आर्थिक संकट के भवर में फँसता भारत
राजनीतिक अर्थशास्त्र मोहित पुण्डीरअक्टूबर 2018 में अन्तरराष्ट्रीय मुद्रा कोष ने विश्व अर्थव्यवस्थाओं से सम्बन्धित ‘ग्लोबल फाइनेन्सियल स्टेबिलिटी रिपोर्ट’ जारी की। यह रिपोर्ट ऐसे समय में आयी है जब 2008 की विश्वव्यापी आर्थिक मन्दी को दस साल पूरे हो चुके हैं और इससे उबरने की बढ़–चढ़कर घोषणाएँ हो रही हैं। लेकिन इन घोषणाओं के उलट, यह रिपोर्ट एक बड़े संकट की ओर इशारा कर रही है। रिपोर्ट के अनुसार विश्व के ‘उभरते बाजार’ जिनमें भारत, चीन, ब्राजील, रूस आदि शामिल हैं, वहाँ खतरे की घण्टी बजने लगी है। इन देशों से बड़े निवेशक बाहर जा रहे हैं। पिछले एक साल में ही निवेशक इन देशों से लगभग 3 लाख करोड़ की पूँजी बाहर निकाल कर चले गये और आने वाले दिनों में रफ्तार के ओर तेज होने की पूरी सम्भावनाएँ हैं। भारत इन उभरते बाजारों में से एक बड़ा बाजार है, जिसकी अर्थव्यवस्था पर इसका बुरा असर साफ नजर आने लगा है।
पिछले कुछ समय से अमरीका में ब्याज दर बढ़ रही है। अधिक मुनाफे की तलाश में बड़े निवेशक अपनी पूँजी दूसरे देशों से निकाल कर अमरीका में लगा रहे हैं। इस साल अप्रैल से अक्टूबर तक निवेशक 50 हजार करोड़ रुपये की पूँजी भारतीय बाजार से निकाल कर जा चुके हैं, जिससे डॉलर की माँग में तेजी से बढ़ोतरी हुई है और नतीजन रुपया कमजोर हुआ है। पिछले 6 महीनों में रुपया डॉलर के मुकाबले 8 से 9 प्रतिशत तक गिरा है। इसका सबसे बड़ा असर भारत में ब्याज दर बढ़ने के रूप में आया। विनिर्माण क्षेत्र में इसका गहरा प्रभाव देखने को मिल रहा है क्योंकि ब्याज दर बढ़ने से कुल खर्चे में बढ़ोतरी होती है और मुनाफे में गिरावट आती है। 2017–18 की आखिरी तिमाही में 4,237 सूचीबद्ध कम्पनियों का मुनाफा 80 प्रतिशत तक घट गया, जिसमें ज्यादा घाटा फाइनेंस सेक्टर में हुआ है। लगातार घाटे में चलने के कारण उनमें नये निवेश कम हो रहे हैं। सीएमआईई (सेंटर फॉर मोनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी) एक प्रतिष्ठित संस्था है जो रोजगार और अर्थव्यवस्था से सम्बन्धित सर्वे करती है। इसके सर्वेक्षण के अनुसार अप्रैल–जून 2018 की तिमाही में पिछले तिमाही के मुकाबले निवेश 38 प्रतिशत तक घट गया और इस पूरे निवेश में 68 प्रतिशत केवल विमानन उद्योग का है, अगर इसे निकाल दें तो यह 14 साल का सबसे न्यूनतम निवेश होगा। 2014 के मुकाबले इस साल ‘ऊर्जा क्षेत्र’ और ‘विनिर्माण क्षेत्र’ में हुए निवेश में लगभग 30 प्रतिशत की कमी आयी है। निवेश का इस तरह घटना भारतीय अर्थव्यवस्था के संकटग्रस्त होने का स्पष्ट प्रमाण है।
रुपये की कीमत घटने का काफी बुरा प्रभाव आयातित उत्पादों के दामों में बढ़ोतरी के रूप में हो रहा है। इसके चलते व्यापार घाटा लगातार बढ़ता जा रहा है। आरबीआई के मुताबिक पिछले साल के मुकाबले इस साल व्यापार घाटा 4 अरब डॉलर ज्यादा हुआ है। विदेशों से व्यापार डॉलर में होता है और अगर डॉलर रुपये के मुकाबले महँगा होगा तो सभी चीजों के दाम बढ़ जायेंगी। इसमें मुख्य रूप से कच्चा तेल शामिल है जिसके दाम बढ़ने से पेट्रोल–डीजल के दामों में बढ़ोतरी हो रही है, और उसके कारण बाकी सभी चीजों के दाम भी तेजी से बढ़ते जा रहे हैं। कच्चा तेल खरीदने के लिए भारत को डॉलर की जरूरत पड़ेगी जिससे रुपया और ज्यादा कमजोर होगा। इसका प्रभाव कृषि और अन्य क्षेत्रों पर भी पड़ रहा है। खेती की लागत बढ़ने से कृषि संकट और भी गहरा होता जा रहा है। भारत लगभग 80 प्रतिशत चिकित्सा उपकरण दूसरे देशों से आयात करता है। अस्पताल में पूरे खर्चे का 30–40 प्रतिशत खर्चा इन्हीं उपकरणों का होता है। रुपये के कमजोर होने से ये उपकरण महँगे हो गये हैं जिससे अस्पताल के बिलों में सीधे 25–30 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। यह साफ तौर से समझा जा सकता है कि रुपये का कमजोर होना भारत की अर्थव्यवस्था के लिए बेहद बुरा संकेत है। एक तो इससे घरेलू महँगाई बढ़ गयी, दूसरा आयात महँगा हो गया और पहले से सुस्त पड़े उद्योग और संकटग्रस्त हो गये।
नये रोजगारों का सृजन होना किसी देश की अर्थव्यवस्था के जीवित रहने की जरूरी शर्त है। भारत की अर्थव्यवस्था का सही आकलन करने के लिए नये रोजगारों की जाँच–पड़ताल करना जरूरी है। विश्व बैंक के आँकडे़ भारत में रोजगार सृजन की सारी हकीकत सामने लाते हैं। इनके अनुसार पिछले 10 सालों में विकास दर औसतन 6.4 प्रतिशत की दर से बढ़ी है, पर नौकरियों में बढ़ोतरी 0.5 प्रतिशत से भी कम है। याद रहे कि इस दौरान जनसंख्या दर 1.6 प्रतिशत तक रही है। सेन्टर फॉर मॉनिटरिंग इण्डियन इकोनॉमी (सीएमआईई) की जून की रिपोर्ट के अनुसार पिछले 4 साल में 0.13 प्रतिशत की दर से नौकरियाँ घटी हैं। यह प्रकिया नोटबन्दी और जीएसटी के बाद तेजी से बढ़ी। भारत में 75–80 प्रतिशत लोग असंगठित क्षेत्र में काम करते हैं, जीएसटी के बाद इन छोटी कम्पनियों पर टैक्स की मार बहुत ज्यादा पड़ी, जिसके चलते बहुत तेजी से लघु और मध्यम उद्योग संकटग्रस्त हुए। तमिलनाडू में ही 2017–18 में 50,000 छोटी कम्पनियाँ बन्द हो गयीं और लाखों मजदूर बेरोजगार हो गये। सूरत में रोजाना 4 करोड़ मीटर कपड़े का उत्पादन घटकर आधा हो गया जिसके चलते कपड़ा उद्योग में लगे हजारों मजदूर बर्बाद हो गये। 2018 में बेरोजगारी दर 7.1 प्रतिशत तक पहुँच गयी। 1980 में अगर 1 करोड़ रुपये का निवेश होता था तो 90 लोगों को रोजगार मिलता था पर अब यह केवल 8 तक रह गया है। बेरोजगारी पर आयी अजिम प्रेमजी की रिपोर्ट के अनुसार भारत में काम करने वाले 84 प्रतिशत पुरुषों और 90 प्रतिशत से ज्यादा महिलाओं की आय 10 हजार से कम है। यह साफ दिखाता है कि एक तरफ तो रोजगार तेजी से घट रहा है, दूसरी तरफ रोजगार में शामिल लोगों की मजदूरी न बढ़ने के कारण उनकी स्थिति बद से बदतर होती जा रही है। मौजूदा वैश्विक मन्दी के चलते जैसे–जैसे उद्योगों का मुनाफा कम होता जा रहा है, उद्योग तबाह हो रहे हैं। इसका अंजाम घटते रोजगार के रूप में ही देखने को मिल रहा है।
रोजगार संकट के साथ ही वित्तीय क्षेत्र का दिवालियापन भी भारतीय अर्थव्यवस्था के संकटग्रस्त होने का प्रमाण दे रहा है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण इन्फ्रास्ट्रक्चर लीजिंग एंड फाइनेन्सियल सर्विसेज (आईएल एण्ड एफएस) में आया संकट है जिसे भारत की आजादी के बाद का सबसे बड़ा वित्तीय संकट बताया जा रहा है और इसे भारत का लेहमन संकट तक कहा जा रहा है। आईएल एण्ड एफएस एक वित्तीय संस्था है जो सरकारी और गैर–सरकारी ढाँचागत परियोजनाओं के लिए कर्ज देने और उनकी निगरानी रखने का काम करती है। यह संस्था अपने शेयर जारी करती है जिसमें आम आदमी से लेकर एलआईसी और एसबीआई जैसी बड़ी संस्थाएँ अपना पैसा लगाती हैं। 7 हजार करोड़ से कम की सम्पत्ति होने के बावजूद इसने 1 लाख करोड़ रुपये का कर्ज लिया। यह कर्ज मनरेगा परियोजना के पूरे बजट से भी ज्यादा है। लेकिन जिन परियोजनाओं में इसने पैसे लगाये वे मन्दी के चलते पूरी नहीं हो पायीं और दूसरों को कर्ज देने वाली यह वित्तीय संस्था आज खुद 91 हजार करोड़ रुपये की कर्जदार हो गयी है। इसकी 82 सहायक कम्पनियों में भी यही संकट देखने को मिल रहा है, जिसमें केवल ‘तमिलनाडु पॉवर कम्पनी लिमिटेड’ 382 करोड़ रुपये के नुकसान में है। एलआईसी और एसबीआई की इसमें बड़ी हिस्सेदारी है। अगर यह वित्तीय संस्था डूबती है तो लाखों लोगों की पेंशन और जमा पूँजी का डूबना तय है।
इस संकट की शुरुआत होते ही एलआईसी के शेयर 10 प्रतिशत तक गिर गये। 2014 के मुकाबले इस कम्पनी के शेयर की कीमत 70 प्रतिशत से भी ज्यादा घट गयी है, मतलब अगर तब किसी ने इसमें 100 रुपये लगाये थे तो आज उनकी कीमत घट कर 30 रुपये रह गयी है। इसके डूबने से अनेक सरकारी प्रोजेक्ट खत्म हो जायेंगी और उनमें लगी बड़ी पूँजी डूब जायेगी और पूरे बाजार में हाहाकार मच जायेगा। इसके दिवालिया घोषित होने के कुछ ही देर में सेंसेक्स में अभूतपूर्व 1800 अंकों की गिरावट दर्ज की गयी। सरकार इस पर कब्जा करके इस संकट को कुछ देर के लिए ही टाल सकती है। यह संकट वित्तीय संस्थानों के खोखला होने की ओर संकेत करता है, जिन पर मौजूदा अर्थव्यवस्था टिकी हुई है। यह ऐसा ज्वालामुखी है जो कभी भी फट सकता है और अपने साथ पूरी अर्थव्यवस्था को तबाह कर सकता है।
अर्थव्यवस्था की तस्वीर बताने के लिए अक्सर सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी का सहारा लिया जाता है। यह जोर–शोर से प्रचारित किया जा रहा है कि भारत की जीडीपी का आकार फ्रांस से भी बड़ा हो गया है और 2019 तक यह ब्रिटेन को भी पीछे छोड़ देगा। लेकिन इसके बावजूद भारत का विश्व भूख सूचकांक में 100वाँ स्थान है। क्या जीडीपी अर्थव्यवस्था की असली तस्वीर दिखाता है? यह बताया गया कि अक्टूबर 2017 से अप्रैल 2018 के बीच भारत में औद्योगिक विकास बहुत तेजी से हुआ, यह 7.5 प्रतिशत की दर से लगातार बढ़ रहा है और अर्थव्यवस्था का संकट खत्म हो गया है। लेकिन यह जानना बेहद दिलचस्प है कि इसमें कितनी सच्चाई है। औद्योगिक विकास की गणना इंडेक्स ऑफ इंडस्ट्रियल प्रोडक्शन(आईआईपी), से की जाती है जिसे उद्योगों के उत्पादन में हुई बढ़त को जोड़कर बनाया जाता है। लेकिन यह रिपोर्ट मनमाने और गलत तथ्यों के आधार पर बनायी गयी है। इस पूरे औद्योगिक विकास दर का आधार केवल डाईजेस्टिव एंजाइम और एन्टासिड यानी बदहजमी की दवाई में हुई बढ़ोतरी को ही मान लिया गया। पूरे औद्योगिक विकास दर में 61 प्रतिशत योगदान केवल इसी एक दवाई का रहा, बल्कि इस दवा कम्पनी की संख्या सारे उद्योगों में 0.002 प्रतिशत से भी कम है। जीडीपी गणना में भी आईआईपी को शामिल किया जाता है। यह अन्दाजा लगाया जा सकता है कि कैसे किसी एक उद्योग में हुए थोड़े से विकास को पूरी अर्थव्यवस्था के विकास के रूप में पेश किया जाता है। इससे अलग अगर रिजर्व बैंक के सर्वे पर ध्यान दें, तो भारत का निर्यात सितम्बर महीने में 2.2 प्रतिशत तक घट गया और अगर इसमें से पेट्रोलियम उत्पादों को हटा दें तो यह गिरावट 6 प्रतिशत से भी अधिक है। इसका मतलब है कि उत्पादन घटा है बढ़ा नहीं। तेल की बिक्री में भी 14 साल की रिकॉर्ड गिरावट दर्ज की गयी है। 2018 की पहली तिमाही में उद्योगों में छाई सुस्ती के संकेत साफ नजर आ रहे हैं, उनका उत्पादन वास्तविक क्षमता से बहुत नीचे चला गया है।
एक तरफ तो अर्थव्यवस्था में तेजी दिखाने के लिए झूठे और मनमाने तथ्यों का इस्तेमाल किया जा रहा है, वहीं दूसरी ओर रिजर्व बैंक जैसी स्वायत्त संस्थाओं को भी निशाना बनाना शुरू कर दिया गया है। रिजर्व बैंक जरूरत पड़ने पर देश की अर्थव्यवस्था को स्थिर रखने के लिए अपने पास कुछ निश्चित पूँजी रखती है। अब भारत सरकार की नजर इसी खजाने पर है। सरकार सेक्शन–7 का इस्तेमाल कर जबरदस्ती रिजर्व बैंक से 3 लाख करोड़ रुपये निकालना चाहती है जिसका इस्तेमाल वह लघु और मध्यम उद्योग को कर्ज देने के लिए करेगी। सरकार के इस कदम का विरोध रिजर्व बैंक समेत सभी बैंकों ने किया है। रिजर्व बैंक के डिप्टी गवर्नर विरल आचार्य ने कहा कि ‘केन्द्रीय बैंक की स्वायत्तता से छेड़छाड़ की गयी तो अर्थव्यवस्था जल उठेगी’। याद रहे सरकार पेट्रोल और डीजल पर टैक्स लगाकर पहले ही जनता से कई लाख करोड़ रुपये लूट चुकी है। वैश्विक मन्दी के दौर में जब उत्पादन में लगातार गिरावट आ रही है तब सीधे जनता की जेब पर डाका डालकर बड़े पूँजीपतियों के मुनाफे की हवस को शान्त किया जा रहा है, यह काम कभी जीएसटी के नाम पर तो कभी नोटबन्दी के नाम पर हो रहा है। एक तरफ हजारों लघु उद्योग बर्बाद हो गये हैं जिसके चलते करोड़ों लोग बेरोजगार हुए, वहीं दूसरी ओर 20 बड़ी कम्पनियों का मुनाफा 10 प्रतिशत से भी ज्यादा रफ्तार से बढ़ रहा है। बड़े अरबपति बैंकों का 11 लाख करोड़ रुपये गबन कर चुके हैं जिसकी मार भी आम मेहनतकश जनता को ही झेलनी पड़ रही है।
भारत की अर्थव्यवस्था में आया संकट वैश्विक संकट का ही विस्तार है। इस संकट का समाधान सरकार बदलने या नीम–हकीमी इलाज से नहीं होगा। इस संकट को थोड़े दिनों के लिए टाला तो जा सकता है पर खत्म नहीं किया जा सकता। मुनाफे पर आधारित यह व्यवस्था आज दुनिया को मन्दी के अलावा कुछ भी सकारात्मक देने में असमर्थ है। इस व्यवस्था का जड़ से खात्मा ही मन्दी का उपचार है।
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