–– जोनाथन कुक,

पिछले दो दशकों से ‘सुरक्षा का उत्तरदायित्व’ सिद्धान्त के तहत चलने वाली पश्चिम की जानीमानी मौजूदा विदेश नीति की हकीकत लीबिया के बाढ़ के मलबे में साफ दिखायी पड़ रही है।

भारी बारिश और तूफान के कारण डेर्ना शहर की सुरक्षा करने वाले दोनों बाँध टूट गये जिससे हजारों लोग (20 हजार से ज्यादा) मौत के मुँह में समा गये और हजारों लापता हो गये। बाढ़ इतनी भयंकर थी कि डेर्ना ही नहीं बेनगाजी शहर समेत क्षेत्र का बड़ा रिहायशी हिस्सा खण्डहर में तब्दील हो गया।

यह तूफान लगातार गहराते पर्यावरण संकट का सबूत है। पूरी दुनिया में तेजी से बदलता मौसम का मिजाज डेर्ना जैसी और तबाहियों की सम्भावना बढ़ा रहा है।

लेकिन इस आपदा की भयावयता को इतनी सरलता से जलवायु परिवर्तन पर नहीं थोपा जा सकता। ब्रिटेन ने बारह साल पहले लीबिया में मानवीय संकट का जो ढिंढोरा पीटा और जो हरकतें की उसका नतीजा हम आखिर में डेर्ना की बाढ़ में देख रहे हैं। हालाँकि मीडिया बड़ी चतुराई से इस पहलू पर पर्दा डाल रहा है।

जानकारों ने ठीक चिन्हित किया है कि टूटते बाँधों और लचर राहत तथा बचाव कार्य की वजह लीबिया में किसी हुकूमत की गैर मौजूदगी है। यहाँ कोई ऐसी केन्द्रीय ताकत नदारद है जो पूरे मुल्क पर शासन करने के काबिल हो।

लेकिन इस तबाही से निपटने में लीबिया के इतना अशक्त होने के वाजिब कारण हैं जिनका जिम्मेदार मुख्य रूप से पश्चिम के देश हैं।

पश्चिमी मीडिया के फैलाये कारणों का तो क्या ही जिक्र करें! जो देखने वालों पर झूठा और खतरनाक असर डाल रही है। इनसे ऐसा लगता है मानो लीबिया वालों में ही कुछ खराबी है या अरब और अफ्रीकी लोग अपने मसले हल करने में आनुवांशिक तौर पर नाकाम हो गये हैं।

राजनीति का ठप्प हो जाना

लीबिया में अफरा–तफरी के हालात एक सच्चाई हैं। आपसी रंजिश में डूबे हथियारबन्द गिरोह मुल्क को रौंद रहे हैं। घोर अव्यवस्था के बीच दो प्रतिद्वन्द्वी सरकारें सत्ता के लिए होड़ कर रही हैं। आपस में झगड़ती इन सरकारों का आलम यह है कि इस तबाही के पहले तक ये नागरिकों की जिन्दगी के रोज के मसले सुलझाने में भी नाकाम थी।

या जैसा कि बीबीसी के सुरक्षा संवाददाता फ्रैंक गार्डनर का मानना है कि लीबिया की ठप्प राजनीति ने इस तबाही को और बड़ा बना दिया है। प्राकृतिक संसाधनों से मालामाल एक ऐसा देश जिसकी जनता सुरक्षा और स्थिरता के लिए तरस रही है।

इसी बीच मध्य पूर्व से बीबीसी के संवाददाता कुएन्तिन सोमेर्विल्ले का कहना है कि ऐसे बहुत से देश हैं जो इस पैमाने की बाढ़ का सामना कर लेते लेकिन लीबिया जैसी संकट की स्थिति में कोई भी नहीं कर सकता। जिसने गृह युद्ध और स्थानीय संघर्षों से भरा एक लम्बा दुखभरा दशक झेला है। इसी दौरान डेर्ना शहर पर तो इस्लामिक स्टेट ने कब्जा ही कर लिया था जिसे छुड़ाने के लिए गोले बरसाने पड़े।

विशेषज्ञों ने बाँधों की खराब स्थिति के बारे में पहले ही चेतावनी दे दी थी। लेकिन इस उठापटक में इन चेतावनियों को सुनने वाला कोई नहीं था।

बीबीसी और ब्रिटेन की बाकी सरकारी मीडिया लीबिया पर नाकाम, अव्यवस्थित, संकटग्रस्त, अस्थिर और लाचार जैसे शब्द गोली की तरह दाग रही है। विश्लेषक लीबिया के जैसे हालात को असफल राज्य कहना पसन्द करते हैं। लेकिन जिस असली सवाल पर बीबीसी और पश्चिम की मीडिया ने बड़र चतुराई से पर्दा डाल दिया वो यह है कि आखिर ऐसे हालात बने क्यों?

सत्ता परिवर्तन

एक दशक से भी पहले लीबिया में मुअम्मर गद्दाफी की मजबूत, सक्षम और दमनकारी केन्द्रीय सरकार थी। जो देश के तेल की कमाई को जनता के लिए मुफ्त शिक्षा और इलाज पर खर्च करती थी। जिसके चलते लीबिया अफ्रीका के सबसे ऊँची साक्षरता दर और सर्वाधिक प्रति व्यक्ति आय वाले देशों में शुमार था।

लेकिन 2011 आते–आते सारी तस्वीर बदल गयी। जब नाटो देश उग्रवाद का बहाना बनाकर अपनी ‘सुरक्षा की जिम्मेदारी’ के पाखण्डी सिद्धान्त की आड़ में गैरकानूनी तख्तापलट अभियान की हिमायत करने लगे।

इस बार लीबिया में पश्चिम का यह अपेक्षित ‘मानवीय हस्तक्षेप’ आठ साल पहले इसी तरह नाजायज ढंग से इराक पर किये गये हैरत और सदमे वाले हमले से ज्यादा गूढ़ और गहन था।

इराक के लिए शिगूफा छोड़ा गया था कि उसके लीडर सद्दाम हुसैन ने नरसंहार के लिए खतरनाक हथियारों का जखीरा जमा कर रखा था। इसी अफवाह को आधार बनाकर अमरीका और ब्रिटेन ने संयुक्त राष्ट्र को धता बता इराक के खिलाफ युद्ध का ऐलान कर दिया था।

लेकिन लीबिया के मामले में यह फर्क रहा कि अमरीका के सहारे से ब्रिटेन और फ्रांस संयुक्त राष्ट्र से एक सुरक्षा प्रस्ताव मामूली अन्तर से पास कराने में सफल हो गये। यह प्रस्ताव लीबियाई जनता की हमलों से सुरक्षा करने और देश में उड़ान प्रतिबन्ध घोषित करने को लेकर था।

इस फरमान से लैस साम्राज्यवादी भेड़िये लीबिया में टूट पड़ने का बहाना खोजने लगे। उन्होंने दावा किया कि विद्रोहियों के गढ़ बेनगाजी में गद्दाफी वहाँ के निवासियों के कत्लोगारत की तैयारी कर रहा है। सनसनी फैलाई गयी कि गद्दाफी अपने सैनिकों को वियाग्रा देकर सामूहिक बलात्कार के लिए उकसा रहा है।

इराक के जनसंहारक हथियारों के जैसे ही ये दावे भी 2016 में झूठे निकले। जब खुद ब्रिटिश संसद की विदेशी मामलों की एक कमेटी की जाँच में इन्हें निराधार पाया गया। जाँच रिपोर्ट में कहा गया कि मौजूदा तथ्य और सबूत इस बात की पुष्टि नहीं करते कि गद्दाफी बेनगाजी में नागरिक जनसंहार का कोई आदेश देने वाला था। रिपोर्ट ने स्पष्ट किया कि गद्दाफी की चालीस साला हुकूमत ने गम्भीर मानवाधिकार उल्लंघन के कई मामलों के बावजूद कभी नागरिकों पर बड़े हमले नहीं किये।

बमबारी अभियान

बहरहाल, यह वह नजरिया नहीं था जिसे प्रधानमंत्री डेविड कैमरन और पश्चिमी मीडिया ने उस वक्त जनता के सामने रखा जब मार्च 2011 में ब्रिटिश सांसद लीबिया पर हमले के पक्ष में वोट डाल रहे थे। केवल तेरह सांसदों ने इस पर असहमति जतायी थी।

इनमें काबिले गौर था जेरेमी कोर्बिन नाम का एक बैकबेंचर सांसद। जो चार साल बाद लेबर पार्टी से विपक्ष का नेता चुना गया था जिसके खिलाफ ब्रिटिश सरकार ने एक लम्बा कालिख पोत अभियान चलाया था।

संयुक्त राष्ट्र के अनुसार जब नाटो ने लीबिया में अपना ‘मानवतावादी हस्तक्षेप’ शुरू किया तब तक झड़पों में दो हजार से ज्यादा मौतें नहीं हुई थीं। लेकिन इसके छह महीने के भीतर ही मौतों का आँकड़ा पचास हजार तक पहुँच गया जिसमे ज्यादातर आम नागरिक थे।

सुरक्षा की जिम्मेदारी का राग अलापते हुए नाटो सेनाओं ने यूएन प्रस्ताव की खुलकर धज्जियाँ उड़ायीं। जिसमें ‘किसी भी किस्म की विदेशी कब्जावर ताकत’ की खास तौर से मनाही की गयी थी। गद्दाफी के खिलाफ लड़ रहे विद्रोही गिरोहों की कार्रवाइयों के साथ तालमेल बिठाते हुए ब्रिटिश स्पेशल फोर्स सहित पश्चिमी सेनाओं ने लीबिया को बूटों तले रौंद डाला।

इसी दौरान नाटो के हवाई जहाजों ने बाकायदा बमबारी अभियान चलाकर हजारों आम लोगों को मार डाला और दूसरी तरफ नाटो इन्हीं की हिफाजत करने की कसमें खाता रहा।

यह था पश्चिम का एक और गैरकानूनी तख्तापलट जो गद्दाफी को उसके ही देश में बीच चौराहे पर उसके कत्ल को फिल्माते हुए खत्म हुआ।

गुलामों के बाजार

सारा साम्राज्यवादी मीडिया जगत पश्चिम के मानवीय गुणों का बखान करते नहीं थकता है। ब्रिटेन के नेता और मीडिया वाले खुद ही अपनी पीठ थपथपाये जा रहे थे।

आब्जर्वर के सम्पादकीय ने घोषणा की ‘एक सम्मानजनक दखल, उम्मीदों भरा एक उज्जवल भविष्य’। ब्रिटेन के पूर्व विदेश सचिव डेविड ओवन ने डेली टेलीग्राफ में लिखा कि ‘लीबिया में हमने साबित कर दिखाया है कि हस्तक्षेप अभी भी काम की चीज है।’ लेकिन क्या वाकई यह काम का साबित हुआ?

वाशिंगटन के बेहतरीन थिंक टैंक आर्कानियोकांजेर्वतिव अटलांटिक कौंसिल ने दो साल पहले स्वीकार किया कि ‘गद्दाफी के राज की तुलना में लीबियाई आज ज्यादा गरीबी, ज्यादा जोखिम और ज्यादा राजनीतिक दमन का सामना कर रहे हैं। देश के राजनीतिक विभाजन के घाव भर नहीं पा रहे हैं, उनसे गृह युद्धों की मवाद रिस रही है। तेल के कुओं की उचित देखरेख नहीं होने से तेल उत्पादन में रुकावट एक आम बात है जो देश को अरबों डॉलर का नुकसान पहुँचा चुकी है।’

गद्दाफी का कत्ल होते ही मालूम हो गया था कि लीबिया की जनता की बेहतरी के लिए नाटो कितना फिक्रमन्द था। पश्चिम तुरन्त लीबिया को गृह युद्ध में धधकने के लिए छोड़ अपने डेरे उखाड़ चलता बना। और गद्दाफी के बाद हुई हालत के बारे में उस मीडिया की सारी दिलचस्पी अचानक खत्म हो गयी जो पागलों की तरह साम्राज्यवादियों के सैनिक दखल के मानवीय मकसद के गीत गाते न थकती थी।

बहुत जल्द देश को युद्ध सरदारों ने कुचलकर रख दिया। लीबिया एक ऐसा देश बन गया था जहाँ एक बार फिर इनसानों की खरीद–फरोक्त का व्यापार होने लगा और गुलामों की मध्यकालीन दौर की मंडिया सजने लगीं।

पीछे पैदा हुए सत्ता के इस खालीपन के कारण ही डेर्ना जैसे शहरों में इस्लामिक स्टेट जैसे ज्यादा हिंसक और सर काटू गिरोहों ने जगह बना ली।

अविश्वसनीय सहयोगी

लेकिन जैसी सत्ताशून्यता ने लीबिया के बाशिन्दों पर कहर तारी किया ठीक वैसी ही काबिलेगौर बेदिली पश्चिमी मीडिया में हालिया बाढ़ को कवर करते वक्त दिखायी दी।

कोई बताना ही नहीं चाहता कि इस आपदा से निपटने में लीबिया इतना खस्ताहाल क्यों है, कि मुल्क आखिर इतना लाचार और अस्तव्यस्त क्यों है?

ठीक वैसे ही जैसे सब इस पर चुप्पी साध लेते हैं कि आखिर क्यों पश्चिम ने मानवीय आधार पर इराक पर हमला बोला, उसकी फौज पुलिस को भंग कर दस लाख इराकियों को मौत के घाट उतार दिया और करोडों को बेघर कर मरने के लिए सड़कों पर छोड़ दिया।

या क्यों पश्चिम ने अपने पुराने जानी दुश्मन–– इस्लामिक स्टेट के जिहादियों और अल कायदा से दोस्ती गाँठकर सीरियाई सरकार के खिलाफ मोर्चा खोला और फिर से करोड़ों लोगों के आशियाने उजाड़कर देश को विभाजन की विभीषिका में झोक दिया।

इस साल फरवरी में दक्षिणी तुर्की और सीरिया के उत्तरी हिस्से में आये भयावह भूकम्प से निपटने में सीरिया की हालत भी आज के लीबिया जैसी ही कच्ची थी।

यह तरीका बार–बार दोहराया जा रहा है। क्योंकि अमरीका की सरदारी में पश्चिमी देशों के लिए इसके नतीजे फायदेमन्द हैं। जो सारी दुनिया और इसके प्राकृतिक संसाधनों पर पूर्ण आधिपत्य चाहता है। इनके नीति निर्माताओं की माने तो एकछत्र प्रभुत्व।

जब अमरीका और नाटो देश मिलकर मध्य–पूर्व और उत्तरी अफ्रीका के तेल समृद्ध देशों के संदिग्ध और अविश्वसनीय लगने वाले गद्दाफी और सद्दाम हुसैन जैसे नेताओं को निशाना बनाते हैं तो अपनी आवाम को शान्त और सन्तुष्ट रखने के लिए यह मानवतावादी मुखौटा चढ़ा लेते हैं। इससे बढ़कर इन शब्दों के और कोई मायने नहीं हैं।

एक जिद्दी नेता

साल 2010 में विकिलीक्स ने अमरीका की कूटनीतिक चिट्ठियों के दस्तावेज जारी किये थे। इनसे पता चला कि गद्दाफी के साथ वाशिंगटन के सम्बन्ध बहुत नरम–गरम और अस्थिरता वाले थे। जिसका ठींकरा अमरीका के राजदूत विरोधाभासी ढंग से गद्दाफी के सर ही फोड़ते थे।

खुले तौर पर अमरीकी अधिकारी गद्दाफी की सुख–सहूलियत का बड़ा ध्यान रखते थे। देश की विद्रोही ताकतों के खिलाफ योजना बनाने में उसकी मदद करते थे। जिन विद्रोहियों के जरिये ये खुद बहुत जल्द गद्दाफी का तख्ता पलटने वाले थे।

लेकिन दूसरे पत्रों में गद्दाफी के हठीपन और महत्वाकांक्षा पर गहरी चिन्ता जतायी गयी थी। मसलन वह अफ्रीकी महाद्वीप के संसाधनों को नियंत्रण में रखने और अपनी स्वतंत्र विदेश नीति चलाने के लिए एक संयुक्त राज्य अफ्रीका बनाना चाहता था। साम्राज्यवादियों के रहते ऐसा सोचने का दुस्साहस!

लीबिया के पास अफ्रीका का सबसे बड़ा तेल भण्डार है। पश्चिमी देशों की मूल चिन्ता यही है कि कौन इस सम्पदा पर कब्जा कर मुनाफा कमाता है।

जैसा कि इन दस्तावेजों ने खुलासा किया कि कैसे पश्चिम की तेल कम्पनियाँ लीबिया में बढ़िया ठेकों के लिए नाक रगड़ती रह जाती थीं और रूसी व चीनी कम्पनियाँ बड़ी आसानी से मलाईदार सौदे उड़ा ले जातीं।

फिर भी अमरीकी अधिकारी उस मिसाल को लेकर सबसे ज्यादा फिक्रमन्द थे जो गद्दाफी कायम कर रहा था। लीबिया का एक ऐसा आदर्श बन रहा था जो तेल उत्पादक देशों की बढ़ती संख्या के बीच दुनिया में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा था।

गद्दाफी को कत्ल करके यह मिसाल जड़ से उखाड़ दी गयी। और आखिरकार अपना बुरा समय बिताकर ब्रिटेन की बीपी और शेल जैसी दैत्याकार तेल कम्पनियाँ पिछले साल लीबिया में तेल के कुओं पर काबिज हो ही गयीं।

लीबिया में ब्रिटेन के राजदूत फ्रैंक बेकर ने 2018 में बड़े उत्साह से बताया था कि कैसे ब्रिटेन लीबिया में व्यापार और निवेश के लिए ज्यादा अनुकूल माहौल बनाने में मदद कर रहा है। और लीबिया के पुनर्निर्माण में सहायता के लिए किस तरह ब्रिटेन की विशेषज्ञता के इस्तेमाल के नये–नये मौके तलाश रहा है।

यह सब गद्दाफी के इरादों के बिलकुल उलट है। वह रूस और चीन के साथ मजबूत आर्थिक और सामरिक सम्बन्धों का हिमायती था। उसने रूस के जंगी जहाजी बेड़े को बेनगाजी बन्दरगाह तक पहुँच मुहैय्या करायी थी। 2008 के एक पत्र में उसने रूस की बढ़ती ताकत पर इसलिए इत्मीनान जाहिर किया था कि यह अमरीका के खिलाफ शक्ति सन्तुलन बनाये रखने के लिए जरूरी थी।

घुटने टेको या बर्बाद हो जाओ

इन्हीं सब वजहों से अमरीका गद्दाफी की हुकूमत का दुश्मन बन गया और विद्रोहियों का साथ देकर गद्दाफी को उखाड़ फेंकने के मौके की तलाश में जुट गया।

आम लीबियाईयों की खैरियत को लेकर अमरीका और ब्रिटेन घड़ियाली आँसू बहाते थे। जिनकी हकीकत एक दशक से पीड़ा झेलती लीबियाई जनता की तकलीफों से इनकी बेरुखी ने जाहिर कर दी। जो परेशानियाँ डेर्ना की बाढ़ से अपनी पराकाष्ठा पर पहुँच गयीं।

लीबिया, इराक, अफगानिस्तान और सीरिया जैसे देशों पर पश्चिम की राय शीशे की तरह साफ है। एक मजबूत नेता जो नाफरमानी कर इन्हें आँख दिखाये, संसाधनों पर अपना हक जमाये और इनके शत्रु देशों से दोस्ती कर तमाम मुल्कों के लिए मिसाल पेश करने की कोशिश करे तो ज्यादा बेहतर है कि ऐसी कौम को फूट, बिखराव और गृह युद्ध के खूनी दलदल में डुबो दिया जाये।

ऐसे में छोटे देशों के लिए केवल दो ही रास्ते बचे हैं कि या तो वे घुटने टेकें नहीं तो भारी कीमत चुकाने के लिए तैयार रहें।

गद्दाफी को बीच सड़क पर काट डाला गया जिसकी तस्वीरें पूरी दुनिया में घुमायी गयीं। लेकिन पिछले दस सालों से खून के आँसू रो रही लीबिया की जनता मानो दुनिया से गायब कर दी गयी। मजाल है कि उनकी कोई तस्वीर हम तक पहुँच पायी हो।

अब डेर्ना में हुई तबाही के साथ ही लीबियाईयों की परेशानियाँ भी चर्चा के केन्द्र में हैं। लेकिन शुक्र है बीबीसी जैसी साम्राज्यवादी मीडिया का जिसकी बदौलत लीबिया की इस हालत के जिम्मेदार असली कारण डेर्ना की बाढ़ के पानी जितने ही धुँधले बने रहेंगे।

(मन्थली रिव्यू से साभार, अनुवाद–– गौरव तोमर)