सोवियत संघ के विघटन और आर्थिक संकट से घिरे रूस के पुन: उभार से पूरी दुनिया में और खासतौर पर पूर्वी यूरोप में एक नये शक्ति सन्तुलन के निर्माण की शुरुआत हो गयी जो अभी जारी है। मौजूदा रूस–यूक्रेन युद्ध इसी का हिस्सा है। यह युद्ध संकटग्रस्त पश्चिमी साम्राज्यवादियों (अमरीका, ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी, इटली, कनाडा, जापान) द्वारा रूस पर नकेल कसे रखने की कोशिशों का परिणाम है। यूक्रेनी रणक्षेत्र में नाटो और रूस एक बार फिर टकराव की स्थिति में हैं। रूस के दो लाख से ज्यादा सैनिक यूक्रेन में घुसे हुए हंै और उन्होंने यूक्रेन के शहरों को घेर लिया है। यूक्रेन के शासकों की नव–नाजी सोच और खुद को नाटो का खिलौना बना लेने के चलते यूक्रेन इन दैत्याकार महाशक्तियों के टकराव का अखाड़ा बन गया है।

नाटो द्वारा रूस की घेराबन्दी

रूस का सबसे विकसित, विशाल पश्चिमी हिस्सा भौगोलिक रूप से खुला हुआ है। इतिहास में रूस पर दो भयावह हमले पश्चिम की ओर से ही हुए हैं–– नेपोलियन और हिटलर के हमले। नाजी जर्मनी को बुरी तरह हराकर दूसरे विश्वयुद्ध को निर्णायक मोड़ तक पहुँचाने वाले जोसेफ स्तालिन ने तत्कालीन सोवियत संघ प्रभाव क्षेत्र का विस्तार पश्चिमी यूरोप की दहलीज तक किया था। सामरिक नजर से यह पश्चिम से रूस की मुख्य भूमि की सुरक्षा गांरटी है। 1989 में सोवियत संघ बिखर गया और इससे पैदा हुए खालीपन को भरने के लिए रूस की पश्चिमी परिधि के क्षेत्रों, यानी पूर्वी यूरोप के देशों में अमरीका के नेतृत्व में नाटो ने अपना विस्तार अभियान छेड़ दिया। हालाँकि सोवियत संघ के विघटन के समय और जर्मनी के एकीकरण के समय भी नाटो ने वादा किया था कि वह जर्मनी से आगे और वारसा पैक्ट के देशों में अपना एक इंच भी विस्तार नहीं करेगा, जबकि आज वह सेंट पीट्सबर्ग और मास्को की दहलीज तक पहुँच चुका है। अमरीका का मानना है कि वह यूक्रेन को नाटो में शामिल करके रूस की गर्दन पर छुरी रख देगा। रूस को भी यही डर है और इसीलिए वह रक्षात्मक आक्रामकता की नीति अपनाकर नाटो को न केवल यूक्रेन से बल्कि पूरे पूर्वी यूरोप से पीछे धकेलना चाहता है।

शीत युद्ध के खात्मे के बाद नाटो के सदस्य देशों की संख्या 12 से बढ़कर 30 हो चुकी है। चेक गणराज्य, हंगरी और पोलैण्ड तीनों वारसा पैक्ट के सदस्य थे लेकिन 1999 में इन्हें नाटो का सदस्य बना लिया गया। रूस के साथ सीमा साझा करने वाले तीन बाल्टिक देश एस्तोनिया, लातविया, लिथुआनिया समेत 7 अन्य देश भी 2004 में नाटो के सदस्य बनाये गये। अब रूस की पश्चिमी सीमा की घेराबन्दी पूर्ण करने के लिए केवल यूक्रेन को नाटो में शामिल करना बाकी रह गया था।

तुर्की, बुल्गारिया और रोमानिया काला सागर बेसिन के देश हैं और नाटो के सदस्य हैं। काला सागर रूस की भूमध्य सागर में पहुँच का दरवाजा है। इन तीनों देशों के नाटो सदस्य होने के चलते रूस पहले ही काला सागर में घिरा हुआ था। 2008 में बुखारेस्त सम्मेलन में अमरीका ने जार्जिया और यूक्रेन को नाटो की सदस्यता देने का वादा किया था। इससे रूस की मुख्यभूमि की समुद्री घेराबन्दी पूर्ण हो जाती और भविष्य में काला सागर के रास्ते भूमध्य सागर में रूस की पहुँच को नाटो कभी भी बाधित कर सकता था।

यूक्रेन की सीमा से मास्को की दूरी 500 किलोमीटर से भी कम है। रूस का दूसरा सबसे महत्त्वपूर्ण शहर और पुरानी राजधानी पीट्सवर्ग एस्तोनिया की सीमा से 160 किलोमीटर से भी कम दूरी पर है, जो पहले ही नाटो में शामिल है। क्या अमरीका कभी यह स्वीकार कर सकता है कि कोई वाशिगंटन और न्यूयार्क की दहलीज पर मिसाइलंे कायम कर दे। कुल मिलाकर, नाटो ने यूक्रेन को शामिल करने की दावत देकर रूस की मुख्य भूमि के लिए गम्भीर खतरा पैदा कर दिया था। खुली जवाबी के अलावा अब रूस के पास कोई ओर रास्ता नहीं था और वह इसी रास्ते पर आगे बढ़ा।

रूस का फिर से उभार और प्रतिरोध

2000 में जब पुतिन ने रूस की बागडोर सम्हाली तो यह सोवियत संघ के बिखराव की त्रासदी से अभी उबरा नहीं था। अभी भी अर्थव्यवस्था डाँवाडोल थी और विदेश नीति दिशाहीन। सोवियत संघ के विघटन को पुतिन ने “शताब्दी की सबसे बड़ी भू–राजनीतिक विभीषिका” कहा था। नाटो का अन्तहीन विस्तार पूर्वी यूरोप में रूसी प्रभाव क्षेत्र के 30 लाख वर्ग किलोमीटर पर प्रभाव कायम कर चुका था और मुख्य भूमि पर खतरा असन्न था।

2008 में यूक्रेन की नाटो सदस्यता का पुरजोर विरोध रूस के बढ़ते आत्मविश्वास का संकेत था। इसी साल रूस ने जार्जिया के ओसेतिया और अब्खाजिया में चल रहे अलगाववादी संघर्ष में अपने सैनिक भेजे और इन दोनों क्षेत्रों को स्वायत्त घोषित कर दिया। यह दोनों क्षेत्र काला सागर के तटवर्ती हैं और अब रूस समर्थक ताकतों द्वारा शासित हैं।

2014 में यूक्रेन की सत्ता पश्चिम समर्थक ताकतों के हाथों में आ गयी तो रूस ने क्रीमिया प्रायदीप पर कब्जा कर लिया और काला सागर में अपनी स्थिति और मजबूत की। इसके अलावा यूक्रेन के दक्षिण पूर्वी क्षेत्र दोनबास में अलगाववादी ताकतों की मदद की और यूक्रेन के सैन्यबल इस पर नियंत्रण नहीं कर सके हैं। इन दोनों मामलों में पश्चिमी साम्राज्यवादी देश रूस को कोई खास नुकसान नहीं पहुँचा पाये।

2020 में बेलारूस में रूस समर्थक राष्ट्रपति के खिलाफ अमरीका के समर्थन से उभर रहे विद्रोह को कुचलने के लिए पुतिन ने सैन्य सहायता भेजी। इस अभियान में भी वह सफल रहे। बदले में बेलारूस के राष्ट्रपति अलेक्सान्द्र लुकासेन्को ने पिछले साल पुतिन की सहायता से पोलैण्ड की सीमा पर एक अजीबोगरीब शरणार्थी संकट खड़ा कर दिया। बेलारूस ने पश्चिमी एशिया और अफ्रीका से आये 31,000 से ज्यादा शरणार्थियों को यूरोपीय संघ की सीमाओं में घुसाया जो अब कई यूरोपीय देशों के लिए सरदर्द बने हुए हैं।

अर्मेनिया और अजरबैजान के बीच चले युद्ध को खत्म करवाने के लिए रूस ने हजारों शान्ति सैनिक भेजे और काकेशस में अपना रणनीतिक प्रभुत्व स्थापित किया।

मध्य एशिया के सबसे बड़े और सबसे धनी देश कजाकिस्तान में हुए सत्ता विरोधी उग्र प्रदर्शनों को दबाने के लिए भी रूस ने तुरन्त सैनिक भेजे। पुतिन यहाँ भी सफल रहे।

 अफगानिस्तान में अमरीका की लज्जाजनक हार के बाद मध्य एशिया में रूस निर्णायक स्थिति में है। अब पुतिन की कोशिशें यूरोपीय सीमाओं पर अपना खोया प्रभाव पाने पर केन्द्रित हैं। सामरिक नीतियाँ अर्थनीति की सेवक होती हैं और उसके पीछे–पीछे चलती हैं। अर्थनीति का ही दिवाला पिट जाये तो केवल सामरिक ताकत के दम पर कोई भी सत्ता ज्यादा दिन कायम नहीं रह सकती। अमरीकी चैधराहट में लागू हुए वैश्वीकरण और नव उदारवाद का दिवाला पिट चुका है। 2008 के आर्थिक संकट से पश्चिमी जगत कभी उभर नहीं पाया। पहले लातिन अमरीका और बाद में पश्चिमी एशिया और मध्य एशिया में अमरीकी चैधराहट को जबरदस्त नुकसान पहुँचा है। इन बदली हुई वैश्विक परिस्थितियों को पुतिन बखूबी समझते हैं और इससे ही आगे कदम बढ़ाने का हौसला पाते हैं।

यूक्रेन की सत्ता पर नव–नाजियों का कब्जा

साम्राज्यवाद लोकतंत्र को सहन नहीं कर सकता। वह समाज की सबसे पिछड़ी विचारधाराओं के सहारे ही आगे बढ़ सकता है। पहले मध्य और पश्चिमी एशिया पर प्रभुत्व के लिए अमरीका ने इस्लामिक चरमपंथ को खड़ा किया था। पूर्वी यूरोप पर प्रभुत्व के लिए उसने नाजियों की नयी नस्लों को खड़ा किया है। 2004 में पश्चिमी साम्राज्यवादियों ने यूक्रेन में रूस समर्थक सरकार का तख्तापलट करके इसे नारंगी क्रान्ति का नाम दिया था। नव–नाजीवाद के अंकुर इसी में दिखने लगे थे। अमरीका और यूरोपीय संघ ने इनकी परवरिश करके उन्हें जहरीले दरख्तों में तब्दील किया, इसका पूरा इतिहास मौजूद है। ऐसा उन्होंने केवल यूक्रेन में ही नहीं बल्कि पूर्वी यूरोप के सभी देशों में किया।

2014 में नव–नाजियों ने पश्चिमी साम्राज्यवादियों की मदद से यान्कोविच की सरकार का तख्ता पलट किया था। हालाँकि वह भी पश्चिम समर्थक थे, लेकिन 2012 में जब आईएमएफ और यूरोपीय संघ ने उन पर नव उदारवादी नीतियाँ लागू करने का जरूरत से ज्यादा दबाव बना दिया तो वह रूस की ओर झुक गयेे। इस समय तक यूक्रेनी राज्य शिक्षा, स्वास्थ्य, परिवहन जैसी बुनियादी जन सेवाएँ जनता को बहुत सस्ते में उपलब्ध करवा रहा था। आज तक भी आलम यह है कि एमबीबीएस की पढ़ाई यूक्रेन में भारत से औसतन 6 गुना सस्ती है। इसके अलावा जनता को जरूरी र्इंधन सामग्री खासतौर पर प्राकृतिक गैस पर भी सरकार बहुत ज्यादा सब्सिडी देती थी। यूरोप और आईएमएफ प्राकृतिक गैस समेत जनता को मिलने वाली इन सभी सुविधाओं का निजीकरण चहाते थे। यूरोपीय संघ की अर्थव्यवस्था आर्थिक संकट में फँसी थी, इसके अलावा तेल और प्राकृतिक गैस के मामले में रूस पर उनकी निर्भरता बहुत ज्यादा बढ़ गयी थी। यान्कोविच ने यूरोपीय संघ और आईएमएफ के दबाब के आगे झुकने से इनकार कर दिया और 2013 में रूस के साथ हाथ मिला लिया।

पश्चिमी मीडिया ने तुरन्त ही यान्कोविच की सरकार और रूस के खिलाफ यूक्रेन में प्रचार युद्ध छेड़ दिया। वे रातोंरात भ्रष्टाचारी, तानाशाह और जाने क्या–क्या बना दिये गये। कमाल तो यह था कि यान्कोविच के खिलाफ भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन हाथ में नाजीवाद का झण्डा उठा कर किया गया। एक साल के अन्दर ही मामला भ्रष्टाचार से बढ़कर अल्पसंख्यक रूसी भाषी और अन्य धर्मावलम्बियों के खिलाफ नफरती अभियान तक पहुँच गया। अमरीका ने नव–नाजियों की उसी तरह मदद की जैसे अफगानिस्तान में धर्मान्ध मुजाहिद्दीनों की की थी। अन्धाधुन्ध प्रचार के जरिये पहले निकृष्ट समझे जाने वाले नव–नाजीवादी यूक्रेन के नायक और देशभक्त बना दिये गये। अमरीका ने उनके लिए हथियारों और डॉलरों की नदी बहा दी। रूसी भाषी और रूस समर्थक लोगों की हत्याएँ आम बात हो गयीं। इनके उत्पात के खिलाफ जब यूक्रेनी जनता सड़कों पर उतरी तो नव–नाजी गिरोहों के साथ–साथ उसे यूक्रेन की सेना और पुलिस की गोलियों का भी सामना करना पड़ा। रूस समर्थकों का यूक्रेन की सत्ता से सफाया किया गया और नव–नाजियों को सत्तासीन किया गया। उनके हथियारबन्द गिरोहों को ज्यों का त्यों सैन्य बलों में शामिल किया गया। दोनबास क्षेत्र में रूसी भाषियों के कत्लेआम के लिए मशहूर अजोव बटालियन ऐसे ही गिरोहों को मिलाकर बनायी गयी है।

सत्ता सम्भालते ही नव–नाजियों ने एक तरफ नस्लवादी और फर्जी राष्ट्रवादी सोच को बढ़ावा दिया, दूसरी तरफ जनता को मिलने वाली सुविधाओं में तेजी से कटौती की। प्राकृतिक गैस पर मिलने वाली सब्सीडी घटाकर आधी कर दी गयी। यूरोपीय संघ की सिफारिश पर आईएमएफ ने यूक्रेन सरकार को 27 अरब डॉलर का कर्ज दिया। यह समान परिस्थितियों में आईएमएफ द्वारा दिये जाने वाले कर्ज से 6 गुना बड़ा था और यूक्रेन की हैसियत से कहीं ज्यादा। स्पष्ट था कि यूक्रेन इसे कभी नहीं चुका पायेगा और इसकी भरपायी अपने प्राकृतिक और मानवीय संसाधनों के जरिये ही करेगा। यूक्रेन का वही हश्र्र होगा जो यूनान का हुआ था। अन्तत: यूक्रेन के विशाल ऊर्जा भण्डार पश्चिमी यूरोप के कब्जे में होंगे।

पश्चिमी साम्राज्यवादियों ने युद्ध को अपरिहार्य बना दिया

नव–नाजियांे का घोषित उद्देश्य है एक नस्ल, एक भाषा, एक धर्म के लोगों का यूक्रेन। 2014 में यूक्रेन की सत्ता में स्थापित होने के बाद उन्हें जनता के जबरदस्त विरोध का सामना करना पड़ा था। साम्राज्यवाद के सेवक नव–नाजी गिरोहों और यूक्रेनी सुरक्षा बलों ने जन आन्दोलन का जितना बर्बर दमन किया उसकी समकालीन यूरोप में कोई मिसाल नहीं है। उन्होंने यूक्रेन की सड़कों को नाजीवाद विरोधी जनता की लाशों से पाट दिया था। रिपोर्टें बताती हैं कि वे अब तक अपने ही देश के 20 हजार से ज्यादा नागरिकों की हत्या कर चुके हैं। उनके हत्यारे अभियानों के चलते 35 लाख से ज्यादा यूक्रेनी देश छोड़ने को मजबूर हुए हैं। उनके सारे कुकर्म साम्राज्यवादी मीडिया उनके पक्ष में लगातार किये जाने वाले धुआँधार प्रचार से ढक देता है। बदले में नव–नाजी पश्चिमी साम्राज्यवादियों के हर आदेश को हिटलरी आदेश की तरह सर्वोपरि मानकर पूरा करते हैं।

नव–नाजियों का सबसे जबरदस्त विरोध दोनबास और क्रीमिया में हुआ था। निश्चय ही रूस यहाँ उनके विरोधियों की हर सम्भव मदद करता रहा है। क्रीमिया तो पहले ही रूस में शामिल होकर नव–नाजियों के कहर से बच गया लेकिन दोनबास में अभी तक उनका कहर जारी है। इस क्षेत्र में शान्ति बहाली के लिए फ्रांस, जर्मनी, रूस और यूक्रेन के बीच 2015 में मिंस्क समझौता हुआ था। जिसे बाद में संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद ने भी मंजूरी दी थी। ऑगेनाइजेशन फॉर सिक्योरिटी (ओएसईसी) का गठन हुआ था। इसकी जिम्मेदारी समझौते के तहत हुए युद्ध विराम पर नजर रखने की थी। ओएसईसी का कहना है कि यूक्रेन ने दोनबास क्षेत्र में कभी भी युद्ध विराम का पालन नहीं किया।

तुरन्त युद्ध विराम के अलावा समझौते में तय हुआ था कि यूक्रेन अपने संविधान में संशोधन करके दोनेश्क और लुहान्स्क को स्वायत्त क्षेत्र घोषित करेगा और वहाँ स्थानीय सरकारें कायम करवायेगा। यूक्रेन ने आज तक इस शर्त को पूरा नहीं किया। 2019 में मौजूदा राष्ट्रपति जेलेन्सकी ने इसके लिए संसद में प्रस्ताव लाने की कोशिश की तो अमरीकी आदेश पर नव–नाजी तुरन्त सड़कों पर उतर आये और जेलेन्सकी पर रूस समर्थक होने का आरोप लगाया। उन्होंने खुलेआम धमकी दी कि उसका भी वही हश्र होगा जो यान्कोविच का हुआ था। समझौते में शामिल फ्रांस और जर्मनी ने कभी भी यूक्रेन पर समझौता लागू करने का दबाब नहीं बनाया और लगातार नव–नाजियों की मदद करते रहे।

यूक्रेन की सत्ता पर नव–नाजियों को काबिज करवाकर साम्राज्यवादियों ने युद्ध को अनिवार्य बनाया है। वे मास्को की दहलीज पर नाभिकीय हथियारों से लैस और जबरदस्त युद्धक क्षमता वाले नव–नाजीवादी यूक्रेन को बैठाना चाहते हंै। इससे उन्हें दुहरा लाभ है–– वे रूस को लम्बे समय तक उलझाकर रख सकते हैंय दूसरे, वे यूक्रेन का इस्तेमाल पश्चिमी यूरोप की सुरक्षा दीवार के रूप में कर सकते हंै। इसके चलते यूक्रेन तबाह हो जाये इसकी उन्हें कोई परवाह नहीं।

पश्चिमी साम्राज्यवादी युद्ध को लम्बा खींचना चाहते हैं

युद्ध के बिना साम्राज्यवाद की कल्पना करना मुश्किल है। दूसरे विश्वयुद्ध के बाद कोई ऐसा दिन नहीं गया जब साम्राज्यवादी कहीं युद्ध में लिप्त न रहे हों। अमरीका, ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी और जापान, तमाम पश्चिमी साम्राज्यवादी देशों की अर्थव्यवस्थाएँ गम्भीर संकट की गिरफ्त में हंै। वे जानते हैं कि यूक्रेन इस युद्ध को नहीं जीत सकता, लेकिन उसे हथियार और आर्थिक मदद देकर और दूसरी तरफ रूस पर प्रतिबन्ध लगाकर युद्ध को लम्बा खिंचवाया जा सकता है। हिलेरी क्लिंटन ने सार्वजनिक रूप से कहा है कि अमरीका यूक्रेन को रूस का अफगानिस्तान बनाना चाहता है।

 इस युद्ध में पश्चिम साम्राज्यवादी कई तरह के युद्धेतर फायदे भी देख रहे हैं। युद्ध से उनके हथियार उद्योग और मीडिया उद्योग में जबरदस्त तेजी आयेगी, जो अर्थव्यवस्था के दूसरे क्षेत्रों में भी कुछ प्राण फूँकेगी। कोरोना के बाद और भी गहरे संकट में फँस चुकी उनकी अर्थव्यवस्था को कुछ राहत मिलेगी।

कोरोना के बाद अमरीका और यूरोप में सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली और शिक्षा प्रणाली में सरकारी निवेश की माँग बढ़ी है। जनता को मिलने वाली सहूलियतों पर खर्च बढ़ाने के लिए लगभग हर साम्राज्यवादी देश में जन प्रर्दशन हो चुके हैं। फ्रांस और जर्मनी में जबरदस्त किसान आन्दोलन हुए हंै। कोरोना के नाम पर जनता के उत्पीड़न के खिलाफ कनाडा के ट्रक डाइवरों के आन्दोलन के चलते राष्ट्रपति को अपना महल छोड़कर भागना पड़ा। यह आन्दोलन यूरोप में भी फैलना शुरू हो गया था। यूक्रेन युद्ध और इसके धुआँधार वैश्विक प्रचार ने जनता का ध्यान भटकाने में मदद की और साम्राज्यवादी शासकों को इन संकटों से कुछ समय के लिए बचा लिया है, युद्ध जितना लम्बा खिंचे, साम्राज्यवादियों के लिए उतना ही बेहतर है।

रूस–यूक्रेन युद्ध परोक्ष रूप में नाटो और रूस–चीन के नेतृत्व में तैयार हो रहे नाटो विरोधी खेमे के बीच का युद्ध है। यह दुनिया में पिछले सालों में हुए बड़े आर्थिक संकटों, कूटनीतिक प्रयासों और भू–राजनीतिक बदलावों का परिणाम है और निश्चय ही बड़े बदलावों का जन्मदाता भी बनेगा। 1990 के दशक में ‘‘अमरीकी शताब्दी’’ का जो ढोल पीटा गया था, वह फट चुका है। इतिहास के अन्त की घोषणाएँ बकवास साबित हुई हैं। सैमुएल पी– हटिंगटन की किताब ‘क्लैश ऑफ सिविलाइजेशन’ का यह सिद्धान्त–– ‘सांस्कृतिक और धार्मिक पहचान ही युद्धों का कारण है’, दो कौड़ी का भी नहीं रहा। इतिहास ने फिर इस बात को सतह पर ला दिया कि युद्ध के पीछे आर्थिक–राजनीतिक कारकों की प्रमुख भूमिका होती है। पश्चिमी साम्राज्यवादी देश अपनी लूट और एकध्रुवीय विश्व व्यवस्था को बदस्तूर जारी रखना चाहते हैं। रूस और चीन का गँठजोड़ दुनिया की लूट में पहले से ज्यादा बड़ा हिस्सा चाहता है और अपने लिए एक अलग ध्रुव का निर्माण कर रहा है।

पश्चिमी साम्राज्यवादियों का जोर कभी दक्षिणी चीन सागर में चीन को घेरने पर होता है तो कभी काला सागर और पूर्वी यूरोप में रूस को घेरने पर।

आज अमरीका और यूरोपीय देशों का मीडिया एशियाई और अफ्रीकी नस्लों के प्रति नफरत और यूक्रेनी नव–नाजियों की प्रशंसा से भरा पड़ा है। वे यूक्रेनियों के जीवन की कीमत पर रूस की अर्थव्यवस्था को डुबाना चाहते हैं। रूस पर हर तरह के प्रतिबन्ध  लगाकर और यूक्रेनी नव–नाजियों को ज्यादा से ज्यादा हथियार और डॉलर देकर वे यूक्रेनियों के लहू से रूस के लिए एक ऐसी दलदल तैयार करना चाहते हैं जिससे रूस कभी निकल न सके। यह अमरीका की जानी–पहचानी नीति है। वह बहुत से देशों को इसका शिकार बना चुका है। अफगानिस्तान में रूस के खिलाफ मुजाहिद्दीनों को तैयार करते हुए भी उसने यही चाल चली थी, जब तत्कालीन अमरीकी विदेश मंत्री ब्रिजेन्सकी ने खैबर पख्तूनवा में एक हाथ में कुरान और दूसरे में एके–47 लेकर कहा था कि अफगानिस्तान को काफिरों से मुक्त कर दो। आज वे यूक्रेन में यही बात नव–नाजियों से कह रहे हंै।

अपनी वैश्विक लूट को जारी रखने के लिए पश्चिमी साम्राज्यवादियों ने दुनिया के कई हिस्सों में युद्ध का जो दलदल तैयार कर रखा है, वह पूरी दुनिया की मेहनतकश जनता की गाढ़ी कमाई, उसके अधिकार और जीवन को खाये जा रही है। युद्ध मानवता के खिलाफ अपराध है। जब तक दुनिया में साम्राज्यवादी रहेंगे वे चाहे अमरीकी हो या रूसी, तब तक युद्ध जारी रहेगा। साम्राज्यवाद से मुक्त दुनिया ही युद्ध से मुक्त दुनिया हो सकती है।