संघर्षों से भरा एक और साल गुजर गया। अगर सन 2019 को वैश्विक विरोध प्रदर्शन का साल कहें, तो अतिश्योक्ति न होगी। यह साल अल्जीरिया में सरकार विरोधी आन्दोलन से शुरू होकर दिसम्बर में भारत के ‘नागरिक संशोधन कानून’ के जबरदस्त विरोध से खत्म हुआ। यह 21वीं सदी का राजनीतिक रूप से अब तक का सबसे सरगर्मी से भरा साल रहा। इस साल से पहले ऐसा लगता था कि नवउदारवाद की जन–विरोधी नीतियों के आगे जनता आत्मसमर्पण कर चुकी है। उसने सभी अन्याय–उत्पीड़न चुपचाप बर्दाश्त करने की ठान रखी है, लेकिन बीते साल ने इसे झुठला दिया। वह शोषक सरमायेदारी से जनता के मोहभंग की व्यापक शुरुआत का साल बन गया है।
साल 2019 की शुरुआत अल्जीरिया में अब्देलअजीज के तानाशाही शासन के खात्मे की माँग के साथ होती है। दो दशक पुराने उसके निरंकुश शासन में आम जनता की हालत बद से बदतर हो गयी थी। लेकिन इस साल जब उसने फिर से राष्ट्रपति पद के लिए दावेदारी पेश करनी चाही तो जनता का आक्रोश फूट पड़ा। लगभग 3 लाख लोग सड़कों पर उतार आये। लगातार 3 महीनों तक आन्दोलन चलता रहा। सरकार ने दमन का रास्ता चुना, लेकिन जनता के साहस और संख्या के सामने सरकार ज्यादा दिनों तक टिक न सकी और अन्त में अब्देलअजीज को इस्तीफा देना पड़ा और नये चुनाव की घोषणा करनी पड़ी। आन्दोलनकारियों ने अपनी इस जीत को केवल पहला कदम बताया और आगे जनता को पूरे लोकतांत्रिक अधिकार दिलाने तक आन्दोलन जारी रखने की बात कही। मुस्कान की क्रान्ति या हिरक आन्दोलन के नाम से चर्चित यह आन्दोलन 2011 के अरब स्प्रिंग की याद दिलाता है, जिसमें जनता ने मिस्र, ट्यूनीशिया, लीबिया आदि की हुकूमतों को तबाह कर दिया था। 
अल्जीरिया तो मात्र पहली कड़ी साबित हुआ जैसे–जैसे साल आगे बढ़ता गया नये–नये आन्दोलन पूरी दुनिया में उभरने लगे। इसकी अगली कड़ी हांगकांग में विवादास्पद प्रत्यर्पण कानून के खिलाफ उठा आन्दोलन रहा। दरअसल इस कानून के तहत हांगकांग में होने वाले किसी भी अपराध के अभियुक्त को चीन के सुपुर्द कर उस पर वहाँ की अदालतों में मुकदमा चलाया जा सकता था। ऐसा देखा गया कि ऐसे अधिकांश मामलों में अभियुक्त को दोषी ठहराकर सजा दे दी जाती। लम्बे समय से हांगकांग चीन के प्रभुत्व से बाहर आने के लिए संघर्ष करता रहा है, इस संघर्ष के नेताओं को चीन की सरकार कुचलने पर आमदा थी, जिसके लिए यह कानून लाया जा रहा था। 2 लाख से ज्यादा लोग सड़कों पर उतरकर सरकार के खिलाफ खड़े हो गये। अन्त में सरकार को यह कानून वापस लेना पड़ा, लेकिन आन्दोलनकारी हांगकांग की पूर्ण स्वतन्त्रता तक इस आन्दोलन को जारी रखने पर अड़े हुए हैं। 
अगले क्रम में, फ्रांस का “येल्लो वेस्ट” आन्दोलन रहा, जो 21वीं सदी का सबसे लम्बा चलने वाला आन्दोलन बनता जा रहा है। यह आन्दोलन तेल की कीमतों में बढ़ोतरी के खिलाफ विरोध–प्रदर्शन से शुरू हुआ। यह आज फ्रांस में शोषित जनता की आवाज बन गया है। इस आन्दोलन में हर रोज हजारों की संख्या में मजदूर, निजी कर्मचारी, छात्र–नौजवान और नौकरी–पेशा लोग जुड़़ रहे हैं। फ्रांसीसी क्रान्ति और पेरिस कम्यून की विरासत वाले इस देश के मजदूर वर्ग ने एक बार फिर संघर्ष का परचम उठा लिया है। सरकारी आँकड़ों के हिसाब से इस आन्दोलन में अब तक 11 लोग मारे गये हैं और 4000 से अधिक घायल हुए। सरकार ने 8400 लोगों को गिरफ्तार किया और 2000 लोगों पर मुकदमा चलाया। लाखों कर्मचारी मैकोन सरकार के खिलाफ अपने पेंशन फण्ड को बचाने के लिए भी संघर्ष कर रहे हैं क्योंकि नयी पेंशन योजना मजदूरों से पेंशन छीन लेने वाली है। इस योजना के तहत तभी पूरी पेंशन मिलेगी, जब मजदूर 64 साल पर सेवानिवृत्त होंगे। 
कुछ ऐसा ही नजारा लातिन अमरीका के सबसे समृद्ध देश चिली में देखने को मिला। लाखों लोगों ने मेट्रो रेल के किराये में बढ़ोतरी के खिलाफ राजधानी सैंटियागो में सड़क पर उतरकर सरकार का विरोध किया। सरकारी दमन से 29 प्रदर्शनकारियों की मौत हो गयी। जख्मी लोगों की संख्या ढाई हजार को पार कर गयी और लगभग इससे अधिक लोग गिरफ्तार कर लिये गये। शासन ने जनता में खौफ पैदा करने के लिए अपना खूनी पंजा फैला दिया था। लेकिन सरकार के लिए आन्दोलन को रोकना असम्भव हो गया और अन्त में सरकार को पीछे हटकर माँगें मानने का दिखावा करना पड़ा। दुनिया के अधिकांश देशों की तरह चिली का समाज भयानक असमानता से गुजर रहा है। इसी असन्तोष ने जुझारू आन्दोलन का रूप ले लिया था।
लातिन अमरीका के लगभग हर देश में सरकार विरोधी प्रदर्शन हुए। वेनेजुएला के लोकप्रिय राष्ट्रपति निकोलस मदुरो के खिलाफ दक्षिणपन्थी नेता जुआन गुइदो ने अपने समर्थकों के साथ प्रदर्शन किया। उसने कई बार मदुरो की सरकार को पलटने की नाकाम कोशिश भी की। कोलम्बिया में सरकार के राजनीतिक–आर्थिक सुधारों के खिलाफ प्रदर्शन किया गया। इक्वाडोर में सरकार द्वारा तेल सब्सिडी खत्म किये जाने के विरोध में प्रदर्शन हुआ। 
मध्य–पूर्व के देशों में भी आर्थिक संकट और विरोध प्रदर्शन बढ़ता जा रहा है। लेबनान में राष्ट्रीय कर्ज जीडीपी के 150 प्रतिशत तक पहुँच चुका है, जिसके चलते महँगाई और बेरोजगारी अपने चरम पर है, मजदूरों के सारे अधिकार एक–एक करके खत्म कर दिये गये हैं। लोगों में अन्दर ही अन्दर सरकार के प्रति अविश्वास पैदा हो गया। जब सरकार ने व्हाट्सएप पर टैक्स लगाने का फैसला लिया तो जनता का गुस्सा फूट पड़ा और देश की 20 प्रतिशत से भी अधिक जनता सरकार के खिलाफ सड़कों पर उतर आयी। इराक में एक चैथाई से ज्यादा लोग बेरोजगार हैं, जिसके चलते बड़े पैमाने पर नौजवानों में असन्तोष व्याप्त है। अमरीकी हमले से तबाह और गृह युद्ध में जर्जर हो चुके इराक में भ्रष्टाचार, बेरोजगारी और मूलभूत ढाँचे का अभाव बड़ी समस्याएँ बन गयी हैं। इन्हें दुरुस्त करने के बजाय सरकार ने अमरीकी घुसपैठियों का साथ दिया। अमरीकी साम्राज्यवादी हथियार के दम पर इराक से तेल निचोड़ रहे हैं। बदले में वहाँ जनता की मौलिक जरूरतें भी पूरी नहीं हो पा रही हैं। सरकार के खिलाफ जन–आक्रोश ने तेजी से आन्दोलन का रूप ले लिया और चारों ओर फैल गया। लेकिन सरकार ने भी दमन की इन्तहा कर दी। चार सौ से अधिक लोग मारे गये और बीस हजार गिरफ्तारियाँ की गयीं। उग्र विरोध प्रदर्शन के चलते राष्ट्रपति को इस्तीफा देने पर मजबूर होना पड़ा। 
‘नवम्बर विद्रोह’ के नाम से प्रचलित ईरान का आन्दोलन तब शुरू हुआ, जब पिछले साल सरकार ने तेल की कीमतों में अचानक 200 प्रतिशत की वृद्धि कर दी। शुरू में आन्दोलन शान्तिपूर्ण था, लेकिन सरकार के उकसावे पर हिंसक हो गया। सरकार ने आन्दोलन को दबाने के लिए इण्टरनेट बन्द कर दिया। प्रदर्शनकारियों पर हेलीकॉप्टर और छत से मशीनगन की गोलियाँ दागी गयीं। पन्द्रह सौ लोग मार डाले गये और हजारों लोगों को जेलों में ठूँस दिया गया। इसके चलते उग्र हुए प्रदर्शनकारियों ने 731 सरकारी बैंक की शाखाओं को नष्ट कर दिया। ईरान में 1979 की इस्लामिक क्रान्ति के बाद का यह सबसे उग्र प्रदर्शन था।
सूडान में रोटी की कीमत बढ़ाने के खिलाफ जोरदार प्रदर्शन हुए। इन प्रदर्शनों में वहाँ की ट्रेड यूनियनों ने सक्रिय भूमिका निभायी। इसके चलते राष्ट्रपति उमर अल बशीर को अपना पद गवाँना पड़ा। इससे उसके 30 साल पुराने शासन का अन्त हो गया। खारतोम में सेना ने जनता पर हमला किया। सैन्य मुख्यालय के सामने धरने पर बैठे लोगों पर गोलीबारी करके 118 लोगों की हत्या कर दी गयी। 70 महिलाओं के साथ बलात्कार किया गया और सैकड़ों लोग जख्मी हुए। सूडान में लोकतंत्र की बहाली के लिए जनता को बहुत बड़ी कुर्बानी देनी पड़ी।
2019 जलवायु परिवर्तन के खिलाफ व्यापक होते जनसंघर्षों का भी साल रहा है। ऑस्ट्रेलिया और अमेजन के जंगलों में लगी भयंकर आग ने दुनिया भर के पर्यावरण प्रेमियों को हिलाकर रख दिया। यूरोप के अधिकांश देशों की जनता ने पर्यावरण को बचाने के लिए आन्दोलन का रास्ता चुना। स्वीडन की एक स्कूल छात्रा ग्रेटा थनबर्ग इस आन्दोलन की प्रतीक बन गयी। देखते–देखते यह आन्दोलन मेलबर्न, मुम्बई, बर्लिन, न्यूयॉर्क जैसे बड़े शहरों में फैल गया। इस आन्दोलन में सबसे ज्यादा भागीदारी स्कूली छात्रों और नौजवानों की रही जो भविष्य के प्रति एक उम्मीद पैदा करती है।
भारत में सरकार की एक के बाद एक दमनकारी नीतियों की मार झेल रही जनता का आक्रोश आखिरकार “नागरिकता संशोधन कानून” के खिलाफ फूट पड़ा। सरकार ने इस आन्दोलन को जितना दबाना चाहा उतना ही यह बढ़ता जा रहा हैं, अब महिलाएँ भी इस कानून का विरोध करते हुए सड़कों पर उतार आयी हैं, दिल्ली के शाहीन बाग में चल रहा आन्दोलन इसका जीता–जागता साक्ष्य है। फीस बढ़ोतरी के खिलाफ लम्बे समय से अनेकों विश्वविद्यालयों में आन्दोलन चल रहे हैं। भारत में मजदूर, किसान, आदिवासी, छात्र–नौजवान, बुद्धिजीवी और प्रगतिशील लोग बड़े पैमाने पर आन्दोलन कर रहे हैं। 
कोलम्बिया, इण्डोनेशिया, हैती, रूस, चीन, अमरीका आदि देशों में भी जनता अपनी सरकार के खिलाफ अपनी आवाज बुलन्द कर रही है। यह जन आन्दोलन केवल अमरीकी और यूरोपीय महाद्वीप तक ही सीमित नहीं है। जहाँ एक तरफ 2019 में मध्य–एशिया में दूसरे “अरब विद्रोह” का वज्रनाद सुनाई दे रहा है, वहीं भारत, फ्रांस, मिस्त्र, सूडान, चिली आदि देशों में भी सरकार की दमनकारी नीतियों के खिलाफ विरोध प्रदर्शन हो रहे हैं।   
आज पाँचों महाद्वीपों पर चल रहे इन आन्दोलनों की तात्कालिक माँगें अलग–अलग जरूर नजर आ रही है, लेकिन इतने बड़े पैमाने पर लोगों का एक साथ सरकार के विरोध में सड़कों पर उतर आना महज एक इत्तेफाक नहीं है। हर देश के आन्दोलन की अपनी–अपनी विशेषताएँ हैं, लेकिन इसके साथ ही साथ उनमें एकरूपता भी है जो इन सबको एक कड़ी से जोड़़ता है। आज हम पहले से कहीं अधिक भूमण्डलीकृत दुनिया में जी रहे हैं, जिसके चलते पूँजीवादी व्यवस्था का संकट आज कुछ देशों तक सीमित न रहकर सार्वभौमिक हो गया है। पिछले एक दशक से चल रही वैश्विक मन्दी पूँजीवादी–साम्राज्यवादी व्यवस्था के अन्तर्विरोधों का परिणाम है। इस मन्दी में जहाँ एक तरफ मेहनतकश जनता कंगाल होती जा रही है, वहीं कुछ मुट्ठी भर लोगों की सम्पत्ति में बेहिसाब बढ़ोतरी हो रही है। आज शासक वर्ग आम मेहनतकश जनता के खून की एक–एक बूँद को मुनाफे में बदलने पर आमदा है। आर्थिक संकट का बोझ केवल मजदूरों पर ही नहीं डाला जा रहा है बल्कि मध्यम वर्ग को मिलने वाली रियायतों और सुविधाओं में भी बड़ी तेजी से कटौती की जा रही है, जिसके चलते इन आन्दोलनों में बड़ी संख्या में मध्यम वर्ग के लोग भी शामिल हो रहे हैं। लम्बे समय से आर्थिक संकट का सामना कर रहे आम लोगों के गुस्से का ज्वालामुखी आखिरकार अलग–अलग आन्दोलनों के रूप में फूट रहा है। हर आन्दोलन का कारण आर्थिक असमानता में छुपा हुआ है। सत्तासीन वर्ग और व्यवस्था से आम जनता का मोहभंग बहुत तेजी से हो रहा है। एक सर्वे के अनुसार आज केवल 17 प्रतिशत अमरीकी मौजूदा व्यवस्था में विश्वास रखते हैं, जबकि 2010 में यह संख्या 40 प्रतिशत थी, फ्रांस में यह संख्या पूरी आबादी की 30 प्रतिशत है।
आज पूरी दुनिया का मेहनतकश वर्ग अंगड़ाई ले रहा है। उसके लिए जिन्दा रहने की एक मात्र शर्त लड़ना है। 2019 में अल्जीरिया, सूडान, लेबनान आदि देशों की सरकारों को आन्दोलनकारियों के सामने झुकना पड़ा। यह भविष्य के लिए अच्छे संकेत जरूर देता है लेकिन साथ ही साथ क्रान्तिकारी नेतृत्व के अभाव में इन आन्दोलनों पर दिशा से भटक जाने और मुक्ति के अपने लक्ष्य तक न पहुँच पाने का खतरा है। 2011 की अरब स्प्रिंग के दौरान मिस्र का उदाहरण इस बात की पुष्टि करता है। वहाँ क्रान्तिकारी नेतृत्व के अभाव के चलते सत्ता दुबारा नये शोषकों के हाथों में आ गयी। आज पूँजीवाद के जिस संकट ने दुनिया को अपनी गिरफ्त में ले लिया है उससे बाहर निकालने का रास्ता इस व्यवस्था के अमूल–चूल परिवर्तन के बिना सम्भव नहीं है, जिसका नेतृत्व क्रान्तिकारी ताकतें ही कर सकती हैं।