हाल ही में उत्तर प्रदेश दौरे के समय प्रधानमंत्री मोदी ने अलीगढ़ में राजा महेन्द्र प्रताप के नाम पर बनने जा रहे विश्वविद्यालय का शिलान्यास किया। इस दौरान उन्होंने भाषण भी दिया जिसमें उनका क्रान्तिकारियों के प्रति प्रेम उमड़ रहा था। उन्होंने कहा कि राजा महेन्द्रप्रताप को पिछली सरकार ने कोई सम्मान नहीं दिया इसलिए वह उन्हें सम्म्मानित कर रहे हैं। किसी क्रान्तिकारी के बारे में शायद पहली बार देश के किसी प्रधानमंत्री ने इतने बेबाक तरीके से झूठ बोला हो। जबकि सच यह है कि राजा महेन्द्र प्रताप के सम्मान में डाक टिकट जारी गये थे, भारत के हर बोर्ड और विश्वविद्यालय में उनके बारे में पढ़ाया जाता रहा है। ये बातें प्रधानमंत्री जानते नहीं या जानकर अनजान बनने का नाटक कर रहे थे।

झूठ का यह सिलसिला यही नहीं रुका बल्कि प्रधानमंत्री के भाषण के बाद यह और तेजी से फैलने लगा। मुख्यधारा की मीडिया में हर तरफ उन्हें जाट नेता के तौर पर प्रचारित किया जाने लगा। वहीं दूसरी ओर बीजेपी आईटी सेल से राजा महेन्द्र प्रताप को लेकर झूठी खबरों की बाढ़ आने लगी। व्हाट्सअप्प, फेसबुक पर उन्हें तेजी से फैलाया जाने लगा। इनमें इतना खुलेआम झूठ बोला गया कि राजा महेन्द्र प्रताप आरएसएस से जुड़े हुए थे और उन्होंने हिन्दू राष्ट्र का समर्थन किया था, तो यह झूठी खबर भी फैलायी जाने लगी कि अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी (एएमयू) की स्थापना राजा महेन्द्र प्रताप ने की थी। बीजेपी के बड़े–बड़े नेता भी इन झूठ को दौहराने में एक–दूसरे को पछाड़ने लगे। पिछले समय से बीजेपी और आरएसएस ने देश के साम्प्रदायीकरण और अपनी चुनावी रोटी सेंकने के लिए इतिहास को जिस तरह विकृत किया है वह भारतीय समाज के लिए बेहद खतरनाक है। इसलिए यह जरूरी हो जाता है कि देश की आजादी में अपना घर–बार छोड़ देनेवाले क्रान्तिकारियों की सही तस्वीर लोगों के बीच लाकर बीजेपी के झूठ का भण्डाफोड़ किया जाये।

राजा महेन्द्र प्रताप का जन्म 1886 में हाथरस जिले के मुरसान क्षेत्र के राजघराने में हुआ था। तीन वर्ष की उम्र में इन्हें राजा हरनारायण ने गोद ले लिया था जिसके बाद वह राजगद्दी के वारिस बन गये थे। उन्होंने अपनी पढ़ाई एएमयू से पूरी की। पढ़ाई के दौरान वे दादा भाई नैरोजी, बिपिन चन्द्र पाल आदि के भाषणों से प्रभावित होकर स्वदेशी आन्दोलन से जुड़ गये। उनके सामने भी तमाम राजाओं की तरह अंग्रेजों से साँठ–गाँठ करके विलासिता भरी जिन्दगी जीने का मौका था, लेकिन उन्होंने ऐसी जिन्दगी जीने से इनकार कर दिया। देश में चल रहे स्वतंत्रता के आन्दोलन में वह सक्रिय भागीदारी करने लगे थे। इसी कारण उन्होंने 1906 में कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन में हिस्सा लिया। लेकिन लम्बे समय तक वह कांग्रेस में नहीं रह सके। उनका रास्ता कुछ और ही था। पहले विश्व युद्ध के दौरान वह भारत की आजादी के लिए दूसरे देशों की मदद लेने का प्रयास करने लगे। बाद में वह अफगानिस्तान चले गये, जहाँ उन्होंने भारत की पहली निर्वासित सरकार बनाने का ऐलान किया। गाँधीजी ने भी अनेक पत्रों के जरिये उनके कार्य को सराहा था। उसी दौरान उन्हें दूसरे देशों में भी घूमने का मौका मिला। करीब 32 साल वह देश से बाहर रहे और हमेशा देश को आजाद कराने का प्रयास करते रहे। 1946 में वह भारत लौटे लेकिन किसी पार्टी से नहीं जुड़े। वह शिक्षा सम्बन्धित कार्यों से जुड़े रहे। उन्होंने अपने महल के एक हिस्से में गरीब बच्चों के लिए स्कूल भी खोला। 1957 के आम चुनाव में वह मथुरा से निर्दलीय सीट पर चुनाव में खड़े हुए। इसी चुनाव में उन्होंने अटल बिहारी वाजपेयी और कांग्रेस के एक बड़े नेता को भारी अन्तर से हराया।

देश की आजादी की लड़ाई में भागीदारी करते हुए अनेक देशों के भ्रमण के दौरान उनके विचार अधिक व्यापक और दृढ़ हो रहे थे। रूसी क्रान्ति से वह काफी प्रभावित थे। अपने देश में भी वह इसी सपने को साकार करने के लिए तत्पर थे। इसीलिए वह रूस जाकर वहाँ के नेता लेनिन से भी मिले थे। रूस की क्रान्ति ने पूरी दुनिया में एक नयी रौशनी पैदा की थी। उसी रौशनी में राजा महेन्द्र प्रताप के विचारों ने भी आकार लिया। जनता की एकता को तोड़कर विदेशी और देशी लुटेरों को फायदा पहुँचाने वाली धर्म और जाति पर आधारित राजनीति से वे घृणा करते थे। उन्होंने कहा था कि सारे धर्मों की जगह केवल प्रेम का धर्म होना चाहिए जिसमें नफरत के लिए कोई जगह न हो।

जिन विचारों के खिलाफ वह जिन्दगी भर लड़ते रहे, आज उन्हीं विचारों को माननेवाले लोग उनका झूठा गुणगान करते हुए उनकी असली छवि को धूमिल करना चाह रहे हैं। यहाँ सवाल यह उठता है कि बीजेपी सरकार उन्हें इतनी बेसब्री से क्यों याद कर रही है। इसका एक जवाब हमें मुजफ्फरनगर से साँसद और केन्द्र सरकार में राज्य मंत्री संजीव बालियान के वक्तव्य से मिल सकता है जो उन्होंने शिलान्यास के बाद दिया। उन्होंने कहा कि, “पिछली सरकार ने जाट समुदाय के इतने महान नेता के योगदान को याद नहीं रखा–––”। दरअसल, यह पूरा मामला पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जाट वोटों को लेकर है। इस क्षेत्र में जाट समुदाय के वोट निर्णायक भूमिका अदा करते हैं। 2012 के चुनाव में बीजेपी को जाटों के महज 7 फीसदी वोट मिले थे। मुजफ्फरनगर और आस–पास के क्षेत्र में हिन्दू–मुस्लिम दंगों में एक तरफ मेहनतकश आबादी बर्बाद हुई तो वहीं 2014 के लोकसभा चुनाव में इसका फायदा बीजेपी को मिला। इस चुनाव में बीजेपी को जाटों के 77 फीसदी वोट मिले, जो 2019 तक 91 फीसदी हो गये थे। लेकिन 2020 में बीजेपी सरकार ने जबसे तीन काले कृषि कानूनों को पास किया, उसके विरोध में किसान आन्दोलन के चलते उसके इस वोट बैंक में कमी आने की पूरी सम्भावना जतायी जा रही है। आने वाले चुनावों में इनका वोट हासिल करने के लिए अब राजा महेन्द्र प्रताप के नाम का इस्तेमाल किया जा रहा है। उन्हें एक जाट नेता घोषित कर जाटों की सहानुभूति हासिल करने की कोशिश की जा रही है।

इसी उद्देश्य को पूरा करने के लिए बीजेपी आईटी सेल ने तरह–तरह के झूठ फैलाकर लोगों को गुमराह करने की कोशिश की। उन्होंने कहा कि एएमयू की स्थापना करने वाले हिन्दू थे जिसमें सबसे बड़ा योगदान राजा महेन्द्रप्रताप का था और एएमयू ने उन्हें इस बात का कभी सम्मान नहीं दिया। यह झूठ बीजेपी लम्बे समय से फैला रही है ताकि इस बहाने पूरे क्षेत्र में हिन्दू–मुस्लिम एकता को तोड़ा जा सके। इन्होंने एक कट्टर विचारधारा पर आधारित एक संगठन का वहाँ निर्माण कराया जो समय–समय पर यह मुद्दे उठाकर जनता की एकता तोड़ सकें। बल्कि सच इनकी बातों से कोसों दूर है। एएमयू की स्थापना 1875 में हुई थी जबकि राजा महेन्द्र प्रताप का जन्म 1886 में हुआ था। राजा ने केवल 3 एकड़ जमीन 90 साल के लिए लीज पर दी थी। एएमयू की स्थापना के लिए करीब 50 हजार लोगों ने चन्दा दिया था जिसमें बड़ी धनराशी मुस्लिम शासकों ने दी थी। यह बात भी झूठ है कि एएमयू ने राजा महेन्द्र प्रताप को कभी सम्मान नहीं दिया बल्कि एएमयू के केन्द्रीय पुस्तकालय में उनकी तस्वीर आज भी लगी हुई है। साथ ही एएमयू की 100वीं वर्षगाठ पर बतौर मेहमान राजा महेन्द्र प्रताप वहाँ उपस्थित थे। अपने फायदे के लिए इन्होंने राजा महेन्द्र प्रताप की पूरी विचारधारा को भी धूमिल कर यहाँ तक प्रचारित कर दिया कि वह आरएसएस से जुड़े हुए थे और उन्होंने हिन्दू राष्ट्र का समर्थन किया था। राजा महेन्द्र प्रताप प्रगतिशील और धर्मनिरपेक्ष विचारों से प्रभावित थे और उसके पक्के समर्थक थे। दूसरी ओर, प्रतिक्रियावादी और साम्प्रदायिक विचारधारा वाली आरएसएस। ये एक दूसरे के धुर विरोधी हैं, फिर भी बीजेपी इतना बड़ा झूठ बोलने से नहीं हिचकी। 1915 में जब राजा महेन्द्र प्रताप ने अफगानिस्तान में भारत की पहली निर्वासित सरकार बनायी तो उसमें उन्होंने प्रधानमंत्री बरकतुल्लाह साहब को और गृहमंत्री मौलवी उबेदुल्लाह साहब को बनाया था, ऐसे में वह हिन्दू राष्ट्र का समर्थन कैसे कर सकते थे?

सच्चाई यह है कि बीजेपी के पास अपनी विचारधारा से जुड़ा कोई ऐसा जन नेता भी नहीं है जिसके नाम पर वह खुलकर वोट माँग सके। इनकी राजनीति नफरत पर आधारित रही है। इनकी विचारधारा से जुड़े नेताओं और बाबाओं के हर रोज नये राज खुलते हैं। अधिकतर बलात्कार, हत्या, घुसखोरी और सम्प्रदायिकता फैलाने के दोषी पाये गये हैं। कुछ जेल में बन्द हैं। एक तरफ तो विदेशों में जाकर प्रधानमंत्री अपना परिचय गाँधी जी के देश से आने वाले के तौर पर देते है तो वहीं उनके मंत्री गाँधी जी को मारने वाले गोडसे की प्रतिमा लगा कर मंदिर खोलने की कोशिश कर रहे हैं।  यह अवसरवाद जैसी घिनौनी विचारधारा नहीं तो और क्या है?

आज यह बात जगजाहिर है कि इनकी विचारधारा का कोई एक भी ऐसा नेता नहीं जिसने देश की आजादी में अपना सकारात्मक योगदान दिया हो। यह तब भी जनता की असली लड़ाई से उसका ध्यान भटकाकर अंग्रेजों का साथ दे रहे थे और आज भी यह वही काम और अधिक शातिराना तरीके से कर रहे हैं। यह पूँजीपतियों–साम्राज्यवादियों के हितों को पूरा करने के लिए तीन कृषि कानून ले आये हैं और इसके लिए देश की जनता को कुचलने पर आतुर हैं और उनके विरोध को कमजोर करने के लिए लगातार उनकी एकता को तोड़ने का काम कर रहे हैं। इतिहास की विकृत व्याख्या करके वे समय के पहिये को पीछे धकेलना चाह रहे हैं। आज सभी प्रगतिशील और इनसाफपसन्द लोगों की यह ऐतिहासिक जिम्मेदारी बनती है कि वे जनता का सच्चा इतिहास उनके बीच लेकर जायें और जनता को जागरूक करें।