बुद्धिजीवियों से नफरत क्यों करते हैं दक्षिणपंथी?
समाचार-विचारएक दक्षिणपंथी कभी बुद्धिजीवी क्यों नहीं हो सकता? या फिर अधिकतर दक्षिणपंथी बुद्धिजीवियों से नफरत क्यों करते हैं? ये दोनों बातें एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। अक्सर दक्षिणपंथी पांडित्य को बौद्धिकता मान लेते हैं और बताते हैं कि फलां साइंटिस्ट और फलां आईआईटियन हमें सपोर्ट करते हैं और हमारे विचारों को फॉलो करते हैं।
मगर ऊँची डिग्रीधारी होने का बौद्धिकता से कोई वास्ता नहीं है। बौद्धिक होने की कुछ शर्तें हैं। यदि कोई उसे पूरा करता है तो वह अपने–आप दक्षिणपंथ से दूर चला जाएगा।
पहली शर्त है ऑब्जेक्टिविटी, यानी वस्तुपरकता। यानी कि किसी विचार, सिद्धान्त, अनुभव को अपने निजी पूर्वाग्रह, पसन्द–नापसन्द, लाभ–हानि, अनुभवजन्यता से हटकर उसे जैसा है, ठीक उसी रूप में समझना और बरतना। जब हम एक वस्तुपरक सोच को अपने जीवन की कसौटी बनाते हैं तो वह हम जैसे दूसरे इनसानों के साथ दूरियाँ कम करता है। वैज्ञानिकता का उदय ही आत्मपरक और संकीर्ण अनुभव से हटकर सोचने के साथ हुआ।
गैलीलियो ने अपने प्रयोगों के माध्यम से यह पाया कि पृथ्वी समेत सभी ग्रह सूर्य की परिक्रमा करते हैं, जबकि उस समय तक का अनुभवजन्य सिद्धान्त यह कहता था कि ब्रह्मांड के केन्द्र में पृथ्वी स्थित है तथा सूर्य और चन्द्रमा सहित सभी आकाशीय पिंड लगातार पृथ्वी की परिक्रमा करते हैं। नतीजा गैलीलियो को चर्च के कोप का शिकार होकर उम्र–कैद काटनी पड़ी।
वस्तुपरक होना ज्ञान के दरवाजे खोलता है। यह ‘मैं’ और ‘अन्य’ के सिद्धान्त को खत्म करता है। यहीं से दृष्टिकोण बनने शुरू होते हैं। राष्ट्र की संकल्पना, प्रवासियों की समस्या, अन्य धार्मिक रीति–रिवाज सब कुछ इसी दृष्टि की वजह से तय होता है। यदि आप वस्तुनिष्ठ सोच पर यकीन रखते हैं तो आपके जीवन में अन्य के लिए जगह होगी। आपके जीवन में असहमति के लिए जगह होगी। आपके जीवन में दूसरों के द्वारा कही गयी बातों के लिए जगह होगी। यदि नहीं होगी तो आप दीवारें खड़ी करेंगे।
दक्षिणपंथ दीवारें खड़ी करता है। देशों के बीच–– राष्ट्र की श्रेष्ठता का सिद्धान्त रचकर। विचारधाराओं के बीच–– वैचारिक असहमतियों और अन्य लोगों के विचारों के प्रति असहिष्णु होकर। जनता के बीच–– धर्म, जाति, भाषा, नस्ल, लोकाचार, रहन–सहन और खान–पान में विभेद करके। परिवार के बीच–– परिवार में स्त्री, व कनिष्ठों जैसे युवाओं या बच्चों को निर्णय लेने के अधिकार से वंचित करके। अन्तत: दीवारें खड़ी करते–करते एक दक्षिणपंथी अपने ही चारों तरफ दीवारें खड़ी कर देता है और वह कूपमण्डूक बनकर उसी में कैद हो जाता है।
बौद्धिकता की दूसरी शर्त है उर्ध्वमुखी होना। आगे की तरफ बढ़ना। गतिमान होना। प्रकृति भी सतत परिवर्तन का हिस्सा है। जीवन में बदलाव को स्वीकारना ही आगे बढ़ना है। यह आपको नयी सोच, नये अनुभव, नयी दृष्टि की ओर प्रेरित करता है।
गैलीलियो से पहले कोपरनिकस ने भी सूर्य के चारों तरफ चक्कर लगाने का सिद्धान्त प्रतिपादित किया था। यह धर्मग्रंथ बाइबिल के खिलाफ जाने का साहस करना था। उन्होंने वह साहस किया। नये को अपनाया। इसकी सजा भी दोनों को मिली। मगर गैलीलियो ने खगोलीय दूरबीन और गणितीय गणना के आधार पर उसी सिद्धान्त को ज्यादा बेहतर ढंग से सामने रखा। वह इसलिए क्योंकि उन्होंने 16वीं सदी में बनी दूरबीन का प्रयोग करने में पहल की। मनुष्य के जीवन का हर ज्ञान नयी बातों को स्वीकारने से पैदा हुआ है। नये देशों की खोज, नदी के भीतर की दुनिया की तलाश, चन्द्रमा की खोज, अन्तरिक्ष की खोज इसी तरह हुई है।
इसके विपरीत दक्षिणपंथी विचारधारा हमारी सोच को अतीत की तरफ ले जाती है। वह उन प्रतीकों पर बल देती है जिनके आधार पर मनुष्य के समूह को किसी खाँचे में बाँटा जा सके, किसी दायरे में समेटा जा सके। इस प्रक्रिया में वह क्रमश: प्रश्न पूछने का निषेध करता है, तर्क–वितर्क का निषेध करती है, असहमति का निषेध करती है।
अब हम बौद्धिक होने की तीसरी शर्त की तरफ मुड़ते हैं। वह है तार्किक होना। इसका आशय बहस और तर्क–वितर्क भर नहीं है। इसका आशय यह है कि कुछ भी स्वीकार करने से पहले उसे समझना, तर्कों की कसौटी पर कसना और फिर अपनाना।
वहीं दक्षिणपंथ तर्क पर नहीं बल्कि भावनाओं को उद्वेलित करने पर यकीन रखता है। इसलिए वह सामूहिक प्रतीकों का इस्तेमाल करता है। जैसे राष्ट्र, धर्म, मातृछवि, वीरता आदि की भावना प्रधान कहानियाँ। इन तमाम मूल्यों के प्रति मनुष्य में स्वाभाविक संवेदना होती है, मगर दक्षिणपंथ में वह स्वाभाविक न होकर एक केन्द्रीय शक्ति द्वारा संचालित होती है। वह इनसान के विवेक को खत्म करना चाहता है।
फासीवाद के इन्हीं खतरों को महसूस करते हुए जर्मन नाटककार ब्रेख्त ने अलगाव का सिद्धान्त विकसित किया, जो नाटक का रसग्रहण करते समय में भी दर्शकों को लगातार यह बताता रहता था कि वे नाटक देख रहे हैं और जो देख रहे हैं एक निश्चित दूरी बनाये रखते हुए उन्हें उसका विश्लेषण करना होगा। सोचना और समझना होगा।
इन तीन शर्तों के बिना कोई बुद्धिजीवी हो सकता है, इस पर मुझे शक है। और इन तीनों शर्तों का पालन करने वाला दक्षिणपंथी नहीं हो सकता इस पर मुझे यकीन है।
(दिनेश श्रीनेत की फेसबुक वॉल से)
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