कितने और ल्हासा होंगे

मैक्लॉड गंज की रिज पर

साथ बैठा एक रमण

बात करते–करते अचानक

बेचेन हो उठता है।।

अनखनें लगता है

दूर–दूर सीमाओं पार से

आती आवाजें

जो अक्सर यहाँ आती

जाती रहती हैं।।

जानना मुश्किल है

इसका मन इस वक्त

धर्म चक्र के व्रत में

घूम रहा है

या ल्हासा की गलियों में।।

कितने और ल्हासा होंगे

जहाँ रहने या न रहने

का अधिकार

वहाँ रहने वालों के पास नहीं होगा।।

जाने कितने भिक्खु

कहाँ–कहाँ से सुन रहे होंगे ये आवाजें।।

कितने रोहंगिया

कितने फिलिस्तीनी

कितने कश्मीरियांे को।।

ये आवाजें सुनाई

पड़ती होंगी।।

––केशव तिवारी