30 मई को राजापुर के गाँधी मैदान में 17 गाँवों के 1500 से ज्यादा लोगों ने रत्नागिरी रिफाइनरी परियोजना के खिलाफ विरोध प्रदर्शन किया। इनकी माँग थी कि इस परियोजना को पूरी तरह बन्द किया जाये। रत्नागिरी रिफाइनरी सहपेट्रोकैमिकल नाम की यह परियोजना रत्नागिरी जिले के नाणार गाँव में लगनी है। इसमें आस–पास के 17 गाँवों की जमीन जायेगी। गाँव के बाशिंदों के भारी विरोध के बावजूद सरकार ने जमीन अधिग्रहण शुरू कर दिया था लेकिन कई जगह पुलिस–प्रशासन और ग्रामीणों के बीच खूनी टकराव होने के कारण काम रोक दिया गया। महाराष्ट्र सरकार में शामिल शिव सेना भी इस परियोजना के विरोध में है।

इसे दुनिया की सबसे बड़ी सिंगल लोकेशन रिफाइनरी परियोजना बताया जा रहा है। इसकी क्षमता सालाना 6 करोड़ टन कच्चा तेल साफ करने की होगी। सरकारी अनुमान के अनुसार इसमें 3 लाख करोड़ रुपये की लागत आयेगी और लगभग 5.5  हजार हेक्टेयर (82,500 बीघा) जमीन का अधिग्रहण होगा। यहाँ सरकार की अपनी जमीन केवल 52 हेक्टेयर है।

इस परियोजना को सरकार दुनिया की सबसे बड़ी तेल उत्पादक कम्पनी साउदी आरामको के साझे में लगायेगी। पैट्रोलियम मंत्री धर्मेन्द्र प्रधान का कहना है कि यह परियोजना नया इतिहास रचेगी। इसमें एक लाख लोगों को रोजगार मिलेगा। उनके इस बयान पर परियोजना का विरोध कर रही संघर्ष समिति के लोगों का कहना है कि प्रधान जी यह इतिहास क्या जैसलमेर और बाड़मेर के रेगिस्तान में नहीं रच सकते, जहाँ हजारों हेक्टेयर जमीन वीरान पड़ी है। अपनी इतिहास रचने की सनक को वे दुनिया के इस सबसे ज्यादा जैव–विविधता वाले और हरे–भरे इलाके को उजाड़कर ही क्यों पूरा करना चाहते हैं?

अगर सरकार लोगों को रोजगार उपलब्ध करवाने के प्रति इतनी ज्यादा चिन्तित है तो उसे रिफाइनरी बुंदेलखंड जैसे इलाकों में लगानी चाहिए, जहाँ आबादी का काफी बड़़ा हिस्सा रोजगार की तलाश में पलायन करने को मजबूर है। वहाँ सरकार को यह गारन्टी भी पहले से ही कर देनी चाहिए कि इस परियोजना में मैनेजर से लेकर चैकीदार तक सभी लोग स्थानीय ही होंगे। जाहिर है, ये बयान बहादुर, ऐसा कुछ भी नहीं कर सकते।

वास्तव में जैव–विविधता से सम्पन्न पश्चिमी घाट के कोंकण क्षेत्र का यह इलाका भारत के सबसे धनी किसानों के इलाकों में से एक है। यहाँ का अलफांसों आम और काजू पूरी दुनिया में मशहूर है। यहाँ छोटे किसानों के पास भी 100 से कम आम के पेड़ नहीं हैं। केवल अलफांसों आम से ही साधारण परिवार की आमदनी भी 6 लाख रुपये सलाना से ज्यादा होती है। जिन 17 गाँवों की जमीन परियोजना में ले ली जायेगी, वहाँ पिछले साल किसानों ने रिकार्ड 54 हजार टन आम बेचा था, जिसका बड़ा हिस्सा विदेशों को निर्यात हुआ। इसके अलावा काजू जैसे मेवे से होने वाली आमदनी का भी हम आसानी से अनुमान लगा सकते हैं। परियोजना के ठीक केन्द्र में पड़ने वाला गाँव आम के साथ–साथ धान का रिकार्ड उत्पादन करने के लिए देश भर में मशहूर है। इसके अलावा पश्चिमी घाट का यह बेहद सुन्दर क्षेत्र मछली उत्पादन और पर्यटन के लिए भी मशहूर है। इस इलाके की अहमियत को एक तथ्य से समझा जा सकता है–– महाराष्ट्र के सकल घरेलू उत्पाद में कोंकण का योगदान 41 प्रतिशत है।

कम्पनियों के मुनाफे के लिए सरकार जो तबाही मचाने वाली है, उसकी कल्पना भयावह है। इस परियोजना के लिए 6 लाख से ज्यादा काजू के पेड़ और 14 लाख से ज्यादा आम के पेड़ काटे जायेंगे। बेशकीमती 20 लाख पेड़ों की लाश पर भला कैसा इतिहास रचा जायेगा? इसके साथ ही सबसे शानदार धान पैदा करने वाली 500 एकड़ जमीन भी इस परियोजना की भेंट चढ़ जायेगी। रिफाइनरी से होने वाले जल, जमीन और हवा के प्रदूषण से पूरे इलाके की बेहद नाजुक जैव विविधता नष्ट हो जायेगी। यहाँ के समुद्री तट पर मछुआरों की छोटी–छोटी नावें नहीं बल्कि कच्चे तेल के दैत्याकार टैंकर तैरेंगे। सुन्दर समुद्री तट पर रंग–बिरंगी मछलियाँ और लहरों से खेलते पर्यटक नहीं बल्कि बदबूदार काला कच्चा तेल और रिफाइनरी का कूड़ा फैला होगा। फिर इस वीराने को देखने कोई सैलानी नहीं आयेगा। अपने पुरखों की इस बेहद खूबसूरत जमीन पर मेहनत मशक्कत करके इज्जत की जिन्दगी जी रहे हजारों मछुवारे, छोटे किसान, छोटे व्यापारी, पर्यटन उद्योग में लगे लोग जीविका की तलाश में महानगरों की नारकीय झुग्गी–झोंपड़ियों में कैद हो जायेंगे। संघर्ष समिति के सचिव सत्यजीत चव्हाण का कहना है कि “पिछली सरकार ने हम पर जैतापुर परमाणु संयंत्र थोपा और यह सरकार रिफाइनरी थोप रही हैं। ये सरकारें हमारी कोंकण की प्राकृतिक सम्पदा और सुन्दरता का नाश क्यों करना चाहती हैं?’’ कमाल तो यह है कि गाँव वालों के सपने में भी कहीं रिफाइनरी नहीं थी। कुछ समय पहले दूर–दराज के बाहरी अनजान लोगों ने इन गाँवों में जमीन खरीदनी शुरू कर दी थी। केवल 2017 में नाणार और आस–पास के गाँवों में बाहरी लोगों ने 559 एकड़ जमीन खरीदी। जब सरकार ने जमीन का अधिग्रहण शुरू किया तो इन जमीनों के मालिक तुरन्त ही दो गुने, तीन गुने दामों पर अपनी जमीन बेचने पहुँच गये। इन्हीं की बिक्री के कागज दिखा–दिखाकर सरकार प्रचार कर रही है कि किसान खुशी–खुशी अपनी जमीन सरकार को दे रहे हैं। जबकि स्थानीय लोग किसी भी कीमत पर अपनी जमीन नहीं देना चाहते।

परियोजना का विरोध करने वालों में स्थानीय मछुआरा समुदाय सबसे आगे है। ये लोग भूमिहीन हैं। रिफाइनरी लगने से इनके घर उजड़ जायेंगे। साथ ही आस–पास का समुद्री तट भी प्रदूषित हो जायेगा। ऐसी स्थिति में अपना परम्परागत पेशा छोड़कर दिहाड़ी मजदूर बनने के अलावा इनके पास कोई और रास्ता नहीं बचेगा।

रिफाइनरी लगाकर इस खुशहाल और मनोहारी इलाके को उजाड़ने की सरकार की जिद के पीछे केवल मुनाफे में थोड़ी बढ़ोतरी का लालच है। साउदी अरामको ने सरकार के साथ करार के समय ही स्पष्ट कर दिया था कि रिफाइनरी के लिए कच्चा तेल सऊदी अरब से मँगाना होगा। समुद्री मार्ग से कोंकण का यह इलाका वहाँ से सबसे नजदीक पड़ता है। इससे ढुलाई में बचत होगी। कच्चे तेल को साफ करके दक्षिणी राज्यों में उसकी आपूर्ति जल मार्ग से करना भी सस्ता पड़ेगा। इसके अलावा सरकार के इशारे पर ही रसूखदार लोगों ने इन गाँवों में जमीन खरीदी थीं, उसे इनकी भी चिन्ता है।

संघर्ष समिति के नेतृत्व में स्थानीय लोगों के एकताबद्ध और उग्र आन्दोलन के चलते अभी तो सरकार को अपने कदम पीछे खींचने पड़े हैं लेकिन इसी के साथ ही शिव सेना और राष्ट्रवादी कांगे्रस पार्टी जैसी ताकतें भी “रिफाइनरी किसी कीमत पर नहीं लगने देंगे” जैसे नारे लगाते हुए आन्दोलन में घुस आयी हैं। इनका चरित्र स्पष्ट है। ये आन्दोलन की एकता में फूट डालेंगी और किसी मोड़ पर धोखा दे सकती हैं। आन्दोलन का भविष्य इस बात पर निर्भर है कि जनता की एकता कब तक कायम रहती है और नेतृत्व संघर्ष समिति के हाथ में कब तक रहता है।