मार्च में उत्तर प्रदेश की सरकार ने सारे कानूनों को ताक पर रखकर लखनऊ में सीएए विरोधी प्रदर्शनकारियों के पोस्टर सार्वजनिक तौर पर जारी किये। इन पोस्टरों में 57 लोगों की फोटो, उनका पूरा नाम और पता लिखा गया। सरकार ने बिना किसी कानूनी कार्यवाही के इन्हें दंगाई घोषित कर दिया। इन पर ‘नागरिकता संसोधन कानून’ का विरोध करते हुए सरकारी सम्पत्ति को नुकसान पहुँचाने और तोड़–फोड़ करने का मनमाना आरोप लगाया गया। पोस्टर में लिखा गया कि इन्हें प्रशासन को एक करोड़ 15 लाख का मुआवजा चुकाना होगा और ऐसा न करने पर उनकी सम्पत्ति तक कुर्क कर ली जायेगी।

उत्तर प्रदेश सरकार की बदले की भावना से की गयी कार्रवाई को देखते हुए इलाहबाद उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश गोविन्द माथुर ने इस मामले पर स्वत: संज्ञान लिया और रविवार को ही लखनऊ के पुलिस कमीश्नर और डीएम को उच्च–न्यायलाय में हाजिर होने के आदेश दिया। मुख्य न्यायाधीश ने उत्तर प्रदेश सरकार के इस कदम को बेहद अन्यायपूर्ण बताते हुए पूछा कि आपने किस कानूनी नियम से नाम सार्वजनिक किये? साथ ही अदालत ने सरकार को फटकार लगाते हुए याद दिलाया कि ‘कोड ऑफ क्रिमिनल प्रोसीजर 1973’ के अनुसार सिर्फ अदालत के पास ही यह अधिकार है कि वह किसी ऐसे व्यक्ति का पोस्टर जारी करने का आदेश दे सकती है, जो कानूनी प्रक्रिया से भाग रहा हो। लेकिन उत्तर प्रदेश सरकार खुद न्यायधीश बन बैठी। अदालत ने जल्द से जल्द उन पोस्टरों को हटाने के आदेश जारी किये। अपने पक्ष में कोई दलील न दे पाने की स्थिति में सरकार तानाशाही पर उतर आयी और उलटा अदालत को ही चेताने लगी कि यह मामला आपके क्षेत्र से बाहर है, इसलिए आपको बीच में आने का कोई अधिकार नहीं हैं। आजाद भारत में कोई राज्य सरकार शायद ही पहले कभी उच्च न्यायलय के खिलाफ गयी।

यह पहला मामला नहीं है जब उत्तर प्रदेश सरकार मनमानी पर उतर आयी है, मुख्यमंत्री बनने के पहले से ही योगी आदित्यनाथ विवादों मंे बने रहे हैं, खासकर अपनी मुस्लिम विरोधी गतिविधियों और बयानों के चलते। मानवाधिकारों की वकालत और शोध करने वाले एक अन्तरराष्ट्रीय स्वयं सेवी संगठन ‘ह्यूमन राइट्स वॉच’ की एक रिपोर्ट के अनुसार उत्तर–प्रदेश में मार्च 2017 से अगस्त 2018 के बीच 63 लोग पुलिस हिरासत में मर चुके हंै, जिनमें अधिकतर मुस्लिम थे। इनमें से अधिकांश लोगों के बेकसूर होने की बात बाद की जाँच में पुष्ट भी हो गयी। कई लोग मानते हैं कि योगी का साम्प्रदायिक इतिहास बहुत पुराना है, 2002 में इन्होंने हिन्दुत्व की रक्षा के नाम पर ‘हिन्दू यूथ मिलीशिया’ का निर्माण किया था। इस संगठन को 2005 में उत्तर प्रदेश के मऊ और 2007 में गोरखपुर के दंगे भड़काने का दोषी पाया गया था। आदित्यनाथ पर यह भी आरोप है कि उन्होंने 2011 में मुस्लिम महिलाओं को कब्रों से निकाल कर बलात्कार करने और उन्हें जलाने तक की बात कही थी। साम्प्रदायिक बयान, दंगा भड़काना और समाज में वैमनस्व को बढ़ावा देने के नाम पर उनके ऊपर कई केस लग चुके हैं। उत्तर प्रदेश लगभग 20 करोड़ लोगों का घर है जिसमें 19 प्रतिशत मुस्लिम आबादी है, ऐसे में साम्प्रदायिक नफरत से जुड़ी राजनीति समाज के ताने–बाने को तोड़ सकती है। मुख्यमंत्री बनते ही आदित्यनाथ ने खुद अपने ऊपर लगे सारे मुकदमों को निरस्त कर दिया।

उत्तर प्रदेश सरकार ने ‘नागरिकता संसोधन कानून’ का विरोध करने वालों पर कठोर दमन चक्र चलाया। लखनऊ, मेरठ, कानपुर, बिजनौर, वाराणसी आदि शहरों से अनेकों खबरें आयीं, जिसमें सरकारी आदेश पर पुलिस ने हजारों लोगों को जेल में डाल दिया। प्रशासन पर यह भी आरोप लगा कि उसने मुस्लिम घरों में लूटपाट की और शान्तिपूर्वक विरोध करनेवाले निहत्थे लोगों पर गोलियाँ तक चलायीं। उत्तर प्रदेश में पुलिस की गोली से लगभग 6 लोगों की मौत हुई। सरकार की इस बर्बर कार्रवाई के खिलाफ पूरे देश में इनसाफपसन्द लोगों ने आवाज उठायी और जब सच्चाई को सामने लाने के लिए एक गैर–सरकारी संस्था ने मरने वालों के परिवार से बात की तो चैंकाने वाले तथ्य सामने आये। उन्होंने अपनी रिपोर्ट में बताया कि पुलिस की गोली से मरने वाले अधिकांश लोग तो विरोध में शामिल भी नहीं थे। इनमें से एक मेरठ निवासी आसिफ भी था, जिसकी उम्र महज 20 साल थी। पुलिस ने उसे 20 दिसम्बर को हुई घटना का मास्टरमाइण्ड बताया लेकिन सच्चाई इसके उलट थी, वह रिक्शा चलाता था और जब पुलिस ने उसे मारा तब वह अपना रिक्शा रखकर घर आ रहा था। उनकी रिपोर्ट में ऐसी ही कई जुल्म की दास्ताँ बतायी गयी है।

उत्तर प्रदेश पुलिस ने इलाहाबाद की मशहूर डॉक्टर माधवी मित्तल के रेडियोलॉजी क्लीनिक पर छुट्टी के दिन अचानक छापा मारकर उसे सील कर दिया, सनद रहे डॉक्टर के पति ‘नागरिकता कानून’ के विरोध प्रदर्शन में शामिल हुए थे जिसकी कीमत उन्हें चुकानी पड़ी। जब सामाजिक कार्यकर्ता, छात्र और आम मेहनतकश लोग ‘नागरिकता कानून’ के खिलाफ अपनी आवाज बुलन्द करके सरकार से सवाल कर रहें हैं, तब उनकी आवाज को दबाने के लिए सत्ता एक सामाजिक वातावरण तैयार कर रही है, जिसके जरिये इन्हें ही गद्दार घोषित करके भीड़ द्वारा इनकी हत्या करवायी जा सके। पिछले दिनों ‘अर्बन नक्सल’, ‘राष्ट्र–विरोधी’, ‘विकास–विरोधी’ आदि शब्दों का निर्माण इसी षड्यंत्र का हिस्सा है, धर्मांधता में डूबे लोग इसका सबसे आसान शिकार बनते हैं। मुस्लिम विरोधी मानसिकता को बढ़ावा देकर पिछले कुछ सालों में एक ऐसी भीड़ तैयार की गयी है जो इशारा मिलते ही किसी को भी पीट–पीटकर मार सकती है।

सरकार ने जिन 57 लोगों को गद्दार घोषित करके पोस्टर जारी किये हैं, उनमें से 53 लोगों पर तो कानून के तहत अभी तक कोई दोष भी साबित नहीं हो पाया है। इन लोगों में सामाजिक कार्यकर्ताओं की एक बड़ी संख्या है, जो समय–समय पर सरकार की गलत नीतियों के खिलाफ आवाज उठाते रहे हैं। इनमें 76 साल के पूर्व आईपीएस एस आर दारापुरी, सामाजिक कार्यकर्ता और कलाकार दीपक कबीर, 80 वर्षीय वकील मो– सोहेल, सामाजिक कार्यकर्ता सदफ जाफर आदि शामिल हैं। अब योगी सरकार इनके नाम और पते सार्वजनिक करके इन्हें उसी निर्मित भीड़ का शिकार बनाना चाहती है, जिससे विरोध करने वालों को कुचल दिया जा सके और सरकार एकतरफा जन–विरोधी नीतियों को आसानी से लागू कर सके।