–– अनूप मणि त्रिपाठी

आजकल मैं बहुत हीन भावना में जी रहा हूँ। सामान्य तौर पर मैं सामान्य मनुष्य के जैसा जीवन ही जीना चाहता रहा हूँ। मगर अब देख रहा हूँ कि ऐसा सोचना भी मेरा असामान्य है। आजकल ऐसे सोचने वालों को कायर कहा जाता है। कायर ही नहीं बहुत कुछ कहा जाता है, जो यहाँ लिखा नहीं जा सकता।

कट्टर शब्द को मैं नकारात्मक मानता हूँ। मुझे लगता है कोई एक बार कट्टर बन गया तो वह इनसान तो नहीं ही रहता! अब मुझे लगता है कि मुझे अपनी सोच बदलनी पड़ेगी। पर मैं कट्टर जैसे भारी, महाप्रचलित और अतिआवश्यक शब्द को सिर्फ धर्म के साथ रखने का कट्टर विरोधी हूँ। कट्टर शब्द को सीमित न रखकर इसको व्यापक करने की जररूत है। जैसे कट्टर ईमानदार, कट्टर खूबसूरत, कट्टर ज्ञान, कट्टर दयालु, कट्टर भावुक, कट्टर मेहनती, कट्टर नेता, कट्टर प्रेमी वगैरह। वह कट्टर गोरे रंग पर मरता है। वह कट्टर बेरोजगार है। ऐसे वाक्य बोले और लिखे जाने चाहिए!

 कल बाजार में एक पुराना मित्र मिला।

 बोला, ‘यार तुम बहुत ढीले हो!’

मैंने उससे पूछा कि फिर मुझे क्या करना चाहिए।

वह बोला, ‘थोड़ा कट्टर बनो!’

मैंने उसे शुक्रिया कहा।

‘किस बात के लिए!’ उसने पूछा।

‘आपने थोड़ा कहकर बहुत रियायत दे दी!’

वह मुस्कुराया। बोला, ‘शुक्र है तुम जाग गए!’

‘क्या अब जागना भी होगा!’, मैंने पूछा।

वह हँसा और हाथों की उँगलियों को हिलाते हुए बोला, ‘बिना जागे कट्टर नहीं बन सकते––’

‘यह भी गजब है! बचपन में माँ जगाती थी, तो जवानी में  घड़ी। सोचा था, अब आराम से सोऊँगा तो तुम जैसे चिंतक जागे रहे। ट्रेन में किसी सहयात्री की तरह घड़ी–घड़ी भाईसाहब कौन सा स्टेशन आया, पूछने वाले की तर्ज पर चैन से न रहने देना!’ मैंने उलाहना दिया।’

‘भइया अपने धर्म के हो तो जागना पड़ेगा!’ उसने सर हिलाया।

‘अगर मैं किसी और धर्म का होता तो!’

‘तब तो कोई जरूरत नहीं थी।’

‘क्यों!’

‘वह तो पहले से जागे हैं!’

‘अच्छा! तुम सारी खबर रखते हो! वैसे जागने का काम चैकीदार का होता है!’

‘जागते तो चोर भी हैं!’ उसने यह कर अपनी एक आँख दबायी।

‘फिर मुझे कैसे जागना होगा!’ मैंने पूछा।

‘जैसे मैं जागा हूँ!’ वह बोला।

अब जाकर मैंने उसे गौर से देखा। भरा हुआ चेहरा। चमकता हुआ। विज्ञापन वाली भाषा में कहूँ तो विटामिन ई, एलोविरा से युक्त खिला–खिला चेहरा। एक मैं हूँ कि जागने की वजह से मेरे आँखों के नीचे काले गड्ढे पड़ चुके हैं और यह–––

‘मैं काफी देर तक जागता हूँ मित्र!’

यह सुनकर वह हँसा।

‘नींद सेहत के लिए बहुत जरूरी है।’ उसने सुझाव दिया।

‘फिर जागने की बात क्यों करते हो!’

‘अरे यार जागने का मतलब वो नहीं है, जो तुम ले रहे हो!’

‘फिर मैं कैसे लूँ!’

‘जागने का मतलब जाग्रत अवस्था। अपनी संकृति से प्रेम। राष्ट्र के प्रति भक्ति–––’

‘मुझे लगता है यह सब मैं करता हूँ!’

‘जागने का मतलब देशद्रोहियों पर नजर भी! खतरा बढ़ता ही जा रहा!’ यह कह कर वह इधर–उधर देखने लगा।

‘ये काम तो सरकार, सेना, पुलिस लोगों का है!’

‘तुम हो बेवकूफ! अपने आस–पास पहचानो!’

‘जल सेना के ग्यारह जवान जासूसी करते हुए पकड़े गये, जब सेना ही नहीं पहचान पा रही तो हमारे जैसा साधारण इनसान क्या पहचानेगा!’

‘कपड़े से पहचानो!’

‘कपड़े से कैसे पहचान होगी! सेना के जवान सब वर्दी में ही थे! मुझे कोई और काम–धंधा नहीं है क्या!’ मैंने उसे झिड़का।

‘तुम्हें काम–धंधे की पड़ी है! चाहे देश जल जाये! हैएँ!!!’ उसने मुझे घूरा। मैं समझ चुका था यह अपनी टेक नहीं छोड़ेगा।

‘तुमने तो मेरी आँखें खोल दी मित्र। देश के लिए अब मैं जागूँगा! अगली बार जब तुमसे मिलूँगा तो मैं पूरा कट्टर बन कर मिलूँगा–– शायद तुमसे भी ज्यादा! क्योंकि मैं अपने देश को सच्चा नहीं–– नहीं––– कट्टर प्यार करता हूँ!!’

‘यह हुई न बात!’ उसने जोश में मेरे कंधे पर शाबाशी दी।

तभी उसके मोबाइल पर झम से एक संदेश आया। उसने वह संदेश दिखाया। संदेश कह रहा कि जो कट्टर है, इसे लाइक करें। उसने मोबाइल मेरी तरफ बढ़ा दिया।

‘लो तुम लाइक करो!’ बोला।

‘मैं अभी कट्टर कहाँ हुआ!’ मैं उससे बताता हूँ। उसने उसे झट से लाइक कर दिया। मैं मन मसोस कर उसके उत्साह को देखता रह गया।

‘अब तो अपनी सुरक्षा की व्यवस्था भी खुद ही करनी पड़ेगी!’ जाते–जाते बोला।

मैं देख रहा हूँ, जागने पर जोर कौन  दे रहा! विधान सभा–संसद में जो नेता सोता है वो! मुझको अंधेरे में रखकर बीमा बेचने वाला परम मित्र ये! जाग जाऊँ पर सही रास्ता कौन बताएगा! मुझे जगाकर आराम से कौन सोएगा! अगर मैं वाकई जाग गया तो जगाने वालों के चेहरों जैसा मेरा भी चेहरा चमकदार होगा कि नहीं! पता नहीं इनको जागने पर क्या दीखता है। मुझे तो जागने पर संडास दीखता है––– और सबसे बड़ी बात जागने के बाद रोशनी तो होगी न!

मैं बाजार में घूम रहा हूँ। इधर–उधर नजर घुमा रहा हूँ। देखिए, फलाँ कह रहा कि इसमें इतने प्रतिशत एक्स्ट्रा है। अलाँ कह रहा कि यह बचत नहीं महाबचत है। आज सीधे–साधे से काम नहीं चलता! अपने बिकने को लेकर ये प्रोडक्ट भी कट्टर हो गये हैं। पर मैं तो मनुष्य हूँ। मैं सोचता हूँ। मुझे क्या बेचना है, क्या खरीदना है! मेरे कट्टर होने से क्या भला होना है! किसका भला होना है! अगर होना है तो कैसे भला होना है। हमने वोट देकर जिनको चुना था। आज वही हमसे कट्टर होने को कह रहा। मैं सोचता हूँ ,कट्टर हो कर मुझे क्या मिलेगा! हाँ मगर पीढ़ी दर पीढ़ी उसकी पार्टी को हमारे घर का वोट उसे जरूर मिलेगा! अर्थात कट्टर मतलब पुश्त दर पुश्त वोटर होने की गारंटी ––

घूमते–घूमते मैं केले के ठेले के पास आ गया हूँ।

‘कट्टर केले कैसे दिये!’ उधेड़बुन में मैं उससे पूछता हूँ।

‘ पचपन रुपये दर्जन!’

‘‘आएँ!!’ दाम तो वाकई कट्टर हैं!’ मैं सोचता हूँ और आगे बढ़ लेता हूँ।

‘पचास लग जाएँगे!’ वह अपनी कट्टरता कुछ कम करता है। मेरे हिसाब से अभी भी बहुत ज्यादा थी। मैं यह जानता हूँ कि दाम की कट्टरता तय करने के पीछे इसका कोई हाथ नहीं। वह भी मेरी ही तरह है। ‘कवि कहना चाहता है कि––’ के जैसे हम वहीं रट कर चलने वाले लोग हैं, जिसे हमें रटा दिया जाता है।

‘नहीं नाश्ते में आज गर्व खाऊँगा!’ मैं उससे कहता हूँ

‘आज तो खा लेंगे सर! मगर कल!’ वह हँसता है।

‘आज जो गर्व खाया है। मैं जानता हूँ वो पचेगा नहीं। इसको पचाने के लिए मनुष्यता का त्याग करना पड़ता है। इतिहास बदलना होता है। कल उल्टी हो ही जाएगी। नाश्ते की नौबत और तबियत ही नहीं होगी!’

‘मगर परसों सर!’

‘हाँ मगर परसो क्या!’ मैं सोच में पड़ जाता हूँ।

परसों तुम्हारा ठेला लूट लूँगा!’ मैं मजाक करता हूँ। वह सहम जाता है। मुझे झेंप नहीं गुस्सा आता है। यह मजाक को इतनी गम्भीरता से क्यों ले रहा! मजाक को सच समझ रहा!

‘मजाक कर रहा हूँ!’ मैं स्पष्ट करता हूँ। वह इसके बाद एक फीकी मुस्कान देता है। कमबख्त अभी भी सच मान रहा!

कुछ दिन बाद मैं अपने जागे मित्र के घर पहुँचता हूँ। जिसे मेजबान आ धमकना कहते हैं।

काउच पर मेरे लिए सोफा ही है, उस पर बैठते ही मैंने कट्टा निकाल कर उनकी गोद मे रख दिया। वह उछल पड़ा। जैसे बचपन में किसी के ऊपर प्लास्टिक का साँप फेंक देते थे।

‘ये क्या है! उसने चैंकते हुए पूछा।

‘कट्टा है!’

‘हाँ वह तो मैं भी देख रहा हूँ!’

‘तुमने कहा था कि कट्टर बनो!’

‘तो!’

‘तुमसे ज्यादा कट्टर बन गया हूँ, जैसा तुम से कहा था। यह कट्टा तुम्हारे बेटे के लिए लाया हूँ!’

‘पागल हो! कैसे चाचा हो तुम! कलम की जगह कट्टा दे रहे हो!’ वह गुस्से से बोला। मैं उसके गुस्से को देख रहा था।

‘अपने बेटे को दो, जा के!’ वह फिर बोला।

‘दोस्त, मैं पूरी तरह से जाग चुका हूँ। इसलिए उसे पहले ही दे चुका हूँ!’

वह एक झटके से उठा। मेरा हाथ पकड़ कर उठाते हुए बोला,’ तुम्हें आराम की जरूरत है। लगता है तुम कई दिनों से ठीक से सोये नहीं हो! भरपूर नींद लो जा के!’

मैं जाने लगा तो वह पीछे से टोका, ‘और ये लेते जाओ!’ यह कह कर उसने कट्टा मेरे हाथ में पकड़ा दिया।

सड़क पर आकर मैं हँसा। खूब हँसा।

उसी केले वाले के पास दुबारा पहुँचा। वह मुझे देखकर कुछ घबरा सा गया।

‘ये क्या है सर!’ वह डरते हुए पूछता है।

‘कट्टा!’ वह जड़ हो गया।

‘अरे, बच्चों का खिलौना है ये!’

इस बात पर वह और डर जाता है। ऐसा क्या गलत बोल दिया मैंने! थोड़ी देर के लिए मैं सोचने लगता हूँ।

‘अरे यह प्लास्टिक का खिलौना है! नकली! नकली है पूरी तरह!’ मैं उसे तसल्ली देता हूँ।

‘बिल्कुल असली लग रहा था सर!’

‘यही तो दिक्कत है आजकल। लोग नकली को असली समझने लगे हैं!’

वह मुस्कुराता है।

‘केले तो कट्टर है न!’

‘बहुत! चखिए तो सर!’

‘अभी एक को चखा कर आया हूँ!’

‘जी!!!’ वह मुझे गौर स देखता है।

‘कुछ नहीं, तुम नहीं समझोगे!’ मैं हँसता हूँ।

‘क्यों नहीं समझेंगे सर! केले के साथ हमको भी कट्टर समझ रहे हैं क्या!’

मैं उसे देखता रह जाता हूँ। इस बात पर मैं तो आज कट्टर केला खा कर रहूँगा। मैं केला खरीद लेता हूँ। मैं केला खाता हूँ।’

‘केला कट्टर हो न हो पर मीठा है!’

‘कट्टर मीठा सर–––’ वह बोलता है।

हम दोनों हँस देते हैं–––