पर्यटन मंत्रालय के अनुसार भारत में इलाज के लिए आनेवाले विदेशी यात्रियों की संख्या तेजी से बढ़ रही है। 2015 में 2–34 लाख यात्री इलाज के लिए भारत आये और 2017 में 4–95 लाख। इलाज के लिए विदेश जाने को मेडिकल टूरिज्म कहते हैं। अमरीका दुनियाभर में मेडिकल टूरिज्म की पहली पसन्द बना हुआ है। अमरीका इससे 35 अरब डॉलर सालाना कमाता है। भारत इस मामले में साउथ कोरिया, तुर्की, थाईलैण्ड और जर्मनी के बाद छठवीं पसन्द बना हुआ है। भारत की इससे कमाई करीब 4–5 अरब डॉलर है। भारत मुख्य तौर पर बांग्लादेश और अफगानिस्तान के लोगों की पहली पसन्द है। 
आज वैश्विक दुनिया है। जिसे जहाँ इलाज सस्ता मिले वह वहाँ इलाज कराने के लिए आजाद है। सभी मरीजों को इलाज मिलना भी चाहिए। इसमें जाति–धर्म, अमीर–गरीब और देश की सीमाएँ भी नहीं आनी चाहिए। पर हम देखते हैं कि भारत में 2015 से 2017 तक विदेशी मरीजों की संख्या दोगुने से भी ज्यादा हो गयी जबकि इस समयान्तराल में भारत में डॉक्टर की संख्या में केवल 0–48 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हुई। जहाँ 2015 में 8,37,071 डॉक्टर थे वहीं 2017 में डॉक्टर की सँख्या में 4,033 बढ़कर 8,41,104 होगयी। 
जितने डॉक्टर और अस्पताल देश में हैं वे देशभर के बीमार लोगों का इलाज करने के लिए अपर्याप्त हैं। लेकिन सरकार विदेशी मुद्रा के लालच में अपने लोगों को बीमार रख रही है। अच्छे डॉक्टर और अस्पताल का ध्यान देशी मरीजों से ज्यादा विदेशी मरीजों पर रहता है क्योंकि वे ज्यादा रुपये देते हैं। इसकी सबसे ज्यादा मार गरीब मजदूर, किसान और निम्न मध्यमवर्गीय लोगों पर पड़ती है। उनके लिए सरकारी अस्पतालों में डॉक्टर मिलते ही नहीं या बहुत कम डॉक्टर पर ज्यादा मरीज देखने का दबाव होता है। सरकार जीडीपी का सिर्फ एक फीसदी स्वास्थ्य पर खर्च करती है। प्रदूषित पर्यावरण और खान–पान में मिलावट से तरह–तरह की बीमारी बढ़ रही हैं। भारत में टीवी से लेकर कैंसर जैसी गम्भीर बीमारियों के मामले बढ़ते जा रहे हैं। सबके इलाज के लिए भारी संख्या में डॉक्टर की जरूरत है। ऐसे में विदेशी मुद्रा भण्डार बढ़ाने का सरकार को या तो तरीका बदलना चाहिए या देश के करोड़ों नौजवानों को विश्वस्तरीय डॉक्टर की ट्रेनिंग देकर ऐसा इंफ्रास्ट्रक्चर बनाना चाहिए जिससे देशी–विदेशी सभी मरीजों को इलाज मिल सके।