भीड़ का हमला या संगठित हिंसा?
समाचार-विचारदेश भर में गौ–तस्करी, गौमांस रखने और बच्चा चोरी के शक में भीड़ द्वारा हमले (मॉब लिंचिंग) की घटनाएँ बढ़ रही हैं। इण्डिया स्पेंड की रिपोर्ट के अनुसार साल 2010 से अब तक केवल गौहत्या या गौमांस रखने के शक में भीड़ के 86 हमले हो चुके हैं, जिनमें से 98 फीसदी हमले साल 2014 में बीजेपी के सत्ता में आने के बाद हुए हैं। इनमें मारे गये 33 लोगों में से 29 लोग यानी 88 फीसदी मुस्लिम हैं।
27 जुलाई 2018 की ‘द वायर’ की रिपोर्ट के अनुसार राष्ट्रीय मानवधिकार आयोग ने राजस्थान सरकार को अलवर मॉब लिचिंग मामले में नोटिस भेजा है। यह घटना 21जुलाई की है। रकबर हरियाणा के मेवात जिले के कोलगाँव के रहने वाले थे। उनकी उम्र 28 साल थी। उनके परिवार में बूढ़े पिता, पत्नी और बच्चे थे। उन्होंने गाय पाल रखी थी, जिसके दूध से घर का खर्च चलता था। इसीलिए वे अपने दोस्त असलम के साथ राजस्थान के अलवर जिले में गये थे। उसके बाद वे अलवर जिले के रामगढ़ से दो गायें खरीदकर लालवंडी गाँव से होकर गुजर रहे थे, उसी दौरान गौरक्षकों ने भीड़ की आड़ में उन पर हमला कर दिया। असलम तो उस बहशी गौरक्षकों की भीड़ से भागने में सफल रहा लेकिन रकबर को उन्होंने पीट–पीटकर बुरी तरह लहू–लुहान कर दिया। पिटाई के दौरान उसकी छाती की पसली और हाथ–पैर की हड्डियाँ टूट गयीं। घटना के कुछ देर बाद वहाँ पुलिस पहुँची। पुलिस ने आते ही रकबर को अस्पताल पहुँचाने के बजाय सबसे पहले गायों को गौशाला भेजने की व्यवस्था की। उसके बाद रकबर को अस्पताल पहुँचाया गया। तब तक काफी देर हो चुकी थी। कुछ ही देर बाद डॉक्टरों ने उसे मृत घोषित कर दिया। पुलिस की संवेदना इन्सान से ज्यादा एक गाय के साथ थी। जबकि गायें सुरक्षित खड़ी थीं और रकबर मरणासन्न स्थिति में पड़ा हुआ था। रकबर के घरवालों ने तब तक उसके शव को दफनाने से इनकार कर दिया जब तक कि सरकार की ओर से उचित कार्रवाई का वादा नहीं किया जाता। इस दबाव में पुलिस ने 3 आरोपियों को गिरफ्तार किया। बीजेपी के विधायक ज्ञान देव आहूजा ने आरोपियों को बचाने के लिए लालवंडी गाँव में अभियान चलाया। वहाँ उन्होंने भड़काऊ भाषण दिया और जनता को हिन्दू–मुस्लिम में बाँटने की घिनौनी चाल चली।
16 मार्च 2018 की ‘बीबीसी हिन्दी’ की खबर के अनुसार पिछले साल 29 जून को झारखंड राज्य के निवासी अलीमुद्दीन अंसारी अपनी गाड़ी से कहीं जा रहे थे। उसी दौरान रामगढ़ में गौरक्षकों की भीड़ ने उन पर हमला कर दिया। उन्हें दौड़ा–दौड़ाकर मारा जाने लगा। उनकी गाड़ी को आग के हवाले कर दिया। उसके बाद पुलिस वहाँ पहुँची और उन्हें अस्पताल पहुँचाया गया। कुछ ही देर बाद वहाँ उनकी मौत हो गयी। पुलिस ने 11 गौरक्षकों को गिरफ्तार किया। उसके तुरन्त बाद बीजेपी के पूर्व विधयाक शंकर चैधरी ने आरोपियों को बचाने के लिए ‘रामगढ़ बन्द’ का एलान किया। भाजपा के नेताओं ने पुलिस पर आरोपियों को छोड़ने के लिए दबाव बनाया। यहाँ तक कि बीजेपी के सांसद और केन्द्रीय मंत्री जयंत सिन्हा ने आरोपियों को बचाने के लिए एक वकील मुहैया कराया। अन्त में कोर्ट ने सभी आरोपियों को आजीवन कारावास की सजा सुनाई। हाई कोर्ट में अपील के बाद 8 आरोपियों को जमानत पर रिहा कर दिया गया। उसके बाद मंत्री जयंत सिन्हा ने आठों आरोपियों को अपने निवास पर दावत दी। मंत्री ने माला पहनाकर आरोपियों को सम्मान किया। बाद में देश भर में इस घटना को लेकर मंत्री जी की भर्त्सना होने लगी। इस किरकिरी के बाद उन्होंने माफी माँग ली।
5 जुलाई 2018 की इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के अनुसार, 11 जिलों के पुलिस अधीक्षकों के अनुसार मॉब लिचिंग की अधिकांश घटनाओं में पीड़ित स्थानीय निवासी नहीं थे। 5 जुलाई की ही ‘आज तक’ अखबार की एक रिपोर्ट के अनुसार महाराष्ट्र में पिछले 25 दिनों में मॉब लिचिंग की 14 घटनाओं में 11 लोगों की मौत हो चुकी है। आँकड़ों से अन्दाजा लगाया जा सकता है कि पूरा देश बुरी तरह मॉब लिचिंग की घटनाओं से सुलग रहा है। इसके बावजूद तेलंगाना से बीजेपी विधायक टी राजा सिंह ने बयान दिया है कि जब तक गाय को ‘राष्ट्र माता’ का दर्जा नहीं दिया जायेगा तब तक मॉब लिचिंग की घटनाएँ नहीं रुकेंगी। विधायक जी के बयान से हम समझ सकते हैं कि यह कोई आम भीड़ नहीं है, पहले से तैयार भीड़ है, उसका शिकार भी सुनियोजित होता है। नेताओं के ऐसे भड़काऊ बयान आने के बाद भी सरकार अगर नेताओं पर पर कार्रवाई नहीं करती है तो समझा जा सकता है कि इन सबके पीछे कौन है?
सरकार में शामिल मंत्री और सत्ताधारी पार्टी के नेता मॉब लिचिंग के आरोपियों को सजा दिलवाने के बजाय उनका उत्साह बढ़ाते हैं। लगभग दो साल पहले दादरी में अखलाक को बहशी भीड़ ने पीट–पीट कर मार दिया था। इस मामले में भी पुलिस ने लगातार आरोपियों को बचाया लेकिन लोगों के जबरदस्त विरोध के बाद 15 आरोपियों को पकड़ा गया। 15 अक्तूबर 2017 के अखबार ‘आज तक’ के अनुसार बीजेपी विधायक तेजपाल सिंह ने आरोपियों को सरकारी कम्पनी नेशनल थर्मल पावर कॉरपोरेशन (एनटीपीसी) में ठेके पर नौकरी दिलवायी। दरअसल मुख्य आरोपी विधायक का भाई है। हिन्दुत्ववादी नेताओं ने समाज में ऐसी सोच को बढ़ावा दिया है जिसमें मुस्लिम या दलितों को मारना कोई गुनाह नहीं है बल्कि इससे नौकरी भी मिल सकती है। वहीं दूसरी तरफ पीड़ित परिवार की कोई चिन्ता नहीं होती। क्योंकि पीड़ित परिवार की इतनी गलती है कि वह मुस्लिम या दलित समुदाय से होता है।
2018 में बच्चा चोरी करने के शक में भीड़ ने 66 हमले किये जो पिछले साल के मुकाबले 8 गुना ज्यादा हैं। पिछले साल झारखण्ड राज्य के जमशेदपुर में कुछ लोग दो गाड़ियों में बैठकर कहीं जा रहे थे। तभी अचानक भीड़ ने बच्चा चोर के शक में उन पर हमला कर दिया। वे लोग लगातार गिड़गिड़ा रहे थे कि हम बच्चा चोर नहीं हैं लेकिन भीड़ ने उनकी एक न सुनी। धीरे–धीरे भीड़ ने 7 लोगों को मौत के घाट उतार दिया। आज इनसानी जिन्दगी को कुछ नहीं समझा जा रहा है। इस घटना ने इनसानी संवेदना को खत्म कर दिया। राष्ट्रीय मानवधिकार आयोग ने मामले का संज्ञान लेते हुए झारखण्ड सरकार को नोटिस भेजा।
मॉब लिचिंग की घटनाओं का सिलसिला बढ़ता जा रहा है। अब तक मॉब लिचिंग के कारण सैंकड़ों लोगों को मौत के घाट उतार दिया गया। संसद में विपक्ष के सवाल के जवाब में गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने कहा कि पीड़ित व्यक्ति की सुरक्षा की जिम्मेदारी केवल राज्य सरकारों की है, केन्द्र सरकार की नहीं। सबसे बड़ी मॉब लिचिंग तो 1984 में हुई थी। क्या गृहमंत्री जी दंगे और मॉब लिचिंग में फर्क करके नहीं देखते? हालाँकि दंगे में भी लोग मारे जाते हैं और मॉब लिचिंग में भी। जिस तरह से दंगे प्रायोजित होते हैं, उसी तरह मॉब लिचिंग प्रायोजित होती है। लेकिन सबसे जरूरी है इनसानी जिन्दगी की सुरक्षा जो न तो दंगों में मिलती है और न ही मॉब लिचिंग में। जबकि मॉब लिचिंग और दंगों में बड़ा अन्तर है। दंगे में दो समुदाय आमने–सामने लड़ते हैं। दोनों समुदायों का खून बहता है। लेकिन मॉब लिचिंग में प्रायोजित भीड़ मुस्लिम समुदाय के गरीब व्यक्ति या व्यक्तियों के छोटे समूह पर हमला करती है, जिसमें उन्मादी और प्रायोजित भीड़ हमेशा सुरक्षित रहती है और इस काम में प्रशासन भी सहयोग देता है। दंगे की तुलना में मॉब लिचिंग के जरिये वोट बैंक की राजनीति कहीं अधिक सफल है। इसमें वोटों की खूब बारिश होती है।
ऐसा नहीं है कि इससे पहले भीड़ के हमले और बलात्कार की घटनाएँ नहीं होती थीं। लेकिन पहले कोई नेता आरोपियों के पक्ष में खड़ा नहीं होता था। वे इस बात से डरते थे कि कहीं ऐसा न हो कि जनता में हमारी छवि खराब हो जाये। लेकिन पिछले कुछ सालों से सत्ताधारी पार्टी के नेता आरोपियों के पक्ष में खड़े ही नहीं रहते बल्कि उन्हें बचाते भी हैं। सिलसिला यहीं तक नहीं रुकता, उसके बाद आरोपियों को सम्मान, पद–प्रतिष्ठा और नौकरी दी जाती है। इसके ताजा उदाहरण हैं–– दादरी के अखलाक मॉब लिचिंग केस में सभी आरोपियों को नौकरी दी गयी। दूसरा, उन्नाव गैंगरेप केस में आरोपी बीजेपी विधयाक के पक्ष में अभियान चलाया गया और उसकी तरफ से लड़ रहे वकील को ऊँचा पद दिया गया।
पिछले कुछ सालों की घटनाओं पर गौर करें तो ऐसा लग रहा है जैसे सत्ताधारी पार्टी के नेता लोगों की भीड़ को खास मकसद के लिए तैयार करते हैं और उन्हें हमले के लिए उकसाते हैं। हमला करने पर अपराधियों को प्रशासन से बचा लिया जाता है और आर्थिक मदद या नौकरी दिलवा दी जाती है। नेताओं और आरोपियों में कोई फर्क नजर नहीं आता। असल में नेता अपराधियों से कम नहीं हैं। दरअसल मौजूदा संसद में 541 सांसदों में से 186 सांसदों पर गम्भीर मुकदमे हैं, जिनमें मुख्य रूप से हत्या, बलात्कार, भ्रष्टाचार आदि के मामले हैं। सबसे ज्यादा मुकदमे भाजपा के सांसदों पर हैं।
मॉब लिंचिंग मामले में प्रधानमंत्री की चुप्पी भी बहुत कुछ बोलती है और इससे अपराधियों के हौसले बुलन्द हैं। भाजपा का मकसद केवल चुनाव जीतना भर है। इसलिए वह पूरी कोशिश करती है कि ऐसे मुद्दों से केवल जनता का धु्रवीकरण किया जाये, जिससे सत्ता में आने के लिए वोट बैंक मजबूत हो सके। दरअसल नेता देश की सामन्ती मूल्य–मान्यताओं जैसे जातिवाद, क्षेत्रवाद, साम्प्रदायिकता, धर्मान्धता, अवैज्ञानिक विचार आदि का फायदा उठाते हैं। इसीलिए ये कोई साधारण हमले नहीं हैं बल्कि नफरत फैलाने की संगठित मुहिम है। ऐसी घटनाएँ बेहद निन्दनीय हैं।
जब से भाजपा सत्ता में आयी है तब से हिन्दुओं को भड़काया जा रहा है। ऐसी अफवाह उड़ायी जा रही है कि गौमाता असुरक्षित हैं। इन सबका कारण मुस्लिम समुदाय के लोग हैं। जबकि भाजपा के लोग जिन्हें ये गौमाता कहते हैं उनकी ही गौशाला में आये दिन गायों के मरने की खबरें आती रहती हैं। सड़कों पर उन्हें कचरा खाने के लिए आवारा छोड़ दिया गया है। क्या यही गौमाता के प्रति असीम प्रेम है? दरअसल नफरत की भावना फैलाने वाले लोग न हिन्दुओं के हैं हितैषी न मुसलमानों के। बल्कि वे सत्ता की मलाई खाने वाले लोग हैं जो देशी–विदेशी पूँजीपतियों के इशारे पर काम करते हैं।
मॉब लिचिंग की घटनाओं को खाद–पानी देने का काम भारतीय मीडिया कर रहा है। मीडिया ने पूरे देश में मुसलमानों की नकारात्मक छवि बनायी है। सत्ताधारी वर्ग के साथ मीडिया का गठजोड़ है। इसीलिए आज दोनों पर निर्दाेष लोगों की हत्या के खून के छींटे लगे हुए हैं, जो कभी नहीं धुलेंगे।
मॉब लिचिंग की बढ़ती घटनाओं के कारण दुनिया भर में भारत की बदनामी हो रही है। मॉब लिचिंग की घटनाओं को विदेशी मीडिया ने जोरशोर से उठाया है। ‘द गार्जियन’ ने रकबर की हत्या की खबर का शीर्षक दिया, “भीड़ के हमले में घायल शख्स की मदद से पहले भारतीय पुलिस ने चाय पी।” ‘द न्यूयोर्क टाइम्स’ ने केन्द्रीय मंत्री जयंत सिन्हा द्वारा अलीमुद्दीन अंसारी के हत्यारों को माला पहनाने पर लिखा, “नफरत के नशे में भारतीय नेता ने जान लेने वाली भीड़ का सम्मान किया।” ‘द सन’ अखबार ने असम में भीड़ द्वारा दो लोगों की हत्या को अपनी खास खबर बनाया। आज किसी व्यक्ति को इसलिए मौत के घाट उतार दिया जाता है क्योंकि उसके खाने–पीने और जिन्दगी जीने के रीति–रिवाज एक समुदाय से मेल नहीं खाते। सत्ताधारी वर्ग ने कुछ लोगों को उन्मादी और बहशी भीड़ में तब्दील कर दिया है। उन्हें पहले से प्रायोजित नफरत के युद्ध में झोंक दिया है।
यदि आज हम अपने विवेक पर जोर नहीं देते और इस बहशीपन के खिलाफ लड़ाई नहीं लड़ते तो हमारी भावी पीढ़ियाँ पागल और विक्षिप्त पैदा होंगी।
––मोहित सावरिया
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