सार्वजनिक स्वास्थ्य और सामाजिक विकास के क्षेत्र में काम करने वाले हम जैसे कई लोग हाल ही में उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा घोषित–– उत्तर प्रदेश जनसंख्या (नियंत्रण, स्थिरीकरण और कल्याण) विधेयक, 2021–– को देखकर पूरी तरह भयभीत भले ही ना हो लेकिन आश्चर्यचकित हैं। यह मुख्यत: दो बच्चे पैदा करने पर केन्द्रित है, जिसमें उल्लंघन के लिए दण्ड और कानून का पालन करने के लिए कई तरह के प्रोत्साहनों का उल्लेख किया गया है। इसके खिलाफ तेजी से बढ़ रही नकारात्मक प्रतिक्रिया का कारण इसमें निहित विभिन्न खतरे हैं, और साथ ही यह भी कि अधिकतर विशेषज्ञ इस बात से सहमत हैं कि ‘विकास सबसे अच्छा गर्भनिरोधक है’ और यह भी कि प्रोत्साहन के द्वारा जनसख्ंया स्थिरीकरण की बात बहुत पहले ही अतार्किक साबित हो चुकी है।

1994 के शुरू में इण्टरनेशनल कॉन्फ्रेंस ऑन पॉपुलेशन एण्ड डेवलपमेण्ट (यूएन 1994) की कार्रवाई का मसौदा, जिस पर भारत ने भी हस्ताक्षर किये हैं, इसमें दृढता से साबित किया गया था कि जनसख्ंया स्थिरीकरण में जोर–जबरदस्ती, प्रोत्साहन और निरुत्साहन की भूमिका बहुत कम होती है और इसके बजाय इसके लिए जानकारी देकर मुक्त चुनाव के सिद्धान्त को अपनाया जाना चाहिए।

यही सिद्धान्त राष्ट्रीय जनसंख्या नीति 2000 में भी प्रतिध्वनित होता है, जो पूरी स्पष्टता से लक्ष्य मुक्त सोच का समर्थन करता है और शिक्षा, मातृ तथा शिशु स्वास्थ्य और उत्तरजीविता पर फोकस करता है और गर्भनिरोधक सेवाओं सहित स्वास्थ्य सेवाओं और देखभाल की उपलब्धता को जनसंख्या स्थिरीकरण की प्रमुख रणनीतियाँ मानता है। प्रोत्साहन और निरुत्साहन के खिलाफ इस वैश्विक और राष्ट्रीय गठजोड़ के लिए और ऊपर दिये गये विकास सम्बन्धी मानकों के पक्ष में तर्क और औचित्य उत्तर प्रदेश और अन्य राज्यों पर आज भी उतने ही लागू होते हैं जितना तब लागू होते थे जब इन नीतियों को सूत्रबद्ध किया गया था।

स्थिरीकरण के संकेत

नीचे दिये गये स्थापित तथ्यों पर तर्क के साथ विचार करें–

भारत और उत्तर प्रदेश की जनसंख्या दो बच्चों के मानदण्ड जैसी दमनकारी नीतियों के लागू होने से पहले ही स्थिरीकरण की और बढ़ रही है। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (एनएफएचएस – 3) के अनुसार उत्तर प्रदेश में प्रजनन दर 10 वर्ष पूर्व 3.8 थी, जबकि आज 2.7 (एनएफएचएस–4) ही है। यह गिरावट शिशु मृत्यु दर, मातृ मृत्यु दर, कुपोषण जैसे राज्य के स्वास्थ्य संकेतकों में इस अवधि के दौरान हुए सुधार के बावजूद है।

एनएफएचएस–4 के मुताबिक ऐसे कई राज्य हैं जो 2.1 की प्रजनन दर का निर्धारित स्तर हासिल कर चुके हैं जैसे आँध्र प्रदेश, गुजरात, हिमाचल प्रदेश, कर्नाटक, केरल, महाराष्ट्र, ओडिशा, तेलंगाना, तमिलनाडु, उत्तराखण्ड, पश्चिम बंगाल (केन्द्र शासित प्रदेशों और कुछ पूर्वोत्तर के राज्यों को छोड़कर)। इन में से सभी की बाल मृत्यु दर उत्तर प्रदेश से कम है। उदाहरण के लिए, एनएफएचएस–4 के मुताबिक केरल में बाल मृत्यु दर 07 और तमिलनाडु में 27 है इनकी तुलना में उत्तर प्रदेश में बाल मृत्यु दर 78 है। उत्तर प्रदेश में 10 या उससे अधिक वर्षों तक स्कूली शिक्षा प्राप्त करने वाली महिलाओं की संख्या 33 प्रतिशत है, जबकि केरल में यह 72 प्रतिशत और तमिलनाडु में 50 प्रतिशत है। इस प्रकार स्वास्थ्य और शिक्षा सम्बन्धी सेवाओं के बेहतर वितरण के माध्यम से जनसंख्या स्थिरीकरण में तेजी लाने की बहुत गुंजाइश है।

बाल लिंगानुपात का मुद्दा

दो बच्चों के मानदण्ड जैसी नीतियों को जबरदस्ती लागू करने में सबसे बड़ी चिन्ता की बात यह है कि उसका सबसे ज्यादा प्रभाव बाल लिंगानुपात पर पड़ता है क्योंकि जिस समाज में इसे लागू किया जाना है वहाँ लड़कों को बहुत अधिक प्राथमिकता दी जाती है। यह चिन्ता कितनी ज्यादा वास्तविक है, इसे चीन के उदाहरण से अच्छी तरह समझा जा सकता है, जिसने अपने एक बच्चे के मानदण्ड पर रोक लगाकर दो बच्चों के मानदण्ड को लागू किया। उसके बाद भी जब बाल लिगांनुपात में निरन्तर भयानक गिरावट दर्ज होती रही तो बाल प्रजनन दर से पूरी तरह प्रतिबन्ध हटा लिया। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण के अनुसार भारतीय राज्यों में बाल लिगांनुपात के मामले में उत्तर प्रदेश सबसे खराब स्थिति में है, केरल में 1047 और तमिलनाडु में 954 की तुलना में सबसे कम बाल लिगांनुपात उत्तर प्रदेश में 907 है। इसके बावजूद उत्तर प्रदेश सरकार का ऐसा मूखर्तापूर्ण सनकी कदम उठाना समझ से परे है।

कमजोर सामाजिक आर्थिक स्थिति और परिवार के आकार के बीच सहसम्बन्ध है, जैसे कि पहले भी बहुत से लोगों ने चिन्हित किया है, प्रस्तावित मानदण्ड गरीबों में भी सबसे गरीब समुदायों के परिवारों, जैसे धार्मिक अल्पसंख्यकों और दलित परिवारों पर भेदभावपूर्ण प्रभावों की चोट करते हैं। ऐसे समुदायों को राजनीतिक और प्रशासनिक क्षेत्रों से बाहर करके और साथ ही साथ सामाजिक कल्याण तक उनकी पहुँच के रास्ते में दीवार खड़ी करके किसी भी तरह के सामाजिक न्याय और समानता को आगे नहीं बढ़ाया जा सकता।

गरीब समुदायों को अक्सर ही जनसंख्या नियंत्रण न करने के लिए दोषी ठहराया जाता है, जबकि हमारे द्वारा किये गये एक अध्ययन के अनुसार इनका विशाल बहुमत जनसंख्या नियंत्रण करने और गर्भनिरोधक सेवाओं के लिए सक्रिय रूप से प्रयास करने के पक्ष में है। उत्तर प्रदेश सरकार केवल 18 प्रतिशत लोगों की ही गर्भनिरोधक आवश्यकता पूरी कर सकी है (उदाहरण के लिए, तमिलनाडु में 10 प्रतिशत)। यह वह राज्य है जो गर्भनिरोधक सेवाओं की सक्रिय इच्छुक आबादी के पाँचवे हिस्से तक भी सेवाओं की आपूर्ति नहीं कर सका है, अच्छे स्तर की सेवाओं का प्रतिशत तो कहीं ज्यादा बुरा है। अगर हम कानून का उपयोग करके ही स्थिति को ठीक करना चाहते हैं तो सबसे पहले “स्वास्थ्य रक्षा के अधिकार का कानून” क्यों नहीं लागू करते, जिसकी माँग स्वास्थ्य के क्षेत्र में काम करने वाले समूह दशकों से कर रहे हैं? और माँग होने पर उचित समय में और सेवाएँ प्रदान ना करने पर राज्य को भी दंडित क्यों न किया जाये जिस तरह इस कानून में लोगों के लिए है?

आपराधिक नसबन्दी के ‘शिविरों’ में बेवजह गँवाई गयी हजारों जिन्दगियों और मानवाधिकारों के उल्लंघन की यादें अभी भी हमारे जेहन में मौजूद हैं, जिसे नियंत्रित करने के लिए सर्वोच्च न्यायालय को कदम उठाना पड़ा था (देविका बिस्वास बनाम यूनियन आफ इण्डिया एण्ड अदर, पिटिसन–2012 सख्ंया–95)। हाल ही में उत्तर प्रदेश के गाँव की एक नृशंस घटना सामने आयी है जिसमें कोविड–19 का टीका लगाने का लालच देकर डॉक्टरों ने अपने लक्ष्य को पूरा करने के लिए एक गरीब विकलांग व्यक्ति की जबरन नसबन्दी कर दी।

एक गलत रास्ते का अनुसरण

स्पष्ट रूप से जैसा कि बहुत सारे मामलों में सामने आया है मौजूदा समय में राज्य ‘नियंत्रण’ के पुराने ढर्रे के मानकों को स्थापित कर रहा है, सरकार को अपने नागरिकों पर यह भरोसा नहीं है कि वे खुद अपने हित में तार्किक कदम उठा सकते हैं। इन निर्णयों के समर्थक के रूप में और जनता के अधिकारों के लिए एक कर्तव्यवाहक के रूप में अपना काम करने के बजाय राज्य बेहतर स्थिति में खुद को एक पितृसत्तात्मक ताकत की तरह मानता है जिसे हुक्म ना मानने वाली अनाड़ी आबादी पर निश्चित रूप से अंकुश रखना चाहिए और बदतर स्थिति में खुद को एक पुलिसकर्मी की तरह मानता है जो कानून का उपयोग निरकुंशता के साधन की तरह करता है। जनसख्ंया स्थिरीकरण के लिए क्या करना चाहिए और क्या नहीं, अगर उत्तर प्रदेश सरकार दशकों के वैज्ञानिक तथ्यों पर आधारित सामूहिक समझ की थोड़ी भी कद्र करती तो उसे इस अतार्किक और बीमार सोच वाले प्रस्तावित अधिनियम को तुरन्त वापस ले लेना चाहिए था। इसके बजाय, हम दूसरी राज्य सरकारों को इसके पीछे–पीछे चलते देख रहे हैं। स्पष्ट रूप से हमारी सरकारों के लिए स्वास्थ्य और शिक्षा की बुनियादी सेवाएँ प्रदान करने में अपनी विफलताओं के लिए खुद को दोषी मानने के बजाय अल्पविकास के पीड़ितों पर ही दोष मढ़ना और उन्हें सजा देना आसान है।

–– वंदना प्रसाद, दीपा सिन्हा

(वन्दना प्रसाद एक स्वतंत्र जन स्वास्थ्य विशेषज्ञ हैं और हेल्थ रिसॉर्स नेटवर्क से जुड़ी हैं। दीपा सिन्हा अम्बेडकर विश्वविद्यालय दिल्ली में प्राध्यापक हैं।)

(द हिन्दू से साभार)

अनुवाद –– सोनू पवाँर