मोदी के शासनकाल में अर्थव्यवस्था की दशा और दिशा
राजनीतिक अर्थशास्त्र मोहित पुण्डीरलोकसभा चुनाव से पहले आखिरी बजट पेश करते हुए वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने कहा कि “पिछले 10 साल के शासन में हमने लोगों की आय दोगुनी करके उनकी जिन्दगी बेहतर बनायी है, अब जनता इस देश में अपना भविष्य सुरक्षित समझती है”। प्रधानमंत्री मोदी ने भी एक चुनाव रैली के दौरान इसी तरह का दावा पेश करते हुए कहा कि हमने भारत को दुनिया की 5वीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बना दिया है। इसके साथ ही उन्होंने अपने अगले शासनकाल में देश को 10 ट्रिलियन रुपये की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनाने की घोषणा भी कर दी। चुनाव प्रचार के दौरान प्रधानमंत्री से लेकर भाजपा के अन्य बड़े नेताओं में बड़े–बड़े दावे करने की होड़ लगी हुई है। पिछले 10 साल के शासन को आर्थिक तरक्की का पर्याय बताया जा रहा है। मुख्यधारा की चाटुकार मीडिया भी भाजपा की इन घोषणाओं को बढ़ा–चढ़ाकर दिखा रही है। इसके चलते देश की आबादी का एक हिस्सा इस प्रचार को सही मान रहा है। हालाँकि केन्द्रीय रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन ने भाजपा के इन सभी दावों पर आपत्ति जतायी है। उन्होंने कहा कि देश की जनता को आर्थिक तरक्की की गोल–गोल बातों में नहीं आना चाहिए, यह सब केवल चुनाव जीतने के लिए बोला जा रहा है। इसके साथ ही आईएमएफ समेत अनेक अन्तरराष्ट्रीय संस्थाओं ने सरकार पर जीडीपी वृद्धि दर को बढ़ा–चढ़ाकर पेश करने का आरोप लगाया है। क्या भाजपा के दावों में कोई सच्चाई है भी या नहीं?
एक तरफ भाजपा अर्थव्यवस्था में अभूतपूर्व बढोतरी की बात कर रही है वहीं दूसरी तरफ देश की बहुसंख्यक आबादी बेतहाशा बेरोजगारी और महँगाई का सामना कर रही है। बेरोजगारी इस कदर विकराल रूप ले चुकी है कि अपनी जान जोखिम में डालकर लोग युद्धरत इजराइल और रूस में भी नौकरी करने को तैयार हैं। वहीं वैश्विक भूख सूचकांक में भारत 125 देशों की सूची में 111वें स्थान पर है, जो अपने पड़ोसी बांग्लादेश और पाकिस्तान से भी बुरी स्थिति में है। यहाँ करोड़ों लोग भुखमरी की कगार पर हैं। केवल पेट भरना ही उनके लिए अन्तिम लक्ष्य और विकास का पैमाना बना दिया गया है। आर्थिक कंगाली के चलते साल दर साल नौजवानों, किसानों और मजदूरों की आत्महत्याओं की घटनाएँ तेजी से बढ़ रही हैं। क्या इन करोड़ों लोगों की बर्बादी की कीमत पर देश की अर्थव्यवस्था फल–फूल सकती है? सच्चाई जानने के लिए हमें भाजपा के प्रचार से अलग हटकर तथ्यों की रोशनी में जाँच–पड़ताल करनी होगी।
नये रोजगार का सृजन होना किसी देश की अर्थव्यवस्था के स्वस्थ रहने की जरूरी शर्त है। भारत की अर्थव्यवस्था का सही आकलन भी इसी आधार पर किया जाना चाहिए। बीते 26 मार्च को रोजगार की वर्तमान स्थिति के बारे में आईएलओ यानी ‘अन्तरराष्ट्रीय श्रमिक संस्था’ ने एक रिपोर्ट जारी की। इस रिपोर्ट के अनुसार भारत के श्रमिक बाजार में हर साल लगभग 70 लाख नौजवान जुड़ते हैं। इन नौजवानों में बड़ी संख्या डिग्री धारकों की है। इस रिपोर्ट के अनुसार इन नौजवानों में से 83 फीसदी को काम ही नहीं मिल रहा है।
भाजपा ने ‘मेक इन इंडिया’, ‘स्टार्टअप इंडिया’ और रोजगार देने वाली दूसरी योजनाओं का बड़े जोर–शोर से उद्घाटन किया था। लेकिन आज इनकी हालत बेहद खस्ता है। 2023 में ही 110 से ज्यादा स्टार्टअप बन्द हो गये, जिसके चलते इनमें काम करने वाले लगभग 30 हजार लोग बेरोजगार हो गये। आईटी सेक्टर में भी अब गिरावट नजर आ रही है। पिछले 6 महीनों में आईटी कम्पनियों ने लगभग 25 हजार कर्मचारियों की छँटनी की। इन सभी को जोड़कर देखें तो पिछले 20 सालों में बेरोजगारों की संख्या दोगुनी से भी ज्यादा हो गयी है। एक तरफ बेतहाशा बेरोजगारी बढ़ी है तो वहीं दूसरी तरफ नौकरीपेशा लोगों की भी हालत खराब हुई है। स्थायी रोजगार की जगह अस्थाई रोजगार ने ले ली है। कर्मचारियों को पहले मिलने वाली अधिकतर सुविधाएँ खत्म की जा रही हैं। इसके साथ ही आय में भी भारी गिरावट जारी है। आईएलओ की ही रिपोर्ट के अनुसार, अनौपचारिक क्षेत्र में काम करने वालों की मासिक आय 7 हजार से भी कम है, वहीं महिलाओं की आय पुरुषों के मुकाबले में आधी ही रह गयी है। रोजगार की यह स्थिति अर्थव्यवस्था के संकटग्रस्त होने का ही संकेत दे रही है।
अर्थव्यवस्था के महत्वपूर्ण अंग, यानी उद्योग और कृषि क्षेत्र पर भी एक नजर डालनी जरूरी है। दिसम्बर 2023 में औद्योगिक वृद्धि दर पिछले 18 महीनों के न्यूनतम स्तर पर थी। सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में इसकी हिस्सेदारी पिछले 20 वर्षों में सबसे कम है। सरकार की अनदेखी के चलते यही हालत छोटे और मझोले उद्योगों (एमएसएमई) की भी है। ये उद्योग लगभग 13 करोड़ लोगों को रोजगार देते हैं और साथ ही इनमें देश के कुल उत्पादन का 40 फीसदी हिस्सा आता है। देश की अर्थव्यवस्था को सुचारू रूप से चलाने में इनका महत्वपूर्ण योगदान है। सरकार इन्हें बढ़ाने के बड़े–बड़े वादे करती रही है। लेकिन 2023 में सरकार की गलत नीतियों के चलते 13 हजार से ज्यादा छोटे और मझोले उद्योग बर्बाद होकर बन्द हो गये।
उद्योगों में रोजगार की कमी के कारण पिछले सालों में मजदूरों की एक बड़ी संख्या गाँवों की तरफ लौटने को मजबूर हुई है। पहले से संकटग्रस्त ग्रामीण अर्थव्यवस्था अब और जर्जर हो गयी है। मनरेगा योजना के विस्तार से इस अधिक संख्या बल को रोजगार दिया जा सकता था। लेकिन सरकार ने उल्टा इसका बजट पिछले सालों की तुलना में घटा दिया है। इसके साथ ही मनरेगा से जुड़े लगभग 5 करोड़ मजदूरों के नाम भी लिस्ट से हटा दिये गये। इसके चलते स्थिति बद से बदतर हो गयी है।
ग्रामीण अर्थव्यवस्था के आधार और देश में सबसे ज्यादा रोजगार प्रदान करने वाले कृषि क्षेत्र में भी संकट गहराता जा रहा है। प्रधानमंत्री मोदी ने 2022 तक किसानों की आय दोगुनी करने की बात कही थी। लेकिन एनएसएसओ यानी राष्ट्रीय प्रतिदर्श सर्वेक्षण कार्यालय की रिपोर्ट के मुताबिक 2023 में एक किसान की औसतन शुद्ध मासिक आय मात्र 27 रुपये थी और उस पर कर्ज बढ़कर 27 हजार रुपये से भी ज्यादा हो गया है। पिछले एक साल में कृषि क्षेत्र की वृद्धि दर आधे से भी कम रह गयी है। ऐसे में कोई ठोस कदम उठाने की जगह सरकार खेती के लिए आवंटित बजट को साल–दर–साल घटा रही है। हाल ही में कृषि मंत्रालय ने यह स्वीकार किया कि कृषि के लिए आवंटित बजट का एक बड़ा हिस्सा खर्च ही नहीं किया गया। इससे ग्रामीण अर्थव्यवस्था को उबारने की सरकार की मंशा जाहिर हो रही है।
सरकार कृषि के संकटग्रस्त होने के पीछे अच्छी फसल न होने का बहाना बना रही है। लेकिन फसल की रिकॉर्ड पैदावार के बाद भी किसान तबाह हो रहे हैं। 2021 में सोयाबीन का भाव 11 हजार रुपये प्रति क्विंटल था। अच्छे भाव से प्रभावित होकर किसानों ने सोयाबीन की फसल उगायी, लेकिन अगले ही साल सरकार ने 12 लाख मीट्रिक टन सोयामील जो सोयाबीन से ही तैयार किया जाता है, उसको आयात किया। इसके चलते घरेलू बाजार में सोयाबीन के दाम 2 हजार रुपये प्रति क्विंटल तक कम हो गये, दामों के इतनी तेजी से घटने से हजारों किसान बर्बाद हो गये। इसी तरह सरसों, प्याज और अन्य फसलों के उत्पादक किसान सरकार की गलत नीतियों के चलते बर्बाद हो रहे हैं। अपनी फसल के वाजिब दाम के लिए वे सड़क पर उतरकर आन्दोलन करने को मजबूर हैं। पूँजीपतियों को फायदा पहुँचाने के लिए सरकार द्वारा भूमि अधिग्रहण कानून और तीन कृषि कानून लाये जाने के बारे में हम जानते ही हैं जिसे किसानों ने अपने जोरदार आन्दोलन के दम पर वापस कराया।
भाजपा सरकार ने अपने शासन के दौरान पब्लिक सेक्टर बैंकों की हालात सुधारने का भी दावा किया था, जबकि हकीकत कुछ और ही है। भाजपा इन बैंकों का 14 लाख करोड़ रुपये के कर्ज एनपीए (बट्टा खाता) घोषित कर चुकी है। यह कर्ज बड़े–बड़े उद्योगपतियों के हैं, लेकिन इनसे वसूली करने की जगह सरकार ने जनता की गाढ़ी कमाई को इनमें झोंक दिया। 2023–24 तक सरकार ने इन बैंकों को लगभग 3 लाख करोड़ रुपये देने जा रही है। पिछले कर्ज न चुकाने के बाद भी अडानी को 20 हजार करोड़ रुपये का नया कर्ज दिया जा रहा है। जाहिर है इसे भी जनता से ही वसूला जाएगा।
कुछ महीने पहले वित्तमंत्री ने कांग्रेस पर 2014 से पहले अर्थव्यवस्था को बर्बाद करने का आरोप लगाकर संसद में ‘व्हाइट पेपर’ जारी किया था। भाजपा अपनी उपलब्धियों के पक्ष में कोई ठोस तर्क देने की जगह कांग्रेस पर बेबुनियाद और ओछे आरोप लगाती रही है। भाजपा के 10 साल के शासन की कांग्रेस के शासन से तुलना करने पर सच्चाई सामने आ जाएगी। राजकोषीय घाटे के बारे में वित्तमंत्री ने बड़ी–बड़ी बातें की। इसके बावजूद राजकोषीय घाटा और विदेशी कर्ज आसमान छू रहे हैं। कांग्रेस के 10 साल के शासन में जहाँ डॉलर के मुकाबले रुपये की कीमत 43 रुपये से बढ़कर 60 रुपये हुई थी, वहीं भाजपा के शासन के दौरान आज 83 रुपये से ऊपर हो गयी है। कांग्रेस के मुकाबले भाजपा ने अपने शासन में गरीब और मध्यम वर्गीय जनता पर प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष कर का बोझ बेतहाशा बढ़ाया है। ‘सेंट्रल बोर्ड ऑफ डायरेक्ट टैक्स’ के आँकड़ों के अनुसार पिछले 10 सालों में इनकम टैक्स के जरिये सरकार ने आम जनता से जीडीपी का लगभग 3 फीसदी टैक्स वसूला है। वहीं कांग्रेस के शासन के दौरान यह जीडीपी का 2 फीसदी था। इसी तरह पेट्रो उत्पाद यानी पेट्रोल, डीजल आदि पर सरकार लगभग 9 तरह का टैक्स लगा रही है। इसके चलते अन्तराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमत कम होने पर भी जनता को कोई राहत नहीं मिलती। पेट्रोल, डीजल के महँगे होने से आम जनता पर चौतरफा महँगाई की मार पड़ रही है। 2014 के मुकाबले आज सरकार जनता से दोगुना अप्रत्यक्ष कर वसूल रही है।
एक तरफ जहाँ भाजपा ने पहले से बदहाल देश की मेहनतकश जनता पर टैक्स और महँगाई का अतिरिक्त बोझ डालकर उसे तिल–तिल मरने के लिए छोड़ दिया है, वहीं चन्द अमीरों पर सरकार मेहरबान है। अमीरों पर लगने वाले कॉरपोरेट टैक्स को भाजपा ने घटा दिया है। कांग्रेस के शासन में यह जीडीपी का 3–5 फीसदी था जो अब घटाकर 2–8 फीसदी कर दिया गया है। एक तरफ तो भाजपा ने अपने शासन में जनता से रिकॉर्ड पैसा वसूला है वहीं दूसरी तरफ जनता पर किये जाने वाले खर्चे को तेजी से घटाया है। भाजपा ने कृषि, खाद्य सुरक्षा, रक्षा बजट और शिक्षा बजट में कांग्रेस के शासन से भी ज्यादा कटौती की है।
भाजपा की नीतियों के चलते एक तरफ देश की बहुसंख्यक मेहनतकश आबादी के सामने जिन्दगी का संकट पैदा हो गया है, वहीं दूसरी तरफ देशी–विदेशी पूँजीपतियों को किसानों–मजदूरों की श्रमशक्ति को लूटने की खुली छूट दी जा रही है। उनके हित में श्रम कानूनों में बदलाव कर मजदूरों के अधिकारों पर हमले तेज कर दिये गये हैं। इसी का परिणाम घोर असमानता के रूप में सामने आ रहा है। ‘विश्व असमानता डेटाबेस’ के अनुसार भारत के सबसे अमीर 1 फीसदी लोगों के पास देश के कुल धन का 40 फीसदी है। अंग्रेजों के क्रूर शासन के दौरान भी इतनी असमानता नहीं थी जिस शासन से छुटकारे के लिए लाखों लोगों ने अपनी जान कुर्बान कर दी थी। आज शीर्ष 10 हजार अमीरों की आय निचले 50 फीसदी लोगों की आय से 2 हजार गुना ज्यादा है। अपने आप में यह तथ्य चौंकाने वाला है और यह दिखाता है कि भाजपा सरकार ने पूरे 10 साल में गरीबों से छीनकर अमीरों की तिजोरी भरी है।
भाजपा अगर दुबारा शासन में आती है तो आगे भी अर्थव्यवस्था की दिशा यही रहेगी। इसे ऐसे समझा जा सकता है–– ‘आत्मनिर्भर भारत रोजगार’ योजना का बजट पिछले साल 2 हजार करोड़ रुपये था जिसे इस साल घटाकर 150 करोड़ रुपये कर दिया गया है। इसी के साथ अन्तरिम बजट में भी सार्वजनिक खर्चों में बड़ी कटौती की गयी है। जनता को मिलने वाली सब्सिडी और जन कल्याण पर लगभग 1 लाख करोड़ रुपये की कटौती की गयी।
हाल ही में सरकार की इस कार्यकाल की अन्तिम केबिनेट बैठक हुई। इसमें यह तय किया गया कि सरकार तीसरी बार शासन में आते ही कृषि कानूनों को दुबारा लागू करने पर जोर देगी और साथ ही श्रम कानूनों को और लचीला बनाया जाएगा। इससे साफ है कि आने वाले समय में किसानों और मजदूरों पर सरकार का हमला और तेज हो जायेगा। उसकी हालत और खराब होगी। उसे और बुरे दिन देखने पड़ेंगे। इन सबके चलते अर्थव्यवस्था का संकट आने वाले दिनों में और ज्यादा बढ़ेगा।
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