लम्बे समय से उत्पीड़न का शिकार भारत के उत्तर–पूर्वी राज्य नागालैंड में एक और दिल दहला देने वाली घटना घटी है। 4 दिसम्बर 2021 की शाम 21वीं पैरा कमांडो की फौजी टुकड़ी ने काम से लौट रहे मजदूरों पर अचानक हमला कर दिया। ये मजदूर मोन जिले की थीरू घाटी में स्थित नागिनिमोरा कोयला खदान में काम करते थे। हर रोज की तरह उस दिन भी वे काम खत्म करने के बाद टैम्पो में बैठकर अपने गाँव जा रहे थे। जैसे ही उनका टैम्पो असम राइफल्स कैम्प के पास पहुँचा फौजी टुकड़ी ने बिना किसी चेतावनी के उन पर चारों तरफ से गोलियाँ चला दी। इस निर्मम हत्याकांड में 7 बेकसूर मजदूरों की मौके पर ही तड़प–तड़प कर मौत हो गयी। अनेकों मजदूर गम्भीर रूप से घायल हो गये जिनके हाथ और पैरों में गोलियाँ लगी थीं। यह भयानक मंजर देख आस–पास के गाँववाले का गुस्सा सेना पर फूट पड़ा। गुस्साए ग्रामीणों ने सेना को घेरना चाहा और दोनों में भिडन्त हो गयी। वह फौजी टुकड़ी उस दिन बेकसूर लोगों के खून की प्यासी हो चली थी। आधुनिक हथियारों से लैस सैनिकों का सामना निहत्थे लोग कैसे कर सकते थे ? फौजी टुकड़ी ने स्थानीय लोगों पर भी गोलियाँ चला दी जिसमें 7 स्थानीय लोग और मारे गये। एक दिन में ही सेना द्वारा दोहरे हत्याकांड से पूरा नागालैंड दहल उठा। जैसे ही यह खबर फैली, लोग सड़कों पर उतरकर सेना के इस निर्मम दमन के विरोध में प्रदर्शन करने लगे।

इस खबर को फैलता देख सेना के बड़े अफसरों से लेकर देश के गृहमंत्री तक उस फौजी टुकड़ी के बचाव में कूद पड़े। गृहमंत्री अमित शाह ने बड़ी बेशर्मी से संसद में झूठ तक बोला कि फौजी टुकड़ी ने पहले उन्हें चेतावनी देकर रुकने को कहा था लेकिन जब वह नहीं रुके तब उन पर गोलियाँ चलायी गयीं। गृहमंत्री ने आगे कहा कि सेना को वहाँ आतंकवादियों के आने की सूचना थी और यह केवल गलत पहचान का मामला है। लेकिन जल्दी ही नागालैंड के पुलिस महानिदेशक और कमिश्नर की संयुक्त रिपोर्ट ने अमित शाह के इस झूठ पर से पर्दा उठा दिया। इस रिपोर्ट में उन्होंने इस कार्रवाई को सोची–समझी साजिश बताते हुए कहा कि फौजी टुकड़ी ने न तो मजदूरों को रुकने के लिए कहा और न ही उनकी पहचान करने की कोई कोशिश की गयी थी। बल्कि वह पहले से ही घात लगाकर उस जगह बैठे थे और जैसे ही मजदूरों से भरा टेम्पों वहाँ पहुँचा तो उनपर गोलियाँ बरसा दी गयी थी। आगे उन्होंने बताया कि अगर सेना को आतंकवादियों के वहाँ होने की सूचना थी तो उन्होंने स्थानीय पुलिस को अपने साथ क्यों नहीं लिया ? इस रिपोर्ट में यह भी बताया गया कि मजदूरों को मारने के बाद वह उन्हें दूसरी जीप में डाल रहे थे। इसकी पूरी सम्भावना है कि उन्हें मारकर किसी दूसरी जगह ले जाया जा रहा था जिससे उन्हें आतंकवादी घोषित कर मुठभेड़ में मरा हुआ बता दिया जाता। लेकिन ग्रामीणों के वहाँ समय पर पहुँचने और विरोध करने के कारण वह इस काम में नाकाम रहे। इस घटना में घायल मजदूरों ने भी यही बात बतायी कि बिना किसी चेतावनी के उन पर सीधा हमला किया गया था। इतने तथ्य सामने आने के बाद भी उन बेकसूर मजदूरों को इन्साफ दिलाने की जगह केन्द्रीय सरकार मामले को दबाने की कोशिश कर रही है। सत्ता में आने के बाद से ही मोदी सरकार नागालैंड की समस्या का समाधान करने का दावा कर रही है। लेकिन इस घटना ने एक बार फिर सरकार के सभी दावों की पोल खोल दी है।

बेकसूर लोगों पर सेना के दमन की यह कोई पहली घटना नहीं है। लम्बे समय से वहाँ के लोग भारतीय सेना के दमन का शिकार हैं। सरकार ने इस क्षेत्र को अशान्त घोषित कर ‘अफस्पा’ कानून लागू किया हुआ है। यह कानून पूरे इलाके में सेना का दबदबा कायम करता है। इस कानून के तहत सेना को घर की तलाशी लेने और किसी व्यक्ति को मारने तक का अधिकार मिला हुआ है। सरकार इस कानून के जरिये शान्ति कायम करने का दावा करती है। हालाँकि तथ्य सरकार के दावों से मेल नहीं खाते। सरकार का कहना है कि कुछ चरमपंथी नेता नागालैंड को आतंकवाद का गढ़ बनाये हुए हैं। लेकिन यह नेता क्यों और किसलिए लड़ रहें है ? तात्कालिक घटनाओं को सही परिपेक्ष्य में समझने के लिए हमें नागालैंड और नगा लोगों के इतिहास को समझना होगा। 

दरअसल नगा अनेकों जनजातियों और जातियों का समूह है जो असम, मणिपुर, अरुणाचल प्रदेश समेत म्यांमार (बर्मा) के सीमावर्ती क्षेत्र में रहती हैं। यह सभी जनजातियाँ इतिहास में लम्बे समय तक एक दूसरे से कटी रही जिस कारण इनकी बोली और संस्कृति भी अलग–अलग है। साथ ही भारत के अन्य हिस्सों से भी इनका सम्पर्क बेहद कम रहा है। इन सभी जनजातियों के बीच सम्पर्क अंग्रेजों के भारत आने के बाद बढ़ा। आंग्ल–बर्मा युद्ध के बाद से ही अंग्रेजों ने ब्रहमपुत्र घाटी के दक्षिण में स्थित नगा पहाड़ियों पर कब्जा जमाने के लिए वहाँ स्थित जनजातियों का दमन करना शुरू कर दिया था। इस दमन का मुकाबला सभी जनजातियों ने मिलकर किया और अंग्रेजों को नाकों चने चबवा दिये। ब्रिटिश औपनिवेशिकरण के खिलाफ चले लम्बे संघर्ष की प्रक्रिया में इन सभी जनजातियों में राष्ट्रवाद की भावना उत्पन्न हुई। हालाँकि शेष भारत में चल रहे आजादी के आन्दोलन से इनका कोई सम्बन्ध नहीं था। यह अपनी लड़ाई खुद मिलकर लड़ रहे थे। 1918 में ‘नगा क्लब’ नामक पहला नगा राष्ट्रवादी संगठन बना। यह क्लब नगा लोगों के अधिकारों को सुरक्षित रखने के लिए बनाया गया था। 1929 में इस क्लब ने ‘साइमन कमीशन’ के समक्ष भारत से अलग रहकर आत्मनिर्णय के अधिकार की माँग रखी थी। इनका मनना था कि भारत और उनके बीच किसी भी तरह का इतिहास में कोई रिश्ता नहीं रहा है इसलिए उन्हें अपना अलग राष्ट्र बनाने का अधिकार मिलना चाहिए। नगा क्लब के लोगों ने अपना अलग देश बनाने का फैसला लिया और 1946 में ‘नगा नेशनल काउंसिल’(एनएनसी) की स्थापना की। इस काउंसिल ने 14 अगस्त 1947 में ही नागालैंड को एक स्वतन्त्र राज्य घोषित कर दिया था। लेकिन भारत के आजाद होने के बाद जवाहरलाल नेहरु ने इनके अलग रहने के अधिकार को नकार दिया। जिस कारण नगा लोगों और नेहरु के बीच विवाद पैदा हुआ। 1951 में एनएनसी ने नगा लोगों के बीच जनमत कराया जिसमें 99 प्रतिशत लोगों ने अलग राष्ट्र की माँग पर वोट दिया। इस जनमत को भी नकारते हुए भारतीय राज्यसत्ता उन्हें जबरदस्ती अपने अधीन करने का प्रयास कर रही थी। जब नगा लोगों को यह विश्वास हो गया कि नेहरु उनके आत्मनिर्णय के अधिकार को कुचल रहे हैं तो उन्होंने 1956 में नागालैंड की फेडरल सरकार की घोषणा की। इस घोषणा से बौखलाए नेहरु ने 1958 में ‘आर्म्ड फोर्सेस, स्पेशल पॉवर’ यानी अफस्पा कानून को नागालैंड में लागू कर दिया। इस कानून की शुरुआत अंग्रेजों ने 1942 में ‘अंग्रेजों भारत छोड़ों’ आन्दोलन को कुचलने के लिए भारतीयों पर की थी। आजाद भारत में सबसे पहले इस कानून का प्रयोग अपने आत्मनिर्णय के अधिकार के लिए लड़ने वाले नगा लोगों पर किया गया। यह कानून सशस्त्र सुरक्षा एजेंसियों को असीमित शक्ति प्रदान करता है। इस कानून की धारा 3 के अन्तर्गत केन्द्र सरकार किसी भी राज्य को अशान्त क्षेत्र घोषित कर वहाँ यह काला कानून लागू कर सकती है। 1958 में इस कानून के पारित होते ही मिजोरम और नागालैंड में दहशत फैलाने के लिए हेलीकॉप्टर से विद्रोहियों पर गोलियाँ चलवायी गयीं जिसमें कितने ही बेकसूर लोग मार दिये गये थे। नेहरु को विश्वास था कि वह उनके आन्दोलन को कुचल देंगे लेकिन यह अभी तक मुमकिन न हो सका। अफस्पा कानून के जरिये नगा लोगों की जिन्दगी फौजी बूटों के हवाले कर दी गयी थी। इस कानून के जरिये निर्दाेष नगा लोगों पर जुर्म की कहानी अनन्त है। ‘गैर कानूनी हत्या पीड़ित परिवार संघ, मणिपुर’ उन लोगों का संघ है जिनके परिवार वालों को सेना ने फर्जी मुठभेड़ों में मार दिया है। इन्होंने पूरे तथ्यों के साथ सुप्रीम कोर्ट में यह दावा किया कि अकेले मणिपुर में ही सशस्त्र सुरक्षा एजेंसियों द्वारा 1979 से लेकर 2012 तक फर्जी मुठभेड़ों में लगभग 1528 निर्दाेष लोग मार दिये गये हैं। सुप्रीम कोर्ट पर जब दबाव बना तो उसने इसकी जाँच करने के लिए जस्टिस सन्तोष हेगड़े की अध्यक्षता में एक कमिटी गठित की। इस कमिटी की रिपोर्ट चैकाने वाली थी। इस आयोग ने छह मुठभेड़ों को लेकर अपनी विस्तृत रिपोर्ट दी। इन रिपोर्टों के अनुसार सेना ने जिन्हें आतंकी बताकर मुठभेड़ में मारा, उनमें से किसी का कोई आपराधिक रिकॉर्ड नहीं था, वे सब सामान्य नागरिक थे। सेना के पास ऐसा कोई तथ्य मौजूद नहीं था जिससे वे आतंकवादी साबित हो सकें। सेना द्वारा इन फर्जी मुठभेड़ों में मारे जाने वालों में 12 साल का आजाद खान भी शामिल है जिसे उसके घर से अचानक उठा लिया गया था। सेना ने पहले उसे अपने बूटों से बुरी तरह जख्मी किया और बाद में तड़पा–तड़पा कर उसे मार दिया था। नगा लोगों ने अपने ऊपर होने वाले अत्याचारों के बावजूद संघर्ष का रास्ता नहीं छोड़ा। भारतीय सेना द्वारा उत्पीड़न का उन्होंने डटकर विरोध किया।

2012 में सेना ने एक महिला का उसके घर वालों के सामने बलात्कार किया और बाद में उसके सर पर गोली मार दी थी। इस घटना के बाद हर तरफ भारतीय सेना और अफस्पा का विरोध होने लगा था। महिलाओं ने नग्न होकर सेना के दफ्तर के सामने प्रदर्शन किया। इस प्रदर्शन में उन्होंने एक बैनर पर लिखा था ‘भारतीय सेना हमारा बलात्कार करो’। अफस्पा कानून को खत्म करने की माँग को लेकर इरोम शर्मिला ने 16 साल तक भूख हड़ताल की लेकिन भारत सरकार का उत्तर–पूर्वी राज्यों को लेकर रवैया नहीं बदला। यह काला कानून आज भी वहाँ के लोगों के लिए हत्या का सबब बना हुआ है।

भारत सरकार ने 1963 में नागालैंड को अलग राज्य का दर्जा दिया। लेकिन इसकी सीमा से अनेकों नगा जनजातियाँ बाहर कर दी गयीं। 1964 में शिलांग समझौते के तहत भारत सरकार एनएसए के एक हिस्से को अपनी तरफ करने में सफल रही। यह हिस्सा उन स्वार्थी नौकरशाहों और व्यापारियों का प्रतिनिधित्व करता था जो नगा लोगों के अधिकारों की लड़ाई को त्याग चुके थे। ये अपने स्वार्थ के लिए भारत सरकार के अधीन होने के समझौते पर राजी हो गये थे। लेकिन एनएसए का एक धड़ा आज भी नगा लोगों की आजादी का प्रतिनिधित्व कर रहा है। इन्हीं लोगों को कुचलने के लिए भारत सरकार ने अभी तक उस क्षेत्र को अशान्त घोषित कर अफस्पा कानून लागू किया हुआ है। तात्कालिक घटना भी इसी उद्देश्य का एक हिस्सा है।

उत्तर–पूर्वी राज्य ही नहीं बल्कि कश्मीर से लेकर दान्तेवाड़ा तक भारतीय राज्यसत्ता ने अनेक दमित जनजातियों और कौमियतों के आत्मनिर्णय के अधिकारों को कुचला है। उत्तर–पूर्वी राज्य में सफल प्रयोग के बाद अफस्पा जैसे काले कानून को उन्होंने कश्मीर में भी इस्तेमाल किया। इस कानून के जरिये भारतीय राज्यसत्ता ने अपने खिलाफ उठने वाली सभी आवाजों को फौजी बूटों से कुचला है। अनेकों दावों के बाद भी भारत सरकार उनकी किसी भी समस्या को हल नहीं कर पायी है बल्कि ताकत के बल पर उनपर नियंत्रण कर रही है। एक तरफ हम ब्रिटिश औपनिवेशीकरण को गलत मानते हैं तथा लम्बे संघर्ष और अनेकों कुर्बानियों के बाद उनसे मिली आजादी का जश्न मनाते हैं। लेकिन आज उसी काम को राष्ट्रवाद के नाम पर किया जा रहा है जो कभी अंगेज करते थे। आत्मनिर्णय के अधिकार और अन्य न्यायोचित माँगों पर विचार करने की जगह उन्हें प्रताड़ित करने से कभी इस समस्या का हल नहीं निकल सकता।