन धूत के खिलाफ बैंकफ्राड के मामले में एफआईआर दर्ज की थी। उनकी एफआईआर में सिर्फ इनके ही नहीं, स्टैंडर्ड चार्टर्ड बैंक के सीईओ जतीन दारूवाला, टाटा कैपिटल के प्रमुख राजीवन सबरवाल, गोल्डमैन शैश इंडिया के चेयरमैन संजय चटर्जी, बैंकिंग सेक्टर के डान कहे जाने वाले के वी कॉमथ के भी नाम हैं।
एफआईआर की आहट पाते ही हमारे वित्तमंत्री नींद से जाग गये। 22 जनवरी के दो दिन बाद वित्तमंत्री अरुण जेटली ने आरोपियों के बचाव में ब्लॉग लिखा। सीबीआई की आलोचना करते हुए उन्होंने कहा–– यह जाँच नहीं रोमांचवाद है, जो कहीं नहीं पहुँचता। वित्तमंत्री के इन शब्दों में आरोपियों के लिए कितना दर्द समाया है! इसके बाद एफआईआर दर्ज करने वाले अधिकारी का तबादला कर दिया गया।
यही है नवउदारवादी व्यवस्था जिसमें देश का वित्तमंत्री खुलेआम आरोपियों के बचाव में खड़ा हो, यह व्यवस्था उत्पादन के जरिये नहीं बल्कि कूपन काटकर जनता को लूटती है। यह अर्थव्यवस्था ऐसे ही घोटालेबाजों और मंत्रियोंं को जन्म दे सकती है।
मौजूदा सरकार ने एक और नया शगूफा उछाला है, एनपीए यानी भूल जाना। मार्च 2015 तक बैंकों का 3,23,464 करोड़ रुपये एनपीए था, जो दिसम्बर 2017 में 9,063 कर्जदारों पर 11 लाख करोड़ हो चुका है। अगर वर्तमान परिस्थिति की बात की जाय तो यह हाल तो तब है जबकि बैंकों ने 35 लाख करोड़ रुपये के कॉरपोरेट कर्जों को अभी तक घोषित ही नहीं किया है, जिसमें से 2020 तक 40 फीसदी को एनपीए बन जाने की सम्भावना है। यह सारी रकम जनता के खून–पसीने की एक–एक बूँद से पैदा हुई है।
अभी हाल ही में रिजर्व बैंक और सरकार की टकराहट ने भारतीय अर्थव्यवस्था की मजबूती का नकाब उतार फेंका है। सरकार ने अपने बजट में बैंकों और वित्तीय संस्थानों को 650 अरब रुपये देने का प्रावधान रखा है। इतना धन इसलिए दिया जा रहा है, क्योंकि बैंकों ने जो कर्ज दिये थे, वे चुकता नहीं किये गये और उनके पास और कर्ज देने के लिए धन नहीं है।
डीएचएफएल का संकट सिर्फ उसका अपना संकट नहीं है। यह आज की भारतीय अर्थव्यवस्था की एक झलक है। गैर–बैंकिंग वित्तीय संस्थानों में बैंकों का 4,96,400 करोड़ रुपया फँसा हुआ है। अगर यह क्षेत्र डूबता है तो बहुत से बैंक डूबेंगे और उनके साथ ही करोड़ों जमाकर्ताओं की जिन्दगियाँ भी तबाह हो जाएँगी।
दरअसल यह संकट भारतीय अर्थव्यवस्था को चलाने वाली आर्थिक उदारीकरण की नीतियों का है। आज भारतीय अर्थव्यवस्था का पहिया ऐसी जगह आकर फँस गया है, जहाँ से उसका निकलना नामुमकिन है और हमारे रहनुमा यह बात अच्छी तरह जान गये हैं। इन आर्थिक नीतियों ने गैर–बैंकिंग वित्तीय संस्थाओं जैसे गैर–उत्पादित क्षेत्र को एक ऐसे खौफनाक आर्थिक दैत्य में बदल दिया है, जिसने उत्पादन के क्षेत्र को तबाह कर दिया है।
अब यह दैत्य पूरी अर्थव्यवस्था को तबाह करने के रास्ते पर बढ़ चुका है। राजनीतिक नेतृत्व की मजबूरी है कि वह न तो दैत्य का संहार कर सकता है और न ही इसकी जन्मदायिनी अर्थव्यवस्था को मरते देख सकता है। असफलता और तबाही के इस मंजर को जनता से छिपाने के लिए हर रोज झूठ का एक नया तूफान खड़ा करके राजनेता जनता के गुस्से को टाल रहे हैं। लेकिन कहते हैं कि सभी लोगों को सदा के लिए मूर्ख नहीं बनाया जा सकता। जनता जल्दी ही उदारवादी नीतियों के इस तम्बू को उखाड़ फेकने के लिए मजबूर हो जायेगी।
–– अमित राणा
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राजनीतिक अर्थशास्त्र
साक्षात्कार
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अवर्गीकृत
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जीवन और कर्म
मीडिया
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फिल्म समीक्षा
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