“मैं” और “हम”
साहित्यमैं और मेरी पत्नी मोटर गाड़ी से सान जोक्विन घाटी के उत्तरी और पश्चिमी हिस्से में, सिंचाई की उन नहरों के किनारे–किनारे घूमे जो खेत मालिकों को सरकारी सहायता पाने में मदद करती हैं। जब कीटनाशकों से हमारा दम घुटने लगा तो हमने अफसोस जाहिर किया कि हवा अशुद्ध होने के कारण पूरब के पहाड़ों को हम देख नहीं पाये जो कोई ज्यादा दूर नहीं थे। यहाँ के फार्म और खेत बहुत बड़े और काफी मशीनीकृत हैं। जिन शोधों ने मशीनों को सम्भव बनाया वे सार्वजनिक खर्चे पर सरकारी विश्वविद्यालयों में होते हैं, जैसे कैलिफोर्निया के डेविस में–– खेत मालिकों के लिए एक और सरकारी सहायता। मजदूरी अभी भी सस्ती है एक और सरकारी सहायता जो सरकार की ओर से थोपी गयी है, जिसके लिए खेत मालिकों से मिलने वाला पैसा इतना ज्यादा होता है कि बेहतर कानून नहीं बनाये जाते और जो बने हुए हैं उनको लागू नहीं किया जाता। यह पैसा स्थानीय पुलिस का भय दिखाने के लिए भी पर्याप्त है जो आज भी प्रवासी खेत मजदूरों को वैसे ही सताते और उन पर अत्याचार करते हैं जैसे–– स्टाइन बेक के उपन्यास के मुख्य चरित्र टॉम जोड को शेरिफ धमकाता था।
हमारा ठिकाना “प्वाइन्ट रेस नेशन सी शोर” में एक होटल था जो सन फ्रांसिस्को से उत्तर–पश्चिम में लगभग पैंतालिस मील दूर था। यह ऊँचे पेड़ों से ढके इलाके, ढलुआ पहाड़ियों, घास के मैदानों और समुद्र की अनदेखी करती तीखी पहाड़ियाँ और बीहड़ समुद्री किनारों वाला क्षेत्र, जिसमें कई रेतीले तट भी शामिल हैं। यह होटल ड्रेक की खाड़ी के करीब है, जिसको 1579 में वहाँ उतरने वाले सर फ्रांसिस ड्रेक के नाम से बनाया गया है। जो किनारे सीधे प्रशान्त महासागर के सामने हैं वहाँ तेज हवाएँ आती हैं और अमूमन वहाँ नमी और कोहरा होता है, लेकिन ड्रेक ने देखा कि वह खाड़ी बेहद भयंकर हवाओं और मौसम से सुरक्षित है और इसीलिए वह अपने जहाज गोल्डन हिन्द की मरम्मत करने के लिए उतरा। वहाँ प्वाइन्ट रेस के मूल निवासी मिवोक इन्डियन थे जो अन्न संग्रहकर्ता और शिकारी थे और शानदार प्रकृति की प्रचूरता वाली धरती पर शान्तिपूर्वक रहते थे। पर्यटक केन्द्र के पास स्वयंसेवकों ने एक आदर्श मिवोक गाँव बनाया है। उस स्थल पर एक निशान है जिस पर कैथलिन स्मिथ, एक समसामायिक मिवोक ने 1993 में लिखा था––
“मेरे लोगों ने कम से कम 8000 वर्षों तक समुद्र तट पर जिन्दगी गुजारी। एक ही छोटे से इलाके में हजारों साल तक शारीरिक और आत्मिक सन्तुलन के साथ, कहीं और जाने की जरूरत महसूस किये बिना, जीने के लिए धैर्य, आदर, ज्ञान और दुनिया में अपनी जगह की गारण्टी की जरूरत होती है।”
एक बार जब यूरोपीय यहाँ आ गये तो मिवोक ने जल्दी ही दुनिया में अपनी जगह गवाँ दी। स्पेनी मिशनरियों ने उन्हें अपनी परम्परागत रहन–सहन छोड़़कर खेत–मजदूर होने के लिए मजबूर किया। बीमारी और चरम सांस्कृतिक आघात ने उनमें से कई लोगों की जान ले ली। जब मैक्सिको को आजादी मिल गयी तो मिवोक लोगों को जहाँ भी काम मिला, वे वहीं चले गये, अक्सर मैक्सिको के कुलीन, धनी “कैलिफोर्नियास” के घरेलू नौकर के रूप में, जिनके परिवारों को स्पेन के राजा से जमीन का अनुदान मिला था। बाद में अमरीका ने कैलिफोर्निया को मैक्सिको से ले लिया और कुछ ही वर्षों में सोने की हवस ने मिवोक लोगों (और कई दूसरे इण्डियन समूहों को) लगभग विलुप्त कर दिया, क्योंकि सोना चाहने वालों ने उन्हें मार डाला और जो कुछ उनके पास बचा था वह लूट लिया। मिवोक लोगों का “हम” यूरोपीय लोगों के “मैं” से बिलकुल मेल नहीं खाता था।
https://gargibooks.com/book/kya-majdoor-varg-duniya
होटल में ठहरने के बाद हमने रसोई में अपना खाना बनाने की तैयारी शुरू की। एक महिला ने हमसे पूछा कि केतली में जो चाय का पानी उबल रहा है क्या हमारा है। मैंने कहा कि चाय का पानी सबका है। उसने कहा, “बढ़िया, मैं केतली में दुबारा पानी गर्म करके ऊर्जा बबार्द नहीं करना चाहती।” मैंने इस अनोखी बात पर टिप्पणी की कि एक ऐसे प्रान्त में जो बर्बादी के लिए जाना जाता है वहाँ लोग थोड़ी सी ऊर्जा बचाने के लिए इतना चिन्तित हैं। वह परेशान लग रही थी तो मैंने कहा कि खेती बर्बादी का एक अच्छा उदाहरण है। उसने कहा कि कैलिफोर्निया में दुनिया की सबसे ज्यादा उत्पादनशील खेती होती है। इस बात ने मुझे बाँधों, चुराया हुआ पानी, सरकारी सहायता से प्राप्त जमीन, कीटनाशकों का भारी मात्रा में उपयोग, प्रदूषित हवा और पानी तथा शोषित खेत मजदूरों पर एक भाषण के लिए उकसाया। अगर ऊर्जा लागत और ऊर्जा पैदावार के मामले में हिसाब लगाया जाये या कैलिफोर्निया के “खेतों में फैक्ट्री” द्वारा समाज पर थोपे गये खर्च के लिहाज से देखा जाये तो इस प्रान्त की खेती उतनी भी उत्पादनशील नहीं है जितनी मिवोक लोगों का अन्न संग्रह और शिकार हुआ करता था। वह भौचक्की दिखी और तुरन्त बगल के कमरे में चाय पीने चली गयी। कुछ मिनट बाद मैंने भाषण पिलाने की क्षतिपूर्ति करनी चाही। मैंने उससे पूछा कि वह कहाँ की रहनेवाली है–– इथरका, न्यूयार्क, लेकिन अब वह न्यूयार्क सिटी में रहती है। कोलम्बिया के लॉ स्कूल में प्रथम वर्ष। मैंने उससे स्कूल के बारे में पूछा और उसको बताया कि पिट्सबर्ग स्कूल ऑफ लॉ के एक प्रोफेसर ने प्रथम वर्ष के छात्रों के बारे में क्या कहा था। उसने कहा था कि लॉ स्कूल का प्रथम वर्ष बहुत भयावह था क्योंकि वकीलों को क्रूरतापूर्ण व्यवहार के जरिये क्रूर होना सीखना पड़ता है, ठीक वैसे ही जैसे यातना देने वालों को यातना देकर यातना देना सिखाया जाता है। उसने कहा, अच्छा, यह जानना ठीक है कि हर कक्षा को एक ही जैसे व्यवहार से गुजरना पड़ता है, जिसमें वह भी शामिल है जो उसकी कक्षा के बाद आयेगा।
उस महिला ने दुबारा हमसे कभी बात नहीं की। अगले दो दिन उस पर गौर करने पर हमें उसकी आत्म केन्द्रीयता आश्चर्यजनक लगी। उसने महिलाओं की डोरमेट्री में बहुत ज्यादा जगह घेर रखी थी, जहाँ उसने बाथरूम में सभी लोगों की जगह पर अपने कपड़े और यहाँ तक कि हाइकिंग बूट के भीतरी हिस्से को भी फैला रखा था। उसने किचेन में कीचड़ फैला दिया था और दूसरों की जरूरतों से बेखबर थी। उस शाम वह एक जर्मन आदमी से इश्क लड़ा रही थी और हम लोग अचरज से सुन रहे थे। वह आदमी उससे पूरे अमरीका में अपनी यात्रा के बारे में बता रहा था। वह उसकी बातों को सुनती रही और बीच–बीच में अपने बारे में राय देने का इन्तजार करती रही। उसने पूछा कि क्या वह कभी अमरीका और यूरोप से बाहर भी गया है। क्या तुम चीन गये हो? उसने कहा नहीं, और उसने जवाब दिया कि वह सिर्फ पाँच हफ्ते के लिए बीजिंग गयी है। जब उसने नहीं पूछा कि वह किसलिए बीजिंग गयी थी तो उसने बड़ी चालाकी से बातचीत को अपने मनचाहे नतीजे की ओर आगे बढ़ाया। उसने बताया कि वह ओलम्पिक के लिए चीन गयी थी। जर्मन ने कोई ऐसी बात कही जिससे लगा कि वह ओलम्पिक देखने गयी होगी। उसने यह कहते हुए उसका सन्देह दूर किया कि वह पहली बार बिना मेडल के वापस आयी। “मेडल?” उसने पूछा कि “तुमने मेडल जीता है?” उसने कहा “हाँ, गोल्ड।” अब वह जो चाहती थी, उसने पा लिया–– उस आदमी की भरपूर प्रशंसा। यहाँ से बातचीत का स्तर उसने और उसके परिवार ने जो भी महत्त्वपूर्ण काम किये थे उनका बखान करने तक गिर गया। उसने कहा कि किसी पार्टी में या दोस्तों की महफिल में जब कोई मेडल पकड़े हुए उसका फोटो खींचता है तो उसे बहुत अच्छा लगता है। उसने कहा कि जब वह विकीपिडिया में दर्ज की गयी तो उसने समझा कि वह “कामयाब” हुई। उसके शानदार व्यक्तित्व पर बस एक ही दाग है कि जिस लॉ स्कूल में वह पढ़ना चाहती थी–– स्टानफोर्ड, उसने किसी तरह उसको नामंजूर कर दिया। उसे कोलम्बिया पर ही सन्तोष करना पड़ा, जहाँ निस्सन्देह वह “हम” से हमेशा के लिए कट जायेगी तथा दृढ़ता और स्थायी रूप से “मैं” में अकड़ जायेगी।
पूँजीवाद पूरी तरह एक व्यक्तिवादी व्यवस्था है। पूँजीवाद के अपने पुनर्उत्पादन के लिए, अपने अनुमान के मुताबिक नतीजों के लिए, लोगों का आत्म–स्वार्थी व्यवहार जरूरी है। मुख्यधारा के अर्थशास्त्री यह मानकर चलते हैं कि हर सामाजिक किरदार किसी न किसी चीज को अधिकतम बनाने वाला होता है–– मुनाफा या उपभोग के जरिये अपनी निजी सन्तुष्टि और श्रम की आपूर्ति करना। यही नजरिया वे विश्वविद्यालयों में पढ़ाये जाने वाले अर्थशास्त्र की लगभग हर कक्षा में लाखों छात्रों तक पहुँचाते हैं। इस बात के भरपूर प्रमाण हैं कि अर्थशास्त्र के प्रोफेसर और छात्र दोनों ही उन दूसरे लोगों से बहुत कम दयालु होते हैं जो न तो अर्थशास्त्र पढ़ाते हैं और न ही पढ़ते हैं। पूँजीवादी समाज की प्राथमिक संस्थाएँ आपस में तालमेल करके हर व्यक्ति के मन में “मैं” को बैठाने का काम करती हैं, इस उपसिद्धान्त के साथ कि “हम” मानव कल्याण के लिए हानिकारक होता है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि हम आत्मकेन्द्रित कार्रवाई क्यों करते हैंय इच्छा या भय प्रभुत्वशाली वर्ग की जरूरतों के मामले में बराबर फायदा पहुँचाते हैं, पूँजी का संचय अनिवार्य होता है।
पूँजीवाद को खत्म करने के लिए “मैं” को दबाना और “हम” को आगे लाना जरूरी है। अन्न संग्रहकर्ताओं और शिकारियों को यह एक अजूबा लगता जिन्होंने मानव अस्तित्व की सम्पूर्णता के लिए धरती को आबाद किया था। उनके यहाँ “मैं” के लिए कोई शब्द नहीं था और वे अपने आप और अपने इर्दगिर्द के प्राकृतिक जगत के बीच कोई अन्तर नहीं पाते थे। उनका जीवन सहकार और साझेदारी पर टिका था तथा इन्हें बरकरार रखने में उनकी रीति–रिवाज और संस्थाएँ मददगार थीं। उनके लिए धरती सामुदायिक थी, सबकी सम्पत्ति थी। वे अपना अस्तित्व प्रकृति के साथ सामंजस्यपूर्ण तरीके से कायम रखते थे और अपने जीवन के साथ धरती के चय–अपचय को सन्तुलित रखते थे।
अन्न संग्रहकर्ता और शिकारी आज भी हैं लेकिन बहुत ही कम संख्या में। उन्हें उनके एकान्त गढ़ से खदेड़ दिया गया और आधुनिक दुनिया में धकेल दिया गया। कुछ उसके अनुसार ढल गयेय कई मर गये। लेकिन सामुदायिकता का यथार्थ और विचार जिन्दा रहा और “हम” अमूमन “मैं” से ताकतवर था। इतिहासकार पीटर लाइनबॉग हमें बताते हैं––
“शायद ही कोई ऐसा समाज धरती की सतह पर मौजूद रहा हो जिसके दिल में सामूहिकता की भावना न रही होय व्यक्तिवाद और निजीकरण के साथ–साथ उपभोक्ता माल भी पूरी तरह समुदाय के हाशिये तक सीमित था जहाँ कड़ा नियंत्रण उसका उल्लंघन करने वाले को सजा देता था।” जब पूँजीवादी फैक्ट्री और मशीनरी ने मजदूरों को चहार दीवारी के अन्दर बन्द कर दिया और उनके काम की रफ्तार एक प्रक्रिया से तय की जाने लगी, उससे पहले, जमीन को निजी सम्पत्ति बना दिये जाने से पहले, मानव जीवन के ऊपर समतामूलक, आपसी साझेदारी का सम्बन्ध काफी प्रभावी था। दुनिया में हर जगह जलावन की लकड़ी चुनने से लेकर फसल कटाई के बाद उसे बटोरने तक, हर चीज के लिए किसानों को सामुदायिक जमीन के उपयोग करने का परम्परागत अधिकार था। किसान समय–समय पर जमीन का पुनर्बंटवारा करते थे ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि हर परिवार को मोटा–मोटी बराबर फसल योग्य जमीन मिले। 1688 तक इंग्लैण्ड और वेल्स के कुल रकबे का एक चैथाई हिस्सा सामुदायिक जमीन थी। यहाँ तक कि शुरूआती पूँजीवादी कार्यस्थल में भी कुशल मजदूरों को बचा हुआ कच्चा माल अपने पास रखने का अधिकार था। जहाज बनाने के कारखाने में काम करने वालों को लकड़ी का छीलन ले जाने का अधिकार था। जिन गुलामों के श्रम ने अट्ठारहवीं और उन्नीसवीं सदी में पूँजी संचय को बहुत ही तेज करना सम्भव बनाया था उनके अन्दर अफ्रीका में अपनी सामुदायिकता का, उस “हम” का जो उनकी जिन्दगी पर हावी था, उसकी यादें शेष थीं। निश्चय ही, यही वह चीज थी जिसने उन्हें अपने “मालिकों” के खिलाफ सामूहिक विद्रोह के लिए प्रेरित किया था। यह धारणा कि धरती सबकी है, धर्म का एक मुख्य विषय था। “द फ्रान्सिसकान्स से जुरी डिबिनो ओमनी सन्ट कॉमूनिया, यानी पवित्र नियम के अनुसार सभी चीजें सामुदायिक हैं।”
पूँजीवाद के केन्द्र में शोषण और सम्पत्तिहरण का ऐतिहासिक अर्थ था एक युद्ध, जो कानून और हिंसा के जरिये सामूहिक मालिकाने और समूह के पारम्परिक अधिकारों के खिलाफ छेड़ा गया था। “मैं” कभी स्वाभाविक नहीं था इसलिए इसे थोपा जाना था। अगर मजदूर वर्ग को दुनिया में बुनियादी बदलाव लाना है तो “हम” के लिए “मैं” के खिलाफ अपनी लड़ाई छेड़ना जरूरी होगा, अतीत के संघर्षों से सीखते हुए और समय के अनुरूप संघर्ष खड़ा करते हुए।
दुनिया को रूपान्तरित करने के लिए सबसे पहले उस दुनिया के बारे में एक आम समझ कायम–करना जरूरी है जिसमें हम निवास करना चाहते हैं और दूसरा, हमें यह जानने की जरूरत है कि उस जगह को अस्तित्व में कैसे लाया जाये। हम यह कहते हुए शुरू कर सकते हैं कि अगर पूँजीवाद ही उन तमाम दुख–तकलीफ का कारण है जिसका सामना आज मजदूर वर्ग और उसके कंधे से कंधा मिलाकर चलने वाले किसान कर रहे हैं, तब पूँजीवादी समाज का विलोम ही हमारी अभिलाषा है।
(माइकल डी येट्स की किताब “कैन द वर्किंग क्लास चेंज द वर्ल्ड” का हिन्दी अनुवाद “क्या मजदूर वर्ग दुनिया को बदल सकता है” का एक अंश। यह किताब गार्गी प्रकाशन से प्रकाशित है।)
अनुवाद–– दिगम्बर
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अवर्गीकृत
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जीवन और कर्म
मीडिया
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फिल्म समीक्षा
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