हाल ही में देश कोरोना की दूसरी लहर का गवाह बना जिसमें सरकार की लापरवाही और अव्यवस्था ने लाखों लोगों की जिन्दगी छीन ली। कोरोना महामारी की दूसरी लहर तो अब घटती नजर आ रही है लेकिन एक दूसरा बड़ा संकट देश के करोड़ों मेहनतकश लोगों के सामने आ खड़ा हुआ है। पिछले साल कोरोना महामारी के समय लगाये गये लॉकडाउन के बाद हजारों छोटे कारोबार बन्द हो गये थे जिनमें काम करने वाले लाखों लोगों को नौकरी से हाथ धोना पड़ा था। अपनी सारी जमा–पूँजी लगाकर किसी तरह लोगों ने अपने परिवारों का भरण पोषण किया था। पिछले साल से ही सरकार लोगों को यह विश्वास दिलाने में लग गयी थी की देश की अर्थव्यवस्था दुबारा पटरी पर आने लगी है। बड़ी–बड़ी घोषणाओं के बीच जीडीपी की वृद्धि दर 10 फीसदी तक बढ़ने जैसी अजीबोगरीब बातें हो रही थीं। लेकिन जैसे ही वित्तीय वर्ष 2020–21 के आँकड़े आने शुरू हुए सरकार के झूठे दावे उजागर हो गये।

वित्तीय वर्ष 2020–21 में जीडीपी विकास दर में अभूतपूर्व शून्य से 7.3 फीसदी नीचे की गिरावट दर्ज हुई है। पिछले 40 सालों में यह अर्थव्यवस्था के सबसे बुरे दौर को दिखाता है। वर्तमान वित्तीय वर्ष में देश का सरकारी खजाने का घाटा (फिस्कल डेफिसिट) जीडीपी का 9.3 फीसदी तक हो गया है। एचएसबीसी ग्लोबल रिसर्च के अर्थशास्त्रियों ने अपनी रिपोर्ट में बताया है कि 16 में से 12 संकेत लाल निशान से ऊपर जा चुके हैं यानी विकास दर पिछले दशकों में सबसे कम है। ये 16 संकेत अर्थव्यवस्था के चार प्रमुख क्षेत्रों से लिये गये है जिनमें उपभोग, उत्पादकता, बाहरी व्यापार और जीवन सुगमता शामिल हैं। यह सब आँकड़े भारत की मौजूदा अर्थव्यवस्था की भयावह तस्वीर दिखाते हैं। मतलब साफ है आने वाले समय में अधिक नौकरियों का नुकसान, आय/मजदूरी में गिरावट, बचत का नुकसान, निवेश, शिक्षा तथा स्वास्थ्य सेवा सहित कई अन्य नुकसान। पहले से बदहाल देश की मेहनतकश जनता की हालत अब और बुरी होने के आसार नजर आ रहे हैं। एक तरफ देश की अर्थव्यवस्था रसातल में जा रही है, करोड़ों लोगों पर जीवन–मरण का संकट छाया हुआ है तो दूसरी तरफ मुट्ठीभर पूँजीपतियों की सम्पत्ति आसमान छू रही है, शेयर बाजार रोज नयी उँचाइयों को छू रहा है। देश के शीर्ष 100 खरबपतियों की दौलत में पिछले एक साल में 14 लाख करोड़ रुपये का इजाफा हुआ है। इन्हीं मुट्ठीभर लोगों के विकास को लम्बे समय से देश का विकास बताया जा रहा है। ऐसे में देश की वर्तमान स्थिति का सही आकलन बेहद जरूरी है जिसके लिए अर्थव्यवस्था के अलग–अलग अंगों की जाँच पड़ताल करनी होगी।

हाल ही में सेण्टर फॉर मोनिटरिंग इंडियन इकॉनमी (सीएमआईई) ने 171 से ज्यादा जिलों में सर्वे किये। इन सर्वे में सामने आया कि लगभग 59 फीसदी ‘स्टार्ट अप्स’ और ‘एमएसएमई’ यानी सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्योग बन्द होने के कगार पर आ गये हैं। ये उद्योग नगदी की भारी कमी का सामना कर रहे हैं, जिस कारण आने वाले समय में यह संख्या और भी अधिक हो सकती है। इन्हीं उद्योगों में देश के श्रमिक वर्ग का लगभग 94 फीसदी लगा हुआ है। इतने बड़े पैमाने पर अब इन लोगों की जीविका पर खतरा मंडरा रहा है। छोटे उद्योग ही नहीं बल्कि देश की बड़ी कम्पनियाँ भी संकट से अछूती नहीं रही हैं। मारुति कार की बिक्री में 52 फीसदी की गिरावट तो वहीं महिन्द्रा एण्ड महिन्द्रा के टैªक्टरों और गाड़ियों की बिक्री में रिकॉर्ड 52 फीसदी की कमी आयी है। इन कम्पनियों पर हजारों सहायक वेण्डर कम्पनियाँ निर्भर रहती है, एक कड़ी टूटने का मतलब बाकी सब जगह भी बर्बादी। इसी समस्या के कारण अधिकतर उद्योग अपनी क्षमता के 70 फीसदी से भी कम पर काम कर रहे हैं। विनिर्माण क्षेत्र भी दूसरी लहर के बाद खोला तो जरूर गया है लेकिन मजदूरों के पलायन के कारण और दूसरा मजदूरों के लिए टीका अनिवार्य करने के कारण अपनी क्षमता से नहीं चल पा रहे हैं। टेलीकॉम, बैंकिंग और इससे जुड़े कुछ सेक्टर पिछले सालों से ही दिक्कतों का सामना कर रहे थे लेकिन अब इनकी समस्या और बढ़ गयी है। सर्विस सेक्टर की स्थिति बहुत खराब है–– केवल पर्यटन उद्योग में ही पिछले महीनों में 60 हजार करोड़ का नुकसान हुआ है। तेजी से बर्बाद होते उद्योगों का सबसे बुरा असर वहाँ काम करने वाले मजदूरों पर पड़ रहा है। सीएमआईई की रिपोर्ट के अनुसार इस साल मई के महीने में ही एक करोड़ से ज्यादा लोगों का रोजगार खत्म हुआ है। जनवरी से लेकर मई तक 2.5 करोड़ लोगों की नौकरी चली गयी।

पिछले साल लॉकडाउन में देश मजदूरों के सबसे बड़े पलायन का साक्षी बना था, जिसमें सरकार की लापरवाही और बदइन्तजामी से कितने ही मजदूरों की जान तक चली गयी थी। इस साल भी काम न मिलने के कारण और कोरोना की दूसरी लहर ने मजदूरों को शहरों से बड़े पैमाने पर ग्रामीण इलाकों में पलायन के लिए मजबूर किया है। जिससे पहले से संकटग्रस्त कृषि क्षेत्र में अतिरिक्त 90 लाख श्रमिक जुड़ गये हैं। पिछले महीने ग्रामीण बेरोजगारी दर 10 फीसदी से ऊपर रही है। इससे साफ है कि शहरों से पलायन करके आये मजदूरों के लिए गाँव में भी रोजगार मिलने की सम्भावना बेहद कम है। अब केवल मजदूर वर्ग ही नहीं बल्कि बहुत तेजी से मध्यम वर्ग भी संकट की चपेट में आ रहा है। सरकारी नौकरियों में लगभग 48 फीसदी तक की गिरावट आयी है। ये आँकड़े भारत में रोजगार की स्थिति को साफ बयान करते हैं। लेकिन सरकार इस सच्चाई के उलट अर्थव्यवस्था की भ्रामक तस्वीर सामने ला रही है जबकि करोड़ों लोगों को अपने हाल पर तिल–तिल करके मरने के लिए छोड़ रही है।

सीएमआईई के अनुसार इस साल ही वेतन वाली करीब एक करोड़ नौकरियाँ खत्म हो गयी हैं जिस कारण 97 फीसदी परिवारों ने अपनी आय में कमी का सामना किया है। रोज–रोज के खर्चे पूरे करने के लिए भी कर्ज लेने पड़ रहे हैं, यहाँ तक कि खाने–पीने तक के सामानों में भी लोगों ने कमी कर दी है। वित्तीय वर्ष 2021 में निजी उपभोग जो कि जीडीपी का सबसे बड़ा मानक होता है, 10 फीसदी तक सिकुड़ गया है। यानी सरकार के अलावा आम लोगों और निजी कम्पनियों की तरफ से होने वाले खर्च में करीब 8 लाख करोड़ की गिरावट आयी है। लेकिन ऐसे समय में भी महँगाई अपने चरम पर है, महँगाई की दर 8 साल के सबसे उच्च स्तर पर है। पिछले कुछ महीनों में ही पेट्रोल–डीजल के दामों में 17 बार बढ़ोतरी हुई है। मुम्बई और जयपुर में पेट्रोल 100 पार तक पहुँच गया है। अब सरसो के तेल जैसे खाद्य तेलों के दाम भी एक दशक के सर्वाेच्च स्तर पर पहुँच चुके हैं। शायद ही इतिहास में आर्थिक संकट इतना गहरा पहले कभी हुआ हो।

पहले से बीमार बैंकिंग व्यवस्था अब और बड़े संकट में फँसती नजर आ रही है। क्रेडिट ब्यूरो की रिपोर्ट के अनुसार होम लोन बकाया 2 लाख करोड़ से बढ़कर दिसम्बर 2020 तक 22 लाख करोड़ हो गया है। यह बहुत बड़ी दुर्गति है। इसमें छोटे ग्राहक ज्यादा है। यह दुर्गति एक तरफ लोगों की घटती आय की ओर इशारा कर रही है तो वहीं दूसरी ओर पहले से संकटग्रस्त रियल एस्टेट की हालत आगे और भी खराब होने वाली है। दिल्ली–एनसीआर में मकानों की बिक्री सबसे ज्यादा प्रभावित हुई है और अनुमान यह लगाया जा रहा है कि अगले 7–8 साल में भी इनके बिकने की कोई सम्भावना नहीं है। 28 फीसदी मकानों का निर्माण अधूरा ही बीच में छोड़ना पड़ा है। रीयल स्टेट का डूबना लम्बे समय तक अर्थव्यवस्था के संकटग्रस्त रहने की ओर इशारा कर रहा है क्योंकि स्टील, सीमेंट आदि अनेकों उद्योगों की गति बरकरार रखने का यह आधार है, इसका बर्बाद होने का मतलब एक लम्बी श्रृंखला की बर्बादी।

 एक तरफ देश के करोड़ों मेहनतकश लोगों की जिन्दगी बेरोजगारी, महँगाई और घटती आय के कारण बद से बदतर हो रही है, वहीं कुछ बड़ी इजारेदार कम्पनियाँ मालामाल भी हो रही है। पिछले संकटों की तरह ही इस संकट का सारा भार आम जनता पर डालकर बड़े पूँजीपति खुद मलाई चाट रहे हैं। शीर्ष 1054 कम्पनियों का वित्तीय वर्ष 2020–21 में मुनाफा अभूतपूर्व तरीके से बढ़ा है। पिछले वित्त वर्ष में मुनाफे में वृद्धि केवल 1.6 फीसदी ही थी, वह अब बढ़कर 2.63 फीसदी तक हो गयी है। महामारी के समय में भी देश के दो बड़े उद्योगपतियों की आय बेतहाशा बढ़ी है। एक दिन में 4 हजार करोड़ रुपये तक कमाने वाले शायद दुनिया के ये पहले आदमी हों। लेकिन सवाल यह उठता है कि आखिर इनकी कमाई का क्या रहस्य है ? सीएमआईई के अध्यक्ष महेश व्यास के अनुसार इस तिमाही में बिक्री 9.7 फीसदी घटी है पर लाभ 17.8 फीसदी बढ़ गया है। जिस कारण केवल इसी तिमाही में जीडीपी में वृद्धि नजर आयी। लेकिन बिक्री कम होने के बाद भी मुनाफा कैसे बढ़ा ? इसी तरह शेयर बाजार में बड़ी बढ़ोतरी देखने को मिल रही हैं। 21 जनवरी का दिन बॉम्बे स्टाक एक्सचेंज के इतिहास में अभूतपूर्व रहा। 145 साल के इतिहास में पहली बार इसके सूचकांक ने 50 हजार अंक के स्तर को पार किया। मार्च से जनवरी तक 10 महीनों में ही सूचकांक में दोगुनी वृद्धि हुई। एक आकलन के मुताबिक साल 2020 में शेयर बाजार में निवेश करने वालों को 15 फीसदी का फायदा हुआ। महामारी के दौरान इतने कम समय में इतना ऊँचा मुनाफा कमाना किसी भी दूसरे क्षेत्र में असम्भव था।

ऐसा नहीं है कि यह संकट कोरोना के चलते आया है बल्कि लम्बे समय से भारतीय अर्थव्यवस्था संकट में थी। अगर हम पिछले तीन वित्तीय वर्षों की जीडीपी दर को देखें तो यह रुझान साफ नजर आता है। 2017–18 में जीडीपी दर 7.4 फीसदी थी जिसके बाद से यह लगातार घटती गयी है। 2018–19 में यह 6.5 फीसदी रही और कोरोना महामारी ने इसकी रफ्तार को तेज किया। अर्थव्यवस्था में मन्दी के बावजूद भी अपनी मुनाफे की दर को बरकरार रखने के लिए पूँजीपतियों ने कोरोना महामारी को अवसर के रूप में लिया। महामारी का फायदा उठाकर एक तरफ तो सरकार से लाखों करोड़ों का अनुदान लिया जिसे सट्टेबाजारी में लगाकर अरबों कमाये। दूसरी तरफ छँटनी और थोड़े मजदूरों से ही बेहद कम मजदूरी पर 12–12 घण्टे काम लिया गया। मजदूरों के विरोध करने पर उन्हें निकाला गया। पूँजीपतियों के फायदे के लिए सरकार ने मजदूरों के हक के लिए बने कानूनों को एक के बाद करके खत्म कर दिया। उनके आन्दोलन करने और अपनी बात रखने पर सख्त रोक लगा दी गयी। वहीं दूसरी ओर पूँजीपतियों से वसूला जाने वाले कॉरपोरेट टैक्स में भारी कमी की गयी है। यह 12 साल में पहली बार हुआ है जब कॉरपोरेट टैक्स से ज्यादा सरकार ने आयकर वसूली की है जबकि पिछले साल सूचीबद्ध कम्पनियों का टैक्स के बाद भी मुनाफा 9.1 फीसदी बढ़ा है वहीं दूसरी और कॉरपोरेट टैक्स में 17.9 फीसदी की गिरावट रही है। इसी कारण विदेशी निवेशक भी सस्ते श्रम और सरकारी संरक्षण के चलते अकूत मुनाफा कमाने के लिए भारत आ रहे हैं। यही राज अडानी की सम्पत्ति बढ़ने का भी है। 2021 में अडानी ग्रुप ने ढाई लाख करोड़ रुपये का मुनाफा कमाया है जबकि इस दौरान देश की जीडीपी की वृद्धि दर शूून्य से 7.3 प्रतिशत नीचे पहुँच गयी थी। पिछले 4 साल में इसकी सम्पत्ति 20 गुना से भी ज्यादा बढ़ी है। इस बीच जो सरसों का तेल 85 रुपये प्रति लिटर था अब वह 200 तक पहुँच गया है। इसे बेचने वाला फॉर्च्यून ब्राण्ड अडानी ग्रुप का ही है। यही हाल गैस की कीमत का भी है जो दोगुने से भी ज्यादा बढ़ गयी है। जबकि “अडानी टोटल गैस” के शेयरों में बीते एक वर्ष में 1145 फीसदी की वृद्धि हुई है। भारत के अरबपतियों की कुल सम्पत्ति हमारे जीडीपी के 20 फीसदी तक हो गयी है। करोड़ों मेहनतकश लोगों के खून की एक–एक बून्द निकालकर पूँजीपतियों ने अकूत मुनाफा बटोरा है। यही वह रहस्य है जिससे इनकी दौलत इतनी तेजी से बढ़ी है। एक अरबपति बनने के लिए करोड़ों लोगों को भूखा मरने को मजबूर किया जा रहा है।

अब आखिर देश के करोड़ों मेहनतकश जनता के सामने क्या रास्ता बचता है ? हम एक नवउदारवादी दुनिया का हिस्सा है जहाँ देश की सरकारें देशी–विदेशी पूँजीपतियों के मुनाफे को बढ़ाये रखने के लिए कार्यरत हैं। इस महामारी के बीच ही दुनिया भर के अरबपतियों की आमदनी पाँच खरब से बढ़कर 13 खरब डॉलर तक हो गयी है। न केवल भारत की अर्थव्यवस्था संकट में है, बल्कि दुनिया के सभी देशों की अर्थव्यवस्था संकट में है। लेकिन जहाँ एक ओर अमरीका अपने बेरोजगारों को इतना भत्ता दे रहा है कि वे अच्छी जिन्दगी गुजार रहे हैं, वहीं भारत के बेरोजगार दर–दर की ठोकर खाकर आत्महत्या करने को मजबूर हैं।

भारत की अर्थव्यवस्था में सुधार के कोई आसार नहीं है। यह चैतरफा संकट में फँस गयी है। इसका रोग नासूर बन गया है। यह मरणासन्न स्थिति में है। मरणासन्न स्थिति में पूरा समाज नहीं है, बल्कि वह पूँजीवादी व्यवस्था है, जो किसानों, मजदूरों और नौजवानों के शोषण और लूट पर टिकी है। दरअसल खात्में की ओर जनता नहीं बढ़ रही है, बल्कि उसे लूटने वाली व्यवस्था बढ़ रही है। लेकिन यह सड़ी–गली और मरणासन्न व्यवस्था जितने दिन तक जिन्दा रहेगी, उतना ही तबाही और महामारी पैदा करेगी। यह सड़ी हुई व्यवस्था चाहे जितनी मरने के करीब हो, लेकिन अपने आप खत्म नहीं होगी। इसलिए हमारा यह कर्त्तव्य है कि इस मानवद्रोही व्यवस्था को बदलकर एक न्यायपूर्ण समाज की नींव रखें, जिसमें सबको सम्मानजनक रोजगार की गारण्टी हो और किसी भी इनसान का शोषण–उत्पीड़न न हो। यानी लूटेरों के राज का अन्त होना चाहिए, लेकिन इसके लिए हमें सरकारों के मोहपाश से बाहर आकर सही समझदारी कायम करनी होगी, इतिहास के पन्नों को पलटकर सबक हासिल करने होंगे और एक नयी मुक्ति का रास्ता बनाना होगा।