पीएमसी (पंजाब एण्ड महाराष्ट्र कोऑपरेटिव) और यश बैंक के बाद अब बर्बाद होने वाले बैंकों की सूची में लक्ष्मी विलास बैंक का नया नाम जुड़ गया है। 94 साल पुराना यह प्राइवेट बैंक अब अपने अन्त की ओर है। पिछले 9 दशकों से यह बैंक छोटे कर्ज बाँटकर और खुदरा व्यापार को प्रोत्साहित करके फल–फूल रहा था। लेकिन कुछ दिनों से इसकी वित्तीय स्थिति बहुत खराब चल रही है, जिसके चलते आरबीआई (रिजर्व बैंक ऑफ इण्डिया) ने इसके अधिग्रहण को मंजूरी दे दी। अब इसका विलय सिंगापुर के डीबीएस बैंक में हो गया है। आरबीआई ने एक महीने तक बैंक से पैसे निकालने की सीमा तय कर दी थी। खाता धारक एक दिन में अधिकतम 25 हजार रुपये ही निकाल सकते थे। याद रहे कि पिछले साल पीएमसी बैंक के डूबने के बाद भी आरबीआई ने ऐसी ही रोक लगायी थी जिसके चलते हजारों लोग कंगाली की हालत में आ गये थे और दस से ज्यादा खाता धारकों की जान चली गयी थी। क्या यही कहानी इस बार फिर दोहरायी जा रही है ? क्या हजारों लोगों की खून–पसीने की कमाई खतरे में है ?

लक्ष्मी विलास बैंक भारत में बैंकिंग क्षेत्र के संकट की अगली कड़ी के रूप में नजर आ रहा है। पीएमसी और यश बैंक के बाद इस बैंक की बर्बादी से यह सवाल उठता है कि आखिर इतनी तेजी से एक के बाद एक बैंकों की बरबादी का क्या कारण है ? रिजर्व बैंक के गवर्नर शक्तिकान्त दास ने पीएमसी बैंक की बर्बादी के समय दावा किया था कि भारतीय बैंकिंग व्यवस्था मजबूत और स्थिर है, यह बैंक के प्रबन्धन की कमी का नतीजा है। हर बार संकट के समय सरकार और आरबीआई की तरफ से यही पुराना राग सुनाई पड़ता है। क्या सच में बैंकों की बर्बादी का मुख्य कारण उनके प्रबन्धन की कमी या उनका भ्रष्ट होना है ? तेजी से रसातल में जाते बैंकिंग क्षेत्र के संकट को अब इन सतही बातों से नहीं छिपाया जा सकता है। मौजूदा हालात में इस संकट को समझना बहुत जरूरी है। करोड़ों मेहनतकश लोगों की बैंकों में जमा–पूँजी आज दाँव पर लगी है। ऐसे में यह बेहद जरूरी हो जाता है कि इस संकट के असली कारणों की जाँच–पड़ताल कर सही नतीजों तक पहुँचा जाये।

लक्ष्मी विलास बैंक एक प्राइवेट बैंक है। उसके डूबने का कारण उसकी आर्थिक हैसियत से ज्यादा कर्ज देना बताया जा रहा है। इसने बड़ी संख्या में निर्माण, कपड़ा, रीयल एस्टेट आदि क्षेत्रों में बड़े कॉर्पाेरेट कर्ज दिये जिनका भुगतान न होने पर यह बैंक नगदी की कमी के कारण संकटग्रस्त हो गया। यस बैंक के डूबने का कारण भी यही बताया गया था। अगर ऐसा है तो कोई भी बैंक बड़े कर्ज क्यों देता है ? इसे समझने के लिए हमें बैंक, बीमा और वित्तीय क्षेत्र तथा उद्योग–व्यापार क्षेत्र में लगे पूँजीपतियों के परस्पर सम्बन्धों को समझना होगा। उद्योगपतियों के बीच बाजार पर कब्जा कर ज्यादा मुनाफा कमाने की होड़ लगी रहती है। इसी होड़ मे छोटी पूँजी के उद्योगपति बर्बाद होते हैं और बड़ी पूँजी वाले एकाधिकार कायम करते हैं। अपने मुनाफे को लगातार बढ़ाते रहने के लिए उन्हंे बैंकों से अधिकाधिक पूँजी प्राप्त कर अपने कारोबार को निरन्तर विस्तारित करने की जरूरत होती है। लेकिन एकाधिकार की यह होड़ केवल उद्योगपतियों में ही नहीं बल्कि स्वयं बैंक, बीमा और वित्तीय क्षेत्र के पूँजीपतियों में भी होती है। इस होड़ में आगे बढ़ने के लिए वे ज्यादा से ज्यादा कारोबारियों को बड़े–बड़े कर्ज देकर अपनी हिस्सेदारी और मुनाफा सुनिश्चित करते हैं और अपनी पूँजी को बढ़ाते हैं।

लेकिन कई बार व्यापार का यह खेल जल्दी ही बिगड़ने लगता है। बैंक की विशाल पूँजी से सभी पूँजीपति अपने उत्पादन और कारोबार का न केवल विस्तार करते हैं बल्कि अपनी पूँजी शेयर बाजार में भी लगाते हैं। खुद बैंक और उससे जुड़े पूँजीपति भी तेजी से मुनाफा कमाने के लिए शेयर बाजार में भारी निवेश करते हैं। लेकिन कुछ सालों से जारी वैश्विक मन्दी के कारण यह विस्तार थम गया है। इसका परिणाम ‘अति–उत्पादन’ के रूप में सामने आ रहा है क्योंकि बेरोजगारी और कम वेतन के कारण लोगों की क्रय शक्ति बेहद कमजोर हो गयी है। इस स्थिति में पूँजीपति खुद को दिवालिया घोषित कर बैंक का सारा कर्ज निगल रहे हैं और इन्हें कर्ज देने वाले बैंक डूब रहे हैं जिनमें आम जनता की जमा–पूँजी होती है। यही लक्ष्मी विलास बैंक के साथ हुआ। 2008 से पहले इसने बड़े कर्ज देकर खूब मुनाफा कमाया। 2008 की मन्दी के बाद भारतीय अर्थव्यवस्था भी लगातार गहरे संकट की ओर बढ़ने लगी थी। लेकिन इस बैंक ने बड़े कर्ज देना जारी रखा। 2007 में जहाँ इसने 3,612 करोड़ का कर्ज दिया था वहीं यह 2013 में बढ़कर 11,702 करोड़ हो गया था और यह संख्या साल–दर–साल बढ़ती ही रही। मन्दी के कारण उद्योगपतियों के मुनाफे में गिरावट आयी और जिसका खामियाजा बैंक को भुगतना पड़ा। मौजूदा आर्थिक संकट के दौर में यह बर्बादी की कहानी केवल एक बैंक के गलत प्रबन्धन की नहीं है बल्कि यह एक आम नियम है।  

बैंकों के बर्बाद होने के असली कारणों को छुपाकर अक्सर सरकार की तरफ से यह तर्क सुनने को मिलता है कि संकट सरकारी बैंकों में है, निजी क्षेत्र के बैंक अच्छी स्थिति में है। पिछले दिनों आरबीआई की एक कमिटी ने सिफारिश की थी कि अब उद्योगपतियों को भी बैंक खोलने की अनुमति दी जाये। इस कमिटी ने 3 बड़ी सिफारिशें की हैं जिनमें बैंकों के निजीकरण, गैर–बैंकिंग वित्तीय कम्पनी को बैंकों में तब्दील करना और निजी बैंकों में प्रवर्तकों यानी पूँजीपतियों की हिस्सेदारी बढ़ाना शामिल है। गौर करने वाली बात यह है कि यह सिफारिश ऐसे समय में निजी बैंकों को बढ़ावा देने की बात करती है जब एक के बाद एक निजी बैंक बर्बाद हो रहे हैं। लक्ष्मी विलास बैंक से पहले निजी क्षेत्र के ही एचडीएफसी,आईसीआईसीआई और एक्सिस बैंक संकटग्रस्त हो चुके हैं। भारत के बैंकिंग इतिहास में अब तक 600 निजी बैंक डूब चुके हैं। क्या वास्तव में बैंकिंग क्षेत्र के संकट को निजीकरण के जरिये हल किया जा सकता है या कमिटी की ये सिफारिशें आर्थिक मन्दी के इस दौर में आम जनता की मेहनत की कमाई को चन्द पूँजीपतियों के हवाले करने की साजिश हैं ?

कर्ज देने में निजी या सरकारी बैंकों में कोई अन्तर नहीं बचा है। आईएलएण्डएफएस, दीवान हाउसिंग, अनिल अम्बानी ग्रुप आदि को निजी और सरकारी दोनों बैंकों ने खूब कर्ज दिया और भुगतान न होने पर दोनांे क्षेत्र के बैंक डूब गये। जब निजी और सरकारी दोनों क्षेत्र के बैंकों की कार्यप्रणाली में मूलत: कोई अन्तर नहीं, तो आखिर आरबीआई की सिफारिशों से किसे लाभ होगा ? अभी तक किसी उद्योगपति को बैंक खोलने की अनुमति नहीं है, वह बैंक का ग्राहक हो सकता है। वह अपने व्यापार को चलाने के लिए बैंक से कर्ज लेता है और बदले में अपने मुनाफे से बैंक को ब्याज देता है। इस ब्याज से कर्मचारियों को वेतन और जमाकर्ताओं को ब्याज दिया जाता है और जो बचता है, वह बैंक का मुनाफा होता है। इसी तरह बैंक का कारोबार चलता है। लेकिन आज अडानी–अम्बानी जैसे पूँजीपति खुद बैंक के मालिक बनना चाह रहे हैं। निजीकरण के बाद वे सरकारी बैंकों के मालिक बन जायेंगे और इसमें जमा जनता की गाढ़ी कमाई को अपने फायदे के लिए इस्तेमाल करेंगे। इससे ये उद्योगपति तो और मालामाल हो जाएँगे, लेकिन पहले से ही बदहाल जनता अपनी बची–खुची जमा–पूँजी से भी हाथ धो बैठेगी। इसी वजह से अभी तक बैंक की पूरी हिस्सेदारी किसी भी उद्योगपति को नहीं दी गयी थी।

हाल ही में आरबीआई की सालाना रिपोर्ट एफएसआर (वित्तीय स्थिरता रिपोर्ट) आयी है, यह भारत की मौजूदा वित्तीय हालत का बयान करती है। इस रिपोर्ट के अनुसार एनपीए यानी डूबे हुए कर्ज 20 साल के सर्वाेच्च स्तर पर पहुँच गये हैं। पूरे बैंकिंग क्षेत्र यानी निजी, सरकारी और सहकारी बैंकों के 42 फीसदी कॉर्पाेरेट द्वारा लिया गया कर्ज डूबने की कगार पर है। भारत के सर्वाेच्च 5 बैंकों का 45 फीसदी मुनाफा कम हो गया है। कोरोना काल में लगी पाबन्दियों और श्रम कानूनों में बदलाव के चलते करोड़ों लोगों के रोजगार छिन गये और आगे भी रोजगार सृजन की कोई उम्मीद नहीं दिखती। इसके कारण बड़े पैमाने पर होम कर्ज, कार कर्ज आदि छोटे कर्जों पर भी भुगतान न होने के चलते संकट बढ़ने लगा है। यह आने वाले संकट की आहट है जिसमें कितने ही बैंकों की बर्बादी छुपी हुई है, करोड़ों आम लोगों की जमा–पूँजी पर संकट के बादल छाये हुए हैं। लेकिन ऐसे समय में आम जनता की भलाई के लिए ठोस कदम उठाने की जगह सरकार करोड़ों लोगों की कीमत पर मुट्ठी भर पूँजीपतियों का हित साधने में लगी हुई है। याद रहे, किसी भी संकट का खामियाजा आखिरकार जनता को ही भुगतना पड़ता है। एक तरफ तो जनता की जमा–पूँजी बर्बाद होने की कगार पर है वहीं दूसरी तरफ मन्दी के दौर में नौकरी जाने से जो लोग बैंक के कर्ज की किस्त चुकाने में असमर्थ हो रहे हैं तो उनकी सम्पत्ति तक कुर्क करने की खबरंे सामने आ रही हैं। वहीं दूसरी ओर दिवालिया कानून बनाकर पूँजीपतियों को हर तरह के कर्ज से छुटकारा दिलाने का रास्ता साफ किया जा रहा है। बैंक को पूँजीपतियों को सौंपने की तैयारी भी की जा रही है जिससे मन्दी में भी जनता के पैसों से उनके मुनाफे को पूरा किया जा सके।