संकट की गिरफ्त में भारतीय अर्थव्यवस्था
राजनीतिक अर्थशास्त्र मोहित पुण्डीरमई के अन्त तक सरकार को आखिरकार स्वीकार करना पड़ा कि जीडीपी पिछले 5 साल के सबसे निचले स्तर पर पहुँच गयी है। कॉर्पाेरेट मामलों के सचिव इंजेती श्रीनिवास ने भी कहा कि “देश का समूचा गैर–वित्तीय कम्पनी क्षेत्र संकट के मुहाने पर खड़ा है।” उद्योग–धंधों में छाई सुस्ती आज अपने चरम पर है, रोज कोई न कोई बैंक कंगाली की तरफ बढ़ रहा है। शिक्षा पर लाखों खर्च करने के बाद भी छोटी–छोटी नौकरी के लिए नौजवान दर–ब–दर की ठोकरें खा रहे हैं। स्थिति इतनी भयावह है कि बेरोजगारी दर पिछले 45 सालों में सबसे अधिक है। मतलब करोड़ों रोजगार खत्म हो गये। गरीब किसानों की बढ़ती आत्महत्याएँ उनकी कंगाली–बदहाली और कृषि के चैपट होने की कहानी बयान कर रही हैं। सरकार की और से जितने नीम–हकीम नुस्खे अपनाये जा रहे हैं, यह संकट उतना ही बढ़ता जा रहा है। इस आर्थिक संकट के दौर में एक तरफ करोड़ों लोगों की जिन्दगी दाँव पर लग गयी है तो वहीं दूसरी ओर मुट्ठी भर लोगों की सम्पत्ति में बेहिसाब बढ़ोतरी का सिलसिला जारी है। सरकार के झूठ–फरेब से अलग हटकर हमें इस संकट के अलग–अलग पहलुओं और उसके असली कारणों पर विचार करना होगा।
मई महीने में मारुती सुजुकी की कुल बिक्री में 22 प्रतिशत तक की गिरावट आयी, जिसके चलते पिछले 3 महीनों में मारुती ने अपना उत्पादन 39 प्रतिशत तक घटा लिया है। मानेसर और गुरुग्राम के दो बड़े प्लांटों में छँटनी की प्रक्रिया शुरू हो गयी है, साथ ही साथ मारुती से सम्बन्धित अनेकों वेंडर कम्पनियाँ बर्बाद होने के कगार पर हैं। मारुती के अलावा आयशर, एस्कॉर्ट्स, महिन्द्रा जैसी कार और व्यवसायिक वाहन कम्पनियों में भी यही स्थिति नजर आ रही है। दरअसल पूरा ऑटो सेक्टर संकटग्रस्त है जिसके चलते पिछले 16 महीनों में लगभग 3 लाख करोड़ रुपये डूब गये। यह क्षेत्र प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से 3 करोड़ 70 लाख लोगों को रोजगार देता है, जिनकी जीविका पर संकट के बादल छा गये हैं। इसके अलावा सबसे ज्यादा नौकरी देने वाले निर्माण और टेक्सटाइल क्षेत्र में भी यही स्थिति बनी हुई है। अगर भारत के पूरे औद्योगिक उत्पादन पर गौर करें तो यह 21 महीनों के न्यूनतम स्तर तक गिर गया है, शीर्ष 22 में से 13 उद्योग समूहों में गिरावट आयी है। ऐसे में नये निवेश के प्रस्ताव घटकर 14 साल के निम्नतर स्तर पर आ गये हैं, कुछ साल पहले तक 25 लाख करोड़ रुपये सालाना का निवेश आज 9.5 लाख करोड़ रुपये तक सिमट गया है। इसका मतलब साफ है कि नये रोजगार सृजन का कोई अवसर नहीं है। पुराने रोजगार समाप्त होने और नये रोजगार न मिलने के चलते करोड़ों लोगों की क्रय–शक्ति में भारी गिरावट आयी और पहले से सुस्त पड़ा उपभोक्ता बाजार और गहरे संकट में फँस चुका है। यह चक्र हर बार संकट को और गहरा करता जा रहा है।
भारत का सार्वजनिक क्षेत्र भी आज इस संकट से अछूता नहीं रह गया है। पिछले डेढ़ साल में देश की सबसे बड़ी गैस और तेल उत्पादक कम्पनी, आयल एंड नेचुरल गैस कारपोरेशन (ओएनजीसी) के नगदी भंडार में 9,344 करोड़ रुपये की कमी आ गयी है। हालत यह हो गयी है कि भारत की नवरत्न कही जाने वाली इस कम्पनी के पास कर्मचारियों को वेतन–भत्ते देने तक के रुपये नहीं बचे हैं। 63 साल में कम्पनी का यह सबसे बुरा प्रदर्शन रहा है। महानगर टेलीफोन निगम लिमिटेड (एमटीएनएल) और भारत संचार निगम लिमिटेड (बीएसएनएल) दोनों सरकारी दूरसंचार कम्पनियाँ अभूतपूर्व संकट से गुजर रही हैं। एक तरफ एमटीएनएल का नुकसान वित्त वर्ष 2018–19 में बढ़कर 832.26 करोड़ रुपये हो गया है तो वहीं दूसरी तरफ बीएसएनएल 31,287 करोड़ रुपये के घाटे में चल रही है। इन दोनों दूरसंचार उपक्रमों में कार्यरत 2 लाख से अधिक लोगों की नौकरी पर खतरा मंडरा रहा है। यही स्थिति हिन्दुस्तान ऐरोनॉटिक्स लिमिटेड (एचएएल) और एयर इण्डिया की भी है। साथ ही साथ डाक विभाग भी 15 हजार करोड़ रुपये के घाटे में चल रहा है। पिछले 5 साल में पेट्रोल–डीजल की लागत से लगभग तीन गुना कीमतें वसूलने के बावजूद भी तीनों सरकारी तेल कम्पनियों का कर्ज दस साल के उच्चतम स्तर पर है।
बीएसएनएल और एचएएल की बर्बादी की कीमत पर सरकार ने अम्बानी को आबाद किया था, इसी तर्ज पर देश के अन्य सार्वजनिक उपक्रमों को भी निजी मुनाफे की भेंट चढ़ाया जा रहा है। देशी–विदेशी पूँजीपतियों को फायदा पहुँचाने के लिए सरकार ने जनता की गाढ़ी कमाई से निर्मित इन सरकारी उपक्रमों और उसमें कार्यरत लाखों कर्मचारियों को कंगाली की ओर धकेल दिया है।
1991 के बाद से ही, नवउदारवादी नीतियों की पक्षधर सभी सरकारों ने देश के विकास में सार्वजानिक उपक्रमों को अक्षम बताकर निजी मुनाफे पर आधारित उद्योगों को बढ़ावा दिया। लेकिन सरकारों द्वारा फैलाया गया यह भ्रम ज्यादा दिन तक टिक नहीं पाया। आज तबाही की अनेक घटनाएँ इसकी पुष्टि कर रही हैं। पिछले दिनों भारत की दूसरी सबसे बड़ी एयरलाइन्स कम्पनी जेट एयरवेज ने बिना किसी पूर्व सूचना के अपने 20 हजार कर्मचारियों को नौकरी से निकाल दिया। इस कम्पनी पर 8 हजार 500 करोड़ रुपये का कर्ज है। डॉलर के मुकाबले रुपये के कमजोर होने से इसका विदेशी मुद्रा खर्च बढ़ता गया। बैंकों से कर्ज लेकर तत्काल इसकी भरपाई तो होती रही, पर अन्दर ही अन्दर इसका संकट और ज्यादा गहराता गया और आखिरकार इसने खुद को दिवालिया घोषित कर दिया। किंगफिशर एयरलाइन्स, एयर डेक्कन और एयर सहारा के बाद बर्बाद होने की कड़ी में जेट एयरवेज भी शामिल हो गयी है। अनिल अम्बानी की कम्पनी रिलायंस कैपिटल पर बैंकों का 600 करोड़ रुपये बकाया है, इससे अम्बानी के दिवालिया होने की नौबत आ गयी थी।
इस बर्बादी का बोझ अन्तत: आम जनता पर ही पड़ता है। जेट एयरवेज को बचाने के लिए सरकार ने एसबीआई और पीएनबी को आगे कर दिया है, जिसका मतलब साफ है। इन बैंकों में जमा आम जनता की गाढ़ी कमाई दाँव पर लगा दी गयी है। बर्बाद होती कम्पनियों का एक बड़ा हिस्सा गैर–बैंकिंग संस्थायें हैं जिसमें म्यूचुअल फण्ड, बीमा कम्पनियाँ और पेंशन फण्ड मुख्य हैं। ऐसे में मध्यम वर्ग का एक बड़ा तबका जो छोटी–छोटी बचत करके इनमें धनराशि जमा करता था वह सब अब उद्योगपतियों की मुनाफे की हवस का शिकार हो रही है। एलआईसी का इस्तेमाल सरकार 1980 के दशक से ही संकटग्रस्त इकाइयों को उबारने के लिए करती रही है और अब ईपीएफओ को भी इसी उद्देश्य के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है।
गौरतलब है कि आर्थिक संकट का बोझ किस पर पड़ रहा है? जैसे–जैसे आर्थिक संकट बढ़ रहा है पूँजीपति पहले से बदहाल और परेशान मेहनतकश जनता के खून की एक–एक बूँद को मुनाफे में बदलने पर उतारू हैं। पनगढ़िया सलाह दे रहे हैं कि “आक्रामक निजीकरण होना चाहिए।” मतलब मेहनतकशों के बचे–खुचे हकों को भी खत्म करो। शेयर बाजार से करोड़ों कमाने वाले सट्टेबाज झुनझुनवाला का कहना है कि “जनतंत्र अर्थव्यवस्था की वृद्धि में बाधा है।” मतलब साफ है लोकतंत्र का बचा–खुचा आवरण भी उतारकर मेहनतकश जनता पर सीधी तानाशही कायम करो। हद तो यह है कि जिन नवउदारवादी नीतियों–– निजीकरण–उदारीकरण के चलते अर्थव्यवस्था तबाही की ओर धकेली जा रही है, उसे ही अब और तेजी से आगे बढ़ाने के सुझाव आने लगे हैं। आर्थिक सुधारों को तेज करने का यही आशय है। यह संकट आज अर्थव्यवस्था के हर क्षेत्र में व्याप्त है। यह ढाँचागत संकट है। इसे नीम–हकीम इलाज से हल नहीं किया जा सकता। मुनाफा केन्द्रित व्यवस्था इसकी पोषक है। इसकी जगह मानव केन्द्रित व्यवस्था ही इसका विकल्प हो सकती है।
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