सीरिया में युद्ध अभी पूरी तरह खत्म भी नहीं हुआ और एक नये युद्ध की तलाश में अमरीकी जंगी बेड़ा फारस की खाड़ी में लंगर डाल चुका है। इस बार निशाने पर ईरान है। वेनेजुएला में तख्तापलट और बर्बादी की पटकथा लिखकर अमरीका एक नये युद्ध के हालात तैयार करके ईरान के दरवाजे पर पहुँच तो गया है लेकिन अमरीका का यह पुराना “दुश्मन” उस पर इक्कीस पड़ता नजर आ रहा है।

ईरान पर हमले के लिए बहाने और माहौल तैयार किये जा चुके हैं। अमरीका ने उस पर होमरूज जल डमरू में तेल के दो टैंकरों पर हमला करने और अन्तरराष्ट्रीय क्षेत्र में अमरीका के जासूसी विमान को मार गिराने के ताजा आरोप लगाये हैं। हालाँकि अरब क्षेत्र के अपने दो खास पिट्ठुओं, सऊदी अरब और इजराइल की तुरन्त हमला करने की गुजारिशों के बावजूद अमरीका हिचकिचा रहा है और युद्ध के परिणामों को लेकर भयभीत है।

अमरीकी सत्ता के शीर्षस्थ राजनीतिज्ञों ने ईरान पर हमला करने के पहले बहाने के रूप में दावा किया कि ईरान ने 13 जून को खाड़ी में दो तेल टैंकरों पर हमला किया है। इनमें से एक टैंकर जापान का था। यह महज इत्तफाक नहीं कि उसी दिन जापानी प्रधानमंत्री तेहरान में अयातुल्ला खमैनी से मुलाकात कर रहे थे। जापान ईरान के सबसे बड़े तेल ग्राहकों में से एक है। ऐसी संकट की घड़ी में जब अमरीकी प्रतिबन्धों के चलते ईरान को एक–एक बूँद तेल बेचना भारी पड़ रहा है वह जापान से बैर मोल क्यों लेगा। हद तो यह है कि अमरीका जापानी तेल टैंकर पर हमले का शोर मचाता रहा, जबकि जापान ने ईरान से कोई नाराजगी जाहिर नहीं की।

दूसरा तेल टैंकर नार्वे के सबसे धनी आदमी जॉन फ्रेड्रिकसन की कम्पनी “फ्रंटलाइन” का था। ईरान–इराक के बीच आठ साल युद्ध के दौरान–– जिसमें अमरीका इराक के साथ खड़ा था–– फ्रंटलाइन का ईरान के साथ तेल व्यापार जारी रहा और ईरानी सेना ने उसके तेल टैंकरों को सुरक्षा मुहैया करवायी। बाद में ईरान पर प्रतिबन्धों के हर दौर में फ्रंटलाइन ने ईरान से तेल खरीदना जारी रखा। जॉन फ्रेड्रिकसन यूरोप में “खमैनी का चहेता” के नाम से मशहूर है। आज, जब अमरीका ने ईरान पर इतने कठोर प्रतिबन्ध लगा रखे हैं कि फ्रांस, ब्रिटेन, जर्मनी, जापान जैसे देशों ने ईरान से तेल खरीद लगभग बन्द कर दी है, तब भी फ्रंटलाइन ईरान से डंके की चोट पर तेल खरीद रही है और जॉन फ्रेड्रिकसन का नया नामकरण “खमैनी की जीवन रेखा” किया गया है। फ्रंटलाइन ने भी आज तक ईरान से कोई विरोध जाहिर नहीं किया है। तेल टैंकरों पर ईरान के हमले की झूठी खबरों की प्रतिक्रिया में ब्रिटेन के राजदूत ने अमरीकी जनता से कहा है कि “आपको किस हद तक मूर्ख बनाया जा सकता है, मैं इसकी थाह नहीं पा सकता।”

20 जून को ईरान ने अमरीका के सबसे उन्नत तकनीक वाले जासूसी ड्रोन विमान ग्लोबल हवाक को मार गिराया था जिसने ईरानी हवाई सीमा का उल्लंघन किया था। इस विमान के बारे में अमरीका दावा करता था कि यह रडार की पकड़ में नहीं आता। हवाई सीमा के उल्लंघन के सारे सबूत ईरानी विदेश मंत्री जावेद जरीफ दुनिया के सामने रख चुके हैं।

ईरानी विदेश मंत्री ने एक अमरीकी पी–8 विमान द्वारा भी सीमा उल्लंघन के सबूत दिये हैं, उनका कहना है कि इस विमान में 35 लोग सवार थे, इसलिए हमने इसे नहीं गिराया। इसके साथ ही उन्होंने जुलाई 1988 की उस घटना की भी याद दिलायी जिसमें अमरीकी सेना ने ईरानी क्षेत्र में ही उसके एक यात्री विमान को मार गिराया था जिसमें 66 बच्चों समेत 290 लोग मारे गये थे और अमरीकी राष्ट्रपति जार्ज वुश ने घटना की सच्चाई को स्वीकार करते हुए भी माफी माँगने से इनकार कर दिया था।

विमान गिरने की घटना का इस्तेमाल अमरीका ईरान को बदनाम करने, उस पर दबाव बनाने और युद्ध के बहाने के रूप में कर रहा है। अमरीका का कहना है कि उसका विमान अन्तरराष्ट्रीय सीमा में था। इस घटना के बाद ट्रम्प ने बयान दिया था कि बदले की कार्रवाई के रूप में उन्होंने अमरीकी सेना को ईरान पर जबरदस्त हमला करने के आदेश दे दिये थे लेकिन हमले में 150 आम नागरिकों के मारे जाने की सम्भावना थी इसलिए ऐन वक्त पर उसने हमला करने के आदेश रद्द कर दिये।

इस “इंसाफ पसन्द” राष्ट्रपति की नीतियाँ सीरिया, अफगानिस्तान, वेनेजुएला और खुद अमरीका समेत सारी दुनिया की जनता पर कितना कहर ढाह चुकी हैं यह सारी दुनिया जानती है। यह कितना हास्यस्पद है कि जिस आदमी ने ईरान समेत 5 देशों के साथ हुए समझौते को एक तरफा तोड़ने, आर्थिक प्रतिबन्ध लगाकर ईरान की अर्थव्यवस्था को तबाह करने, उसके दरवाजे पर जंगी बेड़ा ले जाकर खड़ा कर देने जैसे अनेकों अमानुषिक कुकर्म किये हैं वह ईरानी नागरिकों से इतनी हमदर्दी रखता है।

ईरानी नागरिकों के प्रति हमदर्दी का ढोंग करने वाले ट्रम्प ने जब से ईरान पर प्रतिबन्ध लगाये हैं उसकी अर्थव्यवस्था लगभग चैपट हो गयी है। उसकी आय के मुख्य श्रोत, कच्चे तेल का निर्यात 25 लाख बैरल प्रतिदिन से घटकर 3 लाख बैरल प्रतिदिन पर आ गया है। इस दौरान ईरानी मुद्रा, रियाल का चार गुना अवमूल्यन हो चुका है। महँगाई की दर 40 प्रतिशत तक पहुँच गयी है। बेरोजगारी दर बढ़कर 15 प्रतिशत हो गयी है। यूरोप और अमरीका को निर्यात होने वाले ईरानी कालीन का ही व्यापार ठप्प हो जाने से लाखों लोगों की जीविका उजड़ गयी है। दवाईयों, चिकित्सा उपकरणों का आयात ठप्प हो जाने के चलते लाखों मरीजों की जान जाने का खतरा पैदा हो गया है।     

अपने देश के गिनती के अरबपतियों के मुनाफे के लिए किसी राष्ट्र को तबाह कर देने की साजिश रचने वाले गिरोह का मुखिया अगर 150 आम लोगों के प्रति इतनी चिन्ता दिखाता है तो इसका कोई खास मतलब है। दरअसल अमरीका ईरान से युद्ध करना ही नहीं चाहता। एक तो हालात अमरीका के विपरीत हैं। दूसरे, ट्रम्प अमरीका द्वारा पूरी दुनिया में चलाये जा रहे युद्धों का दिखावटी विरोध करके ही सत्ता में आया था और चुनाव अब फिर से सिर पर है। इसे अमरीकी जनता को भी साधना है और अमरीकी तेल कम्पनियों और हथियार कम्पनियों के मुनाफे का भी ध्यान रखना है।

मध्य–पूर्व में डेढ़ साल से चल रहे इस तनाव से सऊदी अरब, कतर जैसे देशों को हुई बिक्री से हथियार कम्पनियों का मुनाफा पहले ही संतोषजनक स्थिति में पहुँच गया है और तनाव बढ़ने के साथ–साथ उसके और बढ़ने की सम्भावना है। जहाँ तक तेल कम्पनियों के मुनाफे का मामला है तो उसके लिए ईरान के साथ नया समझौता करने की जरूरत है। पुराने समझौते को अमरीका द्वारा एकतरफा तोड़ देने का प्रमुख कारण भी यही था। उस समझौते से ईरान के नाभकीय कार्यक्रम पर तो रोक लग गयी थी लेकिन तेल निर्यात और उसके भुगतान के लिए मुद्रा और तरीके के चुनाव में ईरान काफी हद तक आजाद था। जिसके चलते इस समझौते से अमरीकी तेल कम्पनियों को कोई खास फायदा नहीं मिला था। पुराने समझौते को तोड़ देने के बाद अब अमरीका चाहता है कि ईरान के साथ नया समझौता हो जिसमें ईरान को तेल के मामले में मिली आजादी में कटौती की जाये। ईरान पर अमरीकी दबाव जितना ज्यादा होगा, आजादी में कटौती भी उतनी ज्यादा होगी।

अमरीका को लगता था कि ईरान पहले झटके में ही झुक जाएगा। लेकिन एक साल तक प्रतिबन्ध झेलने के बाद भी न ईरान झुका और न ही अमरीका अपने कूटनीतिक प्रयासों से दूसरे देशों को ईरान पर दबाव बढ़ाने के लिए मना पाया। अब बदहवासी में वह रोज ईरान पर नये–नये प्रतिबन्ध थोप रहा है। प्रतिबन्धों से काम नहीं चला तो अपना जंगी बेड़ा ले जाकर ईरान को दरवाजे से सटा दिया है लेकिन अब भी उसकी पहली चाहत यही है कि बिना युद्ध किये ही या तो ईरान झुक जाये या फिर फिर आर्थिक बदहाली से परेशान होकर वहाँ की आम जनता बगावत पर उतारू हो जाये। ऐसी स्थिति में अमरीका मौजूदा सत्ता के विरोधियों की मदद करके ईरान में अपने मनमाफिक सरकार बनवा सके। इन दोनों रास्तों के बन्द हो जाने पर ही वह युद्ध की सोचेगा।

अमरीका के ईरान पर हमला करने में दुनिया की मौजूदा स्थिति भी एक बड़ी बाधा है। 2015 में ईरान के साथ हुए समझौते में फ्रांस, ब्रिटेन, जर्मनी, रूस और चीन भी पक्ष थे। ईरान के साथ व्यापार में इन सभी देशों का फायदा था। ईरान, समझौते में शामिल यूरोपीय देशों को संवर्धित यूरेनियम की आपूर्ति करता है। उसने समझौते के टूटने की स्थिति यूरेनियम की आपूर्ति रोक देने और यूरेनियम का संवर्धन नाभिकीय हथियार बनाने के स्तर तक पहुँचाने की बात कहकर यूरोपीय देशों के ऊपर नयी शर्तों पर समझौता करने का दबाव बनाया है। इस दबाव में अब ये देश ईरान के साथ व्यापार बहाल करने के दूसरे तरीके खोज रहे हैं।

यूरोपीय देशों के अलावा ईरान से भारी मात्रा में तेल आयात करने वाले भारत, तुर्की, दक्षिण कोरिया और जापान जैसे देश भी चाहते हैं कि ईरानी तेल अमरीकी प्रभाव से मुक्त हो क्योंकि ईरान का तेल दुनिया में सबसे सस्ता पड़ता है। पिछले सालों में ईरान ने अपने पड़ोसी देशों से सम्बन्ध बेहतर किये हैं। आज इराक और पाकिस्तान जैसे उसके पुराने विरोधी राष्ट्र भी उसके साथ खड़े हैं।

मार्च 2019 में हसन रुहानी इराक की यात्रा कर चुके हैं। इराकी राष्ट्रपति बरहम सालीह ईरान के पक्ष में खुलकर बयान दिया है। इस्लामिक देशों के संगठन ओआईसी, अरब लीग और जीसीसी की बैठकों में सऊदी अरब ने जब भी ईरान के खिलाफ और अमरीका के पक्ष में बात रखी, तभी उसका कड़ा विरोध हुआ है।

ईरान की भौगोलिक स्थिति भी उस पर अमरीकी हमले के रास्ते की बड़ी बाधा है। लगभग सभी तेल उत्पादक अरब राष्ट्रों को अरब सागर से जोड़ने वाली फारस की खाड़ी बेहद संकरी है। इस संकरे रास्ते से होकर रोजाना लगभग 10 करोड़ बैरल तेल पूरी दुनिया में जाता है जो 80 लाख करोड़ डॉलर की कुल वैश्विक जीडीपी का 45 प्रतिशत है। अगर यह रास्ता कुछ दिनों के लिए भी बन्द हो गया तो पूरी विश्व अर्थव्यवस्था चरमरा जाएगी। गोल्ड मैन शैक्स का अनुमान है कि ईरान पर अमरीकी हमले से तेल की कीमतों में 10 गुना तक का उछाल आ सकता है जिससे खुद अमरीका तबाह हो सकता है। सीरिया, लीबिया, इराक की तुलना में ईरान बेहद ताकतवर देश है, अमरीका उसे आसानी से नहीं हरा सकता। अगर युद्ध लम्बा खिंचा तो वैश्विक अर्थव्यवस्था की तबाही तय है और अमरीका यह कभी नहीं चाहेगा।       

परिस्थितियों की जटिलता ने अमरीकी कूटनीतिज्ञों और खासकर ट्रम्प की हालत बेहद मजाकिया बना दी है। उनके बयान और दाबे बचकानेपन की तमाम सीमाओं को लाँघ गये हैं। ट्रम्प के बयानों की हालत तो यह है कि लगता है कि झगड़ा अमरीका बनाम ईरान न होकर ट्रम्प बनाम ट्रम्प है। यह अमरीकी राजनीति के दिवालियेपन का चरम है।

मई 2018 से अब तक अगर इस मामले पर ट्रम्प के बयानों और ट्वीट को एक साथ रखकर देखें तो ट्रम्प का दोगला चरित्र स्पष्ट हो जाता है। उसने ईरान और समझौते के बाकी सदस्य देशों के साथ कोई बातचीत, कोई कूटनीतिक प्रयास किये बिना, एकतरफा ढंग से यह कहकर समझौता तोड़ दिया था कि यह अमरीका के हित में नहीं है। अब वह किसी दिन समझौते की बात करता है और कभी नये प्रतिबन्धों की। कभी वह ईरान को तबाह कर देने की धमकी देता है और किसी दिन अमरीकी सेना को हमला करने से रोक देने की बात कहकर मानवतावादी चोला ओढ़ने की कोशिश करता है। वह हवाई हमले के आदेश को तो मंसूख कर देता है लेकिन साइबर हमले और आर्थिक हमले को मंजूर कर लेता है जिसने लाखों ईरानियों का जीवन नरक कर दिया है।

अमरीका एक बार फिर से अपना जंगी बेड़ा लेकर खाड़ी में घुस तो आया है लेकिन उसका इज्जत बचाकर वापस निकलना मुश्किल है। इराक युद्ध की तुलना में परिस्थितियाँ बहुत ज्यादा जटिल हैं। दूसरी तरफ सीरिया, वेनेजुएला, उत्तरी कोरिया—इन तीनों ही मामले में अन्तत: अमरीका को पीछे हटना पड़ा है। ज्यादा सम्भावना यही है कि ईरान से भी ज्यादा कुछ हासिल किये बिना ही उसे लौटना पड़े। यह सही है कि अमरीका, ईरान के अलावा समझौते में शामिल पाँच ताकतवर देशों ने अमरीका का खुलकर विरोध नहीं किया है, क्योंकि उनके आर्थिक हित अमरीका के साथ हैं। लेकिन वे पहले खाड़ी युद्ध की तरह अमरीका के साथ भी नहीं खड़े हैं। सभी ईरान के साथ व्यापार के ऐसे वैकल्पिक रास्ते तलाश रहे हैं, जिससे अमरीकी प्रतिबन्ध भी न टूटे और ईरान के साथ पूरा नहीं तो थोड़ा व्यापार चलता रहे। दरअसल पहले खाड़ी युद्ध का दौर वैश्वीकरण के उभार का दौर था, आज उसका गुब्बारा पिचक चुका है। अमरीका, जो सभी देशों की अर्थव्यवस्थाओं की खिड़की, दरवाजे खुलवाने के जोर लगाता था, आज विदेशी मालों पर टैक्स बढ़ा कर खुद अपने दरवाजे बन्द कर रहा है।  यही काम कम या ज्यादा पैमाने पर सभी बड़े देश कर रहे हैं। सबकी अर्थव्यवस्था ठप्प पड़ी है। सबके मुनाफे और बाजार सिकुड़ रहे हैं, इसलिए सबको तात्कालिक राहत की जरूरत है। अमरीका का ईरान पर हमला इस समस्या को और बढ़ा देगा।

वैश्वीकृत विश्व के अलम्बरदारों के बीच दरारें तो स्पष्ट दिखायी दे रही हैं लेकिन कमजोर देशों की आर्थिक गुलामी पर टिके इस वैश्वीकरण की नीतियों को ठुकराने की हिम्मत किसी में नहीं है। जब तक यह पूँजीवादी वैश्वीकरण रहेगा, तब तक कभी भी युद्ध की सम्भावना से इनकार नहीं किया जा सकता। भगत सिंह के अनुसार कहें तो जब तक व्यक्ति द्वारा व्यक्ति और राष्ट्र द्वारा राष्ट्र के शोषण की व्यवस्था का नाश करके दुनिया का समाजवादी वैश्वीकरण नहीं होगा, तब तक युद्ध की सम्भावना हमेशा बनी रहेगी।