2013 में सर्वोच्च न्यायालय ने केन्द्रीय अन्वेषण ब्यूरो (सीबीआई) को ‘पिंजरे का तोता’ कहा था। पिछले दिनों सीबीआई निदेशक आलोक वर्मा और विशेष निदेशक राकेश अस्थाना के बीच चले विवाद और वर्मा की सीबीआई से विदाई के दौरान जो तथ्य सामने आय हैं, उनसे पता चलता है कि सर्वोच्च न्यायालय की टिप्पणी बेहद अधूरी और पुरानी है। सरकार और सीबीआई के बीच के रिश्ते को परिभाषित करने के लिए सर्वोच्च न्यायालय के साथ–साथ हमें भी कोई नया शब्द तलाशना पड़ेगा।

सीबीआई के दो सर्वोच्च अधिकारियों के बीच के इस विवाद में सर्वोच्च न्यायालय ने राकेश अस्थाना द्वारा आलोक वर्मा पर लगाये गये रिश्वतखोरी के आरोप और इस बारे में केन्द्रीय सतर्कता आयोग की रिपोर्ट को तथा निजी, सार्वजनिक परिवाद और पेंशन मंत्रालय द्वारा आलोक वर्मा की शक्तियाँ वापस ले लेने के आदेश को आधारहीन मानते हुए 8 जनवरी को आलोक वर्मा की सीबीआई निदेशक के पद पर बहाली का आदेश दिया था। साथ ही उन्हें हाई पावर्ड कमेटी (एचपीसी) से, वर्मा के उत्तराधिकारी के चुनाव का फैसला आने तक कोई भी नीतिगत फैसला नहीं लेने की हिदायत भी दी गयी थी।

एचपीसी प्रधानमंत्री, मुख्य न्यायाधीश और विपक्ष के नेता को मिलाकर बनायी गयी कमेटी होती है, जो सीबीआई निदेशक की सेवाओं से जुड़े फैसले लेती है। मुख्य न्यायाधीश ने हितों के सम्भावित टकराव से बचने के लिए अपने स्थान पर न्यायाधीश एके सीकरी को कमेटी में भेजा था। 10 जनवरी को एचपीसी ने आलोक वर्मा की भूमिका को सन्दिग्ध मानते हुए उन्हें सीबीआई निदेशक पद से हटाकर अग्निशमन सेवाएँ, नागरिक सुरक्षा और गृह रक्षक (होम गार्ड) का महानिदेशक नियुक्त कर दिया। इस फैसले पर कमेटी के तीनों सदस्य एकमत नहीं थे और विपक्ष के नेता मल्लिकार्जुन खड़गे ने इस फैसले के विरोध में राय दी। गौरतलब है कि आलोक वर्मा का कार्यकाल केवल 77 दिन ही बचा था। इस फैसले के बाद आलोक वर्मा ने ‘तुमने गली कही, हम दुनिया छोड़ जाते हैं’ की तर्ज पर स्वैच्छिक सेवा निवृत्ति ले ली। उन्होंने सही फैसला लिया। वे कोई जन नेता नहीं थे, बल्कि व्यवस्था की मशीन का एक पुर्जा ही थे। इससे ज्यादा लड़ाई लड़ना उनके लिए सम्भव नहीं था। सीबीआई में उनकी आमद और जबरिया रुख्सत की कुछ खास घटनाओं ने सीबीआई, संसदीय लोकतंत्र की सड़ाँध और उसके अंगों के बीच की दूरभिसन्धियों का एक और उदाहरण उजागर कर दिया है।

1 दिसम्बर 2016 को सीबीआई के तत्कालीन निदेशक अनिल सिन्हा को सेवानिवृत्त होना था। माना जा रहा था कि परम्परागत रूप से उनका स्थान सीबीआई के विशेष निदेशक आर के दत्ता लेंगे, लेकिन उन्हें ठीक दो दिन पहले 30 नवम्बर को गृह मंत्रालय में स्थानान्तरित कर दिया गया। उनकी जगह उनके जूनियर, राकेश अस्थाना को अन्तरिम निदेशक बनाया गया। अस्थाना गुजरात कॉडर के आईपीएस अधिकारी थे और तेजी से तरक्की करके उस वक्त सीबीआई में सहायक निदेशक के पद पर तैनात थे। उन्हें प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का ‘ब्लू आइड ब्वाय’ माना जाता है।

अस्थाना की नियुक्ति के खिलाफ वरिष्ठ अधिवक्ता प्रशान्त भूषण ने तभी एक याचिका सर्वोच्च न्यायालय में दाखिल कर दी। 17 दिसम्बर को इस याचिका पर फैसला देते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने सरकार के लिए सीबीआई निदेशक की नियुक्ति से सम्बन्धित दिशा–निर्देश जारी किये। डेढ़ महीने की उहापोह और कसरत के बाद 1 फरवरी को सरकार ने दिल्ली के तत्कालीन पुलिस कमिश्नर आलोक वर्मा को सीबीआई का निदेशक नियुक्त कर दिया।

राकेश अस्थाना की विशेष निदेशक के पद पर तरक्की के बारे में केन्द्रीय सतर्कता आयोग (सीवीसी) द्वारा 21 अक्टूबर 2017 को बुलायी गयी मीटिंग में आलोक वर्मा ने दर्ज कराया कि ‘स्टर्लिंग वायोटेक’ नाम की गुजरात की कम्पनी ने अस्थाना को 3–88 करोड़ रुपये का भुगतान किया है। इसके बावजूद भी सीवीसी ने अनमने ढंग से उनकी तरक्की को मंजूरी दी।

मार्च 2018 तक सीबीआई से जुड़ी कोई बड़ी घटना सतह पर नहीं आयी। 12 मार्च को सर्वोच्च न्यायालय ने एयरसेल मैक्सिम मामले में सीबीआई को 6 महीने के अन्दर जाँच पूरा करने का आदेश दिया। जाँच को बाधित करने के इरादे से 19 मार्च को उपेन्द्र राय नाम के पत्रकार ने प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) के संयुक्त निदेशक रामेश्वर सिंह जो इस मामले की जाँच कर रहे थे, द्वारा इस मामले में भारी रिश्वत लेने से सम्बन्धित एक याचिका सर्वोच्च न्यायालय में दायर की, जिसे न्यायालय ने खारिज कर दिया। बाद में सरकार ने राजेश्वर राय के सम्बन्ध किसी ‘आईएसआई एजेंट’ से होने की भी रिपोर्ट दी।

22 जून 2018 को ई डी के निदेशक कर्नल सिंह ने एक प्रेस कॉन्फ्रेन्स में बताया कि सरकार जिसे आईएसआई एजेंट बता रही है, उसने एक बहुत बड़े बैंक घोटाले के कागजात नागेश्वर राव को सौंपे थे। माना जाता है कि इस घोटाले के तार सरकार के चहेते वित्त एवं राजस्व सचिव हंसमुख अधिया से भी जुड़े थे। इसी दौरान उपेन्द्र राय को किसी व्यापारी से धन ऐंठने के मामले में गिरफ्तार कर लिया गया था। 27 जून को राजेश्वर सिंह ने हंसमुख अधिया के घोटालेबाजों के साथ मिले होने का पत्र राजस्व सचिव को लिखा।

कहा जाता है कि आलोक वर्मा ने इस मामले की जाँच  करने की तैयारी कर ली थी। इसके साथ ही उनके और अस्थाना के बीच टकराव बहुत तेज हो गया। जुलाई 2018 में वर्मा ने अस्थाना के खिलाफ एक और शिकायत सीवीसी भेजी, जिसमें उसके दूसरे बहुत से मामलों में संलिप्त होने और जाँच किये जाने की माँग की गयी थी। वर्मा सरकार के लिए परेशानी बनने लगे थे।

24 अगस्त को अस्थाना ने भी वर्मा के खिलाफ एक शिकायत केबिनेट सचिव के पास भेजी, जिसमें उन्होंने वर्मा पर कई मामलों की जाँच में बाधा डालने और आईआरटीसी मामले में लालू यादव पर रेड करने से रोकने का आरोप लगाया। सचिव ने इस शिकायत को तुरन्त सीवीसी के पास भेज दिया और सीवीसी ने तुरन्त जाँच शुरू कर दी।

15 अक्टूबर को सीबीआई ने अपने ही विशेष निदेशक अस्थाना के खिलाफ मांस व्यापारी मोइन कुरैशी के मामले में उसके सहयोगी हैदराबाद के एक कारोबारी सतीश सना से दो करोड़ रुपये की रिश्वत माँगने और उत्पीड़ित करने की एफआईआर दर्ज की और इस रिश्वत के कथित विचैलिये और आरोपी मनोज प्रसाद को गिरफ्तार कर लिया, जो रॉ के पूर्व निदेशक का बेटा है। इस एफआईआर में सीबीआई के सूचना अधिकारी देवेन्द्र कुमार को भी आरोपी बनाया गया था।

23 अक्टूबर की आधी रात को प्रधानमंत्री ने अपने आवास पर अमित शाह और राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल के साथ आपात बैठक की और आलोक वर्मा तथा राकेश अस्थाना दोनों को जबरन छुट्टी पर भेज दिया और संयुक्त निदेशक नागेश्वर राव को सीबीआई का अन्तरिम निदेशक नियुक्त कर दिया। अस्थाना के खिलाफ रिश्वतखोरी के मामले की जाँच कर रहे सीबीआई के अधिकारी ए के बस्सी का तबादला पोर्ट ब्लेयर कर दिया गया।

आलोक वर्मा ने इस आदेश को सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी और न्यायालय ने 26 अक्टूबर को सीवीसी को दो हफ्ते के अन्दर जाँच पूरी करने का आदेश दिया और कहा कि सर्वोच्च न्यायालय सेवा निवृत्त न्यायाधीश श्री ए के पटनायक सीवीसी की जाँच की निगरानी करेंगे। जस्टिस पटनायक ने आलोक वर्मा के खिलाफ दिये गये सबूतों की जाँच की, जिसमें उन्हें कुछ ‘ठोस’ नहीं लगा और इसी आधार पर सर्वोच्च न्यायालय ने आलोक वर्मा की बहाली का आदेश पारित किया था। एचपीसी ने उन्हें पद से क्यों हटाया और अगर वे भ्रष्ट थे तो उन्हें दूसरे विभाग का महानिदेशक क्यों बनाया गया, इन दोनों सवालों के जवाब आज तक स्पष्ट नहीं हैं।

मोइन कुरैशी क्या बला है?

सीबीआई के दो सर्वोच्च अधिकारियों के बीच सतह पर टकराव की जो तात्कालिक वजह दिखायी देती है, वह एक माँस कारोबारी मोइन अहमद कुरैशी है। दोनों अधिकारियों ने एक दूसरे पर मोइन कुरैशी से रिश्वत लेने के आरोप लगाये हैं। मोइन कुरैशी प्रसिद्ध दून स्कूल और दिल्ली के सेंट स्टीफन कॉलेज का छात्र रह चुका है। उसने अपने कारोबारी जीवन की शुरुआत 1993 में उत्तर प्रदेश के रामपुर में हत्याघर (स्लॉटर हाउस)  लगाकर की थी। जल्दी ही उसने राजनीतिज्ञों और नौकरशाहों के बीच गहरी पैठ बना ली। उसका माँस का कारोबार राकेट की रफ्तार से बढ़ा और 2010 तक वह भारत का सबसे बड़ा माँस निर्यातक बन गया।

भारत में नवउदारवादी नीतियों का दौर शुरू हो चुका था और काले धन  की गंगा–जमुना बह निकली थी। इसी दौरान उसने दुबई, लन्दन समेत यूरोप के प्रमुख देशों, अमरीका और सिंगापुर में हवाला कारोबार का मजबूत नेटवर्क तैयार कर लिया था। राजनेताओं, नौकरशाहों, सटोरियों, अभिनेताओं, खिलाड़ियों, कारोबारियों को अपना काला धन ठिकाने लगाने के लिए मोइन कुरैशी जैसों की सख्त जरूरत थी। माना जाता है कि आज एशिया और यूरोप के दर्जनों देशों में उसकी पहुँच है। लगभग 45 विदेशी बैंकों से उसका सम्बन्ध है। कोयला घोटाले की जाँच के दौरान सामने आया था कि उसने तत्कालीन सीबीआई निदेशक रंजीत सिन्हा से 90 बार मुलाकात की। उनके बाद निदेशक बने एपी सिंह के लिए भी उसने आन्ध्र प्रदेश के एक उद्योगपति से 5 करोड़ झटके थे।

मोइन कुरैशी से किसके सम्बन्ध हो सकते हैं, के बारे में कोई समझ बनाने के लिए राकेश अस्थाना और आलोक वर्मा के अतीत पर भी एक सरसरी निगाह डालनी जरूरी है।

राकेश अस्थाना 1984 के बैच के गुजरात कॉडर के आईपीएस अधिकारी हैं। चर्चा में रहना हमेशा उनका शौक रहा है।  1995 में सीबीआई में बतौर एसपी बन जाने से पहले के अपने छोटे से कार्यकाल में ही वे अहमदाबाद के डीसीपी और पाटन के एसपी का कार्यभार सम्भाल चुके थे। चारा घोटाले में बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव के खिलाफ जाँच करके वे सुर्खरू हुए और भाजपा की निगाहों में चढ़ गये। उस समय लाल कृष्ण आडवाड़ी तथा नीतिश कुमार ने उनकी भूरि–भूरि प्रशंसा की थी।

2002 में गुजरात का मुख्यमंत्री बनने के तुरन्त बाद मोदी अस्थाना को गुजरात वापस ले आये। उन्हें गुजरात के आपराधिक जाँच विभाग का डीआईजी नियुक्त किया गया और तुरन्त ही गोधरा रेल हादसे की जाँच की जिम्मेदारी दे दी गयी। उन्होंने यहाँ भी कमाल कर दिखाया और जाँच को पहले आईएसआई की, फिर सिमी की और बाद में ‘नार्को आतंकवाद’ की साजिश की ओर मोड़ दिया, जो पहले स्थानीय वेंडरों और कारसेवकों के बीच झगड़े के परिणाम के कोण से की जा रही थी। उनकी जाँच में 94 लोगों को दोषी ठहराया गया था, जिसमें से 63 को 2011 में बरी कर दिया गया। बरी होने वालों में ‘मुख्य साजिशकर्ता’ मौलाना उमर भी था।

गुजरात के प्रमुख व्यावसायिक शहर बड़ोदरा में अस्थाना ने आठ साल गुजारे, जिनमें तीन साल वह वहाँ के पुलिस कमिश्नर रहे। यहाँ उनकी नजदीकी संदेसरा बन्धुओं से हुई, जिनकी कम्पनी स्टर्लिंग बायोटेक पर बैंकों का 5,383 करोड़ रुपये का कर्ज है, जिसे बैंकों ने डूब खाते में डाल दिया है। अस्थाना ने अपनी बेटी की शादी बड़ोदरा में ही की, जिसमें आतिथ्य का पूरा खर्च शहर के कारोबारियों ने उठाया। इस मामले की सीबीआई जाँच चल रही है।

2011 में अस्थाना हीरा कारोबार के शहर सूरत के पुलिस प्रमुख बनाये गये। उन्होंने सूरत और बड़ोदरा दोनों शहरो में सीसी टीवी कैमरे लगाने की बड़ी परियोजनाएँ शुरू कीं, जिसका ठेका यातायात शिक्षा ट्रस्ट को दिया गया, जिसे दोनों शहरों के सबसे बड़े कारोबारी चलाते हैं। सूरत को ‘सुरक्षित’ शहर बनाने के लिए वे उद्योगपतियों के संघ फिक्की से पदक भी पा चुके हैं।

सीबीआई और गुजरात के अपने कार्यकाल के दौरान वे नरेन्द्र मोदी और अमित शाह के पसन्दीदा अधिकारी होने का रुतबा पा चुके थे। उन्हें नरेन्द्र मोदी का ‘ब्लू आइड ब्वाय’ कहा जाने लगा था। 2014 में नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्री बनते ही उन्हें वापस सीबीआई में बुला लिया गया।

अस्थाना के ठीक विपरीत आलोक वर्मा की छवि एक शान्त और भ्रष्टाचार विरोधी होने की रही है। 1979 में आईपीएस बनने से लेकर आज तक किसी राजनीतिक पार्टी में अपनी गहरी पकड़ बनाने में वह असफल रहे हैं। उनके बारे में कहा जाता है कि वह अन्तरमुखी हैं, ज्यादा रिश्ते नहीं बनाते, लेकिन भाग्यशाली हैं। खास प्रयास के बिना ही पहले दिल्ली के आयुक्त बने और फिर सीबीआई के निदेशक।

मोईन कुरैशी के अन्दर छिपे रहस्यों और सत्ता के शीर्ष पर बैठे लोगों की अस्थाना से करीबी से भी ज्यादा महत्त्वपूर्ण दूसरे कारण थे, जिनके चलते वर्मा की सीबीआई से विदाई तय थी। कुछेक समाचार माध्यमों का कहना है कि जाँच के लिए वर्मा के पास आये मामलों में कुछ ऐसे थे, जो सरकार के लिए संकट बन सकते थे। वर्मा ने जिस तरह से सरकार की पसन्द–नापसन्द को दरकिनार कर दिया था, उससे सरकार को यह डर लगने लगा था कि कहीं वह कोई परेशानी न खड़ी कर दें। दूसरे, चुनाव सिर पर थे।

केन्द्र सरकार राफेल विमान सौदे के मामले में सबसे ज्यादा डरी हुई थी। दरअसल 4 अक्टूबर को वरिष्ठ भाजपा नेता यशवन्त सिन्हा औरअरुण शौरी तथा वरिष्ठ अधिवक्ता प्रशान्त भूषण ने एक लम्बी–चैड़ी रिपोर्ट आलोक वर्मा को सौंपी थी। इसके बाद वर्मा राफेल विमान सौदे की फाईल मँगाने के लिए चिट्ठी लिख चुके थे। चिट्ठी वापस लेने के लिए वर्मा पर दबाव बनाया गया तो उन्होंने इनकार कर दिया। जिससे इस मामले में सीबीआई द्वारा एफआईआर दर्ज करने की सम्भावना बन गयी।

दूसरा मामला मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया का है। इस मामले में पहले से ही जाँच चल रही थी। इसमें उड़ीसा हाई कोर्ट के सेवानिवृत्त न्यायाधीश आईएम कुदुसी समेत न्यायतंत्र के कई बड़े लोगों का नाम सामने आ चुका था। कुदुसी के खिलाफ चार्जशीट तैयार थी। उस पर केवल वर्मा के दस्तखत होने बाकी थे। इसी से मिलते–जुलते एक दूसरे मामले में मेडिकल सीटों पर दाखिले में भ्रष्टाचार के आरोप के चलते इलाहाबाद उच्च न्यायालय के एक न्यायाधीश को छुट्टी पर भेज दिया गया था। इस मामले में भी शुरुआती जाँच पूरी होने के बाद फाइल दस्तखत के लिए वर्मा के पास गयी हुई थी।

भाजपा नेता सुब्रह्मण्यम स्वामी ने वित्त एवं राजस्व सचिव हंसमुख अधिया के खिलाफ एफआईआर दर्ज कराने के लिए सीबीआई को एक शिकायती पत्र के साथ कुछ दस्तावेज भी सौंपे थे। इस मामले की भी जाँच चल रही थी। वर्मा को पद से हटाने पर नाराजगी जताते हुए उन्होंने कहा था कि अस्थाना एक भ्रष्ट अधिकारी है और इसके सबूत मौजूद हैं।

कोयला खदानों के आवंटन के मामले में सीबीआई प्रधानमंत्री के सचिव भास्कर खुलबे की सन्दिग्ध भूमिका की जाँच कर रही थी, और यह फाइल भी वर्मा के ही पास थी।

एक और महत्त्वपूर्ण मामला चन्दा कोचर और विडियोकोन के वी एन धूत के खिलाफ बैंक फ्राड की जाँच का था। यह जाँच सीबीआई की बीएसएफसी सेल के एस पी सुधांशु धर मिश्रा कर रहे थे, जिन्हें वर्मा के खेमे का अधिकारी माना जाता है। इस जाँच में चन्दा कोचर, उनके पति दीपक कोचर, स्टैंडर्ड एंड चार्टर्ड बैंक के सीईओ जरीन दारूवाला, टाटा कैपिटल के प्रमुख राजीव सब्बरवाल, गोल्डमान शैश इंडिया के चेयरमैन संजय चटर्जी और बैंकिंग क्षेत्र के सूरमा कहे जाने वाले के वी कामथ को आरोपी बनाया गया था। 10 जनवरी को वर्मा की सीबीआइ से विदाई के बाद 22 जनवरी को सुधांशु मिश्रा ने इस मामल में एफआईआर दर्ज करा दी। वित्तमंत्री अरुण जेटली सीबीआई की इस कार्रवाई से बहुत नाराज थे और उन्होंने सीबीआई को हड़काते हुए आरोपियों के पक्ष में एक ब्लॉग लिखा। तीन दिन बाद ही 25 जनवरी को सुधांशु मिश्रा का तबादला राँची कर दिया गया।

एक साथ गुँथी हुई इन तमाम घटनाओं से स्पष्ट है कि संसदीय लोकतंत्र की तमाम संस्थाओं को इस तरह ढाला जा रहा है कि वे केवल कुछ चुनिन्दा लोगों के फायदे की गारन्टी करें। इनके रास्ते में आने वाली हर बाधा को दूर करें। सत्ता के शीर्ष पर बैठे लोगों की सीबीआई से भी यही अपेक्षा थी। सीबीआई ऐसा ही कर भी रही थी, लेकिन जब पानी सर से गुजर गया और सीबीआई को भाजपा की जाँच विंग की तरह चलाया जाने लगा तो यह स्थिति आलोक वर्मा के लिए असहनीय हो गयी।

सत्ताधारी पार्टियाँ सीबीआई का इस्तेमाल पहले भी करती थीं और सीबीआई में भ्रष्टाचार पहले भी होता था लेकिन अब इनमें गुणात्मक बदलाव आ गया है। सीबीआई का मुख्य काम सार्वजनिक और सरकारी क्षेत्र के उपक्रमों में भ्रष्टाचार की जाँच करना था। निजीकरण, उदारीकरण और वैश्वीकरण का दौर सार्वजनिक सम्पत्ति की लूट का सैलाब लेकर आया था। यह लूट तमाम सरकारी संस्थाओं, विभागों, जाँच एजेंसियों और न्यायतंत्र के बीच सामंजस्य बिठाये बिना असम्भव थी। आज निजीकरण के दौर की लूट अपने चरम पर पहुँच चुकी है। अपने ही बनाये कायदे–कानून इस लूट के रास्ते की बाधा बनने लगे हैं। यह दरबारी रूप ले चुका है। लूट में हिस्सा तय करवाने वाले नियम बेकार साबित हो चुके हैं। अब सामंजस्य की नहीं बल्कि हर चीज को कुछ लोगों को डंडे से हाँके जाने की जरूरत पड़ रही है। अब सीबीआई केवल तोता बनी नहीं रह सकती है, उसे सत्ता के शीर्ष पर बैठे लोेगों के आदेश का हर तरह से चुपचाप पालन करना है। आलोक वर्मा इस नये बदलाव के अनुरूप खुद को नहीं बदल पाये। उन्हें इसी की सजा मिली।