लोकसभा चुनाव के बाद भाजपा की रणनीति
राजनीति मोहित पुण्डीर4 जून को लोकसभा चुनाव के परिणाम घोषित हुए। लम्बी अटकलों के बाद आखिरकार नितीश कुमार और चन्द्रबाबू नायडू के समर्थन से भाजपा–नीत राष्ट्रीय लोकतांत्रिक गठबन्धन यानी एनडीए सरकार बनने में सफल रही। बैसाखी के सहारे ही सही, तीसरी बार मोदी प्रधानमंत्री बने। यह चुनाव दाँव–पेंच और कूटनीति के मामले में अभूतपूर्व था। चुनाव से ठीक पहले ही प्रमुख विपक्षी नेताओं पर ईडी, सीबीआई और अनेक जाँच–एजेंसियों ने शिकंजा कस लिया था। अरविन्द केजरीवाल समेत आम आदमी पार्टी के सभी शीर्ष नेता जेल में थे। विपक्ष की सबसे बड़ी पार्टी कांग्रेस का तो बैंक खाता तक सीज कर दिया गया था। विपक्षी पार्टी के कुछ नेता तो जेल के डर से भाजपा में ही शामिल हो गये थे। चुनाव के दौरान विपक्ष को कमजोर करने के लिए भाजपा ने साम, दाम, दण्ड और भेद सभी नीतियों का इस्तेमाल किया। चुनाव प्रचार के दौरान मोदी ने प्रधानमंत्री की सभी गरिमाओं को त्यागकर खुलेआम झूठ का सहारा लिया। विपक्ष पर महिलाओं के मंगलसूत्र और किसानों के पशुओं को छीनने तक का आरोप लगाया। भाजपा ने छल नीति अपनाकर चुनाव से पहले ही विपक्ष को कुचलने की कई कोशिशें कीं। वहीं मोदी और शाह ने पूरे चुनाव के दौरान बार–बार आचार संहिताओं की धज्जियाँ उड़ायीं लेकिन चुनाव आयोग अपने आँख–कान बन्द कर बैठा रहा। चुनाव आयोग की निष्पक्ष भूमिका अब बीते जमाने की बात हो गयी है।
एग्जिट पोल के जरिये झूठे दावे पेश कर मोदी को अपराजित घोषित करने की तमाम कोशिशें की गयीं। मोदी की छवि गढ़ने के लिए हजारों करोड़ रुपये प्रचार पर खर्च किया गया। एक इंटरव्यू में मोदी ने खुद को भगवान तक घोषित कर दिया था। लेकिन इतनी जालसाजी, झूठ–प्रपंच के बाद भी भाजपा अपने दम पर सरकार बनाने में असफल रही। चुनाव नतीजे आते ही भाजपा का प्रचलित नारा ‘अबकी बार 400 पार’ फुस्स हो गया। 2019 के आम चुनाव के मुकाबले 63 सीटों की कमी के साथ भाजपा इस बार 240 सीटों तक सिमट गयी। क्षत–विक्षत विपक्ष में हार के बाद भी खुशी की लहर दौड़ गयी, वहीं भाजपा जीतकर भी निराश नजर आयी।
भाजपा को चुनाव में सबसे बड़ा नुकसान उत्तर प्रदेश में देखने को मिला। यहाँ भाजपा अपनी 50 फीसदी सीट हार गयी है। लम्बे समय से उत्तर प्रदेश भाजपा की हिन्दुत्व की प्रयोगशाला बना हुआ है। वोटों का ध्रुवीकरण करने के लिए मोदी ने चुनाव से ठीक पहले अयोध्या में आधे–अधूरे राम मन्दिर का उद्घाटन कर दिया था। इसे मोदी की सबसे बड़ी सफलता और हिन्दुओं के सम्मान के तौर पर प्रचारित किया गया। लेकिन ‘भगवा रंग में रंगी’ अयोध्या की सीट भाजपा हार गयी। केवल अयोध्या ही नहीं, बल्कि फैजाबाद मण्डल के अन्तर्गत आने वाली अधिकतर सीटें भाजपा हार गयी। इसे भाजपा के हिन्दुत्ववादी एजेण्डे की बड़ी हार बताया जा रहा है। मन्दिर की भव्यता और मोदी की जय–जयकार के शोर के बीच अयोध्यावासियों के दुखों–तकलीफों को दबा दिया गया था।
मन्दिर निर्माण से एक तरफ जहाँ मोदी की छवि हिन्दू हृदय सम्राट की बनायी जा रही थी, वहीं दूसरी तरफ हजारों अयोध्यावासी बेघर कर दिये गये। मन्दिर को आधुनिक और विशाल बनाने की कीमत हजारों अयोध्यावासियों को चुकानी पड़ी। पीढ़ियों से चली आ रही दुकानें और घर–– मन्दिर निर्माण की भेंट चढ़ा दिये गये। सड़क और उद्यान निर्माण के नाम पर अनेक बस्तियों को मुआवजा और पुनर्वास की व्यवस्था किये बिना उजाड़ दिया गया। उजाड़े गये लोग दर–दर की ठोकरें खाने को मजबूर हैं और उन्हें शहर से बाहर झोपड़ी डालकर रहना पड़ रहा है। अयोध्या को वीआईपी लोगों के हिसाब से ढाला जा रहा है। भाजपा के इस नये अयोध्या में अयोध्या की आम जनता के लिए कोई जगह नहीं है। विकास केवल मन्दिर के कुछ किलोमीटर के दायरे तक हुआ, बाकी पूरी अयोध्या और अयोध्यावासी दर्द से कराह रहे हैं। भाजपा ने सत्ता के नशे में चूर होकर इनकी जायज माँगों को सिरे से खारिज कर दिया था। अयोध्यावासी समझ चुके थे कि भाजपा राम के नाम पर चुनावी राजनीति कर रही है, उसे धर्म और लोगों की तकलीफों से कोई लेना–देना नहीं है। इसलिए राम मन्दिर निर्माण कमिटी के चेयरमैन का लड़का भी चुनाव में बुरी तरह हार गया।
अयोध्या ही नहीं, बल्कि बनारस मण्डल में भी भाजपा को पिछले चुनाव के मुकाबले में बड़ा नुकसान हुआ है। यहाँ 12 में से 9 सीट भाजपा हार गयी है। चुनाव के लिए धार्मिक स्थलों के इस्तेमाल की राजनीति को अब लोग समझने लगे हैं। भयंकर बेरोजगारी, महँगाई से परेशान आम आदमी अब किसी भी तरह अपनी जिन्दगी में बदलाव चाहता है।
इस चुनाव परिणाम के बाद कुछ राजनीतिक विश्लेषक मोदी के तीसरे कार्यकाल को पिछले दो कार्यकालों से भिन्न देख रहे हैं। उनका मानना है कि इस बार मोदी विपक्ष के दबाव में रहेंगे, वह पहले जैसी आक्रमकता के साथ जन–विरोधी नीतियों को लागू नहीं कर पाएँगे। इसके साथ ही भाजपा की राजनैतिक केन्द्रीकरण हासिल करने की प्रक्रिया भी धीमी पड़ेगी। निसन्देह चुनाव के नतीजे भाजपा के लिए नैतिक हार के संकेत देने वाले हैं। यह देश के प्रगतिशील और जन–पक्षधर लोगों के लिए एक राहत की बात है। लेकिन क्या भाजपा अपने हिन्दुत्ववादी एजेण्डे से पीछे हटेगी? क्या सच में भाजपा की साम्प्रदायिक राजनीति अब बेअसर हो चली है? क्या संवैधानिक संस्थाओं के राजनीतिक उपयोग पर लगाम लगेगी? क्या विपक्ष संसद में भाजपा का मुकाबला कर पाएगा? ऐसे अनेक सवाल हैं जिनका जवाब देश की वर्तमान परिस्थितियों के वस्तुगत मूल्यांकन के आधार पर ही दिया जा सकता है।
चुनाव नतीजे आने के तुरन्त बाद ही मध्य प्रदेश, गुजरात और छत्तीसगढ़ में मुस्लिम समुदाय के लोगों पर संगठित हमले शुरू हो गये थे। भारतीय राजनीति के इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ है जब किसी सरकार में कोई भी मुस्लिम नेता कैबिनेट में शामिल नहीं किया गया है। भाजपा साम्प्रदायिकता की अपनी पुरानी नीति पर मजबूती से खड़ी नजर आ रही है। काँवड़ यात्रा के दौरान मुस्लिमों के खिलाफ माहौल बनाना इसी और संकेत कर रहा है। नवगठित लोकसभा के स्पीकर पद पर भी भाजपा ने अपनी ही दावेदारी सुनिश्चित कर ली है। पहले ही संसद सत्र में राहुल गाँधी और खड़गे का लोकसभा और राज्यसभा में माइक बन्द करना साफ संकेत देता है कि भाजपा अपनी तानाशाही छोड़ने को तैयार नहीं है। जब जनता द्वारा चुने गये नेताओं की आवाज दबायी जा रही है तो आम जनता का क्या हाल होगा। एक तरफ सरकार संसद में विपक्षियों की आवाज दबाने का काम कर रही है वहीं दूसरी तरफ देश के अनेक प्रगतिशील और जन–पक्षधर बुद्धिजीवियों को भी कुचलने का काम जारी रखे हुए है। देश–दुनिया की जानी–मानी जन–पक्षधर लेखिका अरुन्धति राय पर 14 साल पुराने मामले में अचानक केस दर्ज कर दिया गया है। इसी के साथ अनेक पत्रकारों पर भी मुकदमें लगाये जा रहे हैं जिन्होंने भाजपा की नीतियों का विरोध किया था। दमन की यह पुरानी नीति इस नये कार्यकाल की शुरुआत में ही देखने को मिल रही है। इसी के साथ देश की वैज्ञानिक और तार्किक सोच पर भी भाजपा का हमला जारी है। देश के शीर्ष संस्थान आईआईटी के पाठ्यक्रम में आत्मा, परमात्मा जैसे विषयों को पढ़ाना अनिवार्य कर दिया गया है। अब छात्र ज्ञान–विज्ञान की चीजों पर बहस की जगह भूतों–प्रेतों पर शोध करेंगे। इसी क्रम में एनसीइआरटी की किताबों से लोकतांत्रिक मूल्य–मान्यताओं और क्रान्तियों के इतिहास को हटाकार धार्मिक मिथकों को जोड़ा जा रहा है। मोदी के नये भारत में नौजवानों को कूपमण्डूक और अन्धविश्वासी बनाकर उनके सोचने–समझने और सवाल करने की क्षमता को खत्म करने का प्रयास भी जारी है। चुनावी नतीजे के एक महीने बाद ही भाजपा ने दिखा दिया है कि वह और अधिक आक्रामकता के साथ अपने एजेण्डे पर आगे बढ़ेगी।
इस साल लोकसभा चुनाव में भाजपा अपनी 20 फीसदी सीट हार गयी है। लेकिन मीडिया सर्वे की एक रिपोर्ट के अनुसार 2019 के मुकाबले इस साल भाजपा को 70 लाख अधिक वोट मिले हैं। दक्षिण भारत यानी तमिलनाडु और केरल में अभी तक भाजपा का कोई आधार नहीं था। लेकिन इस लोकसभा चुनाव में भाजपा के वोट शेयर में यहाँ दोगुने से भी ज्यादा बढ़ोतरी देखने को मिली है। निश्चित ही इन राज्यों में भाजपा की हिन्दुवत्वादी राजनीति का प्रभाव पड़ा है। लव जिहाद और मुस्लिम आबादी का मिथक गढ़कर भाजपा ने यहाँ हिन्दुओं के बीच अपनी पकड़ मजबूत की है। तथ्य बताते हैं कि भाजपा की हिन्दुत्व की राजनीति को कम करके आँकना आत्मघाती है। अब यह देखने को मिल रहा है कि नौकरशाही, कार्यपालिका और न्यायपालिका में ऊँचे पदों पर बैठे लोग भी इसी राजनीति का हिस्सा बन गये हैं। वह अपने पदों का इस्तेमाल साम्प्रदायिकता को फैलाने या भाजपा–आरएसएस के गलत कामों को ढकने में कम कर रहे हैं।
2014 से सत्ता में आने के बाद से भाजपा एक तरफ तो सरकारी कम्पनियों, सम्पत्तियों और संसाधनों को कौडियों के भाव देशी–विदेशी पूँजीपतियों को बेचती जा रही है। मजदूर पक्षीय श्रम कानूनों को खत्म कर पूँजीपतियों के लिए श्रम की खुली लूट का रास्ता साफ कर दिया गया है। देश की अर्थव्यवस्था की दशा और दिशा को पूँजीपरस्त नीतियों के अनुरूप ढाला जा रहा है। वित्तीय पूँजी के हितों के लिए देश की करोड़ों मेहनतकश जनता को गहरे–अँधेरे कुएँ में धकेल दिया गया है। नोटबन्दी, तीन कृषि कानून, मजदूर श्रम संहिताएँ आदि इन्हीं नीतियों का हिस्सा हैं। पिछले 10 साल में अमीर और गरीब के बीच खाई गहरी होती गयी है।
देश में एक अल्पतंत्र का निर्माण हुआ है जो सभी आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक संस्थाओं पर कब्जा जमा रहा है। बीते 22 जुलाई को सरकार के प्रधान आर्थिक सलाहकार ने संसद में सरकार की नीतियों के चलते देश में पैदा हुई घोर असमानताओं को स्वीकारा। उन्होंने बताया कि 2020 से 2023 के बीच तीन सालों के दौरान ही भारत की कुछ शीर्ष कम्पनियों का मुनाफा चार गुना तक बढ़ा है। लेकिन इस दौरान न तो मजदूरों की मजदूरी बढ़ी, न ही नये रोजगार सृजित हुए। यह सारा पैसा मुट्ठीभर लोगों तक सीमित रहा।
महँगाई तेजी से बढ़ती जा रही है जिसके चलते आम जनता की वास्तविक आय में भारी गिरावट आयी है। सट्टा बाजारी के चलते जमीन और मकान के दाम आसमान छू रहे हैं। लोगों के लिए अपना घर होना एक सपना बनकर रह गया है। जनता की जिन्दगी पहले से कहीं अधिक अभावग्रस्त और तनावपूर्ण होती चली जा रही है। हर रोज सैकड़ों की संख्या में नौजवान, किसान, मजदूर और महिलाएँ आत्महत्या करने को मजबूर हैं। इसके साथ ही जनता के आन्दोलनों में भी भारी बढ़ोतरी हो रही है। वह अपनी जीवन स्थिति को बदलना चाहते हैं। लेकिन जनता के इस आक्रोश को भाजपा हिन्दुत्व के शोर के पीछे कुचलने का प्रयास कर रही है।
हिन्दुत्ववादी विचारधारा के नाम पर समाज के ताने–बाने को छिन–भिन कर लोगों को जाति–धर्म के नाम पर बाँटने का प्रयास लगातार जारी है। जनता का साम्प्रदायीकरण कर देश को दंगों की आग में झोंका जा रहा है। महिलाओं पर मध्ययुगीन उत्पीड़न की पुनरावृत्ति की जा रही है। यह सब जनता को आपस में बाँटने के लिए किया जा रहा है ताकि वह अपनी समस्याओं के असली कारणों तक न पहुँच पाये। इसके साथ ही हिन्दुत्व की आड़ में विरोध के हर स्वर को राष्ट्र विरोधी और हिन्दू विरोधी करार देकर कुचला जा रहा है। यही हिन्दुत्व और कॉरपोरेट का गठजोड़ है। हिन्दुत्व की आड़ में पूँजी की चाकरी। यही इनका राष्ट्रवाद है और यही इनका देशप्रेम।
आज अघोषित आपातकाल की स्थिति बनी हुई है। विरोध के हर स्वर को दबाया जा रहा है। अंग्रेजों द्वारा बनाये गये राजद्रोह के कानूनों को मजबूत कर उन्हें पत्रकारों, अल्पसंख्यकों और प्रगतिशील बुद्धिजीवियों की आवाज को दबाने के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है। इनके विरोध में खड़े हर आदमी को अर्बन नक्सल, राष्ट्र विरोधी आदि नामों से बदनाम कर अनिश्चित काल के लिए बिना सुनवाई के जेल में डाला जा रहा है।
अपनी जनविरोधी नीतियों को बेलगाम लागू करने के लिए सरकार संवैधानिक संस्थाओं को खत्म करने और देश के संघीय ढाँचे को भी कमजोर करने का काम कर रही है जिससे विपक्ष को खत्म किया जा सके। इसका मुकाबला करने में विपक्ष कमजोर नजर आ है, लेकिन इस लोकसभा चुनाव में अधिक सीटें मिलने से वह उत्साहित है और सरकार पर हमलावर भी है। फिर भी उसके पास भाजपा के हिन्दुत्ववादी एजेण्डे का मुकाबले करने की कोई मुकम्मल नीति नहीं है। भाजपा के कट्टर हिन्दुत्व का मुकाबला राहुल गाँधी के नरम हिन्दुत्व से नहीं किया जा सकता। वह हिन्दुत्व की आड़ में छिपे पूँजी के हितों को उजागर भी नहीं कर पा रहे हैं। कर्नाटक में बीजेपी ने 12 घंटे तक के कार्यदिवस का कानून बनाया था, लेकिन कांग्रेस ने वहाँ सरकार बनाते ही कार्यदिवस की समय सीमा ही समाप्त कर दी। यह साफ दिखाता है कि आर्थिक नीतियों के मामले में भाजपा और कांग्रेस में कोई फर्क नहीं है। दोनों ही पार्टी नवउदारवादी नीतियों की पक्षधर हैं और पूँजीपतियों के लूट–खसोट को बढ़ावा देने वाली हैं।
भाजपा–आरएसएस के लिए देश का बहु–सांस्कृतिक, बहु–जातीय और बहु–राष्ट्रीय ढाँचा उनकी राह का बहुत बड़ा रोड़ा है। वे पिछले 10 साल से हिन्दुत्ववाद की अपनी विचारधारा को पूरे देश में फैलाने में उतने सफल नहीं रहे हैं। इसके साथ ही किसानों, मजदूरों, दलितों, आदिवासियों समेत अन्य उत्पीड़ित तबकों का संघर्ष भी इनके सामने एक बड़ी चुनौती बनकर खड़ा है। इसलिए सही मायने में जनता का क्रान्तिकारी संघर्ष ही इन्हें परास्त कर सकता है।
लेखक की अन्य रचनाएं/लेख
राजनीति
- अग्निपथ योजना : नौजवानों की बर्बादी पर उद्योगपतियों को मालामाल करने की कवायद 20 Aug, 2022
- नागालैंड में मजदूरों का बेरहम कत्लेआम 13 Apr, 2022
- लोकतंत्र की हत्या के बीच तानाशाही सत्ता का उल्लास 23 Sep, 2020
- लोकसभा चुनाव के बाद भाजपा की रणनीति 13 Sep, 2024
- वैश्विक विरोध प्रदर्शनों का साल 8 Feb, 2020
राजनीतिक अर्थशास्त्र
- आर्थिक संकट के भवर में फँसता भारत 14 Dec, 2018
- गहरे संकट में फँसी भारतीय अर्थव्यवस्था सुधार की कोई उम्मीद नहीं 20 Jun, 2021
- मोदी के शासनकाल में अर्थव्यवस्था की दशा और दिशा 6 May, 2024
- मोदी सरकार की सरपरस्ती में कोयला कारोबार पर अडानी का कब्जा 17 Feb, 2023
- लक्ष्मी विलास बैंक की बर्बादी : बीमार बैंकिंग व्यवस्था की अगली कड़ी 14 Jan, 2021
- संकट की गिरफ्त में भारतीय अर्थव्यवस्था 15 Jul, 2019
समाचार-विचार
विचार-विमर्श
- कोरोना महामारी और जर्जर स्वास्थ्य व्यवस्था 20 Jun, 2021
पर्यावरण
- कुडानकुलम नाभिकीय संयंत्र : मौत का कारखाना 15 Aug, 2018
अन्तरराष्ट्रीय
- अफगानिस्तान से अमरीकी सैनिकों की वापसी के निहितार्थ 14 Mar, 2019