सरकार स्वास्थ्य सेवाओं के निजीकरण पर आमादा है, जबकि निजी अस्पताल कोविड–19 के इलाज और जाँच में फिसड्डी साबित हुए हैं।

सरकार ने निजी अस्पतालों की जाँच फीस काफी मँहगी तय की, जबकि इन अस्पतालों द्वारा उससे कहीं ज्यादा फीस वसूलने या जाँच में आनाकानी करने के मामले भी सामने आये।

निजी अस्पतालों की मुनाफाखोरी तो जगजाहिर है, इस महामारी से निपटने में, इलाज और जाँच के मामले में उनकी लापरवाही भी खुलकर सामने आयी है।

देश में कुल कोविड–19 जाँच लैब में 30 प्रतिशत निजी क्षेत्र के हैं, जबकि कुल जाँच में इनकी भूमिका सिर्फ 12–18 प्रतिशत है। दिल्ली, मुम्बई जैसे महानगरों को छोड़कर बाकी जगहों में सरकारी लैब की तुलना में इनके जाँच का अनुपात तो बहुत ही कम है।

इंडियन काउन्सिल ऑफ मेडिकल रिसर्च (आईसीएमआर) के मुताबिक सरकार ने कोविड–19 की जाँच के लिए 607 लैब को अनुमति दी, जिनमें से 180 लैब यानी लगभग 30 प्रतिशत निजी क्षेत्र के हैं। लेकिन जहाँ तक सैम्पल की जाँच का सवाल है, देश भर में सरकारी लैब में 25 लाख सैम्पल की जाँच हुई, जबकि निजी लैब में सिर्फ 5 लाख सैम्पल। जहाँ तक संक्रमित रोगियों के इलाज का सवाल है, निजी अस्पतालों ने बहुत ही कम रोगी भर्ती किये और वहाँ रोगियों की मृत्युदर भी सरकारी अस्पतालों से ज्यादा है।

दिल्ली के सबसे महँगे मैक्स अस्पताल में कोरोना का हर चैथा मरीज आईसीयू में भेजा गया है। हालाँकि 65 मरीजों में से सिर्फ एक को ही वेण्टिलेटर सपोर्ट पर रखना पड़ा है। दूसरी ओर देश के सबसे बड़े सरकारी अस्पताल एम्स में कोरोना के कारण भर्ती किये गये 31 मरीजों में से सिर्फ एक को आईसीयू में ले जाया गया है और चालीस मरीजों में से एक को वेण्टिलेटर सपोर्ट पर रखा गया है। इस तथ्य की व्याख्या आप करें लेकिन मोदीजी की नीति यह है कि सरकारी अस्पतालों पर खर्च घटाया जाये और ज्यादा से ज्यादा प्रायवेट अस्पताल बढ़ने दिये जाये। गरीब लोगों को आयुष्मान योजना से जोड़ दिया जाये और बाकी लोग स्वयं स्वास्थ्य बीमा करवाएँ। यही नीति अमरीका की है। यूरोप की नीति इससे उलट है।

आज कोरोना के चलते अमरीका दुनिया में सबसे ज्यादा तबाह हुआ है जबकि वह सबसे धनी देश है जिसके पास दुनिया के प्राइवेट अस्पतालों के नेटवर्क का सबसे बड़ा और सबसे बेहतर हिस्सा है। कोरोना के चलते वहाँ की आबादी का एक हिस्सा बीमा कम्पनियों की शर्तों के जाल में जितना कोरोना से मर रहा है उससे भी ज्यादा कर्ज से मर रहा है क्योंकि निजी अस्पतालों के लिए महामारी मुनाफा कमाने का सबसे बड़ा अवसर लेकर आयी है।

निजीकरण के समर्थक इस झूठ का सहारा लेते हैं कि सरकारी विभागों में काम नहीं होता, लेकिन कोरोना आपदा के अनुभव ने इस झूठ का पर्दाफाश कर दिया। सच तो यह है कि आज सरकारी स्वास्थ्य सेवाएँ नहीं होतीं तो स्थिति इससे भी भयावह होती। लेकिन विडम्बना यह कि हाल ही में केन्द्र सरकार ने सभी राज्यों के स्वास्थ्य सचिवों को बड़े सरकारी अस्पतालों और मेडिकल कॉलेजों के निजीकरण की कार्रवाई तेज करने के लिए लिखा है। कॉरपोरेट की चिन्ता में डूबी सरकार स्वास्थ्य सेवाओं की हकीकत को नजरअन्दाज करके आज भी सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं के निजीकरण को बढ़ावा दे रही है।