इसी साल जुलाई में पूर्वी दिल्ली के मंडावली इलाके में हुई तीन बच्चियों की मौत की अटॉप्सी रिपोर्ट से यह स्पष्ट हो गया है कि तीनों बच्चियों की मौत भूख और कुपोषण के कारण हुई थी। भूख और कुपोषण से मौत का यह सिलसिला बादस्तूर जारी है। मध्यप्रदेश के सतना जिले में दो दशकों से भी अधिक समय से कुपोषण एक बड़ी समस्या बना हुआ है। पिडरा आदिवासी बस्ती में सितम्बर माह में आनन्द नाम के एक मासूम की कुपोषण के चलते मौत हो गयी। माँ और पिता की हालत भी नाजुक है। यहां तक कि इस परिवार को तीन माह से राशन भी नहीं मिला। तीसरी घटना, नवम्बर माह में ही बंगाल के लालगढ़ जिले की है। जंगलखाश गाँव में रहने वाले शबर जनजाति के 7 लोगों की मौत हो गयी। इन में से अधिकतर लोगों की मौत की वजह भूख और कुपोषण है।

कुपोषण बच्चों को सबसे अधिक प्रभावित करता है। जन्म से पहले ही गर्भ में भी बच्चे को माँ के जरिये पौष्टिक भोजन की जरूरत होती है इसी से उसका स्वस्थ विकास होता है। बच्चा 6 महीने से 3 वर्ष की अवधि तक तेजी से बढ़ता है।  कुपोषण के चलते सूखा रोग, आँखों के रोग, हड्डियों का कमजोर होना, आयोडिन की कमी, रक्त की कमी, मन्द बुद्धि, शाररिक वृ़िद्ध में कमी, सर र्दद, पचासों तरह की बिमारी हो जाती हैं। कुपोषित बच्चा पढ़ने–लिखने में कमजोर होता है। जिसके चलते उसे समाज में तमाम तरह की जिल्लत झेलनी पड़ती है। सबसे भंयकर इससे जनित आर्थिक नुकसान होता है। कुपोषित व्यक्ति कठिन शारीरिक और मानसिक श्रम नहीं कर पाता इसलिए आार्थिक रूप से पिछड़ जाता है। कुपोषण के कारण मरदूरों की उत्पादकता 10.15 फीसदी तक कम हो जाती है, जो सकल घरेलू उत्पादन को 5.10 प्रतिश्त तक कम कर देती है। आज बड़ी तादाद में बच्चे बाल श्रम और बाल वैश्यावृत्ति मेंे धकेल दिये जाते हैं। बड़े होने पर वे अकुशल मजदूरों की कतार में शामिल हो जाते हैं और पूरी जिन्दगी नरक में तब्दील हो जाती है।

तमाम संस्थाओं के आँकडों से पता चलता है कि भारत में 43 प्रतिशत बच्चे कुपोषण के शिकार हैं। विश्व खाद्य कार्यक्रम की रिपोर्ट में बताया गया है कि दुनिया में भूख से पीड़ित लगभग आधे लोग भारत में रहते हैं। सयुक्ंत राष्ट्र संघ की रिर्पोट के मुताबिक भारत में एक साल में ही 5 वर्ष से कम उम्र के 10 लाख बच्चों की मौत हो जाती है। मध्य प्रदेश में हर रोज दर्जनों बच्चों की मौत कुपोषण के चलते हो रही है। एसीएपफ की एक और रिपार्ट बताती है कि पूरे भारत में कुपोषण जैसी स्थिति बनी हुई है, वैसी हालत पूरे दक्षिण एशिया में और कहीं नहीं देखी गयी। रिपोर्ट में आगे बताया गया है की भारत में अनुसूचित जनजाति में 28 प्रतिशत, अनुसूचित जाति में 21 प्रतिशत पिछड़ी जाति में 20 प्रतिशत और ग्रामीण समुदाय में 21 प्रतिशत हिस्सा अत्यधिक कुपोषण का शिकार है। भारत में शिशु मृत्यु दर 99 प्रति हजार है जो बाग्लादेश और नेपाल जैसे गरीब देशों से भी कहीं अधिक है।

8 मार्च 2018 को प्रधनमंत्री ने राजस्थान के झुँझून से राष्ट्रीय पोषण मिशन की शुरुआत की, जिसके लिए 8 मई 2018 में विश्व बैंक से 20 करोड़ डॉलर का कर्ज लिया, जिससे 10 करोड़ लोगों को लाभ पहुँचाने का उद्देश्य रखा। इससे पहले भी कुपोषण को खत्म करने के लिए तमाम तरह की योजनाएँ लागू की जा चुकी हैं। इन योजनाओं के बावजूद  देश में कुपोषण और सम्बन्धित समस्याओं का कोई समाधन नहीं हो सका। बल्कि ये समस्याएँ और विकराल रूप लिये हमारे सामने मौजूद हैं।

हमारा देश खाद्यान के मामले में आत्मनिर्भर है। अनाज, चावल, गन्ना, फल, सब्जी, दूध, काजू, बादाम तमाम तरह की चीजें खूब पैदा कर रहा है। इकनोमिक टाइम्स के अनुसार भारत की खाद्यान जरूरत 25–5–23.00 करोड़ टन है और उत्पादन लगभग 27.00 करोड़ टन है। आस्ट्रेलिया के गेहँू उत्पादन के लगभग बराबर गेहँू, हर साल भारत में सड़ जाता है। 40 फीसदी फल और सब्जियाँ और 30 फीसदी अनाज आपूर्ति की अक्षमता के कारण बरबाद हो जाता है। रोजाना देश में 244 करोड़ रुपये के खाद्यान बरबाद कर दिये जाते हैं। हर साल 89,635 करोड़ रुपये की कीमत के खाद्यान फेंक दिये जाते हैं।

इतनी उरर्वक जमीन और इतना अधिक उत्पादन होने पर भी देश की जनता भूख और कुपोषण से मर रही हो तो इसका जिम्मेदार कौन है? क्या इस बरबाद होते खाद्यान को सही सलामत जरूरतमन्द लोगों तक नहीं पहँुचाया जा सकता था। 2010 में गोदामों में सड़ रहे अनाज को गरीब लोगों में बाँटने के सर्वोच्च न्यायालय के आदेश को अनसुना करते हुए सरकार ने ये साफ जाहिर कर दिया था कि वे गरीब जनता के पक्ष में नहीं बल्कि फूड़ कॉरपोरेट मालिकों के हक में खड़ी है। जनता में खाद्यान बाँटने का मतलब बड़े मालिकों के मुनाफे में कटौती करना था।

जो लोग आज भूख और कुपोषण से मर रहे है। उनके पास रोजगार का कोई अच्छा साधन नहीं है जिसके चलते  महँगाई के इस दौर में जहाँ किसानों से औने पौने भाव में चीजें खरीदी जाती हैं और बीचैलिएँ जिनमें आढ़ती, दुकानदार से लेकर बड़ी कम्पनियाँ शामिल हैं, उनके दामों को बढ़ा देते हैं। इसके चलते जनता ना तो खुद को और न ही अपने बच्चों को पौष्टिक आहार दे पाते हैं।

                हमारी सरकारें हर समस्या के मूल कारणों को छिपाने की कोशिश करती है। जनता को तमाम तरह के गैर जरूरी मुद्दों में उलझा कर रखती हैं ताकि किसी समस्या के मूल कारणों तक न जा सके बस सतही बातंे करती रहे। उसे  मूलभूत जरूरतों जैसे रोटी, कपड़ा, मकान, शिक्षा, स्वास्थ, इलाज, मनोरंजन आदि से महरूम रखा जा रहा है।